कृष्ण सखी / भाग 41 - 44 / प्रतिभा सक्सेना
41.
किसी भाँति स्थिर नहीं हो पा रही पांचाली.
पिछली घटनाओं ने झकझोर कर रख दिया है.
सहज तो वे पाँचो भी नहीं - भीतर ही भीतर जैसे कुछ खटक रहा हो.
जो भी हुआ ठीक नहीं हुआ. सारी घटनायें एक-एक कर मस्तिष्क में घूम गईँ. भीम द्वारा दुःशासन की छाती का रक्त पीना- सोच कर ही सिहर उठती है.अर्जुन ने कर्ण का वध किया - रथ का पहिया निकाल रहा था वह.
यह भी जानती है जन्म से प्राप्त उसके कवच-कुंडल, जिनके होते वह अभेद्य था, किसी छद्मवेशी याचक ने पहले ही उतरवा कर शरीर छील दिया.
स्पष्ट है कि अर्जुन के हित में ही किसी ने यह क्रूर कृत्य किया.
वह क्या समझा नहीं होगा?
संतोष के स्थान पर एक तीखी चुभन व्याप गई.
क्यों? मैं क्यों विचलित हूँ- स्वयं से पूछती है, उत्तर कोई नहीं.
रह-रह कर भीतर से उद्दाम-रुदन का वेग उठता है.
कौरवों में कोई नहीं बचा, अंत में दुर्योधन भी गदा-युद्ध में भीम द्वारा उरु-भंग कर अक्षम कर दिया गया.
हाँ, सुना है- नीति के अनुसार, गदा-युद्ध के लिये और किसी को न चुन, अपने स्तर के भीम को ही चुना था उसने.
माता गांधारी के एक दृष्टि-पात से अभेद्य बन गया था उसका शरीर. बस, कमर के नीचे क्षीण सा आवरण - वही भीम की गदा से खंडित हो कर भीषण अपघात का कारण बना.
और तब बलराम भैया अपना आपा खो बैठे.
दुर्योधन उनका प्रिय शिष्य था.
यह भी सर्व विदित है कि उनकी इच्छा तो उसी से अपनी बहिन, सुभद्रा का विवाह करने की थी. पर अर्जुन उसे पहले ही हर ले गये.
एक प्रश्न उठा था-
'दाऊ ने भीम से कुछ कहा?'
मस्तिष्क पर ज़ोर डालती है पांचाली - कहाँ? किससे सूचनायें मिली थीं? याद नहीं आ रहा.
दोनो पक्षों में कार्य करनेवाले, माली, रजक, स्वच्छकार आदि कुछ न कुछ बोलते रहते हैं. अंदर की कुछ सूचनायें सज्जाकारिनें अपने भीतर पचा नहीं पातीं, अवसर पाते ही मुखर हो जाती हैं. कौन कहाँ आया-गया उनके पारस्परिक वार्तालाप से कितना-कुछ पता चलता है.
कितने सूत्र हैं, चर हैं, अनुचर हैं, बाहर चलती चर्चायें हैं- विमभ्र में पड़ गई.
सिर घूम रहा है.
हाँ, वह कथन ज्यों का त्यों याद है,
'कहते क्या? हल ले कर दौड़े थे उसकी ओर, ' रे नराधम, अभी अनीति का फल चखाता हूँ.'
पर छोटे भाई कृष्ण ने बीच में ही कौली भर ली, समझाया इसने कैसी अनीति की थी, कुल-वधू को सभा में अपनी जाँघें खोल कर....'
'गृहवधू की सम्मान-रक्षा जिनका कर्तव्य था वही बेचने पर उतर आयें तो भी दोष दूसरे का? दूध के धुले बनते हैं...'
