कृष्ण सखी / भाग 21 - 24 / प्रतिभा सक्सेना

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21.

खांडव वन की परिणति अति रम्य और सुनियोजित, सुस्थापित वैभवपूर्ण नगरी में हो चुकी थी, नाम करण किया गया- इन्द्रप्रस्थ!

सब कुछ सुचारु रूप से संपादित होता रहा.

कृष्ण के साथ विचार-विमर्ष में निश्चय किया गया कि लोक में प्रतिष्ठा-पूर्वक स्थापित होने के लिये राजसूय यज्ञ का आयोजन हो, इस भूमि पर गुरुजनों के चरण पड़ें.अपनी सामर्थ्य से अर्जित इस वैभवपूर्ण नगरी को सब देखें, मान-सम्मान में वृद्धि हो.

समारोहपूर्वक आयोजन किया गया.

देश-देश के नरेश, महार्घ उपहार ले-ले कर उपस्थित हुये. धन-संपदा का कोई ओर-छोर नहीं. कौरवों को सपरिवार-परिजन आना ही था वे तो घर के ही लोग थे.

बड़ा भव्य आयोजन था!

वासुदेव कृष्ण को देवपूजा का परम-सम्मान देने के धर्मराज के मत को अधिकांश का समर्थन मिला. दुर्योधन आदि परम असंतुष्ट. पर जब पितामह ने सहर्ष स्वीकार कर लिया, वे विरोध कैसे करें!

द्वारकाधीश कृष्ण, पट्टमहिषी रुक्मिणी के साथ पधारे थे. श्यामल जनार्दन के संग, नाम के अनुरूप हिरण्यवर्णी आभा से दीप्त रुक्मिणी. सबके नयन उस दिव्य जोड़ी पर टिक गये.

शिशुपाल ने देखा, उसके नेत्र रुक्मिणी की ओर से हट नहीं रहे थे- मेरी वाग्दत्ता थी यह, आज मेरे संग होती! मेरी वस्तु को.यह चोर, ग्वाला हर ले गया. कैसी अनीति! कृष्ण का वहाँ होना सहन नहीं कर पा रहा था वह. ऊपर से अग्रपूजा का सम्मान भी उन्हीं को अर्पित.

पितामह भीष्म, और अन्य पूज्य गुरुजन जहाँ विद्यमान हों, वहाँ एक प्रपंची अहीर का छोरा, उच्चतम सम्मान का भागी बने, आक्रोश से भर उठा वह. यह पाखंडी, राजा बन गया तो क्या! रहेगा तो वही पशु चरानेवाला ग्वाला, पराई स्त्रियों को बहकाने से कभी चूका है!

चेदिराज शिशुपाल का संचित आक्रोश फूट पड़ा. यहाँ दुर्योधन की मंडली को अपने अनुकूल पा उसका साहस बढ़ा. विरोध करने पर उतारू हो गया. खुल कर अपशब्द और गालियों का कोश खोल दिया.

जनार्दन वचन-बद्ध थे. शान्त रह मन ही मन सौ तक अपराध गिन -गिन कर क्षमा करते रहे. और हर दुर्वचन के बाद शिशुपाल का साहस बढ़ता गया. सारी सीमायें लाँघ लीं उसने.

कृष्ण ने चेतावनी दी, 'बस, अब आगे नहीं.'

मद में चूर था शिशुपाल. और उत्तेजित होकर चीखने लगा.

बस, एक सौ एकवीं गाली उसके मुख से बाहर आई और वासुदेव ने सुदर्शन चला दिया.

इतने कुवचन सुनते-गिनते, उद्विग्न-मना जनार्दन से, चक्र के संधान में पूरी एकाग्रता नहीं रही. चक्र की तीखी धार उन की अँगुली से रगड़ती, घायल करती चली गई.

कृष्ण हाथ उठाये रह गये. फिर सामने ला कर देखा - रक्त रिसने लगा था

युठिष्ठिर त्वरा से बढ़े कहीं वे बूँदें धरती पर न गिरें, अनर्थ हो जायेगा!

