कृष्ण सखी / भाग 1 - 4 / प्रतिभा सक्सेना

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1. ग्रीष्म की उत्तप्त दुपहरी. इस सघन वन में पांडव अपना वनवास बिता रहे हैं.

वृक्ष की छाया में द्रौपदी अलसाई लेटी है. थोड़ी दूर उसके पाँचो पति बैठे हैं. मन ही मन उसे हँसी आ रही है- किसी पुरुष की पाँच पत्नियाँ भी ऐसे हिलमिल कर नहीं रह सकती होंगी जैसे मेरे पाँच पति. विनोद से भर उठी है वह. एक-से-एक भिन्न स्वभाव के, माँ-कुन्ती ने एक सूत्र में बाँध रखा है. शायद इसीलिये उन्होने सब के लिये एक पत्नी की व्यवस्था की, जो सब को समेट कर एक साथ रख सके.

क्या बातें करते हैं ये लोग आपस में! कौतूहल हो रहा है द्रौपदी को- कोई भी तो समानता नहीं. सबका अपना ढर्रा! दो बड़े,दो छोटे,बीच में हैं अर्जुन. सबसे संतुलित भी वही.

सबसे बड़े युधिष्ठिर! धर्म और नीति के ठेकेदार, परम धैर्यवान, हमेशा शान्त. सुख -दुख, हानि-लाभ, यश-अपयश से परे! कभी उत्तेजित होते उन्हें नहीं देखा द्रौपदी ने. प्रेम में भी अति-शान्त, उत्तेजना विहीन. उनकी मान्यतायें लोक से निराली हैं. माँ के कहने पर भाई की प्राप्ति में तो बँटा लिया, पर जुये के दाँव पर सबका हिस्सा लगा दिया!

अपनेवाले दिन दाँव पर लगाते. तब तो बड़े बन कर सबके हिस्सों को हार दिया. माँ से पूछने की जरूरत भी नहीं समझी, भाइयों से परामर्श करते भी क्यों? द्रौपदी तो भीख में मिला उनका हिस्सा है, अपने को प्रमाणित करने की क्या आवश्यकता!जो मिला, भोग्य है उनका!

भीम - भोजन भट्ट! वायु प्रधान व्यक्तित्व है. वैसा ही वेग से भर उठनेवाला. सोचने- समझने का धीरज नहीं. आवेग और आवेश उसके स्वभाव में हैं. द्रौपदी के मुँह से जो निकले पूरा करने को सदा प्रस्तुत!डकारें बहुत आती है उसे. प्रथम मिलन की रात्रि में द्रौपदी के सामने मुँह किये एकदम से डकार छोड़ दी, खाने पीने में वैसे ही असंयमी. द्रौपदी के मुँह पर वह गंध भरा भभका! मुख तिरछा कर लिया था उसने, कुछ कहा नहीं. बैठे बैठे डकार छोड़ देना उसकी आदत है, उसे पता ही नहीं चलता! न भोजन पर नियंत्रण है न वायु पर!, पेट की सारी गड़बड़ी मुँह से निकलती है.

और अर्जुन! द्रौपदी ने तो उसी की कामना की थी. बाकी सब तो साथ बाँध दिए गए. सधा हुआ व्यक्तित्व, धीर-गंभीर और परम पराक्रमी. इन्द्र के अंश हैं,रूप और कान्ति अनुपम, नृत्य-गान निपुण, विद्याओं, कलाओँ के प्रेमी. अर्जुन के प्रति मन में आकुलता निरंतर बनी रहती है.

उसी को चाहा था, पर कितना कम मिलन होता है. वह भी तो पांचाली को पा कर भी पूरी तरह नहीं पा सका. असीम प्रेम है उसके हृदय में. लेकिन कैसा संताप, कि कहीं टिक कर नहीं रहने देता! भटकता फिरता है धरती-गगन में- अधूरी प्राप्ति की टीस से विचलित.

नकुल को अपने सुदर्शन होने का अभिमान है, सहदेव सबसे छोटे उन्हें कोई अपने जैसा विद्वान और बुद्धिमान नहीं लगता. पर दोनों का व्यक्तित्व कभी खुल कर सामने नहीं आता, बड़ों के सामने दबा-ढँका सा रह जाता है. माद्री-पुत्र हैं, रूपवान-विद्वान. पर पांचाली को प्रभावित नहीं कर पाते, उसकी तेजस्विता के आगे मन्द पड़ जाते हैं. दोनों को अलग-अलग समझ नहीं पाती वह. समझ तो इन सब को नहीं पाती, एक पार्थ को छोड़ कर!