उनका रोष बोल रहा था, '.... प्रारंभ उन्हीं ने किया, जो धर्मराज कहलाते हैं. मर्यादा किसने भंग की? कुल-नारी को सामान्या किसने बनाया? हार गये तो कहाँ रहा उनका अधिकार? उनके लिये पराई नार हो गई वह? सभा में बैठे वयोवृद्ध-जन क्या तर्क दे पाते - इसीलिये सब चुप! फिर किस नाते भीम और पार्थ ने शपथ ली?
वही तो आज्ञा देने वाले बड़े भाई थे. समझाते, कहते पांचाली अब उनकी वस्तु हुई - वे जाने, अब हमें क्या !
अरे, भाइयों को तो पहले ही हार चुके थे, वे भी तो सुयोधन के जन हो गये थे.'
पांचाली वितृष्णा से भर उठी. पत्नी को बलि का बकरा बना देनेवाला पति कहलाने का अधिकारी?
किसे क्या कहे? उस दिन देखा था वहाँ - प्रतापी वीर पति माना था जिन्हें, हीन-वेष धारे सिर झुकाये बैठे रहे!
कैसा लगा था?
सबसे समर्थ समझा था जिन्हें, वे तेज-हत, सबसे विवश.
तीक्ष्ण दृष्टि पतियों पर डाली थी उसने.
एक बार तो उत्तेजित अर्जुन और भीम ने सारा अनुशासन तोड़ दिया था.
अर्जुन ने आँखें उठा कर युधिष्ठिर को देखा था - वह दृष्टि! अपमान के दाह से विकृत, क्रोध और तिरस्कार से कौंधती - द्रौपदी को लगा था पार्थ अभी कुछ कर डालने को खड़े हो जायेंगे.
पर तभी भीम हाथ मलते बोल पड़े, 'मैं उस हाथ को जला दूँगा जिसने पांचाली को दाँव पर लगाया!'
नकुल-सहदेव अस्थिर हो उठे थे.
चौंक कर, सब लोग इन भाइयों को ही देखने लगे थे.
दुर्योधन और शकुनि के नयन चार, जिनमें कुछ संकेत करता उपहास भरा था.
पार्थ ने एकदम अपने को संयत कर सिर झुका लिया.
युठिष्ठिर शान्त निर्विकार.
पांचाली समझ रही है.
समझी थी तब भी, जब सभा में बुलाने आये दूत को वह प्रश्न दे-दे कर बार-बार लौटा रही थी.
युधिष्ठिर ने गुप्त रूप से एक विश्वस्त सेवक से कहलाया था, 'यद्यपि वह रजस्वला है तथा एक वस्त्र में है, वैसी ही उठ कर चली आये, सभा में पूज्य-वर्ग के सामने उसका उस दशा में कलपते हुए, पहुँचना दुर्योधन आदि के पापों को व्यक्त करने के लिए पर्याप्त होगा. हमें सहानुभूति ही मिलेगी.'
उनके लिये जन की सहानुभूति बटोरने को एक माध्यम भर - मैं!
दूसरों के द्वारा की जाती हुई, पत्नी की, दुर्दशा का प्रदर्शन- कि सभा-जन की दया उनके लिये उमड़ पड़े- छिः!
वाह रे नीतिज्ञ!
घोर वितृष्णा से भर उठी थी वह.
आँखें जल उठीं थीं कृष्णा की - क्रोध या घृणा?
कौन जाने!
42.
अब भी जब याद आता है सुलग उठती है भीतर ही भीतर.
भूल जाना चाहती है. वह सब कभी याद न आये!
कोई बस नहीं चलता स्मृतियों पर. मन उन्मन होते ही एक दूसरी को धकेलती चली आती हैं.
शान्त होना चाहती है. बहुत कठिन लगता है इतनी उद्विग्न मनस्थिति को झेलना.
दिन भर की विश्रान्ति के बाद वे सब निद्रा-मग्न, पर उसकी आँखों में नींद कहाँ!
कितना अशान्त अंतर! बार-बार उठती है-लेटती है. निद्रा का नाम नहीं.