भैया का हाथ पकड़, अँगुली मुट्ठी में दबा ली.

महारानी द्रौपदी विचलित.

आसन छोड़ उठ आईं.' आह, मेरा बांधव!'

युठिष्ठिर हतबुद्ध - कैसे रुके उन बूँदों का प्रवाह?

महारानी ने क्षण भर भी विलंब किये बिना, चर्रर् से अपने चीनांशुक का आँचल फाड़ा.

सारी सभा स्तब्ध!

शिशुपाल का शीश तो उड़ गया पर उसे देखने का अवकाश किसे!

वस्त्र की चीर, फाड़ कर याज्ञसेनी बंधु की अँगुली को वस्त्रावृत्त करने लगी.

कृष्ण की आपत्ति को स्वर भी न मिल पाया, कृष्णा ने हाथ पकड़ा और सँभाल कर घाव को लपेट दिया..'

'कैसा ऋण चढ़ा दिया, शुभे ' वे बुदबुदाये किसी ने सुन नहीं पाया.

पांचाली को लगा पीड़ा के उद्गार हैं.

'बहुत पिराता है, मीत?'

'नहीं, परम शान्ति पड़ गई- तुम्हारा नेह!..पर तुम्हारा मंगल-वस्त्र? यज्ञ में व्यवधान पड़ गया न!'

'खल-जन कहीं बाधा डलने से नहीं चूकते. पर जहाँ तुम हो कुशल-मंगल में काहे की बाधा!'

कृष्णा भावुक हो उठी.

कहीं नयन न छलक उठें मुरारी ने सिर हिला कर बरजा उसे.

दृष्टि फिरी सबकी तो देखा, सुभद्रा नये परिधान लिये खड़ी हैं. चित्रांगदा, उलूपी आदि राज-रमणियाँ व्यग्र-सी उसके साथ.

'देवी, चलिये ' वे तत्परता से पांचाली को लिवा ले गईं- सुपरिधानित करने हेतु.

पुत्रों की मंडली सचेत हो गई थी,

इरावान, वभ्रुवाहन, घटोत्कच, अभिमन्यु द्रौपदी के पाँचो पुत्र, उन के सहयोगी मित्र आदि सचेत हो गये थे. सबकी दृष्टि इधर ही लगी थी.

राज-महिषी के चीनांशुक की पट्टी- बँधा, दाहिना हाथ उठा कर लहराया कृष्ण ने, सबको आश्वस्त करने कि सब ठीक है.

कार्यक्रम फिर चल पड़ा था, जैसे कुछ हुआ ही न हो.

22.

यह तेरह वर्ष का वनवास, एक वर्ष अज्ञातवास सहित- उत्तरदायी कौन?

उधर पार्थ गिरि-वनों की धूल मँझाते लोक-परलोक एक करते एकाकी भटक रहे हैं. तपस्या? दंड? प्रायश्चित? या इन अवांछित, असह्य स्थितियों से दूर चले जाने का बहाना?

पूरा परिदृष्य चल-चित्रों-सा पांचाली की स्मृतियों में घूम गया - .

राजसूय-यज्ञ का समारोह विसर्जित. पितामह, महाराज, कर्ण, दुर्योधन आदि, सभी का लौट जाना.

अगले क्रम में आतिथ्य ग्रहण करने की बारी पांडवों की.

हस्तिनापुर से निमंत्रण आया - बहुत दिन हो गये हम सभी भाई एकत्र हो कर आनन्द नहीं मना पाये, अब कुछ दिन हस्तिनापुर आ कर महाराज धृतराष्ट्र को अपने सामीप्य का सुख दीजिये.

कुछ समय चैन से बीता और एक दिन शकुनि और दुर्योधन ने द्यूत का प्रबंध कर डाला. धर्मराज कुशल खिलाड़ी थे, और द्यूत के व्यसनी भी.यों भी राजाओं के लिये द्यूत के निमंत्रण को अस्वीकार करना शिष्टचार के विरुद्ध है.

