कृष्ण सखी / भाग 17 - 20 / प्रतिभा सक्सेना

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17.

कृष्ण का चक्कर इस बार अपेक्षाकृत विलंब से लगा था.

चिंता की एक लकीर भाइयों की मुद्रा पर स्पष्ट झलक रही थी.

'भीम भैया, अर्जुन अब की बार अपनी भाभी से मिल आये.'

वृकोदर एकदम बोल उठे,' हिडिम्बा से?'

नकुल-सहदेव आगे खिसक आये, 'कब? कहाँ हैं वे सब, कैसे हैं?'

पांडवों का सबसे बड़ा पुत्र है घटोत्कच. पुत्र-जन्म पर भीम गये थे. सब ने भेटें भेजीं थी -माता-पुत्र दोनों के लिये, '

'क्यों भीम, कब मिल आते हो जा कर हम लोगों को पता ही नहीं चलता.'

'यों ही घूमता फिरता चला जाता हूँ, बताना क्या!'

कौतुक झलक उठा कृष्णा के मुख पर, 'कैसा था तुम्हारा पुत्र?

'सिर पर केश नहीं थे उसके, चिकने घड़े जैसा!'

'तभी यह नाम रख दिया.'

सब मुस्करा रहे हैं.

युधिष्ठिर से रहा नहीं गया.' युवा हो गया है घटोत्कच तो, उसका विवाह..'

'विवाह? अरे वो तो एक किशोर पुत्र का पिता है- भीम तुम्हारे पोते का नाम करण हो गया न?'

'सब पता है. बस इधर कुछ समय से नहीं जा पाया.'

'अब पुत्र के पुत्र से मिेले हैं अर्जुन. घटोत्कच का पुत्र उससे भी बढ़कर. कैसा विशाल काय! मत्त गजराज को उठा कर फेंक दे ऐसा बलशाली.'

'इतने कम समय में दो-दो पीढि़याँ..!' द्रौपदी विस्मित है.

'दैत्य जाति में बच्चे जल्दी विकसित और परिपक्व हो जाते हैं.

'चाचा अर्जुन से तीरंदाज़ी के दाँव भी सीखे हैं. '

समय पर हम सबके सहायक होंगे, आगे जो होनेवाला है उसके लिये इन सब का सहयोग आवश्यक है.

♦♦ • ♦♦

फिर चलता है, कृष्ण-कृष्णा के वार्तालाप का क्रम.

सबसे निवृत्त होकर निश्चित स्थान पर आ जमते हैं दोनो. इसी की अविकल प्रतीक्षा रहती है पांचाली को.

दुनिया भर की बातें, पर केन्द्र-बिन्दु अर्जुन.

सखी की उदासी दूर करने का हर प्रयत्न करते हैं माधव.

'इस साधना से लाभान्वित हो रहा है मेरा मित्र. परिपक्व होता जा रहा है...और दुख, मन की एक अवस्था मात्र! बदलती रहती है वह भी.'

अभी अपरिपक्व हैं, पार्थ? और बहुतों से तो..'

.बहुतों से तुलना मत करो. उसकी बात औरों जैसी नहीं है सखी. समझो किसमें कितना आगे जाने की सामर्थ्य है.. वैसे तो पूर्ण यहाँ है ही कौन? नर - तन पाया है, जितना उपलब्ध कर सके, '

'अभी उनमें कुछ रह गया है अधूरा?'

'कभी पूरी होती है शिक्षा! इतने जन्म बेकार लिये जाते हैं क्या? एक में ही सब कुछ सीख ले, समर्थ हो जाये तो नारायण ही न बन जाय!"

कुछ देर चुप रही सोचती-सी.

फिर एकदम पूछ बैठी, 'और तुम नारायण हो क्या?

सकपका गये मुरारी, 'मैं, नारायण?'

फिर हँसते हुये बोले, 'तुम भी अच्छी हँसी उड़ा लेती हो. होता मैं, तो काहे को यहाँ धरती पर भटकने चला आता?..'

'तुम्हीं जानो.कोई ठिकाना नही तुम्हारा, सबको बहकाये रहते हो.हाँ, तो अर्जुन को क्या अर्जित करना है?'

'बड़ी जल्दी विचलित हो जाता है. अभी कच्चा है तुम्हारा पति.'

'सो तो है.सब मनाते रहे और वे दंड स्वीकार कर चले गये..' फिर एक उसाँस भऱ कर धीरे से बोली, 'दंड ले कर गये कि दे कर..'

जनार्दन ने सुन लिया पर अपनी बात कहते रहे -

'शस्त्र में निपुण है, पर जो अपनी साधना के बल उससे भी कुशल हो गये, शरीर से पूर्ण है पर वहाँ भी किसी और की लब्धि उससे अधिक तो है न?

'संसार में कुछ ऐसे भी होते हैं जिनके अपने भी पराये रहें और पात्रता और सामर्थ्य होते हुये भी तिरस्कृत और वंचित रह कर भी, पार्थ के समतुल्य हो रहें.. यहाँ तो औरों की कीमत पर अपनों को चढ़ाते हैं लोग. ऐसे में कहीं छिद्र तो रह ही जाता है. हटा लेने दो ऊपर चढ़ी धुंध, उसकी अपनी तेजस्विता निखर आये !'