और द्रौपदी पर नियंत्रण है कि सबसे बराबरी से निभाए. सबको समान प्रेम करो- पत्नीत्व के हिस्से सबको बराबर मिलने चाहियें. सारे टुकड़े बराबर हों, कोई छोटा बड़ा नहीं. क्या नारी के मन-आत्मा कुछ नहीं होती! स्वयं को इतना साध रखा है माँ कुन्ती ने?

उनके भी पाँच होते- पाण्डु तो विधिवत् थे, धर्मराज, पवन और इन्द्र तीनों पुत्रों के पिता पति ही तो हुये. एक और हो सकता था, होता तो भी क्या फ़र्क पडता, पर नकुल, सहदेव माद्री-माँ के हैं, एक नाते से वे भी कुन्ती-माँ के ही हुये, सौत का पति, सो अपना पति. उनके पाँच पति हुये क्या इसीलिये मेरे लिये पाँच पतियों का विधान किया (यह तो पांचाली को बाद में पता लगा कि एक पुत्र के पिता सूर्य भी थे)और सब ने सिर झुका कर स्वीकार लिया.

मेरे साथ होने पर सबका व्यक्तित्व भिन्न होता है. पर एक साथ होने पर पाँचो अलग नहीं लगते- बिल्कुल एक. एक सूत्र से संचालित होनेवाले, जैसे पाँच अश्व एक रथ के वाहक हों. इसी एकता में इनकी निजता निहित हो जाती है. लेकिन इससे अलग उनके जो भिन्न व्यक्तित्व हैं उनसे केवल द्रौपदी परिचित है.

नहीं, अब वह सब अटपटा नहीं लगता. उसने सहज रूप से स्वीकार कर लिया है. एक के साथ होती है तो दूसरे की याद नहीं करना चाहती. बहुविवाह में पति भी अपनी पत्नियों के साथ यही करते होंगे. हरेक के साथ बारी बँधी है, जब तक जिसके साथ हैं तब तक उसके. पर द्रौपदी मन से अर्जुन के साथ बँधी रही. देह का धर्म सबके साथ निभाती है पर सिर्फ उन्हीं तक सीमित कहाँ रह पाती है. सोचने-समझने, करने को और भी बहुत कुछ है. मन क्या सबके साथ बँधता है,जानता सबको है,मानता सबको नहीं. प्रेम क्या कहे-सुने किया जाता है?

जिन्हें प्रेम करती हूँ उनके साथ भी भावना एक सी नहीं होती, हरेक के लिये भाव कुछ भिन्न होता है-प्रत्येक से एक भिन्न संबंध.

कृष्ण मित्र हैं. नारी- नर का एक विलक्षण संबंध. निस्वार्थ,दैहिकता से परे,अति घनिष्ठ. उनसे कुछ भी कहने में संकोच नहीं होता,मन खोल कर कह लेती है और हल्की हो लेती है. अब मन शान्त रहने लगा है. सब कुछ जैसे ऊपर-ऊपर से निकल जाता है, बिना प्रभाव डाले, बिना स्पर्श किए. कृष्ण का साथ होता है तो एक अखण्ड शान्ति, गहन नीरवता साथ रहती है. सब कुछ सौंप देती हूँ उन्हें और वह निस्पृह भाव से स्वीकार कर लेते हैं.

मेरा अपना बचा ही क्या है? लगता है मन का विचलन रुक गया, मंथन थम गया. तब निजत्व आड़े नहीं आता. तटस्थ होकर विचार कर सकती हूँ. अपना आपा जब केन्द्र में हो तो विवेक सो जाता है, अशान्ति ही पल्ले पडती है. द्रौपदी शान्त और सुस्थिर रहना चाहती है,लेकिन चारों ओर उठती हुई आँधियाँ,झकझोरती हवायें,निरंतर चलती उठा-पटक, मन को बार- बार विलोड़ित कर देती हैं.

रात विचित्र स्वप्न देखा - इधर उधर लुढ़कते रुण्ड-मुण्ड,रक्त की बहती धारायें जिनमें बहे जा रहे परिचित और प्रिय चेहरे. मन विकल हो उठा. नींद खुल गई - आँखें खोले, अँधेरे में ताकती रही.