फड़ जम गई और खेल ही खेल में दाँव चलते रहे. शकुनि के पाँसे निर्णय करते रहे जिसकी चरम सीमा थी पांचाली का चीर-हरण.

पूरा घटना-क्रम पांचाली की स्मृति में घूम गया.

उस चरम निराशा और घोर अपमान की दारुण स्थिति में भी याज्ञसेनी की विचार-शक्ति कुंठित नहीं हुई थी, प्रखर बुद्धि, तेज-हत नहीं हुई थी, अनीति और औचित्य पर प्रश्न उठाती रही थी वह.

धृतराष्ट्र हतप्रभ थे - भीम और पांचाली की प्रतिज्ञाओं से विचलित. तेजस्विनी कुल-वधू कहीं शाप न दे दे इसका भय और अपनी भी तो साख बचानी थी उनको.उदारता का प्रदर्शन करने लगे.

नारी ने अपनी लज्जा बचा ली थी, पुत्रों का भविष्य दाँव पर लगा दिया गया था. कैसे छोड़ देती जीवन भर अपमान सहने के लिये! उन्हें कोई दासी-पुत्र, या दासों की संतान न कह सके - वस्त्रभूषण रहित, दैन्य ओढ़े, बेबस पतियों को दासत्व से मुक्त दिलायी, उनका राज-पाट वसूला और अंत में अपने लिये कुछ माँगने की बात पर स्पष्ट मना कर, क्षत्राणी के उपयुक्त स्वाभिमान को हत नहीं होने दिया.

दुर्योधन का कुचक्र कुंठित होगया, सबके शीश झुक गये.

सब-कुछ पुनःपूर्ववत् हो जाये इसका प्रबंध कर लिया था पांचाली ने अपनी प्रपन्नमति, साहस और नीतिमत्ता से, फिर कैसा व्यवधान आ खड़ा हुआ कि उसका किया-धरा सब बेकार हो गया. और आज वनवास में जीवन बिताना पड़ रहा है.

सब का अग्रज, सबसे अधिक उत्तरदायी था जो व्यक्ति, निर्णय फिर उसी ने लिया था.

वह समझ नहीं पाती कि उनके मन में क्या है, या सबसे ही - उदासीन हैं. जो होता है उसे वैसा ही होने दो.

क्या यही धर्म है?

अनीति होते, अत्याचार होते देखते रहना नीति है या धर्म? धर्म अत्यंत गूढ़ वस्तु है या सहज-स्वाभाविक!.

अगर गूढ़ है सब उसे समझ नहीं सकते तो वह सबके लिये साध्य नहीं हो सकता! इतना सहज हो कि सर्व-सुलभ, सर्वसाध्य-सर्वमान्य हो सके. सबके कल्याण का, सबके सुख का मार्ग प्रशस्त कर सके.सहज प्रस्फुटित हो अनायास अंतर में जागे, सुन्दर संकल्प के समान.

याज्ञसेनी को लगता है वासुदेव धर्मराज के परम मान्य हैं, वे, उन्हें धर्म की मर्यादा का संस्थापक मानते हैं. फिर उनकी तरह विचार क्यों नहीं कर पाते? इन्हीं के उस बंधु ने कितनी रूढ़ियाँ निश्शंक हो कर तोड़ दीं.नई मर्यादायें रच दीं.एक सहज मानवी दृष्टि लेकर जो उचित लगा उससे विरत नहीं हुआ. किसी का कुछ कहना कभी उसके आड़े नहीं आया.

उसने पति से कहा था, ' नीति की आड़ ले कर जो विकृत खेल खेला जा रहा है उससे विरत तो रह ही सकते हैं. आप की इच्छा-शक्ति को कोई कैसे विवश कर सकता है?'

'बात इच्छा-शक्ति की नहीं, अगर सद्भाव-पूर्वक सब ठीक हो जाये, सारा मनोमालिन्य धुल जाय तो सबसे अच्छा.प्रयत्न से क्यों विरत हों हम!'