कृष्ण का संकेत समझ रही है पांचाली, तेज में, नैपुण्य में स्वार्जित उपलब्धि, केवल जन्म की बाधा, नहीं तो कहाँ होता, कहाँ जा कर रुकता!

'जानती हूँ पक्षपात किया गया था, कितनी बार. धनुर्विद्या में प्रिय शिष्य के नाते और औरों से व्यवहार में भी... मुझे दुख है एकलव्य के लिये और...'.

'रुक क्यों गईँ पांचाली, बात पूरी कर दो.झिझक काहे की? कह डालो और.. कर्ण के लिये..'

अनायास ही गहरी सांस ले उठी वह, ' हाँ, जनार्दन, उसके लिये भी...'

'तप करने दो पार्थ को, अरण्यों में घूम-घूम कर सिद्धों, साधकों -तपस्वियों के साथ रह बहुत कुछ अर्जन कर रहा है. '

अभी नीति, दर्शन अध्यात्म के कितने पाठ शेष रहे होंगे. राज परिवार में, जिन गुरु से शिक्षा पाई उनके गुरुत्व में कुछ कसर रही होगी, जिन परिजनों के बीच रहा उनके संस्कार कितने समृद्ध और प्रभावी थे तुम्हें तो ज्ञात है, उनकी दुर्बलताओं ने जो छाया डाली - व्यक्तित्व पर बहुत प्रभाव रहता है, संस्कारों को छा लेता है कभी-कभी . '

'पर इसमें पार्थ का क्या दोष?'

दोष न होते हुये भी, अनीति का लाभ तो लिया, परोक्ष ही सही..'

सिर झुकाये उलझन में पड़ी है वह.

कृष्ण ने कहा, ' वह नहीं जाता तो आगे कुछ होता क्या? '

वह कुछ और ही सोच रही थी,

'..और मेरा परिष्कार, मैं जहाँ की तहाँ..? '

'कहाँ, जहाँ के तहाँ! तुमसे तो मैं भी भय खाता हूँ याज्ञसेनी, खरी हो कर निकलीं हो तुम.सब को चौंका देती हो- ईर्ष्या होती है मुझे तुमसे.'

'खरी? रहने दो. कितनी गलतियाँ हुईं. पछतावा होता है कभी-कभी.'

'कौन निर्दोष रह सका है यहाँ? हम सभी जिस चक्र में घूम रहे हैं उसकी गति वक्र है. सीधा सोच भी घूम जाता है कभी-कभी. और फिर धरती का जीवन, जो दर्पण को भी धुँधला दे, धूल से कैसे बचा रहेगा!

'और तुम, तुम्हारे ऊपर?'

'बचा कहाँ है कोई!' हँस पड़े जनार्दन, ' मैं तो सब झाड़-फटकार कर फिर जैसा का तैसा. देखो न चोरी झूठ कपट, और क्या-क्या दोष नहीं लगा!.'

'आगे क्यों चुप हो गये, आती-जाती गोप-बालाओं को छेड़ना, छीना-झपटी. और.. और तुम जानो.'

'बस, बस. सबको आनन्द बाँटता था.ऊपर से ऊखल से बँध कर पिटता था.'

दोनों खिलखिला कर हँस पड़े.

'तुम्हारी लीला तुम्हीं जानो गोविन्द, औरों को फंसा कर स्वयं तमाशा देखनेवाले...'

'पर तुमसे कहाँ जीत पाया सखी? अग्निसंभवा हो, दाह से निकल कर तप रही हो लगातार . '

'गलतियाँ कीं मैंने भी, पर उससे उबरने का कोई रास्ता नहीं.'

'जिस निमित्त जन्मी हो, पूरा करना है. परिस्थितियाँ ले जा रही हों जब, तब कोई क्या करे! अपना स्वार्थ किसी की बलि दे कर तो नहीं साधा तुमने! उसे अपना तप पूरा कर लेने दो, इस वनवास के बीच संत-मनीषियों के समागम से...और यात्रा तो वैसे भी कितना कुछ दिखाती-सिखाती है जीवन के कितने पाठ पढ़ने हैं अभी, '

'यह बारह वर्ष का दंड उसे घिस-घिस कर माँज रहा है, उसके उन्नयन के साथ भविष्य की संभावनाओं के द्वार खोल रहा है. ये सब तुम्हारे पक्ष में, द्रौपदी.'

'उर्वशी का मोहजाल तोड़ दे जो, उसका और कितना परिष्कार शेष रह गया?'

कृष्ण ने दोहराया - 'उर्वशी का मोह जाल?'

'क्यों, उसकी प्रणय-याचना को स्वीकार कहाँ किया पार्थ ने, उलटे शाप सिर धर लिया.'

'एक पहेली है यह भी.'

'इसमें क्या है समझने को? उनके पूर्वजों में उर्वशी का नाम भी है.'

'फिर वही, पूर्वजों का अभिमान, वंश की चर्चा..'

तो इसमें गलत क्या?'

'तो फिर सही बात बता ही दूँ तुम्हें. लेकिन तुम्हीं तक सीमित रहे.'