भीतर ही भीतर अविराम मंथन चलता है. यह कौन सा धर्म है कि पत्नी का वस्त्र-हरण होता रहे और पति निरीह बना बैठा रहे!एक नहीं पाँच-पाँच पति. तब माँ की आज्ञा मानी थी, बाद में भी माँ से सलाह कर लेते!युधिष्ठिर की धर्म और मर्यादा की बातों पर कभी हँसी आती है कभी क्रोध. सारे भाई उनका मुँह ताकते बैठे रहते हैं. किसी पराई नारी का भी वस्त्र-हरण हो रहा हो और अपने को वीर और नीतिज्ञ माननेवाला पुरुष दर्शक बना देखता रहे- उसे मर्यादाशील कहा जायेगा?

2.

पांचाली हँस रही है, 'क्यों छछिया भर छाछ के लिये तुम्हें नचाती थीं, ब्रज की गोपियाँ? ऐसे भोले तो तुम लगते नहीं!'

'मैं नाचता था?'

तिरछी सी मुसकान में कृष्ण के होंठ टेढ़े हो गये,

' उनकी विचित्र भाव-भंगी देखने के लिये सारे खेल करता था सखी, तुम कभी देखतीं. वे सहज ग्राम-बालायें मनो-ग्रंथियों की अस्वाभाविकता से मुक्त हो, अपने भाव कैसे व्यक्त करती हैं. कुल, शील, मर्यादा, लाज सारे प्रतिबंध तोड़ मेरे साथ कैसे सहज हो जाती हैं. मैं नहीं नाचता था, नाचती तो मेरे आगे-पीछे वे थीं. मैं भी आनन्दित होता था, वे भी. '

'बड़े कौतुकी हो तुम! वास्तव में नटवर. लोगों को लगता है तुम नाचे पर तुम तो सबको नचानेवाले हो. स्वयं चैन की बांसुरी बजाते होगे कहीं जमुना किनारे, राधा के साथ. '

'क्या कह रही हो! मैं राधा के साथ, और चैन की बाँसुरी? बाँसुरी हाथ में लेने का अवसर फिर कहाँ मिला? हर काम के लिये एक वातावरण होता है. अपने में डूब कर बाँसुरी बजाने का भी.

'वह यमुना का तट, ज्योत्स्ना भरी, रात्रि वे भोले-भाले गोप-जन, और सबसे बढ़ कर वह मन कहाँ से लाऊँ? यहाँ न शान्ति है, न विश्वास, न वैसा प्रेम. राग कैसे बजेगा यहाँ? राधा तो तब के बाद ऐसी छूटी कि देखने को तरस गया. बस, एक बार मिली थी. '

द्रौपदी ध्यान से देखती रही,' कृ्ष्ण, तुम सुखी हो या दुखी मैं समझ नहीं पाती. '

'क्यों सुखी होना या दुखी होना ज़रूरी है, जीवन में चैन से बैठने को कब मिला जो अनुभव कर सकूँ?'

'सच्ची मीत, कभी -कभी तो मैं घबरा जाती हूँ. समझ नहीं पाती कहाँ जाऊँ, क्या करूँ. कहीं छुटकारा नहीं दिखाई देता. उन विषम क्षणों में तुम्हारे जीवन के अध्याय याद आते हैं. तब लगता है, इतना सब झेलते हुए भी तुम कितने सहज रह लेते हो- कितने निरुद्विग्न, प्रसन्न-चित्त. '

कुछ रुकी द्रौपदी, फिर बोली,' जो बीत गया उससे मुझे क्या, सोच कर शान्त रहना चाहती हूँ पर कुछ बार-बार घिर आता है, निकाल नहीं पाती मन से. और भविष्य?.. आगे क्या करना है यही उधेड़-बुन लगातार चलती है..... एक तुमसे मुझे जीने की शक्ति मिलती है. '

'जो सोच कर दुख होता है उसे सोचो ही मत सखी. आगे जो करना है उसी का ताना-बाना बुनो. '

क्या यह संभव है- प्रश्न उठा द्रौपदी के मन में, उसने कहा,'जीवन तो चलेगा ही, क्या होना है, कहाँ, कैसे होना है यह निर्णय मेरा कहाँ. आगे कब क्या होगा कुछ नहीं मालूम. एक से एक विचित्र परिस्थितियाँ आ खड़ी होती हैं. पहले से कुछ सोचना-समझना कैसे?'

चुप हो गए कुछ क्षण दोनों.