पाँच पतियों से रक्षित होने का गर्व पल भर में बिखर गया था.
समझ रही थी इन कृती पुरुषों से जुड़ कर जीवन की उच्चतर भूमिकाओं में संचरण कर सकेगी. पर पत्नी के संदर्भ में वे नितान्त भोगी निकले.
हाँ, एक!केवल अर्जुन, संयमी -विचारशील, पर कितना विवश!
यही असंतोष उसे जीवन भर भटकाता रहा.
कभी मुख से न कहे तो क्या याज्ञसेनी जानती है. जिस सान्निध्य के लिये सब कुछ स्वीकार किया, उसी के लिये तरसती रही!
भीम स्नेहिल हैं, मन के भोले. दोनो छोटे अपनी सीमाओं में रहनेवाले.
धर्मराज युधिष्ठिर? सब के संचालक- तब लगता था मितभाषी हैं, गूढ़-गंभीर, उनके मन की थाह कोई नहीं पा सकता.
संतोष कर लिया था यह सोच कर कि भोग करना पुरुष-स्वभाव का अंग है, उनका अघिकार है, संतुष्ट करना मेरा कर्तव्य. पर हर बात की एक सीमा होती है.
और उस दिन सारे भ्रम टूट गये. वह स्मृति ही दग्ध कर देती है.
जिस संबंध को बड़ा सहज-सुन्दर और नितान्त अपना समझे थी, भरी सभा के बीच, अपनी सारी विकृतियों और कुरूपता के साथ उद्घाटित हो गया.
आकाश से एकदम गहरी खाई में जा पड़ी थी वह.
क्यों याद आता है वह. जब भी निराश होती है, वही सब मन पर घिर आता है.
किसी एक की नहीं हूँ -कौन साथ देगा मेरा ?
पाँच लोग, पाँच तरह के मन.
पाँच लोग, पाँच तरह के मन.
बरस-बरस, एक-एक के साथ पूरी निष्ठा से रहना है. किसी से अंतरंग नहीं हो सकती.मन की बात किसी से नहीं कह सकती, कहीं परस्पर उनमें भेद पड़ गया तो?
नहीं, ऐसी स्थिति कभी न आये- यही संकल्प था मेरा!.
कितना भी हटाने का यत्न करूँ वही बातें ही ध्यान में आई चली जा रही है.
उन्हें तो पाँच वर्ष में एक ही वर्ष उसका तन मिलता है.प्रत्येक का साथ देना है द्रौपदी को.
और मेरा मन? उसे लगता है - कुछ नहीं, मन नहीं है मेरे. ,
उठ कर बैठ गई. बहुत देर से अनुभव कर रही थी वह कहना चाह रही है बहुत कुछ. मन में घुमड़ रहा है, संघर्षों को झेलता, जीवन की तिक्तताओं और विषमताओं से अनुतप्त शान्ति-हीन जीवन किसी नितान्त अंतरंग से बाँटना चाहती है. पर किससे कहे ?
कैसा प्रारब्ध था मेरा!
कैसा महाभारत चल रहा है- एक साथ दो -दो. एक बाहर एक भीतर!
साक्षी केवल पांचाली का मन!
सिर झटक दिया द्रौपदी ने - कुछ याद नहीं करना चाहती, शून्य हो जाना चाहती है. अपने पर बस नहीं रहता. अस्थिर मन में सब उमड़ता चला आता है.
अंतरात्मा चीत्कार उठी - यहाँ कोई नहीं मेरा! क्या करूँ मैं?
स्मृतियों के दंश असह्य हो उठते हैं, तब अंतर्मन से विकल पुकार उठती है -
'हे जनार्दन, परम-आत्मीय, प्राण-सखा कृष्ण! कहाँ हो तुम? बस तुम हो और कोई नहीं. किसी के काँधे संतप्त सिर नहीं रख सकती. वे सब एक हैं!
