कृष्ण सखी / भाग 29 - 32 / प्रतिभा सक्सेना

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29.

नहीं टल सका युद्ध!

पाँच ग्राम भी देने को तैयार नहीं हुये वे.'युद्ध अवश्यंभावी है ' -आभास था. पर अब स्थिति सामने है. हो गई तैयारियाँ

युद्ध चल रहा है.एक और अविराम युद्ध सबके मनो में.

भय? नहीं, केवल भय नहीं. एक अशान्ति, अनिश्चितता, द्विधा और ऐसा कुछ जो स्थिर नहीं रहने देता, चैन नहीं लेने देता पल भर भी.

अपनों को इस अनिश्चितता की लपटों में झोंक देने का दुख! कौन रहेगा कौन, हट जायेगा यह भी ज्ञात नहीं. कितना कुछ खो जायेगा.ये सारे चेहरे, सारे नाम, सारे व्यवहार.पता नहीं कितने होंगे कितने नहीं होंगे कहीं नहीं होंगे.क्या होगी उपलब्धि? क्या मिलेगा राज्य से? और क्या शेष रहेगा जिस पर नये ठाठ ठनेंगे?

कौरवों के सेनानायक -भीष्म पितामह.पूरी आक्रात्मकता से विपक्ष के विरुद्ध डटे हैं , भयानक संहार शुरू हो गया.दोनो पक्ष हताहत हो रहे हैं, कभी-कोई कम तो कभी अधिक. हर दिन एक नया आघात!

बलिष्ठ भुजाओं में वेग भी कम नहीं.पर रण खिंचा चला जा रहा है. अंतर्मन और बहिर्मन के द्विधात्मक प्रत्ययों के बीच तन की स्थिति, मन विषमता कोई नहीं समझ पाता. लक्ष्य तक पहुँच कर भी प्राप्ति बाधित रह जाती है. दिन बीतते जा रहे हैं निर्णायक क्षण पता नहीं कब आयेगा!

हर मन में आशंका. पता नहीं कब क्या घट जाये.बस, एक दूसरे का सहारा!

सब देखे-जाने लोग.एक दूसरे से संबंधित. पक्ष का कोई हत हो या विपक्ष का, अंतर उद्वेलित हो उठता है.

हर दिन एक नया आरंभ, हर संध्या किसी नये विनाश की, निकट संबंधियों के घात की कथा सुनाती निकल जाती है.

♦♦ • ♦♦

उस शाम अचानक कृष्ण आये.आते ही बोले, 'सखी मेरे साथ चलों.'

युधिष्ठिर एकदम पूछ बैठे, 'इस बेला? कोई विशेष कार्य?'

'बड़े भैया, यह युद्ध क्षेत्र है, हर बात बताई नहीं जाती..'

' नहीं, बताना आवश्यक नहीं, तुम हो न! शंका काहे की.मैंने तो केवल कौतूहल वश.....'

पूरी बात नहीं सुनी, कृष्णा की ओर मुड़ कर बोले, 'बहुत शीघ्रता से. बस अपने को वस्त्र से आवृत्त कर लो और चलो.'

याज्ञसेनी ने झटपट पेटिका से स्वर्ण-खचित आच्छादन निकाला और ओढ़ती हुई द्वार के समीप रखे पद-त्राण की ओर चली.

कृष्ण कुछ कहने को हुये पर तब तक वह पहन चुकी थी.

'अच्छा बड़े भैया, अभी आते है अधिक से अधिक दो घड़ी.'

वे बाहर निकल गये.

पांचाली चुपचाप साथ चली आ रही है.

निकलते-निकलते कृष्ण ने कहा, 'आगे युद्ध-क्षेत्र है. मुख पर भी आवरण डाल लो.कोई पहचान ले तो, अच्छा नहीं लगेगा.और लौटने तक ऐसे ही रहना.'

अवगुंठन डाल लिया पांचाली ने, 'बात क्या है, यह तो बताओ..'

'चलती जाओ, सब बता दूँगा, '

युद्ध-क्षेत्र के किनारे से होते हुये वे जिस शिविर में पहुँचे.पर्याप्त स्थान समेटे सज्जा-सुविधाओँ से युक्त किसी राज-पुरुष का शिविर लग रहा था.

द्रौपदी उत्सुक हो उठी, 'किसका शिविर है, हम यहाँ क्यों आये हैं?'

'आशीर्वाद हेतु पितामह के समीप जा रही हो, पदत्राण बाहर ही, इधर, ' कृष्ण ने द्वार-पट की ओर इंगित किया.

शिविर के किनारे आड़ में एक ओर उतार दिये पांचाली ने, फिर बोली, 'उधर क्यों खड़े हो, चलो न!'

'नहीं, मैं यहीं बाहर प्रतीक्षा कर रहा हूँ. तुम जाओ अंदर. द्वारपाल को सँदेशा दो....और सुनो, उसे अपना नाम मत बताना.'