पांचाली को लगता है कृष्ण ने कितने विरोध झेल कर अनीति पूर्ण मान्यताओं को जड़ से उखाड़ फेंका. और बहुत सहज रहते हुये नये मान स्थापित कर दिये. पर उसने पति से कहा नहीं - कहीं यह न समझ लें कि तुलना की जा रही है या हीनता-बोध कराना चाहती है.

पूरे परिवार को ऐसी विषम स्थितियों और कुत्सित षड्यंत्रों से घिरा देख वे कैसे शान्त रह लेते हैं, उसे विस्मय होता है.


23.

कैसे भूल सकती है उन घटनाओं को जिनने जीवन की धारा को एकदम मोड़ दिया

उस गर्हित कांड के बाद सब कुछ अतीत कर जब वे इन्द्रप्रस्थ के लिये प्रस्थान करने लगे तभी महाराज धृतराष्ट्र के भेजे दूत उपस्थित हुये.

'आपके ताऊ-श्री ने बड़े नेह से आग्रह किया है जो पिछले दिनों हुआ. बहुत अनुचित हुआ, उनका मन खिन्न है. चाहते हैं कुछ समय शान्ति -स्नेह पूर्वक साथ में बीते.अनुज का ध्यान आता है तो अंध-नेत्रों से अश्रु-पात होने लगता है. उनका चित्त बड़ा अशान्त है, बहुत व्याकुल हैं. उनकी हार्दिक इच्छा है कि आप लोग, अच्छे वातावरण में, प्रसन्न मन से कुछ दिन उनका आतिथ्य स्वीकार कर उन्हें सुख दें.'

'कृपया रथ लौटा लें. ऐसी विषण्ण मनस्थिति में उन्हें छोड़ कर न जायँ.'

'वे युवराज दुर्योधन से विशेष असंतुष्ट हैं.'

'हमारा आग्रह नहीं मानेंगे तो स्वयं महाराज आपसे विनती करने पधारेंगे, श्रीमन्!'

पाँचो भाई एक दूसरे का मुँह देख रहे हैं. यह कैसा विचित्र व्यवहार!

युधिष्ठिर सोच-मग्न थे -उन चारों को फिर से रुकने की बात अरुचिकर लग रही थी.वे अनेक प्रकार से परस्पर अपने मत व्यक्त कर रहे थे.

और पांचाली स्तब्ध- इतना सब-कुछ हो गया और फिर वही प्रस्ताव!

वह तो पल भर नहीं रुकना चाहती. जाना चाहती है अपने पुर में. बहुत कुछ बीत चुका है उसके ऊपर से.अपने निवास में रहना चाहती है, जहाँ केवल उसका परिवार हो. चुपचाप शान्ति से बैठकर कुछ विचार करना चाहती है. बार-बार अकुलाते मन को स्थिर करना चाहती है. आतिथ्य ग्रहण करने की मनस्थिति नहीं है उसकी.

अर्जुन ने कहा था, ’फिर वही आमंत्रण! उनके छल-कपट से कौन अनजान है. कितनी बार उनकी चाल में आ चुके हम लोग. वो तो ये कहो कि सावधान करने वाले विद्यमान थे तो हम जीवित हैं आज. वे हमें अपने रास्ते हटा कर अपना अधिकार पूरी तरह निष्कंटक करना चाहते हैं.'

' हर प्रकार से हमें वंचित कर अपना वर्चस्व स्थापित करने की उनकी योजना है.'

चारों भाई विविध प्रकार से अपनी अनिच्छा-आपत्ति व्यक्त करते रहे,

युठिष्ठिर सबकी सुनते रहे.

'कुछ लोग हैं ऐसे, पर सब नहीं.हमारे प्रति सद्भाव भी तो है लोगों में, विदुर चाचा तो कभी उनकी ओर नहीं झुके.ताऊ-श्री के हृदय में हमारे लिये नेह ने ही हमें इन्द्रप्रस्थ जैसे समृद्ध राज्य का अधिकार दिया. ...और पितामह, उनके लिये तो मैं ऐसा सोच भी नहीं सकता.. '

सबको लग रहा था, जी नहीं भरा अभी तक बड़े भैया का.इतना देख-सह कर भी सावधान नहीं हुये.