अचानक ही पूछा द्रौपदी ने,' तुम राधा के विषय में सोचते हो?'

कृष्ण के मन में वृंदावन घूमने लगा. लगा यमुना की शीतल लहरें खनक रही हैं, वन की मुक्त हवा का झकोरा जैसे तन को परस गया हो.

दूर गाएँ रँभा रही हैं, हरित-श्यामल धरती का विस्तार, फूल खिले हैं. अचानक ही राधा सामने आ कर खड़ी हो गई- नैन तरेरती मुद्रा में.

कानों में स्वर आया -'सखा कृष्ण'

कृष्ण जैसे जाग उठे.

'कहाँ खो जाते हो बार-बार. '

राधा चली गई. कृष्ण चेते.

'तुम कह रही थीं राधा के विषय में सोचना? उसका आभास निरंतर मुझे होता है, वह मौजूद है. विद्यमान है. कहाँ-कहाँ तक, मैं स्वयं नही समझ पाता. पांचाली, तुमसे नहीं छिपाऊंगा.

'राधा ने एक बार पूछा था- मैं प्रसन्न होऊँ जो मुझे तुम्हारा प्यार मिला, या तुम नहीं मिले इसका पश्चाताप करूँ? सुख और दुख दोनों समरूप स्थित हो गये हों जहाँ उसे क्या नाम दें? इस अंतरंगता को द्योतित कर सके ऐसा कोई शब्द नहीं. '

वह चुप सुन रही है - -

'और जब मैं अकेला होता हूँ वह अचानक चली आती है, मेरा विचार-प्रवाह रोक कर खड़ी हो जाती है. बिना कहे-सुने समझ जाते हैं हम एक दूसरे की बात. '

'पराकाष्ठा है. '

'काहे की?'

'प्रेम की. '

3.

पांचाली ने कहा, 'नहीं माधव, और नहीं. राजवधू हूँ, सारी मर्यादाएँ निभाए रहती हूँ. बस तुम्हीं तक मेरी पहुँच है- मन को मुक्त कर पाऊँ जहाँ. '

कृष्ण हँसे, 'मन की मुक्ति मेरे सामने बस, और जो पाँच पति हैं?'

'वाह रे कृष्ण, इतना भी नहीं जानते! जब एक साथ होते हैं तो कोई मेरा पति नहीं होता. सब एक- दूसरे के भाई होते हैं. और अलग-अलग मेरे पति, सब अपने-अपने ढंग के.. '

'जानता हूँ. अपने-अपने ढंग के हैं. पर पांचाली, उनमें जुड़ाव है, एक मत है सबका- जैसे पाँच अँगुलियों की एक मुट्ठी.... '

'इसीलिये तो. बहुत सावधान रहती हूँ. कहीं मेरे कारण भेद न पड़ जाए. नहीं,नहीं! मुट्ठी बंद ही रहे बस. '

हँस पड़े दोनों. 'तुम लोग किस बात पर हँस रहे हो?'

युधिष्ठिर आ निकले थे उधर.

'बड़े भैया, पांचाली पूछ रही थी पति को वश में कैसे रखें?'

'यह मेरा ममेरा भाई बड़ा नटखट है पांचाली, इसकी बातों में उलझना मत.' हल्के से हँस कर चले गए वे.

धर्मराज - सबसे पहले पति -प्रथम विवाहित. परम शान्त,गंभीर, कभी उमंग आवेश से आन्दोलित होते नहीं देखा, सबको नियंत्रित करने में समर्थ. समझ गई है द्रौपदी बड़े से बड़े आघात पर भी विचलित नहीं होगें - परम धैर्यधारी! उसे सबकी पत्नी होने का अधिकार मिला, पर कैसे- कैसे दंश झेलने पड़े हैं. पति उस सब में कहीं भागीदार नहीं. वे सब अधिकारी हैं पत्नी के एकान्त प्रेम और समर्पण के. पर स्वयं क्या दे पाते हैं? कृष्ण मित्र हैं. सब कुछ कह सकती हूँ, बिना लाग -लपेट. शरीर से कुछ लेना-देना नहीं, मन का नाता है. पूरी तरह उँडेल कर हल्का कर लेती हूँ. आश्वस्ति पा लेती हूँ. द्रौपदी के भीतर जो चल रहा है उसका आभास है कृष्ण को.

