कृष्ण की ईश्वरता निदर्शन / बालकृष्ण भट्ट
यों तो गीता के अनुसार जिसमें कोई अद्भुत शक्ति हो वहाँ ईश्वर का कुछ अंश अवश्य मानना पड़ेगा किंतु भगवान् कृष्ण चंद्र में त्रिकालज्ञता और गायबगोई इत्यादि बहुत से ऐसे उत्कृष्ट गुण थे कि जिससे उनको विवश हो ईश्वर मानना ही पड़ता है। श्री रामचंद्र, कृष्ण, भगवान् बुद्ध और ईसा संसार में ये चार व्यक्ति महापुरूष और महा माननीय हो गए हैं जिनके महत्व को स्वीकार न करने में कट्टर से कट्टर मस्तिष्क की जिह्ना भी स्तब्ध हो जाती है जो किसी धर्म का कायल नहीं सब भाँति ला मजहब है वह भी इन चारों महापुरुषों में किसी एक का नाम कर्ण गोचर होने पर अपनी कुटिल दूषित उक्ति को आजादगी के साथ काम में लाने की हिम्मत नहीं करता। इनमें परमोत्कृष्ट सौजन्य शिष्टता और सुचरित्र के आदर्श स्वरूप महाराज श्री रामचंद्र ने जो कुछ हमें कर्तव्य है अपने चारुचरित्रों में करके दिखलाया इसलिए कि कहने से करके दिखलाने में बड़ा अक्षर होता है। एक पत्नीव्रत, पितृभक्ति, पिता की आज्ञा का पालन, भ्रातृस्नेह:, आश्रितजन वत्सलता, मृदुभाषिता, सत्य पर दृढ़ता, आदि उत्तम से उत्तम आचरण जो योगीश्वरों को भी अनेक संयम और चिरकाल के अभ्यास के उपरांत प्राप्त होते हैं सो श्री रामचंद्र में स्वभाव ही से थे। न कविकुल मुकुटमाणिक्य वाल्मीकि ही ने अपनी फुटही जीभ से एक बार मुक्तकंठ हो यह कहा कि रामचंद्र साक्षात् ईश्वर थे किंतु रूक-रूक यथा 'विष्णुना सदृशीवार्ये:' जैसा व्यासदेव ने 'कृष्णस्तु भगवान स्वयम' रटने की धुन बाँध दिया। जो हो पर भगवान् कृष्णचंद्र की ईश्वरता के निदर्शन में सारा भारत विष्णु पुराण और श्रीमद्भागत गवाही दे रहे हैं प्रतिवाद करने वाला पह्मपवुराण ब्रह्मवैवर्त और भागवत को गप्प मान ले तो भी विष्णु पुराण और भारत उनको ईश्वर सिद्ध करने में क्या कम हैं। जब भगवान् श्री कृष्णचंद्र जी ऐसे उपदेष्टा महातार्किक शिष्य अर्जुन की शंकाओं को हटाते-हटाते बहुत आगे बढ़ गए अथवा तर्क की अंतिम सीमा तक पहुँचे तब भगवान् ने पास बैठे अर्जुन से कहा, 'मत्त: परतरं नान्यत् किंचिदस्ति धनंचय' के तुम इस बात को निश्चय जान लो कि इस संसार में ही नहीं वरन् अखिल ब्रह्मांड में मुझ से ऊपर कुछ नहीं है। जो लोग कृष्ण को ईश्वरांश न मान उन्हें केवल योगीश्वर कहते हैं वे टुक इस बात पर ध्यान दें कि योगी जो सदा सत्य की खोज में रहते हैं वे कभी असत्य व्यवहार नहीं कर सकते और करें तो दाम्भिक समझे जाएँगे। यदि श्रीकृष्ण भगवान् ईश्वर का अवतार न हो केवल योगीश्वर रहे तो उनका यह कहना कि मुझे से परे कुछ नहीं है सरासर असत्य व्यवहार हुआ किंतु गीता में कृष्ण भगवान् ने अपना परात्पर होना केवल इस ऊपर के ही वाक्य में नहीं प्रकट किया किंतु स्थान-स्थान पर बार-बार अर्जुन को बोधन कराते गए हैं कि 'मन्मनाभाव', 'योगक्षेमं वहाम्यहम्', 'न श्रोष्यति विनश्यति', मोक्षयिष्यामि माशुच' इत्यादि, इत्यादि अर्थात् हे अर्जुन तुम एकाग्र मन से हमीं को भजो। जो मुझे भजते हैं मैं उनका योगक्षेम करता हूँ। मेरी बात न सुनोगे तो नाश को प्राप्त होगे। तुम कुछ सोच न करो तुम्हारा मोक्ष कर देंगे। ये सब वाक्य बड़े दावे और जोश के साथ कहे गए हैं जिनमें उनकी त्रिकालज्ञता बराबर झलक रही है। बिना कुछ पूँजी पास रहे ऐसे दावे के साथ कौन बोल सकता है। द्रौपदी के चीर हरण समय स्मरण करते ही तत्क्षण द्वारिका से आय द्रौपदी की लाज रखना आदि कितने उदाहरण भगवान् कृष्णचंद्र की गायबगोई के हैं पर यह सब उनके लिए हैं जो सरल चित्त हो विश्वास की भूमि पर चल रहे हैं। कुटिल कठोर अविश्वासी को तो एक बार ईश्वर स्वयं प्रकट हो अपनी लोकातीत महिमा की कोई करामात दिखलावें तब भी वह न मानेगा। बुद्ध और ईसा के संबंध में हम फिर कभी लिखेंगे।