आश्चर्य से देख रही है पांचाली.

'राज- महिषियों के नाम और पहचान परिचारकों को नहीं बताई जाती.राज-कुल की मर्यादा है.'

♦♦ • ♦♦

शिविर में दिन भर के युद्धोपरांत की विश्रान्ति छायी थी

पितामह काष्ठ-चौकी पर विचारों में मग्न ध्यानलीन-से बैठे थे.

दुर्योधन उनसे कितना असंतुष्ट है वे समझ रहे थे.मन में ऊहापोह चल रहा था -

जब से युद्ध प्रारंभ हुआ है उसे लगता है मैं मन से उसका साथ नहीं दे रहा.वह समझता है मैं चाहता तो यह असंभव था कि उन पाँचों में से कोई हत नहीं होता और. मैं जानबूझ कर उन पाँचो को बचा रहा हूँ. उसे लगता है उन्हें मारने का हर अवसर जानबूझ कर गँवा देता हूँ.

उधऱ दुर्योधन क्षुब्ध. भीष्म पितामह को सेनापति बना कर भी इतने दिन हो गये उसका उद्देश्य पूरा होने के आसार नहीं. उनके प्रहार से पांडवों का बाल भी बाँका नहीं हुआ और भीम और घटोत्कच ने उसके सत्रह भाइयों का संहार कर दिया. पितामह आखिर चाहते क्या हैं?

उसे लग रहा था वे हमारे सेनापति बन कर भी उनका पक्ष ले रहे हैं.उनके तर्कों, कारणों, आश्वासनों का कोई प्रभाव उस पर नहीं होता.

उसके मनोभाव समझ रहे हैं भीष्म!

दुर्योधन उद्धत है.अधीरता उसके स्वभाव में है.वाणी पर संयम नहीं रखता, ऐसी बात कहता है जो दूसरे को चुभ जाये.

उन्होंने पूछ ही लिया, 'तुम मुझ पर शंका कर रहे हो, पुत्र?'

'शंका? मैं समझ नहीं पा रहा हूँ पितामह.हमने आप पर विश्वास किया है.आप इतने असमर्थ नहीं कि इन सात दिनों में उनका कुछ न बिगाड़ सकें. आप चाहें तो एक दिन में वारे-न्यारे हो जायँ. तात, मैं क्या कहूँ आप हमारे सेनापति हैं लेकिन..'

'लेकिन?..ऐसा आक्षेप मत करो. मैंने सदा तुम्हारा साथ दिया है, युवराज, मेरी कुछ विवशतायें हैं.पर मैं उन्हें बचा नहीं रहा हूँ. तुम्हें कैसे विश्वास दिलाऊँ..?

कुछ रुके भीष्म, '

स्थिति बड़ी विषम, युद्ध का गणित दुरूह होता जा रहा था.

बस पहले ही दिन, अभी तक एक ही दिन ऐसा हुआ कि विपक्ष के चुने हुये योद्धा विराट् के कुमार उत्तर और श्वेत खेत रहे थे.

पर बाद में पांडवों की ओर से घटोत्कच साक्षात् काल बन कर प्रतिपक्षी सेना पर टूटा था. भीम तो थे ही. भैरव रूप धरे उतर पड़े संग्राम- भूमि में. कौरवों की सेना में हाहा-कार मचा था. कोई गिनती नहीं कितने योद्धा हत हुये. नित्य-प्रति संध्यायें जब जीवित और मृतों की गणना करती हैं तो कौरव पक्ष ही हानि में रहता है. आाठवें दिन तक धृतराष्ट्र के सत्रह पुत्र मारे जाते हैं.

'जो हो रहा है वह सामने हो रहा है. कहने से कुछ नहीं होता तात, यदि कुछ कर सकते हों तो कर दिखाइये. जब हमारे लोग ही नहीं रहेंगे तो कुछ हुआ भी तो क्या लाभ. .  ? “

परोक्ष आरोपों का क्या उत्तर दें भीष्म? कैसे विश्वास दिलायें दुर्योधन को!

'अच्छा कल देखना मेरा शर-संधान! तुम्हारा संदेह एक चुनौती है मेरे लिये. कल का दिन और फिर तो उनमें से एक भी नहीं बचेगा. पाँच शर आज ही उनके नाम से अलग रख रख देता हूँ. लो, तुम्हारे सामने ही,'

पितामह उठे. चलकर गये जहाँ तूणीर टँगा था.

कुछ देर देख कर छाँटते रहे. पाँच तीक्ष्ण बाण अलग कर लिये.

'ये देखो, ये हैं पाँच! एक-एक के नाम का अलग-अलग.