'चलो यही सही.'

♦♦ • ♦♦

'जो हुआ उसे अब पूरा ही जान लो पांचाली -

उर्वशी को सूचना मिली थी अर्जुन अतिथि बनकर आये हैं. उसने उनसे मिलने की इच्छा प्रकट की.'

सिर हिलाया द्रौपदी ने -' मालूम है.'

इन्द्र ने कहा, 'हाँ, हाँ जाओ, अवश्य मिलो.'

फिर बोले,

'लगता है तुम्हारा मन उस पर आ गया है? अभिसार का प्रबंध कर दूँ? जानती हो वह मेरा पुत्र है?'

'जानती हूँ, पर तुम नहीं समझ पाओगे, पुरंदर.अपने ही ढंग से सोचते हो न! लेकिन अप्सरायें भी नारी होती हैं.'

♦♦ • ♦♦

साँझ पड़े इन्द्र की राज-सभा से लौटे थे अर्जुन.

परिचारिका ने निवेदन किया, 'देवी उर्वशी पधारी हैं.'

स्वागत हेतु कक्ष के द्वार तक बढ़ आये.'

चिर यौवना, सुसज्जिता दिव्यसुन्दरी. अर्जुन विभ्रमित हो गये.

नेत्र झुका लिये बोले, 'आपने कष्ट किया, आज्ञा देतीं मैं स्वयं उपस्थित हो जाता.'

'अतिथि हो. देखना चाहती थी. देवाधिपति के पुत्र को., कैसे हो पार्थ?

'देवराज के आतिथ्य में स्वर्गोपम सुख उपलब्ध हैं. काहे की द्विधा !'

'देवराज? वे आपके पिता हैं,.'

'जानता हूँ, सौभाग्य है मेरा! आप भी मेरे वंश की पूर्वजा, अब यहाँ हैं तो क्या हुआ

मातृ-भाव स्वीकार करें.'

वे चरण छूने झुके.

उर्वशी ने बरज दिया.

'नहीं. वे संबंध और वे आचार यहाँ के नहीं. हमारे लिये विहित नहीं कि सदा को ऐसे संबंध जोड़े रहें. हम व्यक्ति के रूप में स्वतंत्र अस्तित्व हैं - संबंधों से बाध्य नहीं. सांसारिकता से निरपेक्ष. जन्म-मरण से परे! तुम मृत्यु-धर्मा जन हर बार नये रूप में आते हो. सारे संबंध बदल जाते हैं. और पूर्वजा मैं तुम्हारी नहीं.'

'महाराज विक्रम...'

'तुम उनके वंशज नहीं अर्जुन, कोई रक्त-संबंध नहीं तुम्हारा उनसे, या मुझसे. उस परंपरा में नहीं आते तुम. सर्व विदित है कि इस वंश से तुम्हारे तार नहीं जुड़ते. केवल आरोपण कर दिया गया. दो-दो पीढ़ियों के व्यतिक्रम के बाद भी. एक पीढ़ी- व्यास की संतानों की और उसके बाद तुम तो पांडु के भी नहीं, मधवा के औरस हो.'

अर्जुन सिर झुकाये सुनते रहे.

'तुम्हारे विषय में सुना था इसलिये उत्सुक हो उठी.'

'प्रणत हूँ देवि, '

'और पार्थ, धरती के नियम यहाँ नहीं चलते.वहाँ भी एक जन्म की माँ, किसी और जन्म में कुछ और हो जाती है. किसी को भान भी नहीं होता. छोड़ो मैं वह सब कहने-सुनने नहीं आई.

सुना था तुमने अपनी पत्नी को भाइयों के साथ बाँट लिया. चलो वह भी सही जिसे जिसमे संतोष!'

'माता की आज्ञा हुई थी, देवि.'

'हाँ, माता की आज्ञा! और अनेक कार्य भी माता की आज्ञा से किये थे क्या?'

'हम विवश थे,...'

'लेकिन भरी सभा में अपनी वीर्यशुल्का पत्नी को घसीटे जाते और विवस्त्र किये जाते कैसे सहन कर सके? तुम्हारा शौर्य कहाँ खो गया था? '

'उस समय नीति और मर्यादा का प्रश्न था. धर्म आड़े आ गया...'

धर्म और मर्यादा की बातें? जिस पौरुष पर, सब कुछ निर्भर हैं उसे लज्जित कर दिया तुमने!

उर्वशी हँसी, 'अनीति का खुला खेल और तुम नीति की आड़ लिये बैठे रहो. मर्यादा के नाम पर सारी मर्यादायें भंग के साक्षी रह हाथ पर हाथ धरे रहो. फिर उसी के प्रतिकार की शपथ उठाओ. अच्छा नाटक है! मैंने धरती पर रह कर बहुत कुछ देखा लेकिन पौरुष का ऐसा अधःपतन नहीं देखा था कि श्रेष्ठ वीर कहलानेवाले नपुंसक बने ऐसे अत्याचार चुप देखते रहें..

