कृष्ण सखी / भाग 45 - 48 / प्रतिभा सक्सेना
45.
शिविर का द्वार फटाक् सा खुला, कहीं कोई आड़ नहीं.
निद्रा से अकस्मात जागे. वे पांचो शीघ्रता में अंदर घुसे. द्वार पर ही धृष्टद्युम्न का शव पाँवों से टकराया युधिष्ठिर गिरते-गिरते बचे.
आड़े-टेढ़े कई शव वहीं पड़े- शिविर में जो सोये थे वे सभी.
सामने खड़ी अस्त व्यस्त सी पांचाली! आँखें एकदम सूनी, आँसू अंतरग्नि की आग से शुष्क, यह वही तेजस्विनी पांचाली है?
पहचान में नहीं आ रही.
पड़े हुये कबंधों को बार-बार देखती है- ये हैं उसके पुत्र?
किधर जाये, किसे उठाये, किसे पुकारे! कौन-सा कौन है, पता नहीं चल रहा.
बार-बार आँखें फैलाये सिर घुमा-घुमा कर पाँचों को देखती है फिर निढाल-सी वहीं बिखरे रक्त के बीच धरती पर बैठ जाती है. कौन आया, कौन गया कोई भान नहीं.
भीतर प्रविष्ट हुये पाँचो भाई, सामने का दृष्य देख वहीं जड़ीभूत.
न कोई किसी को देख रहा, न बोल रहा. मुर्दनी छाई सबके चेहरों पर. कुछ नहीं बचा जो कहें-सुनें.
युधिष्ठिर एकदम शान्त - यह तो मरघटों की शान्ति है.
अर्जुन की मुद्रा पल-पल बदलती, और भीम चेहरे के भाव पकड़ में नहीं आ रहे, पल-पल विकृत होते. नकुल-सहदेव श्री-हत लुटे-से.
इनने तो एक-एक पुत्र ही खोया पर उसके तो पाँचो एक साथ मौत के घाट उतार दिये गये!
किसी का साहस नहीं हो रहा उससे कुछ कहे.
कहे कौन? पाँचो पति दुख-मग्न एक साथ. कौन इस विषम घड़ी में उसे सांत्वना दे, कुछ कहे, संताप बाँटे!
कौन आगे आए? सब विमू़ढ़, एक दूसरे से आँख बचाते,
और पांचाली?
एकाकी- एकदम निस्सहाय. इस समय कोई उसके साथ नहीं. अपने आप में बिलकुल अकेली!
सब स्तब्ध. जैसे सारा दृष्य वहीं जम गया हो, चित्र-लिखित!
भीम के कंठ से मौन भंग करता विचित्र-सा स्वर उठा, 'किसने, कैसे?'
अर्जुन ने सिर उठा कर देखा,' एक ही तो बचा था, वही गुरु-पुत्र अश्वत्थामा. और किसमें सामर्थ्य थी इतनी?'
पता नहीं समय कैसे बीत रहा है!
जब युधिष्ठिर ने सत्याभास वाला कथन किया तब किसे पता था कि इसकी यह प्रतिक्रिया भी हो सकती है?
दोनों ओर की चालें. कौन कब बीस निकल जाए.
कौन धीरज देगा इसे? पाँच पतियों में से कौन?
पांचाली को अपनी ही सुध नहीं.
कौन आगे आये, हृदय से लगा कर सांत्वना के दो बोल बोल दे?
किसकी पत्नी है यह इस समय?
उसका दायित्व है- सबके भोजन का, विश्राम का, देह पर अधिकार बारी बारी हर एक का.
- किन्तु उसके लिये कब, कौन?
बड़े-छोटे भाई हैं. पत्नी के संबंध में भी पारस्परिक मर्यादा. कभी सम्मिलित चर्चा, विचार-विमर्श नहीं. साथ में हैं, तो आपस में भाई है. पति का रिश्ता चला जाता है पृष्ठभूमि में.
किसी को साहस नहीं सामने आए, सब स्तब्ध.
बहुत विचलित है पार्थ- किसके कारण सह रही है पांचाली इतनी यंत्रणायें? मुझे वरा था उसने. क्या दे सका मैं?
पाने के नाम पर बाँट दिया टुकड़ों में.
रह-रह कर हूक उठती है अंतर से. किससे कहें अर्जुन!