बस, एक ही आसरा - मुकुन्द, माधव!
इन दिनों वे भी बहुत व्यस्त. दिन भर सारथी बने साथ देते हैं उन सबका.
याद करती है उनकी कही बातें.कुछ आश्वस्त होता है मन.
पांचाली ने पूछा था, 'अपना राज-रनिवास छोड़ कर हर समय दौड़े रहते हो सखा, कभी-किसी के लिये, कभी किसी के पीछे. फिर भी कहनेवाले चूकते नहीं.जाने कितनी बार अपयश ही आया हिस्से में. असंतोष नहीं होता.. ? '
'इसी में मेरा सुख है, मेरा संतोष है. मेरा जीवन इसी के निमित्त है. पर उस सब में डूबा नहीं अलग रहा, साक्षी मात्र!'
'हाँ, तुम तटस्थ रह कर हँसते-गाते, नाचते-नचाते रहे!
वही कर्मयोग जिसे जीवन में उतारते रहे, रणक्षेत्र में मुखर हो उठा.
वे शब्द कानों में प्रतिध्वनित होने लगे -
‘एक महानाट्य रचना चल रही है प्रतिपल. इस विराट् पटल पर दिक्-काल को पृष्ठभूमि बनाये परा-प्रकृति का ललित-लेखन! रंगभूमि में नित नये पात्र, नित नये प्रयोग. प्रशिक्षण चल रहा है अविराम! उदाहरण और आत्म-निरीक्षण बस दो साधन, परिष्कार अपना स्वयं करना है यहाँ - स्व-भाव, क्षमतानुसार. अंतिम परीक्षा में कौन खरा उतरेगा किसी को क्या पता!..’
43.
'एक-एक से बदला लूँगा!'
रह-रह कर अश्वत्थामा की बुद्बुदाहट.
रात्रि के नीरव अंधकार को झकझोरती घूहुह्घुः-घुहुह्घुः की घहराती हुई ध्वनि गूँज गई - ऊपर वृक्ष की शाख पर कोई उल्लू बोल उठा था.
तल में बैठे कृतवीर्य ने जड़ों का सहारा लिये अध-लेटे उद्विग्न मित्र से कहा -
'कैसा अपशकुन! पता नहीं और क्या होनेवाला है!'
"जो हो चुका है उससे अधिक और क्या हो सकता है? सब इनकी दुरभिसंधि है. पितृहीन कर दिया गया मैं, क्षत-विक्षत युवराज सारी आशा छोड़ बैठे हैं.'
अश्वत्थामा की घोर विकलता को कृतवीर्य कुछ धीरज बँधाना चाहते हैं
एक बार नहीं, दो बार नहीं, कई बार वही कर्कश उलूक-ध्वनि.
दोनों चुप!
अचानक वह रात्रि-चर पंख फड़फड़ाता उड़ गया.
फिर सुनाई देने लगीं पक्षियों की भयभीत चीत्कारें.
'अरे, रात्रि का अँधियार पा जुट गया यह अपना कार्य साधने में.'
विकलता से छोटे-छोटे चक्करों में मँडराते, घबराये पक्षियों की करुण पुकारें,
शावकों की दारुण चिचियाहट वाली आर्त रोदन- ध्वनियाँ वायुमंडल विदीर्ण कर रही हैं.
'रात्रि में निद्रालीन पक्षियों का आखेट कर रहा है... '
कुछ देर विचार-मग्न रहा, अचानक गुरु-पुत्र उठ कर बैठ गया.
'बस, बहुत हुआ.अब रात्रि व्यर्थ खोने के लिये नहीं है. कुरु-सेना नायक विहीन है. घायल युवराज वहाँ ताल का जल बाँध कर छिपे हैं. चलो, हमें कुछ करना होगा.'
कृतवर्मा ने पूछा, 'क्या निश्चय किया है, मित्र?.'
चलो अभी बताता हूँ.'