'तुम्हारी पत्नी, पाँच-पाँच की पत्नी. उसके सम्मान की रक्षा नहीं कर सके. खिलौना बना कर रखा जाता है वहाँ पत्नी को. केवल, मैं नहीं अनेक अप्सरायें पौरुष से लुब्ध हो कर गईं पर मिला वही, अधिकार हीन पत्नीत्व. वह दुख मैं भी झेल चुकी हूँ. असहनीय हो गया तो चली आई.'

वह कहते-कहते रुक गई. अर्जुन पर प्रतिक्रिया देखती रही.

उद्वेलित था पर, कुछ बोला नहीं.

उर्वशी अपनी बात स्पष्ट करती रही, 'उस धरती पर रही हूँ, एक राजवंश में रानी का पद पा कर सब देख चुकी हूँ. पत्नी पर स्वत्व की बात जहाँ आये उचित-अनुचित का कोई विचार नहीं.'

क्या कहें अर्जुन!

'क्यों पार्थ, उस सभा में अपनी विवाहिता के प्रति, एक अवश नारी के प्रति इतना जघन्य व्यवहार कैसे सहन कर सके तुम?'

'पांचाली का दाँव हार गये थे.विवश थे हम, वह उनकी दासी हो चुकी थी.'

'अपने खेल का दाँव लगा हार गये उसे. फिर पत्नी कहाँ रही वह, औरों की अधिकृता, उनकी संपति, वे जो चाहे करें?'

सिर झुका हुआ कहने को कुछ नहीं,

'सामर्थ्य दिखाने का एक माध्यम नारी ही बचती है? '

'जैसे का-पुरुष बने देखते रहे तुम उस निर्लज्ज अपमान को, पत्नी को पराई दासी बना कर एकदम तटस्थ. अब वैसे ही क्लैव्य को भोगो. नपुंसक हो रहो तुम! जानो कि विवश होने और समर्थ होने में कितना अंतर होता है. साक्षात् अनुभव कर देखो.'

अति विचलित, लज्जित पार्थ!

वासुदेव की याद आई. उस गहन वाणी के कुछ शब्द मन में गूँज उठे 'जो होता है अच्छे के लिये ही.'

शीश झुका कर स्वीकार लिया था पार्थ ने.

कृष्ण कुछ रुके, एक दीर्घ श्वास छोड़ा पांचाली ने.

मौन में भारी पल बीतते रहे.

18.

'इस प्रकरण में तुम्हारी स्वाकारोक्ति सुनना चाहता हूँ. कर सकोगी, सखी?'

'हाँ, पूछो!'

'सभा के बीच, उस विषम अवस्था में क्या तुम्हारे मन में यह भाव आया था?

'कौन सा भाव ?

'कि यह व्यवहार का-पुरुष का, क्लैव्य का द्योतक है..और ऐसा बहुत- कुछ?'

कुछ देर स्वयं को समेटती रही कृष्णा. फिर बोलने लगी-

'मन ही मन में बहुत-कुछ उमड़ा था.. दारुण दुःसह अपमान के समय मैं बिलकुल अकेली रह गई थी.'

फिर रुकी द्रौपदी, एक लंबी साँस खींची,

'सबसे प्रश्न करती रही. अपनी शंकाओं का निवारण चाहती थी. पर किसी के मुख से आवाज़ न निकली.'

'निकलती कैसे, सब को अपनी नाक बचाने की पड़ी थी. तुम्हारे पति भी....छोड़ो यह सब. बताओ कि तुमने क्या सोचा?'

'उस समय सबसे असंतोष, शिकायतें, क्रोध और आरोप के सिवा कुछ नहीं सूझ रहा था, जनार्दन!..

सारी इच्छायें समेट लीं, मन पर घोर संयम कर पाँचों में ईमानदारी से अपने आप को बाँट दिया. इनमें कोई भेद न पनपे इसलिये, केवल इसीलिये, कभी अपने मन की बात नहीं कह सकी.

एक से कहूँ कि सबसे, बस इसी ऊहापोह में झेलती रही अकेली. और अब मुझे उछाल कर सब चुप हैं. मन का आक्रोश जाग उठा था.'

'मस्तिष्क घूम गया था मेरा, मन में क्या -क्या उमड़ता है -उचित-अनुचित का कोई विचार नहीं. कोई मर्यादा नहीं. चाहे जिस ओर दौड़ जाता है.और गोविन्द, उस संकट - काल में इसकी गति सौ-गुनी तीव्र हो उठी थी.'

कृष्ण सुन रहे हैं- सहानुभूति से उमड़ रहा है मन.

'...बस जाने क्या-क्या मन में आता रहा. मुख से फिर भी नहीं बोली- एक पत्नी भरे समाज में पतियों को कैसे लज्जित करती?

और सबसे अधिक शिकायत अर्जुन से कि उसी के कारण मैं कहाँ से कहाँ पहुँच गई, कैसा पुरुष कि वीर्यशुल्क देकर लाया और अब निर्वीर्य बना सिर झुकाये बैठा है. इसी के कारण मैंने इन चारों को स्वीकारा और अब यही सब एक, और मैं केवल एक गोट, जिसे कैसे भी उछालते रहो.

यह मेरा पति - पुरुषत्व रहित - क्लीव.'

पार्थ की ओर बस एक बार दृष्टि डाली थी.'