रह-रह कर पांचाली का मुख देखते हैं. उसकी भाव-शून्य दृष्टि, देख कर भी नहीं देख रही.
हम? हम कब हुये उसके, सदा विपत में अकेला छोड़ दिया!
किसी से नहीं कह सकता. पांचाली से भी नहीं.उसका मन औरों से फिर गया तो. कहीं कोई व्यवधान आ गया तो!
आँखें जल रही हैं, मुखमुद्रा कैसी? एक गहरी सांस.
खड़ा हो गया उठ कर, द्रौपदी की ओर देखा नहीं जा रहा.
अचानक कुछ आहट, धीरे से कृष्ण प्रवेश करते हैं
सामने दिखी अकेली अभागिनी, कोई सांत्वना देने वाला नहीं.
अग्नि संभवे, जलो जीवन भर. कहाँ है अंत?
वे बढ़े, ' कृष्णे!'
कैसी सूनी निगाहें. कुछ देख नहीं रही, कुछ सुन नहीं रही.
क्या कहूँ, कैसे सांत्वना दूँ?
जो हो गया उसकी तो किसी ने कल्पना भी नहीं की थी.
कृष्ण ने आगे बढ़ कर पुकारा, 'पांचाली, सखी!'
द्रौपदी देख नहीं देख रही किसी को! एकदम अपने आप में डूबी.
भीम उत्तेजित हो उठे, युधिष्ठिर की ओर देखा. रुक गये.
कृष्ण आगे बढ़ कर उसके समीप धरती पर बैठ गये.
अपना हाथ बढ़ा कर उसका हाथ पकड़ लिया. उसने दृष्टि उठा कर देखा - अपार करुणा से लहराते- वे दो नयन!
कुछ क्षण देखती रह गई वह. फिर सिर झुका कर उस हाथ पर टिका दिया. दूसरे हाथ से कृष्ण ने उस मुक्तकेशी शीश पर हाथ रखा - हौले-हौले थपकते.
आपद-विपद में एक ही आसरा -कृष्ण, परम सखा!
'मेरी व्यथा को तुम्हीं समझोगे मुरारी, '
- इतना मंद स्वर, बस कृष्ण ही सुन पाये.
अर्जुन उठे. खड़े कुछ शून्य में ताकते.
द्वार की ओर बढ़े. एक उचटती-सी दृष्टि सब पर डाली, पांचाली पर टिकी.
फिर बाहर निकल गये
कुछ शब्द पीछे छूट गये - 'उस पापी का शीष लाकर तेरे चरणों में डालूँगा तभी चैन पाऊँगा.'
युधिष्ठिर देखते रहे. भीम नकुल-सहदेव सब एकदम चुप. किसी की पूछने की हिम्मत नहीं पड़ी.
कहीं फिर कोई अनर्थ न घटित हो जाये!
नहीं अस्त्र-शस्त्र कुछ नहीं ले गया, कुछ अनर्थ नहीं करेगा. भीम को इंगित किया युधिष्ठिर ने. वह उठ कर चला गया.
'सखी. उस हत्यारे ने पाँचों कुमारों को...'कृष्ण आगे बोल नहीं पाए.
आँखें फाड़ कर देख रही है पांचाली.
युधिष्ठिर की चिन्ता, 'कहाँ गया होगा! पता नहीं कहाँ छिपा होगा वह गुरु-पुत्र अश्वत्थामा!'
'पाप सवार है उसके सिर पर. कहीं थिर नहीं रह सकता.
मिल जायेगा कहीं. अभी लाते हैं पकड़ कर उसे, ' कहते हुये उठ खड़े हुये कृष्ण, और शिविर से बाहर निकल गये.
46.
तमतमाये मुख भीम खुले द्वार से दिखाई दिये,
अर्जुन लौटे, कृष्ण लौटे, पकड़ लाए थे अश्वत्थामा को.रस्सियों से बँधा हुआ.
एक धक्का दिया, वह जा गिरा पांचाली के पगों के पास !
'दंड दो इसे, ' कैसा स्वर हो उठा था पार्थ का.
उस स्तब्ध शिविर में गूँज गया, 'इसे दंड दो पांचाली. इसने तुम्हारे सोते हुए पुत्रों की हत्या की है. पाँच पुत्रों की. कृष्णा, इसे दंड दो!'