कल अर्ध-रात्रि में अभिमंत्रित करना रहेगा, बस. और फिर तुम देख लेना. देखना कौन बचता है इन रुद्र-शरों से. इन से वे बच नहीं सकेंगे. उनका अंत निश्चित है. '

मन ही मन की प्रसन्न हो उठा था पर मुद्रा गंभीर ही रखी, बोला,' देखिये. आ रहा है कल का दिन और उसका अगला दिन भी. '

'अपनी पत्नी को भेज देना मेरे समीप, अमोघ आशीष के लिये!'

30.

हर्ष से फूला नहीं समा रहा दुर्योधन!

अब नहीं बच सकते पांडव. जीत निश्चित है. बस दो दिन और.

पितामह ने कहा था, 'अपनी पत्नी को मेरे पास भेज देना. उसे अमोघ आशीर्वाद दूँगा. '

ऊंह, अब क्या दो दिन हैं, बस!

शिविर में अपनी मंडली को आमंत्रित कर विजय का उत्सव मनाने लगा.

सारी रात मदिरा के चषक,एक से एक बढ़ कर पाँडवों की हँसी उड़ाते वाक्य और रह-रह कर गूँजते ठहाके.

नशे में धुत उसके अव्यवस्थित शब्द, ' कल ही - जा कर. . कह दूँगा भानुमती से. . चली जाये. . अकेली पितामह के पास. अखंड सौभाग्य का आशीष लेने. . . . '

जिसके जो मुँह आये बोल रहा था. हँसी के फव्वारे छूट रहे थे.

शकुनि ने कहा था,' अरे भांजे,कुछ बाद के लिये भी छोड़ दो, मुँह दुख गया हँसते-हँसते. '

कर्ण कुछ सोच-मग्न, ' मित्र, थोड़ा संयम बरत लो. समय से पहले किसी को सूचना न हो कभी-कभी बात बनते-बनते. . '

बीच में टोकता दुर्योधन बोला,' अब कोई क्या कर लेगा. पितामह के बचन हैं. उनके नाम के पाँच तीर. . '

और वह फिर ठठा कर हँसने लगा.

दुश्शासन ने समझाया 'समझ लो वे पाँचो मृत शरीर पितामह के कक्ष में पड़े हैं. अब वहाँ बचा ही क्या '

सारी रात धूम मची रही.

युद्ध-क्षेत्र के उस शिविर से उस रात वाद्य-यंत्रों और घुँघरुओं के स्वर छन-छन कर बाहर आते रहे. मदिरा में मत्त आधे-अधूरे वाक्यांश शिविर के बाहर तक सुने गये.

सम्मिलित हास्य की फुहारें, विश्रान्त सैनिकों की निद्रा-लीन स्तब्धता को आन्दोलित करती रहीं

ऐसी बातें कहीं छिपती हैं भला!

♦♦ • ♦♦

सेवक ने आकर निवेदन किया - कोई कुल-नारी आई है आपसे मिलना चाहती है.

'कौन ? इस असमय ? इस क्षेत्र में?'

'अवगुंठिता हैं, राजपरिवार की प्रतीत होती हैं?

पितामह ने संकेत किया आने दो.

कौन हो सकती है?

सुभूषिता नारी ने प्रवेश किया.

वे समझ नहीं पाये.

विचार में पड़ गये कौन होगी? वस्त्राभरणों से सौभाग्यवती प्रतीत होती है.

याद आ गया. ओह, कितना भूलने लगा हूँ मैं. कल ही तो दुर्योधन से कहा था, 'अपनी पत्नी को मेरे पास भेज देना.

हाँ भानुमती. वही होगी!

बहुत व्यथित थे. सेनापति बना कर भी दुर्योधन उनका विश्वास नहीं करता.

अवश्य, आशीष लेने भानुमती आई होगी. कहा था मैंने आज का मेरा आशीर्वाद अमोघ होगा. अपनी पत्नी को अखंड सौभाग्य ग्रहण करने के लिये मेरे पास भेज देना.

इस अंधकार की बेला, वही आई होगी. कैसा भुलक्कड़ हो गया हूँ मैं. पर अब याद आ गया था उन्हें.

अवगुंठिता नारी पितामह के चरणों की ओर बढ़ी.

अनायास उनके मुख से निस्सृत हुआ,' कुल-वधू तुम्हारा मनोरथ सफल हो!'

नारी शीष नत किये है. पितामह सँभल कर बैठ गये. अंतर सदय हो आया.

वह समीप आई, झुककर उनके चरण-स्पर्श किये.

वाणी में स्नेह छलक उठा, 'अखंड सौभाग्यवती हो. अखंड सौभाग्यवती भव!'

नारी ने धीमे से शीष उठाया, उस की वाणी फूटी -

'आश्वस्त हुई पितामह!

“ कैसी विडंबना है एक पतियों के संहार का व्रत दूसरी ओर पत्नी को अखंड सौभाग्य का आशीष. क्या सच मानूँ क्या नहीं?'