दोनों उठ कर चल पड़े.
पीड़ा से व्याकुल और भय से त्रस्त दुर्योधन, ताल से बाहर आने का सोच भी नहीं सकता. कानों में पुकार आई -
'मित्र!'
अश्त्थामा का स्वर था, साथ में कृतवीर्य.
दुर्योधन घिसट आया. बढ़ कर सहारा दिया दोनों ने.
'हम निश्चय कर आये हैं युवराज, तुम निराश मत हो. '
'अब क्या होना है?
'अभी कुछ भी हो सकता है.
कृतवर्मा बोले, 'अब गुरु-पुत्र को सेनानायक बना दो. फिर हम देख लेंगे.'
अश्वत्थामा बोला, 'मैं करूँगा, बहुत बदले चुकाने हैं मुझे, तुम्हें सिंहासन पर देखना है. सामने होने का साहस नहीं था, तो यह सब किया पखंडियों ने.'
दुर्योधन उसका मुख देखता रहा.
'तुम यह मत समझो कि हम हार गये. मैं तुम्हें विजय दिलाऊँगा. बस अब मुझे सेनापति बना दो. बदला लिये बिना मुझे शान्ति नहीं मिलेगी. तुम निराश मत हो. उन पाँचो के सर काटकर तुम्हारे पगों में ला डालूँगा.
'मैं कर सकूँगा. यह मस्तक-मणि प्राप्त है, मेरा कोई क्या कर लेगा?'
दुर्योधन आशान्वित हो उठा.
तुरंत अपने रक्त से उसका तिलक कर सेनापति का पद प्रदान किया.
“बस मित्र, अब यह सूचना तात कृपाचार्य को देना है. निश्चिन्त रहो, शीघ्र लौटूँगा!'
वे चले गये
विश्रान्त दुर्योधन, किसी विध चैन नहीं. रात बीत रही है.और दो घड़ियों में भोर का उजास छा जायेगा.
किसी के आने की आहट. वह उत्साह में सारे कष्ट भूल, बाहर निकल आया.एक बड़ी- सी रक्त-सनी गठरी हाथों में, आँधी के वेग से सामने आया गुरु-पुत्र. विद्रूप, भयानक मुख, विकृत हास्य-भाव लिये.
'अरे, अश्वत्थामा!'
'लों, उन पाँचो के शीष! तुम्हारे शत्रु यमलोक सिधार गये.'
दुर्योधन सारा कष्ट भूल चैतन्य हो उठा.
'देखूँ. देखूँ!. भीम का सिर दो मुझे.'
दाँत पीसते हुये उसने सारा बल लगा कर दोनों हाथों से भींचा, खोपड़ी एकदम तरबूज -सी पिच गई - तरल बह चला. दोनों कर-तल रक्त सिक्त.
निराश हो, गिरा दी उसने,
'नहीं, नहीं! यह भीम नहीं हो सकता....मेरी गदा से टकरा कर भी न टूटनेवाली उसकी हड्डियाँ ऐसे नहीं पिचकतीं.'
उसने झुक कर ध्यान से देखा,
'अरे, यह तो सुतसोम का शीष है, भीम का पुत्र! '
फिर शेष चारों पर दृष्टिपात किया, एकदम चिल्ला उठा, 'अरे, यह क्या कर डाला?...
ये पाँचो पांचाली के पुत्र थे,... जघन्य बाल हत्या!'
रक्त-सनी, लोथड़ों से लिथड़ी हथेलियाँ झटक कर झाड़ने लगा, घोर वितृष्णा से मुख घुमा लिया उसने.
अश्वत्थामा हत-तेज - जैसे दमकते दर्पण पर किसी ने फूँक मार दी हो.
'रे पामर, यह क्या किया? जाओ, चले जाओ यहाँ से..रहा-सहा भी नष्ट कर दिया तुमने!...