'उस समय तुम्हारी दृष्टि बहुत कुछ कह गई थी. अब भी उसके अंतर में खटक रही है. पश्चाताप में दग्ध हो रहा है अर्जुन. किसी से कुछ कह नहीं सकता.

'हाँ, पांचाली,' तुम्हारी तीव्र मनोवेदना उर्वशी के स्वरों में प्रतिफलित हुई और नपुंसकता उसके हिस्से लिख गई!'

पांचाली के नत- मुख पर गहन उदासी,

'अब मत सोचो, सखी, मैं हूँ न. तुम्हारा बाँधव. कह डालो जो मन में है. हल्की हो लो.'

'नहीं, और किसी से कुछ भी नहीं कहना मुझे. कोई कुछ नहीं कर सकता. बस तुम, और कोई नहीं. किसी के कांधे सिर धर नहीं रो पाती. सब शामिल थे उस दुरभिसंधि में. सब! मेरा किसी ने नहीं सोचा. मुझे एक अस्त्र बनाये रहे. अपने पराए सब. मीत, मैं बिलकुल अकेली हूँ, बस एक तुम..'

कृष्ण चुप.

किसी के सामने नहीं कह सकी पर, कृष्ण के सामने स्वयं को रोक नहीं पाती, सारा संयम बह जाता है. दृढ़ता भरभरा कर ढहने लगती है.

'और क्या-क्या देखना रह गया है?'

'मत कहो सखी, ऐसे मत कहो.अभी जीवन बहुत बाकी है. जब कहती हो क्या-क्या देखना रह गया, कोई अदृष्ट व्यंग्य से हँस देता है!'

द्रौपदी फिर कह उठी-

'यज्ञ की अग्नि से प्रकटी हूँ. जीवन भर तपन ही मेरे हिस्से आई. क्या इसीलिये इतनी विडंबनायें मेरे पल्ले पड़ीं. सहज जीवन मैं नहीं जी सकती. असामान्य हो गई हूँ!एक पति, परिवार, कुछ संततियाँ स्वाभाविक नारी-जीवन, क्या मेरे हिस्से में नहीं है. इतनी अशान्ति, इतनी विभाजित होकर रहना ही क्या मेरी नियति है? एक सामान्य नारी की तरह मुझे भी सुख- दुख व्यापते हैं, मन में कामनाओं की तरंगें उठती हँ, मैं भी मनुष्य हूँ, मुझमें भी दुर्बलतायें हैं.'

ओह, वह दिन!

'किसी तरह चैन नहीं पड़ता. हर पल लगता मुझ एक-वस्त्रा को केशों से घसीट सभा के मध्य खड़ा कर दिया गया है.'

वस्त्र खींच रहा है कोई. दोनों बाहों से देह लपेटे मैं टेर रही हूँ. उससे बचने को उस सीमित घेरे में बार-बार इधर- उधर भाग रही हूँ. देह पर एक वस्त्र, वह भी अस्त-व्यस्त और उसे भी वह उद्धत खींच रहा है. कितनी दृष्टियाँ इधऱ ही लगी हैं, विद्रूप भरी हँसी कितने चेहरों पर... मेरी देह चीर रही है.

उधर वे पाँचो, मेरे पति, सिर झुकाये बैठे हैं.

आज भी मैं नहीं समझ पाती कि पत्नी तो पत्नी, किसी भी नारी का वस्त्र- हरण होता रहे और पुरुष बने सब चुप बैठे देखते रहें. यह कैसी नीति कैसी मर्यादा, कैसा धर्म? जो जघन्य बर्बरता का प्रतिरोध न कर सके. मर्यादा एक आड़ बन जाये. क्षत्रिय की शक्ति और सामर्थ्य क्या इसी लिये हैं?..न्याय-नीति का निर्लज्ज उल्लंघन हो रहा है

और न्याय-नीति की आड़ ले सब चुप देख रहे हैं...'

चुप हो गई थकी-सी. कुछ रुकी. फिर बोलने लगी,

'ध्यान आता है तो अब भी कितनी उद्वेलित हो जाती हूँ.. बार-बार उभर आता है वही सब. लगता है आज भी बचने का यत्न करती, भाग रही हूँ व्याकुल....कोई बचा ले, कोई रोके!

कोई नहीं बढ़ता. गुरु- जनों को नाम ले- ले कर टेर रही हूँ, कोई प्रत्युत्तर नहीं. सब मौन दर्शक! क्या करे अकेली लाचार, चारों ओर से घिरी हुई!

और तब अंतरतम से दारुण पुकार उठती है,' हे मुरारी, कहाँ हो, बस तुम्हीं हो मेरा अंतिम आश्रय, यहाँ कोई नहीं है मेरा, मेरे लिये किसी का दायित्व नहीं. मैं एक खिलौना हूँ, जीवित नारी देह नहीं. जनार्दन बस तुम हो मेरे!

अगर तुम भी नहीं बचाते तो वहीं सिर पटक कर प्राण देना शेष रह गया था. '

गहरी साँस ली उसने.

'पर आगे नहीं चली किसी की, एक-वस्त्रा नारी अनंतवस्त्रा बन गई वह लघु-वस्त्र अपरिसीम, अमित-रूप होने लगा. और वस्त्र-हरण करता हाथ निष्क्रिय, संवेदना शून्य हो गया.