देखती रही चुपचाप उसकी ओर. फिर एक फिसलती-सी दृष्टि युधिष्ठिर पर डाली.
'कहीं कोई दंड है?' पांचाली की विचित्र वाणी,
चरणों में गिर गया गुरु-पुत्र.
'मैं बाल-घाती हूँ, मैं पापी हूँ.'
झुका खड़ा है अश्वत्थामा.
एकदम द्रौपदी को लगा बड़ा कुमार चरण-स्पर्श करने झुक रहा है. मेरा बड़ा कुमार? दिल फटने लगा कहाँ है मेरा कुँवर?...कहाँ हैं मेरे हृदय के पाँच खंड?
नहीं. वह नहीं यह अश्वत्थामा, उनका हत्यारा!
एकदम कैसे लगा जैसे मेरा पुत्र खड़ा है, क्या पुत्र सब के एक से होते हैं?
'जाओ निकल जाओ, मुख मत दिखाओ, 'कह उठी वह.
वह चलने के उपक्रम में घूम गया.
कृष्ण ने मार्ग रोक लिया.
'नहीं, पहले दंड.'
वह देखती रही - सिर झुकाए इस दीन युवक को दंड? क्या करूँ जो इसे किये का फल मिले. क्या करूँ जिससे मेरा अंतस्तल शीतल हो?
दो ही निराले व्यक्तित्व थे. वसुषेण और अश्वत्थामा.
उसके शरीर पर कवच-कुंडल, इसके माथे दमकती मणि!
अश्वत्थामा. ऊंचा-पूरा युवक - बलिष्ठ शरीर, माथे पर मणि दिपदिपाती हुई!
आज कैसा खड़ा है पांचाली के सामने. शीष झुकाए., तेज हत. नेत्र उठ नहीं रहे, और कृष्ण ने झकझोरते हुये कर दिया द्रौपदी के आगे.
'लो, यही है वह पातकी, कायर. योद्धा के नाम पर कलंक, दंड दो इसे.'
अर्जुन सिर काटने को तत्पर.
'यह तो पहले ही मर चुका. कहाँ गया इसका तेज, मणि पर कालिख पुत गयी. जब अंतरात्मा की द्युति खो गई मणि क्या कर लेगी. अब मार कर हत्या मत लो पार्थ. छोड़ दो भीम.'
सब स्तब्ध!
कैसी वाणी बोल रही है आज,
'जिनके लिये हर तरह से निभाती रही. नीति-अनीति, समझते हुये भी मौन झेलती रही. जब वही नहीं रहे....मेरा क्या..उन सबके और-और हैं, और ठिकाने भी हैं...मैं ही रह गई एकदम अलग.. अकेली...!'
उन विषम क्षणों में सब कुछ सोच गई वह. मन का उद्वेग, शब्दों में फूट पड़ा था.
समझ रहे हैं जनार्दन. क्या बोलें.कैसे सांत्वना दें?
'इसका शीश चाहिये मुझे, ' पार्थ फिर बढ़े.
पांचाली ने हाथ उठाया, ' गुरु-पुत्र है, उन्हीं का अंश. नहीं, वर्जित है., पार्थ उसकी हत्या. वह तो पहले ही मर चुका छोड़ दो उसे, रहने दो.'
कंठ भरभरा उठा, कुछ रुकी वह.
फिर सुना सब ने, ' वे तुम्हारे गुरु थे, उनकी हत्या..अंतिम समय तक उनका मन इसी में पड़ा रहा....'
यह क्या कह रही है द्रौपदी!
कोई किसी को नहीं देख रहा, अपने आप में सब स्तब्ध.
'मुझे नहीं चाहिये प्रतिशोध. हटा दो यहाँ से इसे...'
बार-बार कंठावरोध हो रहा है. रुक -रुक कर संयत होने का प्रयत्न करती है .
'एक माँ का दुख कैसा होता है तुम नही जानते, जनार्दन. नहीं, मैं नहीं.....इसकी माता कृपी. अनपेक्षित वैधव्य की यंत्रणा से नहीं उबर पाई होंगी वे....नहीं मैं नहीं दे सकती एक और दुख..कितना दारुण! मैं झेल रही हूँ जो. जानती हूँ हृदय का घाव कितना पीरता है. किसी पर न पड़े यह यंत्रणा, यह दुख मुझसे नहीं सहन हो रहा, माता कृपी का क्या दोष? मैं किसे दोष दूँ?.... नहीं, जाने दो, जाने दो उसे, कृष्ण.