वे चौंक गये 'अरे, पांचाली! तुम? '

'हाँ, तात कैसी-कैसी असंभावित स्थितियाँ जुड़ी हैं मेरे साथ! किसका विश्वास करूँ, आप परिवार के सर्वाधिक वयोवृद्ध! आपके आशीष को वरदान मानती हूँ...पर मन में कैसी- शंकायें... मेरे अपने ही जब..' कहते-कहते कंठावरोध हो आया.

किंकर्व्यविमूढ़ से पितामह. क्या बोलें!

'न जाने क्यों इस परिवार के लिये मैं पराई ही रही. मेरे मान्यजन भी, जब जब मुझे सहारे की आवश्यकता हुई, मुँह फेर गये.मेरा साथ किसी ने न दिया.पूज्यवर, आप भी तटस्थ हो गये, मैं कुल-वधू हो कर भी....कितनी गई-बीती...'

आगे सुन नहीं सके हो उठे पितामह, '..बस, अब कुछ मत कहो आगे '.

कुछ क्षणों में प्रतिस्थ हो बोले, 'पुत्री, अवगुंठन हटा दो, अब कोई आवश्यकता नहीं उसकी.'

आत्मलीन से हो गये थे ', प्रभु की इच्छा पूरी हो! '

'जो हुआ, आपको उसकी अपेक्षा नहीं थी, तात? क्या मैं...'

'मैं क्या कहूँ..जो होना था, हो कर रहा.भ्रम में मैं ही था. मुक्त केश- राशि वस्त्राच्छादित भी पूरा आभास दे रही थी.नीलकमल की सुगंध कक्ष में व्याप्त हुई तब भी मैं बूझ न पाया. नियति अपना खेल, खेल कर रही.याज्ञसेनी, तुम्हारा व्यक्तित्व भला पट में छिप सकता है! तुम्हें पहचाना नहीं कैसी आत्मविस्मृति छा गई थी मुझ पर!'

' आप पूज्य हैं मेरे, कुछ अनुचित हो गया हो तो परिष्कार कर लीजिये!

मैं अब तक कृपा-पात्री न हो सकी, आगे भी...'

भीष्म के मन में जाने- कौन-कौन सी स्मृतियाँ जाग उठीं, 'बस, बस करो पुत्री, तुम्हारे साथ जो हुआ, मैं दुखी हूँ, लज्जित भी. कितना धिक्कारता हूँ अब भी अपने आप को.'

'बस आपका नेह भरा आशीर्वाद चाहती हूँ तात, और कुछ भी नहीं, '

'जानता हूँ पांचाली, अपने लिये कभी कुछ नहीं माँग सकतीं तुम.'

द्रौपदी चुप है, पितामह कुछ सोचते-से.

'तुम विलक्षण हो पांचाली. इतना संयम, सहनशीलता और कर्तव्य-बोध, तुम्हारी महती...'

उद्वेलित-सी वह बरज उठी, ' तात, महत् और महान्, ये शब्द मेरे लिये नहीं...'

'मिथ्या-भाषण नहीं सच कह रहा हूँ पुत्री, जो कुछ तुम्हारे साथ हुआ उस स्थिति को

निभाना सामान्य नारी के वश की बात नहीं....'

कुछ नहीं कहना, सुन रही है चुपचाप.

'तुम्हें जो आशीर्वाद दिया है सच्चे मन से. पर एक बात तो बताओ, तुम इस अबेला यहाँ कैसे चली आईँ, किसने प्रेरित किया तुम्हें यहाँ आने को?'

'क्या फिर कुछ अनुचित हो गया तात? मुझे बड़ा दुख है कि मेरे पति अपने शील-सौजन्य के कारण सदा मात खाते आये. आप कुल के सबसे मान्य, आपसे सहनुभुति की आशा ले कर आई थी.'

'पुत्री, निश्शंक हो कर जाओ.दैव का विधान! तुम्हें मिला यह आशीष मिथ्या नहीं हो सकता. अब तुम निचिंत हो कर जाओ. रात्रि हो रही है अपने निवास पर जाओ शुभे.'

पांचाली ने दोनों कर जोड़, शीश नत कर प्रणाम किया और घूम कर कक्ष से बाहर निकल गई.

कुछ अव्यवस्थित से पितामह रुक न सके, पीछे से बोले 'पुत्री, कोई आया है तुम्हारे साथ?'

'हाँ, अकेली नहीं आई हूँ. आप चिन्तित न हों.' कहती हुई वह बढ़ गई.'

♦♦ • ♦♦

शिविर के द्वार पर खड़े थे कृष्ण, काँधे तले पीतांबर में कुछ लपेट कर सँभाले.

पांचाली को आया देख झटपट उसके निकट बढ़ आये, पीतांबर से पदत्राण निकाल उसे देते हुये बोले ' लो पांचाली, ये सँभाले खड़ा हूँ, कोई इन्हें पहचान ले तो तुरंत अनुमान कर लेगा कि तुम...'