और सब जिससे से खेल रहे थे, नारी की लाज आवृत्त कर सका वही, सही अर्थों में पुरुष एक ही था!'

द्रौपदी चुप है.

अब कहने को कुछ नहीं!

♦♦ • ♦♦

कहे भी तो क्या! कभी द्रुपद पिता की चाल, कभी कुन्ती माता की नीति, कभी पतियों के दाँव. अपने हित साधन के लिए एक मोहरा बना लिया उन सब ने जो अपने थे..

नहीं याद करना चाहती..रातों की नींद, दिन का चैन खो जाता है. बस, एक ने साथ दिया. हर विषम क्षण में, उसे ही बार-बार टेरता है अशान्त मन!

और जब पांचाली का मन कुछ स्थिर हुआ तो जनार्दन ने कहा -

'याज्ञसेनी. आज एक और बात तुमसे नहीं छिपाऊँगा.'

कृष्ण का मुख देख रही है वह -

'मेरा मित्र पार्थ जीवन भर पश्चाताप की अग्नि में दग्ध होता रहा. तुम पर जो कुछ पड़ा उसका उत्तरदायी स्वयं को मानता रहा. झेल लेगा यह शाप भी.

उसकी स्थिति की कठिनता तो देखो, कह नहीं सकता. प्रतिरोध नहीं कर सकता.

बस, भाग रहा है अधिक से अधिक. स्वयं को तपा रहा है. तुम्हारे सामने आते कैसा उद्वेग! जो स्वयं संतप्त हो किसी को कैसे प्रसन्न करे?'

खूब समझती है पांचाली. पति-पत्नी हैं - पर एक दूसरे से कभी मन की बात नहीं कह पाते.

नहीं कह सकते.

निरंतर एक व्यवधान, एक भय - उनके भाइयों और उसके पतियों के बीच कहीं किसी संशय का बीजारोपण न हो जाये !

इस विचित्र विधान की दुरभिसंधियों में हम दोनों ही मोहरे बने हैं.

ओ पार्थ, मैं समझ रही हूँ तुम्हारा मनस्ताप!

19.

'दुर्योधन तो जैसा है सब जानते हैं, पर वे धूर्त शकुनि मामा! सदा आग में घी डालते रहते हैं. योजना-बद्ध नई-नई चालें, सबमें उन्हीं का हाथ है.'

बड़ा असंतोष है भाइयों के मन में. कृष्ण के सामने मुखर हो ही जाता है.

'यहाँ आकर यही तो कर रहे हैं. राज-वंश की जड़ें खोदने का काम. बहिन ब्याही है, उसका हित भी नहीं देख पा रहे,' सहदेव ने अपना संशय प्रकट कर दिया.

'बहिन ब्याही है तभी तो.., '

कृष्ण ने दीर्घ श्वास छोड़ा, 'वही बहिन जिसने आते ही आँखों पर पट्टी बाँध ली..जिसने न पुत्रों का मुख देखा न पति का.'

'विचित्र कथा है. कैसे सारा जीवन बिताया होगा एक पत्नी और माँ ने, पति की आँखों में झाँके बिना, उसकी मुखमुद्रा का अवलोकन किये बिना. और सबसे बड़ी बात -पुत्रों पर वात्सल्य-दृष्टि डाले बिना. उनकी बाल-लीलाओं का, उनके क्रम-क्रम से बड़ी होती अवस्थाओँ का, क्रीड़ा-कलोल का आनन्द नहीं लिया. कैसा पत्नीत्व और कैसा मातृत्व!'

'यही तो दुख है गांधार नरेश, शकुनि का.'

माधव कुछ देर चुप रह इन लोगों के मुख देखते रहे.

'अपनी रूप-गुण संपन्न भगिनी के सुखी जीवन के विषय में क्या-क्या कल्पनायें की होंगी, और जब लाचार एक अंधे से ब्याहना पड़ा तो लाड़-प्यार में पली, एक राजकुमारी जिसने भावी जीवन के कितने सपने सँजोये होंगे उस पर पर जो बीत रही थी, उससे क्या भाई उदासीन रह पाया होगा?

'फिर अपनी सोचता हूँ. मैंने क्या किया. अपनी लाड़ली बहिन के लिये! मैंने, उसका हरण करवा दिया था. इसीलिये कि उसे अनचाहा दाम्पत्य न भोगना पड़े.'

'हाँ, मुरारी.' द्रौपदी ने हुंकारा दिया.

सब चुप हैं.

'क्यों पांचाली, धृष्टद्युम्न, तुम्हारा भाई. वह भी तो चुपके-चुपके आया था तुम्हारे पीछे, पता करने कि मेरी बहिन को ले कर यह ब्राह्मणपुत्र कहाँ जाता है. क्या तुम्हें तुम्हारे भाग्य पर छोड़ कर निश्चिंत हो सका था वह. कहे चाहे कुछ नहीं बहिन के दुख में भाई का मन तड़पता है.'

'तो क्या गांधार-राज की स्वीकृति नहीं रही थी इस विवाह के पीछे?'