दूर हो जाओ यहां से, खोजते होंगे वे तुम्हें. जाओ, भागो यहाँ से!'
हताश दुर्योधन गिरता-पड़ता झील की ओर लौट पड़ा. दुःसह वेहना से कराह उठता था.
विजय-श्री पाने की आशा में अभी तक भूला हुआ था, आहत तन अधिक झेल न सका. साँसें उखड़ गईँ. वहीं गिर पड़ा.
44.
ओह, बीत ही नहीं रही, यह रात कितनी लंबी है!
पांचाली बहुत बेचैन, जैसे कोई हृदय पर तान-तान कर घूँसे मार रहा हो!
आँखें बंद करती है, घबरा कर खोल देती है.
सारी रात्रि घोर व्याकुलता में बीत रही है.
फिर-फिर देखती है - भोर अभी भी नहीं हुआ.
उठ कर शिविर के द्वार पर खड़ी हो गई.
शिविरों के मध्य के मार्गों पर अँधेरे से ही आवागमन प्रारंभ हो जाता है.
बस थोड़ी-सी की दूरी पर उनका दूसरा शिविर, पाँचो पुत्र, धृष्टद्युम्न और अन्य लोगों के रात्रि-शयन हेतु. उसी के सामने बाहर कुछ कोलाहल, कुछ लोग इकट्टे खड़े, कुछ आते-जाते कुछ देर रुक कर खड़े हो जाते.
बड़ी हलचल सी है.
वार्तालाप के स्वर सुनाई दे रहे हैं.
'यह तो युद्ध-भूमि नहीं. रात्रि में यह क्या हुआ?
'वह आया था, उसे देखा मैंने.'
किसी ने पूछा, 'कौन था?'
'गुरु-पुत्र, वही अश्वत्थामा. उन्मादी सा चिल्लाता चला जा रहा था, 'मेरे पिता, गुरु थे उनके. झूठ-सच सब एक कर दिया, द्रोही, कपटी सारा दायित्व उन्हीं का है. तो उनने कहा -चुप रहो.'
'किसने कहा?'
'कृतवर्मा और कृपाचार्य- साथ थे उसके.'
'हाँ, अभी कुछ देर पहले मैं जब इधऱ से जा रहा था तो देखा था. वे दोनों शिविर के द्वार पर खड्ग लिये खड़े थे. मुझे विचित्र लगा. पर राजपरिवार की बातें, मैं बिना रुके चला गया. मुश्किल से डेढ़-दो घटी पहले. शिविर के द्वार पर उलटे-सीधे शव पड़े हुये रक्त की धारायें धरती पर जमी हुई.'
'हाँ, आवाजें मैनें सुनी तो बाहर आकर देखा. मैं झाँका, फिर छिप गया.'
'जब कृपाचार्य ने चुप रहने को कहा तो बोला -
'क्यों चुप रहूँ? सारे संसार को चीख-चीख कर बताऊँगा कि वास्तविकता क्या है? हम उन्हें धर्म का गूढ़-ज्ञाता जान कर चुप हो जाते थे. पर वे बड़े चुप्पे निकले गुरु को भी नहीं छोड़ा, झूठ से मार दिया.'
तभी उसने इन के पाँचों पुत्रों को..'
'क्या पाँचो पुत्रों को.',
आगे सुनने का धीरज खो बैठी पांचाली, पीछे घूम कर चीखी, 'पार्थ, भीम, उठो, सब उठो! देखो हमारे पुत्रों को क्या हुआ..?'
वह निकल कर पास के शिविर की ओर भागी.
आस-पास, नीचे-ऊपर क्या है, कुछ देखे बिना भागती हुई पुत्रों के शिविर के द्वार पर पहुँची.
पट खुले पड़े - सपाट!
पाँव नीचे बिखरे शवों से टकरा रहे हैं रक्त की कीच पाँवों को सान रही है. उसे कोई भान नहीं. दृष्टि भीतर लगी उन पाँचो को खोज रही है.