पीछे-पीछे शिविर के द्वार तक आ पहुँचे थे पितामह.

जनार्दन को देख विस्मयाभिभूत से कुछ पल खड़े रह गये. आगे के घटनाक्रम की भावाकुलता में अभिव्यक्ति का लोभ संवरण न कर सके.

'अच्छा तो तुम हो इसके पीछे? बस, यही जानने को आतुर था कि पांचाली को यहाँ आने को किसने प्रेरित किया!'

'वह साहस नहीं कर पा रही थी आपके सम्मुख आने का..मैंने ही कहा, तात के स्नेह में किसी के लिये भेद नहीं है, जा कर देख लो. '

विह्वल से कृष्ण को निहारते रहे थे वे.

'जिसके उपानह पीतांबर में सम्भाले खड़े हो जनार्दन, उसका कोई अनिष्ट नितान्त असंभव है!'

'जाओ पांचाली, जाओ याज्ञसेनी! निर्भय हो कर जाओ. और वासुदेव, तुम जिसके साथ उसका कोई क्या बिगाड़ सकता है. तुमसे क्या कहूँ मैं? बस, नतमस्तक हूँ.'

31.

व्यग्रता से पांचाली के पीछे बारादरी में निकल आये थे पितामह.

कृष्ण के साथ पांचाली बाहर निकल गई, यंत्र-चालित से वे द्वार तक आ पहुँचे.

प्रहरी द्विधा में.

'विश्राम करें, पूज्यवर, '

'हूँ ऊँ, ' वे खोये-से बाहर देख रहे हैं.

पितामह की देह-यष्टि सीधी, प्रलंब भुजायें, केशों का रजतवर्ण और स्थिर नेत्र-दृष्टि.अभी भी इतने सबल कि दो योद्धाओं को एक साथ पटक दें.

वे दोनों आगे मोड़ पर ओझल हो गये.

पितामह कुछ क्षण चुप रहे, फिर बोले, 'बड़ी घुटन है शिविर में, ज़रा बाहर खुले में भ्रमण करना चाहता हूँ.'

'मैं साथ चल रहा हूँ पूज्यवर, अंधकार बढ़ रहा है.'

'नहीं तुम रुको.मैं यहाँ आस-पास ही हूँ.'

वे निकल गये.

बाहर तारों की मद्धिम उजास.

वे मंद स्थिर-पग धरते बढ़ चले.

युद्धक्षेत्र से हट कर पगडंडी, आगे दूसरे शिविर की ओट से घूम कर आगे बढ़े. कुछ वार्तालाप की ध्वनियाँ कानों से टकराईं.

मन का कौतूहल जाग उठा.

वृक्षों की छाँह से भरा अँधियारा और सघन हो आया था. युद्ध-भूमि में रात्रि का सुनसान प्रहर.कभी-कभी किसी घायल के कराहने की ध्वनि पवन के झोंकों के साथ तैर आती थी.

पास ही मानव-स्वर सुनाई दे रहा है- मध्यम ध्वनि में अस्पष्ट से संवाद.

वे सतर्क हुये - इस बेला यहाँ क्या चल रहा है?

संशय में तेज़ी से पग बढ़ाते वे उधर बढ़े.

मुकुन्द और पांचाली, वार्तालाप में लीन मंद गति से बढ़े जा रहे थे. ध्वनियाँ पहचान में आने लगीं.

..'नहीं..नहीं तो, मैं महान् नहीं बनना चाहती! सहज- सामान्य नारी रहने दो मुझे....'

हवा के झोंकों में हिलते पत्तों की झर-झर में आगे की कुछ बातें बात अस्पष्ट रह गई.

फिर कृष्ण के स्वर --

'...क्या कुछ नहीं करना पड़ा ! पितामह की निष्ठा...उनका कठिन व्रत!'

'पितामह' सुन कर वे चेत गये. उत्सुकता से कान उधर ही लगा दिये.

कृष्णा बोल रही थी, ' कठिन व्रत पाला उन्होंने, लेकिन किसका हित संपादित हुआ? कौन से उच्च उद्देश्य की पूर्ति हुई? वृद्धावस्था में पिता की भोग-लिप्सा पूरी करना- यही महत् उद्देश्य! उस तृप्ति के लिये कितने निरपराधों को वंचित किया....'

'वंचित किया. किसकी बात कर रही हो?'

'माधव! अधिक कहलवाओ मत, प्रकृति के नियमोल्लंघन का यही परिणाम होता है.'

'परिणाम से क्या तात्पर्य है तुम्हारा..?'