'स्वीकृति?' गोपेश ने दुहराया, 'उसकी भी एक कहानी है, '

भीम उत्सुक थे, 'क्या हुआ था, भइया ?'

'काशिराज-कन्याओँ की गाथा तो जग विदित है.उनके नियोग की बात भी कोई दबी-छुपी नहीं. तात भीष्म के संरक्षण में वे पुत्र युवा हुये तो उनके विवाह की चिन्ता हुई. पितामह ने पात्रियों की खोज शुरू की. इधर तो सबको विदित था कि बड़े कुमार जन्मजात दृष्टिहीन हैं.किसी राजवंश को संदेशा न भेज सके. सुदूर गांधार देश की सर्वगुण-संपन्ना, परम सुन्दरी, राजकन्या.की ख्याति उन्होंने सुनी थी और यह भी कि अपनी तपस्या के बल से उसने सौ पुत्रों की माता होने का वर पाया था. उनकी महत्वाकाँक्षा जाग उठी. ज्येष्ठ कुमार के विवाह हेतु तुरंत प्रस्ताव भेज दिया.'

सब सुन रहे हैं.

'इनके अंधत्व से अनजान गांधार नरेश सुबल ने कुरु- वंश से जुड़ना तुरंत स्वीकार लिया. बाद में... विवाह के समय देखा..वर अंधा..

वज्रपात हो गया था सारे परिवार पर! हैरान-परेशान पुर-जन. हर जगह वही चर्चा...'

'हाँ, मैने सुना था -

गांधार से आई एक दासी बता रही थी. वे विवश थे, पितामह के आदेश की अवहेलना करते तो सर्वनाश को आमंत्रण देते.राज्य और प्रजा के संकट का निवारण करने को बेटी की बलि चढ़ा दी.

उधर उत्सव की तैयारियाँ हो रहीं थीं, आँसू भरे नयनों से नारियाँ मंगल गीत गा रहीं थी. उनके मन पर क्या बीत रही थी- कौन जानता है, कन्यादान के समय माता-पिता के मुख पर छाई व्यथा को केवल उन्हीं के लोग समझ रहे थे. वर-पक्ष तो आनन्द-मगन था. ऐसी कन्या जिसकी कामना कोई भी श्रेष्ठ, समर्थ नरेश करे, ब्याह दी गई एक जन्मान्ध को, जिसका व्यक्तित्व ही पराङ्-मुख था.'

' और तभी से शकुनि के मन में गाँठ पड़ गई. अपनी बहिन के लिये, उसका साथ देने, राज-पाट छोड़ कर यहाँ पड़ा रहता है. देख रहा है अपनी भगिनी और भागिनेयों का सुख, इस परिवार के प्रति उसके मन में जो वितृष्णा भरी है वही करवा रही है यह सब.'

'गांधार-कन्या तो बोलती कुछ..?'

स्तबध थी राजकुमारी. चिन्ता और दुख से हत माता-पिता को देखा. अपनों के सर्वनाश का कारण नहीं बनना चाहती थी. उसी ने कहा, 'तात, अब जो हो रहा है होने दीजिये, मेरे लिये विधि ने यही लिखा होगा. एक मेरे कारण सब पर संकट न आये.'

भाई शकुनि बहुत उग्र हो उठा..

विनती -चिरौरी कर, प्रजा-परिजन, माता-पिता का वास्ता दे कर उसे शान्त किया किसी तरह.

बहिन ने अपनी शपथ दिला दी, '.मुझे स्वीकार है, शान्ति से होने दो सारे कार्य.'

भाई ने सोच लिया आज कर लें मनमानी, मैं भी देख लूँगा.कैसे चैन से रहते हैं.

उसने कहा था, 'आग जल रही है मेरे भीतर. ऐसे शान्त नहीं होने की..'

'भइया, मेरे घर का चैन नष्ट करोगे?'

पगली बहिन, तेरे लिये और तेरी संतान के सुख के लिये कुछ भी करूँगा, आज से यही मेरा व्रत.'

उद्विग्न राजकुमार कु-समय देख चुप रह गया.

अंधे के साथ वधू-वेष में अपनी प्यारी बहिन को देख उसका हृदय विदीर्ण हो गया. उसी दिन उस ने ठान लिया कि बहिन के हितों की रक्षा उसका दायित्व. और वहाँ वह एक-एक को देख लेगा. निपट लेगा जो भी उसकी राह में आयेगा.काँटा निकालने को हर दाँव खेल जायेगा वह.'

'हाँ, मित्र, समझ रहा हूँ, ' अर्जुन जो अब तक मौन थे.

पहली चोट तो यह कि अंधत्व के कारण ताऊ-श्री सिंहासनासीन न हो सके. यहाँ भी गांधारी हार गईं.'

'लेकिन इसमें हम-लोग कहाँ आते हैं, हमारा क्या दोष?'

'दोष किसका? पूरा वंश उस अन्याय का भागी है, बंधु. उन राजकन्याओँ का क्या दोष था, जिन्हें हर अधिकार से वंचित रखा गया?

मनमानी की यह लंबी गाथा चली आ रही है- गांधारी भी अपवाद नहीं.