'तुम तो सब को वश में किए हो सखी. किसी उपदेश की ज़रूरत नहीं तुम्हें. '

'ज़़रूरत समझनेवाले तुम हो न!' व्यंग्य झंकार गया द्रौपदी के स्वर में. कृष्ण ने ध्यान से उसकी ओर देखा.

वह बोलती गई,' सबकी सुनते हो, सबके सुख-दुख की ख़बर रखते हो न?'

'यहाँ सुखी कौन है कृष्णे? कुन्ती बुआ, मां गांधारी, कर्ण, तात भीष्म, या दुर्योधन सुखी है, जिसने कभी माता-पिता की स्नेह दृष्टि नहीं जानी? सबने अपने मान बना लिये, दूसरे पर क्या बीतेगी, किसी ने सोचा?'

'सब अपनी गाथा तुमसे गा देते हैं. इतने तटस्थ हो क्या तुम कि सब तुम्हें अपना समझ लें? क्यों,गोविन्द, सबके दुखों का बोझ तुम्हीं उठाते हो?'

'दुख में याद करते हैं सब. दुख ही मुझसे बाँटना चाहते हैं. सुख में मेरी याद किसे आती है? तुम्हें भी तो नहीं. '

'सुख के क्षण कब आकर चुपके से निकल गए, कुछ याद नहीं? जिसे सुख कहा जाता है उसका अनुभव नहीं कर पाती मैं. वह सब ऊपर का आरोपण भर रह जाता है. जो मिलता गया स्वीकारती गयी. निभाये जा रही हूँ, अपनी क्षमता भर. सबको लगता है मैं भाग्यशाली हूँ. पर भीतर कितनी अशान्ति! सुख काहे में है? मन ही नहीं तो क्या सुख और क्या दुख!. पर एक बात मेरी समझ से बाहर है. तुमने कहा था जो मैं हूँ, वही अर्जुन है. तात्विक दृष्टि से सही होगा, पर मेरी मानव बुद्धि दोनों में अंतर देखती है. पाँचो को एक कहते हो न. अर्जुन मेरा एक बटा पाँच पति. युधिष्ठिर का आज्ञाकारी भाई, कुन्ती माँ का बेटा, पाँच पाण्डवों में से एक! पाँच बार उतना- उतना जोड़ कर एक पूरा बन सकता होगा- संपूर्ण व्यक्तित्व संपन्न एक समर्थ प्राणी! एक बार में मुझे एक हिस्से को पूरे मन से ग्रहण करना है, दूसरी बार दूसरे को उतनी ही निष्ठा से. ऐसे पाँचो को समान समझ कर चलना है. कृष्ण, यह तो बड़ी ऊँची चीज़ है. ऐसी कोई साधना और किसी के लिये क्यों नहीं निर्धारित की गई, एक मैं ही बची रह गई तोड़ने, बाँटने, और हर दाँव पर लगाने के लिये?... पर अब छोड़ो.. जाने दो वह सब. मैं भी तो अपनी आकुलता तुम्हीं से बाँटने बैठ जाती हूँ. '

'मित्र हूँ तुम्हारा! तभी न दौड़-दौड़ कर चला आता हूँ. मैं भी तो तुम्हारे नेह पर, तुम्हारी प्रखरता पर विश्वास कर, जीवन के पृष्ठ खोल देता हूँ. कृष्णे, मैं टिक कर रह ही कहाँ पाया? भागता रहा जीवन भर. रुक्मिणी हो चाहे भामा, सी के पास नहीं. पत्नियों को मेरी रानी होने का गौरव मिला, संतान मिली पर मेरा सामीप्य नहीं. भटकता रहा मैं. सबका साक्षी बना मैं! बस एक राधा के समीप नहीं रहा. '

पांचाली चुप है.

'मैं बोल रहा हूँ और तुम कहाँ खो गईं? फिर कहोगी... '

'तुम बोलते हो, मैं सुनती हूँ. शब्द कानों में जाते हैं और मन उनकी किसी लहर में बह जाता है. उस डूब में तुम्हीं ले जाते हो फिर तुम्हीं खींच लाते हो बाहर.. ' कहते-कहते कुछ सोचती -सी द्रौपदी को हँसी आ गई,

‘कहते हो राधा के समीप नहीं रहे. झूठे कहीं के. उससे दूर तुम रहे कब? वह भी डूबी रही और तुम सब कुछ करते हुये, हर जगह रहते हुये भी सिर्फ़ साक्षी रहे,तुम्हारा भोक्ता मन तो वृन्दावन के एकान्त में चुप बैठा राधा का नाम जप रहा होगा. तुम कह कर छुट्टी पा लेते हो, मुक्त हो जाते हो पर मेरे भीतर सब उतरता चला जाता है, उद्विग्नता और बढ़ जाती है. तुम्हारी वह विरहिणी मेरे भीतर आसन जमा कर बैठ गई है. ये कैसी स्थितियाँ हैं, सोचना मुश्किल है, कहना और भी कठिन. '

'कृष्णे, मुझसे सहानुभूति हो रही है तुम्हें?'