पांचाली सोच रही है -जो ग़लत है, ग़लत ही रहेगा.जब बोलेंगे ही नहीं तो चलती रहेगी उनकी मनमानी.

वे लोग इनकी दुर्बलता को जानते हैं - ये उनका विरोध नहीं करेंगे.

उसे लग रहा था पता नहीं आगे क्या खेल रचेंगे वे लोग, और ये धर्मराज बड़े आज्ञाकारी बने, उन की चाल में आ जायेंगे.

उन लोगों से, जिनने सदा बैर साधा, चालें खेलीं, नीचा दिखाया उन्हीं से घिरे रहेंगे वहाँ.हमें क्या करना है, सब मिल कर निर्णय क्यों नहीं लेते. सहधर्मिणी से, नहीं तो भाइयों से ही बात कर लें उनका मत, उनके विचार भी जान लें.

24.

सहधर्मिणी? अचानक ही कुछ चुभ उठा अंतर में.

जब दाँव पर लगा कर हारे, तभी पति होने का अधिकार दूसरों को सौंप दिया था.

धर्मराज बताओगे - दाँव जीतनेवालों से जब स्वतंत्र कर दिया गया मुझे, तब क्या दुबारा...... , अब मैं तुम्हारी क्या लगती हूँ?

कभी पूछ सकेगी क्या ?

वे चारों तो इस प्रश्न के घेरे में आते ही नहीं.

किससे कहे अपनी बात? बस एक है जिसके सामने मन की द्विधा व्यक्त कर सकती है.

कृष्ण की बहुत याद आ रही है.

भीम के स्वर कानों में पड़े, “सद्भावना पूर्ण मन-रंजन नहीं, खेल नहीं, कुचालें हैं उन सबकी. दुर्भावनाओं का खुला खेल, और हमें वंचित करने का पूरा षड्यंत्र. सब जान कर भी वहाँ हमारे गुरु-जन चुप रहते हैं. '

अर्जुन भी चुप न रह सके,' पितामह की तेजस्विता पर ग्रहण-सा लग जाता है.मुद्रा से आभास होता है, पर उनका असंतोष कभी मुखर नहीं होता.ताऊ-श्री को अपने श्यालक, शकुनि के आगे कभी मुँह खोलते नहीं देखा, और दुर्योधन की चौकड़ी के प्रमुख तो उनके मामा-श्री हैं ही. '

'ताऊ -श्री धृतराष्ट्र पुत्र-मोह में किसी की सुनते लहीं, न तात विदुर की न पितामह की, खेल खेल नहीं, चाल है उन सब की.जान कर भी चुप.'

'कपट-बुद्धि कार्य कर रही हो. फिर भी प्रतिरोध न करें. नीति यह तो नहीं कहती.'

पर, यही हुआ था - आशंका होते हुये उससे विरत होने का प्रयास नहीं किया गया.शान्तिपूर्वक रीति-नीति-धर्म का पल्ला पकड़े सब कुछ घटने का माध्यम बने रहे.धर्म में बुद्धि का प्रयोग वर्जित है क्या? रीति-नीति क्या लीक पर चलते जाने से निर्वाहित होती हैं? पांचाली सोच रही थी, बोलने का अवसर ढूँढती-सी.

अंत में बोल ही दी,' अगर चुपचाप अनर्थ घटते देखना समर्थ पुरुष का धर्म है तो पाप क्या है?'

'पाप-पुण्य की गूढ़ व्याख्यायें करने का यह अवसर नहीं, अभी दूतों की बात पर निर्णय करना है.'

और कुशल दूत कहते रहे -

'महाराज का कहना है, आपके साथ जो व्यवहार हुआ कदापि उचित नहीं था, उसी का निराकरण करना चाहते हैं.'

वे चारों वयोवृद्ध व्यक्ति दूत बने बहुत विनय दिखाते हुए वाक्पटुता से युठिष्ठिर को मना रहे हैं.