'बुढ़ापे की बढ़ती असंयमित वासना-पूर्ति हित युवा पुत्र का ब्रह्मचर्य व्रत! प्रकृति के प्रतिकूल जाने से विकृति ही पनपेगी! इसी अस्वाभाविकता में आगत संतानें तन-मन दोनों से अस्वस्थ रहीं. अनिष्ट की भूमिका तो वहीं से बनने लगी. उस के साथ जुड़ते कितनों के आचरण कलुषित हुये, बुद्धि भ्रष्ट हुई, इस सबका दायित्व किसका?'

चुपचाप सुने जा रहे हैं भीष्म!

'...और अब, पीढ़ियाँ उस महानता का मूल्य चुका रही हैं.

नारी पर अन्याय होते देख तुम्हारा हृदय विचलित हो जाता है गोपेश, तुम्हें कभी नहीं लगा कि यह अनुचित है, अन्याय है? उन तीन कुमारियों का स्वयंवर विद्रूप बन कर रह गया. नारी की बात आती है तो तात किस किस सीमा तक संवेदनाहीन हो जाते हैं.'

कुछ क्षणों की चुप्पी असह्य लगने लगी भीष्म को, वे अस्थिर हो उठे.

'अब मौन क्यों हो, पार्थसारथी.'

'वहाँ मेरा कोई वश नहीं था पांचाली. पर देखो न आज वही नारी पितामह से प्रतिशोध लेने आई है. अब उनका पौरुष उसके सम्मुख लाचार है.'

द्रौपदी, चुप नहीं रही -

'न स्वयं स्वीकार किया, न किसी के योग्य रहने दिया. निष्फल नारीत्व. देख लो, क्या बन बैठा.किसके कारण?'

पितामह का शीष झुका है. दीर्घ निश्वास छोड़ा उन्होंने.

मन किया लौट चलें. पाँव मन-मन भर के हो गये.

नहीं, सुन लूँ, ये कटु सत्य भी..

गिरिधारी ने कुछ कहा, हवा के झोंकों और तरु पातों की मर्मर में स्वर डूब से गये.

'महानता का लोभ! मुझे लगता है जीवन की स्वाभाविकता ही सबसे बड़ा वरदान..

सृष्टि संचालन के ऋत नियम का उल्लंघन करके क्या मिलेगा!'

तात विचार मग्न थे -ऋत नियम!

पांचाली के बोल हैं या तात का अपना अंतर गुंजित हो रहा है -

'हाँ, सृष्टि के रक्षण-पोषण और विकास के लिये. जीवन की निरंतरता के साथ उन्नयन का मार्ग प्रशस्त करने के लिये. उनके विपरीत हठ, सहज प्रवाह में व्यतिक्रम तो आयेगा ही.. '

बुद्धिमती है याज्ञसेनी!

यह बात मन में उठी थी क्या पहले कभी?

'एक के महान् बनने का मूल्य कितनों से वसूला जाता है. और क्या उपलब्धि रहती है उस की?

कृष्णा कहे जा रही थी -

'अविकृत वंश-बेलि चलाने का दायित्व किसका था? पुत्र का कर्तव्य निबाहते.

पिता के प्रति निष्ठा थी तो माता की बात मान कर स्वयं नियोग करते. मैंने तुमसे ही सीखा है रणछोड़, किसी बड़े कल्याण के हेतु वचन-भंग में अहं को आड़े न आने देना ?...कभी अपने यश-अपयश की चिन्ता की तुमने? सचमुच, उनकी महानता से बड़े मुझे तुम लगते हो.'

'मैं और यश! ' लगा कृष्ण हँस रहे हैं,

' मेरे लिये तुम्हारा पक्षपात बोल रहा है.'

'नहीं, खरी बात.'

भीष्म भीतर तक हिल गये!

हवा चलते ही पत्तों की मर्मर में शब्द खो जाते हैं.सुनने में बार-बार व्यवधान आ जाता है.

'दोनों लाचार अभागी वधुयें प्रसन्नता से स्वागत करतीं, समर्थ संतान जन्म लेती.कुल की रक्षा होती. पर वहाँ प्रण आड़े आ गया. महानता बाधित हो जाती न!'

ओह पांचाली!

वह बोल रही थी-

'कौरवों के लिये भी तो पितामह का संरक्षण, चाहे विवशतावश ही किये हों, उनके अनुमोदन, उन्हें किन राहों पर ले गये?'

कृष्ण चुप हैं. नहीं, कुछ बोल रहे हैं.

वार्तालाप की ध्वनियाँ अति मंद हो गईं.

अंधकार सघन हो उठा था

दूर से आती श्वानों और सियारों की आवाज़ें रह-रह कर सुनसान को भयावह बना रहीं थीं.

किसी पाहन से पग टकराया, पितामह सँभले, कुछ पल खड़े रहे अंधकार तकते,

फिर लौट पड़े.

32.

'आपने स्मरण किया था तात?'