'सहानुभूति परायों से होती है कनु! तुम जो कहते हो वह मेरे भीतर कहीं गहरे में घटने लगता है. '

'हाँ, यही तो राधा ने कहा था. उसने कहा था तुम जो करते हो मैं भी उसकी भोक्ता बन जाती हूँ. मुझे उससे छुटकारा नहीं मिलता. बार बार वह अनुभव अपने को दोहराता है- और तीव्र और सघन हो- हो कर.'

वह बोली थी -

'विवाह? वह साँसारिक बंधन है कनु, तुमसे मैं ऐसा नाता नहीं चाहती जो सांसारिक व्यवहारों के निर्वाह के लिये जोड़ा गया हो. मन चाहे कहीं और हो, शरीर को निभाना पड़े वह संबंध मुझे नहीं चाहिये. तन से न हो भले, मन लीन रहे वह अखंड प्रेम चाहती हूँ. '

कैसा लग रहा है, कृष्णा को? सुने जा रही है एकदम चुप.

कृष्ण मुझसे उन्मुख हैं या स्वगत-कथन चल रहा है -

'मैं अपने लिये कब जी पाया? जीवन भर भटकता ही तो रहा हूँ. जिससे अनायास जुड़ा था वह बहुत पीछे छूट गया! '

कुछ पल मौन!

'और सबको मैंने पहले ही स्पष्ट कर दिया था - मैं राजा नहीं, राजकुमार नहीं, बंदी-गृह में उत्पन्न हुआ एक बहुत साधारण व्यक्ति, एक ग्वाला, जो निरंतर आघात झेलता रहा. गायें चराता था. संदीपनि गुरु का शिष्य होकर जीवन की शिक्षा ग्रहण की, कृष्णे, तुम मेरी मित्र हो तुमसे कुछ छिपाना नहीं है.

'रुक्मिणी से कह दिया था मैंने कि तुम विवाहिता बन कर मुझे बाँधने की चाह मत रखना क्योंकि मैं जिन परिस्थतियों की उपज हूँ उनका भारीपन मुझे हल्का नहीं होने देता. जाने कितने ऋण सिर पर ले कर संसार में आया हूँ. वह चुकाना हैं मुझे. कर्ज़दार होकर सुख-शान्ति का भोग कहाँ! यह अधिकार, मान-सम्मान, सुविधायें, राज्य, ऐश्वर्य-विलास मेरे लिये नहीं. ये माध्यम भर हैं जिनसे उद्देश्य पूरा हो. कोई नहीं समझेगा मेरी असंपृक्ति, मेरी विवशता को. सब को लगता है ये सारे उपक्रम अपने हेतु कर रहा हूँ. पर इनमें कहाँ मेरा स्वार्थ है? आगत का अनुमान करता हूँ, मन का दाह और बढ़ जाता है. मेरे ही कुल को लो - यदुवंशियों का हाल देखा है? उनका मद और अविवेक उन्हें कहाँ पहुँचा गया! ऐसी दशा में वे कितना टिक पायेंगे! नाश अवश्यंभावी है. कौन रहेगा मेरा अपना कहने को?'

चुप्पी छा गई कुछ देर.

फिर पांचाली के धीमे से स्वर-

'कैसा लगता होगा तुम्हें? फिर भी कैसे रह पाते हो इतने स्थिर-चित्त?'

'कैसा लगता होगा! ' कृष्ण ने दोहराया,

'जिसके कारण माता-पिता बंदीखाने में पड़े रहे हों. सात- सात भाई, जन्मते ही मौत के घाट उतार दिये गये, जिसे बचाया गया है बहिन के जीवन को दाँव पर लगाकर, उसका जीवन क्या उसका अपना रह गया? इतना भार चढ़ा हो जिस पर कृष्णें, वह कैसे उत्सव का जीवन जी सकेगा, कैसे चैन से बैठ पाएगा!..