एक ओर भाइयों की आपत्तियाँ, दूसरी ओर दूतों के विनम्र निवेदन, तात-श्री के आग्रह- अनुरोध का बखान.

इन्द्रप्रस्थ के महाराज युठिष्ठिर दोनों पक्षों को तोलते परम शान्त.

'हम चरणों में विनत हो कर निवेदन करते हैं. महारानी आप तो साक्षात् करुणा की अवतार हैं. आप ही महाराज युठिष्ठिर को समझाइये. क्या अपने तात-श्री का यहाँ आ कर आपको मनायें आप चाहेंगी? हम बूढ़ों की विनती की लाज रख लीजिये.'

'हम बहुत श्रान्त हो गये हैं, अपनी नगरी छोड़े कितना समय हो गया.ताऊ-श्री हमारी विवशता समझेंगे.अभी प्रस्थित होने की अनुमति दें, निकट भविष्य में पुनः दर्शन करेंगे.”.

पति की ओर देखती द्रौपदी का उत्तर था

वाचाल दूत कहाँ माननेवाले, ' अभी महलों में चल कर पूर्ण विश्राम कीजियेगा महारानी, और उधर, आपकी नगरी के समाचार भी पहुँचते रहेंगे. सब सुव्यवस्थित, और महाराज के प्रताप से हर ओर शान्ति सुख छाया है.’.

भीम ने आगे बढ़ फिर चेताना चाहा, 'उनके लोभ का कोई छोर नहीं.वे हमें सहन नहीं कर सकते.'

युठिष्ठिर उलझन में, 'पर ये तो ताऊ -श्री ने कहलवाया है. उनसे तो हमारा बैर नहीं. हमारे पूज्य हैं वे.'

‘इतना सब हो गया, क्या रोक सके वे. अब हम क्यों जायें?.'

फिर यह उनकी चाल है -भीम का कहना था.

'जो ग़लत है, ग़लत ही रहेगा..जब बोलेंगे ही नहीं तो चलती रहेगा सबकी मनमानी.'

क्या अभी भी नहीं भरा जी? नीतिज्ञ वही -जो समयानुकूल नीति निर्धारित करे. आखिर ये चाहते क्या हैं?

पांचाली प्रतीक्षा में थी कि वे मत जानने को जब उससे उन्मुख होंगे और वह स्पष्ट कह देगी, मेरा मन यहाँ से बिलकुल उचट. गया मुझे विश्राम चाहिये- पूर्ण विश्राम. बहुत थक गई हूँ. अपने घर जाना चाहती हूँ.शान्ति चाहती हूँ.

पर उन्होंने उधर देखा भी नहीं.

अर्जुन हत्बुद्ध, भीम नकुल -सहदेव, बड़े भाई का मुख देखते रह गये थे जब उन्होंने महाराज धृतराष्ट्र का आमंत्रण स्वीकार कर, हस्तिनापुर में रुकने का आश्वासन, दूतों को दे दिया.

ओह, कैसी दुराशा!

ये नहीं समझना चाहेंगे. अपने आगे किसी की कभी नहीं सुनेंगे.

जानते हैं न, इनका क्या कर सकता है कोई?

जब अपना ही माल खोटा, तो परखैया का क्या दोष?

एकदम विवश विमूढ़ पांचाली!

और फिर एक दिन क्रीड़ा के नाम पर जुए की फड़ जमी.

सब देखते रह गये शकुनि के पाँसे पड़ते रहे और बड़े पांडव वनवास और अज्ञातवास जीत लाये.

इन्द्रप्रस्थ जाने के बजाय पांडव वन के लिये प्रस्थान कर गये.

राज्य का प्रबंध देखने को कौरव बंधु हैं ही.

द्यूत के पासों पर नचाया जा रहा है पांडवों को.

तभी से बीत रहा है इसी ढर्रे पर सबका जीवन.

सोच कर अस्थिर हो उठती है याज्ञसेनी.

कुछ याद नहीं करना चाहती, सारा कुछ विस्मृति के अतल में डुबो देना चाहती है.