काल-चक्र रुका है कभी!

बाद में ब्याह कर आई कुन्ती बुआ ने पुत्र-लाभ किया, गांधारी वहाँ भी मात खा गई. उसके पुत्रों के लिये युवराज का पद भी अलभ्य हो गया!

अपने भागिनेयों का वही एक सगा बना रहा. माता-पिता की स्नेह- दृष्टि तो दूर, कभी उनका लाड़-दुलार भी नहीं मिला उन्हें, स्वाभाविक परिवार कहाँ मिला! दास-दासियों से वह सब नहीं मिल सकता जो माता-पिता के सान्निध्य में मिलता.'

मामा से अपनत्व मिला था, उन्हीं ने जो संस्कार डाल दिये. प्रारंभ से द्वेष के बीज रोप दिये.'

'अंधे को और क्या सूझता, सौ पुत्र पैदा करने में लगे रहे.'

'और एक पुत्री भी तो..'

‘पालन-पोषण का दायित्व दास-दासियों का.’

‘शकुनि के लिये सब-कुछ असहनीय हो उठा था.’

'और उसके लिये हम सब अपने थे ही कब? किसी भी कीमत पर भागिनेयों के हित-संपादन के लिये ही आया था. उसी ने दुर्योधन की महत्वाकांक्षाओं को जगा कर सदा उसे उकसाया है.'

वातावरण भारी हो उठा था.

'बचपन से खिलाता आया है.अब भी वही खिला रहा है उन सब को.'

20.

पांडवों को अपने मार्ग से हटाने का पूरा प्रयत्न किया गया पर विधि का विधान कुछ और ही था. तात विदुर की बुद्धि सब भाँपती और निराकरण करती रही.पितामह सब जानते - देखते विवश रहे..

लाक्षागृह की घटना भी इसी योजना का अंग थी.

स्वयंवर में पांचाली को जीत कर आये पांडवों का भारी स्वागत किया गया, लेकिन मनों में जो मालिन्य घुला था वह कहाँ धुलता. ऊपरी दिखावा चलता रहा.

दुर्योधन को युवराज पद दिया जा चुका था.

अब बीहड़ खांडव वन का आधिपत्य पांडवों को दे कर चलता करो.

सब के पीछे शकुनि की चाल काम कर रही थी.

मामा-भांजे की सलाह पर स्वीकृति की मोहर भर लगवाना शेष रह जाता , जिसके लिये राजा धृतराष्ट्र का पुत्र-मोह पर्याप्त था.

और पितामह भीष्म? उनका सिंहासन के प्रति निष्ठा का व्रत!सिंहासन पर धृतराष्ट्र विराजे हैं, और उनके साथ युवराज दुर्योधन.मतान्तर का प्रश्न ही नहीं उठता!

कर्ण, दुर्योधन के उपकारों के बोझ तले, उसका मित्र बना सदा उसके अनुकूल रहने को बाध्य. अर्जुन की प्रतिद्वंद्विता में जानबूझ कर उसे नीचा दिखाया जाता रहा. द्रौपदी के अपमान का दंश अंतर में समेटे, कौरवों के अनुकूल रहना उसकी विवशता रही. दुर्योधन साथ न देता तो इस मंच पर कहाँ होता वह?

एक बार युवराज बनने के बाद उन लोगों ने निश्चय कर लिया कि अब किसी भी प्रकार राज छोड़ना नहीं है.

शकुनि का यही मत था.

इन पांडवों को क्या अधिकार कि कुरुवंश के राजसिंहासन पर बैठें? अधिकार तुम्हारे पिता का था, चलो किसी कारणवश छोटे भाई को दे दिया, लेकिन वे तो विरक्त हो वन को चले गये वहीं मर-खप गये.फिर तो सिंहासन तुम्हारा था.

वे पाँचो? कोई अपने पिता का पुत्र नहीं, किस-किस की संतान.किसी एक की भी नहीं. कहाँ रहे वे कुरु-कुल के वंशज?तुम, सुयोधन अपने पिता के पुत्र हो. राजा के अंश हो- उन्हीं के वंशज!

और हमारे पितामह? वे उन्हीं की ओर झुके रहते हैं.रहा वह अहीर छोरा कृष्ण, कहीं टिक कर रहने का ठिकाना नहीं. कौन सा गुण है उसमें, जनम का कपटी.पता नहीं लोग क्यों सिर चढ़ाये रहते हैं?'

'भाई दिन-रात बहिन को देखता है.कैसे स्वाभाविक रह सकता है?' कृष्ण का कहना था, 'अपने ढंग से उनका हित-संपादन कर रहा है.'

दुर्योधन-मंडली की योजना क्रियन्वित होनी ही थी.

खांडव वन - बीहड़ प्रदेश.किसी के रहने योग्य स्थान था क्या?

पर धृतराष्ट्र ने बड़े प्रेमपूर्वक, बहुत सद्भावना जताते हुये. पांडवों को वह स्थान प्रदान कर दिया.

युधिष्ठिर ने सदा के समान नत-शीश ताऊ-श्री का आदेश स्वीकार किया.

पर कृष्ण जैसा बांधव जिसके साथ हो उसके काम रुके हैं कभी!