माता-पिता से दूर पाला गया. सदा षड्यंत्रों के दाँव, हर समय मृत्यु की छाया में जिया. सब के संताप का कारण बन गया मैं!

जो दुखों में डूबे रहे मेरे कारण, उन्हें उबारना मेरा ही दायित्व तो है...,'

कृष्णा को लग रहा है सबको आनन्द देनेवाला, सबका साथ निभानेवाला यह व्यक्ति कितना अकेला है, कितना निस्संग!

तब राधा स्तब्ध थी, और आज द्रौपदी अवाक्!

यह क्या कह रहे हैं कृष्ण! क्या यही है रसिया कहानेवाला आनन्दी मोहन, जिसने सारी ब्रज-भूमि में रस की धार बहाकर- जनमन सिक्त कर दिया. सब को हँसाता रहा, खेल खिलाता लीलाएँ दिखाता रहा - वह स्वयं इतना अनासक्त!

कृष्ण अपने आप में डूबे, भान नहीं शब्द राधा के हैं या द्रौपदी बोल रही है-

'कनु, और कोई तुम्हारे. साथ हो न हो,हर स्थिति में, हर अवस्था में मैं तुम्हारे साथ हूँ. '

'हाँ, तुम हो इसी से मैं रह सका हूँ. इस सहज विश्वास के आगे देश और काल के व्यवधान समाप्त हो जाते हैं. तुम मेरी चिर विश्वासिनी!'

4.

यहीं से विषम-जीवन को झेलने की शक्ति मिलती है.

वनवास काल में कृष्ण के साथ उन्मुक्त व्यवहार - कोई रोक-टोक नहीं. जब पाँच-पाँच पति सिर झुकाये बैठे रहे थे और एक पर-पुरुष ने लाज बचाई! संसार की दृष्टि में वह पर पुरुष होगा पर मेरे लिये वह इन पतियों से अधिक विश्वस्त है, मान्य है.

मान्य तो पहले भी था, अब अनन्य हो गया. किसी पति का कोई दखल नहीं वहाँ. जहाँ कृष्ण हैं वहाँ कोई संशय, कोई भ्रम नहीं.

अनमनी बैठी है पांचाली, अपने ही सोच में मग्न.

'जीवन की स्वाभाविकता बनी रहे.' यही तो कहा था उसने.

'और त्याग? व्यर्थ में उसे ओढ़ने की जरूरत क्या है? जीवन मिला है ग्रहण करने के लिये, जो मिला है स्वीकार करो. भागो मत, त्यागो मत. मत करो स्वयं को वंचित-प्रवंचित!

'पांचाली, मीत हो तुम मेरी! स्त्री-पुरुष की मैत्री दोनों को उठाती है. इन्द्रियातीत भावना अंतरतम की गहराइयों तक उतरती हुई आत्मा का उन्नयन करती है. तम्हारा हृदय जब मुझे पुकारता है, जब भी सचमुच तुम्हें जरूरत होती है, मैं दौड़ा चला आता हूँ. '

मन की द्विविधा मुख पर आ गई थी -

'सामान्य नारी का जीवन कहाँ रह गया मेरा?....लगता है मेरी बारी आते ही जैसे सब कुछ बदल जाता है. सबकी एकदम अलग प्रत्याशाएँ. मुझी से. जो आदर्श घुट्टी में पिलाए गए हैं उन्हें उतार फेंकना भी क्या इतना आसान है?'

'समझती क्यों नहीं कृष्णे. तुम्हें चुना है नियति ने कुछ विशेष होने के लिए. '

'नहीं, प्रश्न निष्ठा का है. '

'उसके होने न होने का प्रश्न ही कहाँ? जो तुम पर लाद दिया गया है निभा रही हो. अपने सुख के लिये तुमने कुछ नहीं किया, फिर यह कुंठा क्यों? सबसे विवाह तुमने स्वेच्छा से नहीं किया. सोचने का ढंग बदलो, ये सब बनाई हुई रीतियाँ हैं. '

'पर सबको बराबर हिस्सा, सब से एक सा व्यवहार, एक-सा समर्पण. कैसे. कैसे?' जैसे आत्मालाप कर रही हो.

'कुन्ती बुआ के मन की बात थी- उनके पुत्र इस विषम काल में बिखर न जायँ. वही तो कर रही हो तुम. साधे हो सबको. अन्याय किसी पर न हो, इस किसी में तुम भी सम्मिलित हो. सहज होकर करो वही मन जिसकी गवाही दे. पांचाली, पाँचो तो अपनी उँगलियाँ भी बराबर नहीं होतीं!