शिविर में प्रवेश कर अभिवादनपूर्वक प्रणत हो धनंजय ने पितामह को संबोधित किया.

'हाँ पुत्र. जब भी अपने हित का कुछ करवाना चाहता हूँ तुम्हें स्मरण करता हूँ....

और सब तो यहाँ अपने-अपने में लीन, किसे अवकाश है इस वृद्ध की सुध लेने का!'

'आज्ञा दें, पितामह.'

भीष्म उन्मुख हो कर भी मौन, कुछ द्विधा में.'

प्रतीक्षा कर रहे हैं अर्जुन.

कल रात्रि ही द्रौपदी ने सूचना दी थी कि पितामह, स्मरण कर रहे थे.

रात्रि को बिदा लेते समय कृष्ण ने भी कहा था, 'मित्र, पितामह तुमसे कुछ कहना चाहते हैं.'

उन्हें आभास था द्रौपदी को दिये गये वचन की डोर में बँधे पितामह अब स्वयं पार्थ को उचित उपाय बतायेंगे. 'अच्छा हो कि कल प्रातः ही....'

और अर्जुन उपस्थित थे पितामह के शिविर में.

भावाकुल शब्द पितामह के मुख से निस्सृत होने लगे -

'बहुत बड़ा भार है मन पर. किसी से बाँट नहीं सकता, कह नहीं सकता.पुत्र, मैं तो किसी के सामने अपना पछतावा भी व्यक्त नहीं कर सकता.'

विस्मित-से अर्जुन.

'आप जैसे, दृढ़ संकल्पी इस प्रकार विचलित न हों.आपने कब अपना स्वार्थ साधा? सब के हित-संपादन में जीवन लगा दिया. यह सोच आपके उपयुक्त नहीं.'

'किसका हित संपादित कर पाया?..क्या सार्थक किया मैंने? जब विचार करता हूँ तो निराशा ही हाथ आती है.'

'सब-कुछ आपका ही किया हुआ है तात, किस में इतनी सामर्थ्य थी कि इतना शक्तिशाली, सुदृढ़ साम्राज्य खड़ा करता.कोई आँख टेढ़ी कर देख नहीं सकता. सब आप का ही प्रताप.'

'मेरा प्रताप? मैं विगत पीढी़, अगली पीढ़ी अधिक समर्थ और तेजस्वी हो यह व्यवस्था कर पाया क्या?..जिसके हाथों सब सौंप जाने का विचार करता हूँ वह इस योग्य है क्या --अब तो यही प्रश्न बारंबार कुरेदता है. मेरी सारी दृढ़ता भरभरा कर ढह जाती है, वत्स.'

पार्थ का शीष झुका रहा.

'मेरे संरक्षण में कितने कार्य मर्यादा के अनुकूल हुये कितने प्रतिकूल! सब में मेरी मौन सम्मति.दायित्व मेरा था. किस दिशा में घटना-क्रम ले गया. मैं रोक सकता था.मैं अड़ जाता. मैं साक्षी नहीं बनता. कह देता अन्याय नहीं देख सकता. चला जाऊंगा. तो औरों का साहस कितना था? पर..

पर, अब कुछ नहीं. अब घटना-क्रम मोड़ना मेरे हाथ में नहीं. फिर भी अनर्थ रोकना चाहता हूँ.'

गला कुछ भर- सा आया, गीलापन घुटक कर बोलने लगे,

' तुमसे विनती करता हूँ..., '

पार्थ बीच में बोले बिना न रह सके, 'नहीं तात आज्ञा. आपकी आज्ञा..'

बोलने से पहले गले में फँसी साँस को सहज किया तात ने,

'मैं स्वयं बताना चाहता था, वत्स.'

मनोयोग से सुन रहे हैं अर्जुन.

'बहुत जीवन जी लिया...देख लिया बहुत कुछ..मृत्यु अवश्यंभावी है, '

वे चुप हुये कुछ क्षण,

'प्रस्थान से पूर्व कुछ प्रायश्चित कर सकूँ, पांचाली के प्रति अपराध-बोध भी कम होगा, और जिनके साथ अन्याय कर बैठा हूँ, उन्हें भी कुछ शान्ति मिले..'

अर्जुन स्तब्ध.ऐसा तो कभी नहीं देखा था. कुछ नहीं बोलते थे तो भी उनकी मुद्रा सभी के नियंत्रण हेतु पर्याप्त होती थी. वह तेजस्वी व्यक्तित्व कैसा निरीह-सा हो उठा है. क्या हो गया पितामह को?

आज स्वयं को संयत नही कर पा रहे, क्या हो गया तात को..?.

'बैठे रहो पुत्र,..तुमसे बहुत कुछ कहना है आज.'

चुप बैठे हैं पार्थ.

युद्ध के सेनापति, ऐसे हताश-विवश. जब कि रण-भेरी बजते ही सन्नद्ध हो कर नेतृत्व करना, संचालन की बागडोर सँभालना उन्हीं का दायित्व!