अन्दर बालकों की शैयाओं के पास शीष-विहीन पाँच कबंध उलटे-सीधे. कौन सा किसका कुछ पता नहीं. चारों ओर रक्त ही रक्त!
वह उधर धृष्टद्युम्न का औंधा पड़ा शव.
आँखें फाड़े पांचाली खड़ी है!
इस ओर कोलाहल मचा है. चर्चाएं चल रही हैं.
'क्या हुआ?'
'क्या हुआ उन्हें?'
'शीष काट कर बाँध ले गया पाँचो के.'
'किसी को पता नहीं चला?'
'--कैसे पता लगता? रात्रि का समय था सब गहरी नींद सो रहे थे.चढ़ती उमर की नींद.सोते-ही सोते, चिर-निद्रालीन हो गए. हत्यारा कहीं का!'
आते-जाते लोग रुक जाते हैं.
'कौन?' प्रश्न किया किसी ने.
'वही, द्रोणपुत्र अश्वत्थामा! सोते हुए कुमारों का शिरोच्छेदन कर बदला निकाला है उसने.'
'देखा किसी ने?'
'आधी रात के बाद.कौन था देखने वाला? प्रहरी की पहले ही हत्या कर दी.'
'हाँ, देखा है मैंने. लघुशंका के लिये निकला था, देखा रक्त टपकाता गट्ठर लिये है हाथ में. केश बिखरे, विचित्र -सी मुद्रा. बोलता जा रहा है, 'वंश नाश कर छोड़ूँगा.'
..और भी बहुत कुछ...मैं तो भाग कर आड़ में छिप गया.'
'पर वहाँ का बदला? यहाँ शिविर में आकर. बालकों से?'
'देखा भी किसी ने?'
'कौन साहस कर पाता?'
'उसके ऊपर तो जैसे भूत सवार था. इनने भ्रम की स्थिति उत्पन्न कर उसके पिता की हत्या करवाई, दुर्योधन, कर्ण सबको अनीति से मारा, आज उसने पूरा बदला निकाल लिया!'
'क्या, क्या?'
'मैं नहीं, वही ये सब कह रहा था.., यही नहीं और भी बहुत-कुछ. हाँ यह भी कि -
काहे के धर्मराज? अनुज-वधू पर हिस्सा बँटाते समय कहाँ था उनका धर्म? मन की बात पर माता की आज्ञा का पालन. आगे फिर कभी माता की सहमति की भी आवश्यकता नहीं पड़ी. मत कहो धर्मराज! कितने अधर्म के काम किये.आज्ञाकारी भाइयों की अनीति भी उन्हीं की कहायेगी.'
लोग चुप!
'वे दोनों भी कह रहे थे -ठीक कहते हो, सारे भाई तो उनके इशारे पर चलनेवाले, काहे नहीं नीति की सीख दी.ह उनकी पत्नी कहाँ रही थी. उस पर कृपाचार्य ने ठप्पा लगाया अरे, हम सब तो उनके आगे पापी हैं, वे तो दूध के धुले रहे.'
'हाँ बहुतों ने सुना. वह बहुत बातें कहता चला जा रहा था.'
लोग आ-जा रहे थे. चर्चायें चल रहीं थीं.
जब पांडव-शिविर में पांचाली की पुकार गूँजी अचानक नींद से जाग गये वे.
पहले कुछ समझ न पाये. फिर उठ कर चल पड़े.
पांचाली को तीव्र-गति से जाते देखा. शीघ्रता से पग बढ़ाये.
निकटस्थ शिविर, कितने शव दिखाई दे रहे थे द्वार के समीप बिखरे.
महारथी जो उस रात वहाँ सोये थे- सब के शव.
उन सब को हड़बड़ाये हुये आते देख, लोग इधऱ-उधर हो गये.
वे धड़धड़ाते शिविर में घुस गये.