समझती क्यों नहीं तुम उनकी विवशता! तुम्हारी बुद्धि कहाँ सो जाती है? जानता हूँ यह अपराध- बोध क्यों - मन का विशेष अनुराग अर्जुन के लिये, न?’

द्रौपदी चुप.

'स्वयंवरा थीं. उसे वरा था तुमने. बीच में कोई नहीं था. किसी के साथ अन्याय नहीं था. शंकित मत होओ. अगर पुरुष में छूत नहीं तो नारी में भी नहीं '.

'तुम कैसे निभा पाते हो इतना और फिर भी निश्चिन्त?'

'आदर्श इतने भारी क्यों बना ले सखी,कि वे जीवन पर लदे रहें!व्यावहारिक जीवन में न्यायसंगत, और स्वयं को संतोष देनेवाला व्यवहार उचित नहीं क्या?'

'पर मैं कितनी विभाजित हूँ. किससे आशा करूँ? सब एक दूसरे से बँधे हुये, एक दूसरे का मुख देखते हुए. एकान्त भाव से न मैं किसी की पत्नी बन सकी न कोई मेरा पति- कहाँ है मेरी संपूर्णता? '

कृष्ण ने हाथ पकड़ लिया है,' गंभीरता से मत लो सखी! खेल समझ कर खेलो, स्वयं को सहज रख कर जितना कर सको. आरोपित वस्तुएँ ऊपर -ऊपर से ही बीत जाएँ. विचार की प्रखरता दुख का कारण क्यों बने?'

'और जब मुझ पर आरोप लगेंगे?'

'कौन लगाएगा? किसी ने तुम्हारे आरोपों का निराकरण किया?

यह जीवन के दाँव हैं सबके अपने. हर कोई खेल रहा है यहाँ. चालें चली जा रही हैं सब खत्म हो जायेगा खेल के साथ. '

द्रौपदी सोचती रह जाती है.

कैसे समाधान करें कृष्ण!

'.... जो जैसा है वैसा ही रहने दो, अपने पूर्वाग्रह मत थोपो. सत्य को जीना जीवन है. हम यहाँ सत्य को बदलने नहीं उसकी वास्तविकता के बीच अपने व्यवहार को माँजने आये हैं, जिस भी रूप में वह सामने आता है जियो, सबसे तटस्थ, अपने अनुसार.

सौंप दो अपने को इन लहरों में, बहे जाओ. सहज रूप से. क्योंकि इससे बचने का कोई उपाय नहीं. कहीं निस्तार नहीं. विराट् चेतना के अंश रूप में इस दृष्य-जगत की साक्षी बनती चलो. फिर कोई कर्म तुम्हें नहीं व्यापेगा. '

उसाँस भरी पांचाली ने - कितना कठिन है निभाना!

कैसी -कैसी बातें कितना तटस्थ हो कर कह जाता है यह. और मैं लाचार सुनती हूँ. कोई उत्तर नहीं होता मेरे पास. लगने लगता है मैं स्वयं को भी उतना नहीं जानती जितना यह जानता है. मैं उससे हार जाती हूँ.

कैसा है यह मेरा मीत!

अंतर तक पढ़ लेता है. मेरा कुछ छिपा नहीं रहता उससे.

मुझे ही मेरे सामने खड़ा कर देता है, मेरा सच उद्घाटित हो जाता है उसके आगे, नकार नहीं पाती मैं. उसके आगे मैं अपने सहज रूप में रह जाती हूँ - आडंबर-आवरण रहित. जैसे दर्पण में अपने आप को देख लिया हो.

भरी सभा में मेरी नग्नता पर आवरण डालनेवाला वही तो था. मेरी लाज का रखवाला वही तो था, मेरा सखा, मेरा मित्र!

क्यों याद आता है वही बार-बार - मैं उस दारुण क्षण को भूल जाना चाहती हूँ!

खो देना चाहती हूँ अपने आप को किसी बीहड़ में जहाँ स्वयं अपनी सुध न बचे.

बस तुम्हें याद कर आश्वस्ति मिलती है. मीत मेरे, मैं स्वयं नहीं समझ पाती तुम्हें, कैसे कलाधर हो- चंद्रमा की सारी कलाएँ एक पंक्ति में खड़ी हो जाएँ तो भी तुमसे उन्नीस ही रहेंगी!