और फिर एकदम याद आया पार्थ को, तात का प्रण. पाँच अभिमंत्रित तीर और पाँच पांडव!

हत्बुद्ध हो देखते रहे. इतना म्लान और हत कभी नहीं देखा था उन्हें.

मन उमड़ पड़ा, चुप न रह सके -

'कुछ अस्वस्थ, हैं पितामह?'

दोनो हाथों की अँगुलियाँ आपस में फँसाये वे बार-बार चलाने लगते हैं.

बड़े अस्थिर लग रहे हैं.

अर्जुन उत्तर सुनने की प्रतीक्षा में.

'सुनो पुत्र, आज तुमसे बहुत आवश्यक बात कहनी है...मैं दोंनो ओर से वचन बद्ध हूँ.'

मुझे क्या आज्ञा है, पितामह?'

'सुनो अर्जुन. मेरा वचन तब तक पूरा नहीं हो सकता जब तक मैं युद्ध में डटा हूँ.

मुझे इच्छा-मृत्यु का वर प्राप्त है..युद्ध से मेरा मन विरत हो गया है.

जीवन में बहुत से अकार्य किये अब कुछ प्रायश्चित करना चाहता हूँ.'

'तात, अस्वस्थ हैं आप?'

'पुत्र, मन अत्यंत अस्वस्थ है. अब कुछ मत पूछो.मैं कहता हूँ वह सुनो.'

कुछ थम गये वे, फिर तत्पर हो आगे बोलने लगे-

' शिखंडी नारी है.अंबा अपना प्रतिशोध लेने जन्मी है. मुझे उसके नयनों में वही भाव, वही दृष्टि दिखाई देती है, मुझसे शिकायत करती हुई, मुझे धिक्कारती हुई.. मैं नहीं शस्त्र उठा सकूँगा उस पर.'

थक गये थे वे. विश्राम हेतु रुके,

जीवन भर अंतरात्मा की पुकार दबाकर जिसके संरक्षण का व्रत लिया, आज उसकी व्यर्थता समझ में आ रही है. अब मुक्ति चाहता हूँ.

'शिखंडी..' उनने कहा फिर चुप हो गये कंठ को खखार कर साफ़ किया, 'शिखंडी पूर्वजन्म में नारी था, काशिराज की कन्या अंबा. मेरे कारण उसका जन्म व्यर्थ गया. वही शिखंडी हो कर जन्मी है. मैं जानता हूँ, मुझे उसमें वही अंबा दिखाई देती है.मैं उस पर शस्त्रघात नहीं कर पाऊँगा. कल उसे सामने कर देना पुत्र, तभी तुम...तभी तुम मुझे गिरा पाओगे. अन्यथा...'

व्याकुल से पार्थ बोल उठे, 'नहीं, तात, मुझसे नहीं होगा...'

'तुम्हें करना होगा. मुझे मुक्ति दिला दो पार्थ. जीवन की अस्वाभाविकताओं से ऊब चुका हूँ.

और मुझे अपने उन, माता सत्यवती को दिये, वचनों की रक्षा हेतु.जो करना होता है अंतरात्मा उसकी गवाही नहीं देती.मुझे छुटकारा चाहिये अब.'

अर्जुन स्तब्ध. क्या बोलें समझ नहीं पा रहे.

'नहीं, अब सहन नहीं होता..पुत्र...कल वही करना है तुम्हें जो मैंने कहा.'

चुप हैं अर्जुन.

'मौन रहने का समय नहीं है. बोलो, पार्थ, बोलो.'

वे जानते हैं अगर कल उन्होंने पांडवों को नहीं गिराया तो दुर्योधन का सामना कैसे कर पायेंगे, और इधऱ द्रौपदी को दिया अमोघ आशीष!

'अब मुझे मुक्ति चाहिये. बहुत बोझ है, कुछ प्रयश्चित कर लेने दो. मुझे कुछ तो हल्का होने दो! वचन दो मुझे, तभी निचिंत हो पाऊँगा.'

तुम पाँचो को जीवित रहना है भविष्य के लिये, न्याय -नीति के संरक्षण के लिये...मेरा आशीर्वाद फलेगा तभी न..'

'तात..'

विवश से बोल फूटे, 'करूँगा पूज्य. आपकी आज्ञा पूरी करूँगा.'

उदास सी स्मिति भीष्म के अधरों पर झलकी.'

'विजयी हो पुत्र, चिरायु हो!'

♦♦ • ♦♦

संध्या होते ही परिचारिका के साथ भानुमती आई थी. तात सरस्वती के तट पर संध्या-वंदन कर लौटे नहीं थे. कुछ देर शिविर में बैठी रही फिर लौट गई.

दुर्योधन निश्चिंत था, बस दो दिन की बात.