जाओ, गुरु-पुत्र, चले जाओ यहां से.'
वह मुड़ा. पार्थ का स्वर उभरा, ' रुको, सुन लो जाने से पहले. ऐसे नहीं मुक्ति पाओगे तुम!'
कृपाण उठा ली, सिहर उठे सब. क्या हो रहा है यह?
उसके कपाल को बेध रहे हैं. मस्तक-मणि निकाल ली. रक्त की बूँदें टपक रही हैं. उसी के वस्त्र से पोंछ देते हैं अर्जुन. दारुण पीड़ा से विकृत अश्वत्थामा.
वह मांसल मणि अर्जुन के हाथ में है.
हत-तेज, रक्त-रंजित वह विकृत मुख!
'रहने दो! पार्थ, क्या होगा उससे. मेरे बच्चे लौट आयेंगे मेरे पास?'
कोई कुछ नहीं बोल रहा.
पांचाली का एकदम शान्त स्वर, 'तुमसे क्या कहूँ, मुकुन्द! जब नीति और धर्म के ज्ञाता माने जानेवाले स्वयं को नहीं विरत नहीं कर पाते तो फिर अन्य लोगों को...'
कई दृष्टियाँ उधर उठ गईँ जैसे पूछ रही हों -
यह पांचाली क्या कह रही है- सुन रहे हो धर्मराज?
वे सदा की तरह गंभीर, अगम!
असह्य पीड़ा से विकल अश्वत्थामा का हाथ चला गया घाव पर जिसे भिगोती रक्त-धार बह निकली थी.
कैसा दारुण दृष्य!
गूँजने लगा, रह-रह कर छा जाते दुःसह मौन में कृष्ण का स्वर, ' जा, अश्वत्थामा, इस महिमामयी नारी ने छोड़ दिया तुझे. चिर-जीवी हो तू, इस घाव की पीड़ा युग-युगों तक झेलता, याद करता रह अपने पापों को. क्षण भर भी शान्ति न मिले तुझे, शताब्दियों- सहस्राब्दियों तक. यही व्रण लिए भटकता रह कोई औषधि नहीं जिसकी, केवल यंत्रणा, दारुण संताप और पश्चाताप. युग-युगान्तरों तक जीवित रह तू. जा, जीता रह इस यंत्रणा के साथ अनंत काल तक..!'
काँप उठी द्रौपदी,.
'मैं तो मुक्त हो जाऊँगी, जो हुआ उससे आगे निकल जाऊँगी, जनार्दन.ये यहीं अटका रहेगा, कैसा दारुण शाप!'
फिर घूमी उसकी ओर-
'जाओ, भाग जाओ! खो चुके सब, जो साथ लाये थे.
'जाओ अश्वत्थामा, जाओ.बस, चले जाओ यहाँ से, एक क्षण भी मत रुको. नहीं देखना चाहती मैं तुम्हारा मुख, एक पल के लिये भी नहीं. पता नहीं क्या कर बैठूँगी. तुरंत निकल जाओ यहाँ से.'
वह चला, पग जैसे बरबस घिस़ट रहे हों
विकृत-वीभत्स मुद्रा लिए रक्त टपकाता, वह निकल गया शिविर से बाहर.
47.
अभी- अभी उत्ताल तरंगों का रुद्र-नर्तन थमा है बाढ़ का तांडव शान्त हो चला है.
जीवन सरिता उतार पर आते कितने ध्वंसावशेष, कितनी सड़न और तल के कीचड़ का फैलाव छोड़े जा रही है- सब सामने आयेगा, बाद में क्रम-क्रम से.
महा-समर बीत चुका है. अभी तो जीतनेवालों को विजयोन्माद ने छा लिया है. युधिष्ठिर सहित पाँचो पांडव सकुशल हैं, निश्चिंत हैं, अपने कौशल पर तुष्ट.
'उधऱ का केवल एक ही बचा, युयुत्सु.' सहदेव ने कहा.
'वह तो हमारी ओर था, हमारा औचित्य समझा था उसने.' युधिष्ठिर का मत था, ' धर्म की विजय होनी ही थी.'
उन्हें लग रहा था उनके धैर्य, शान्तिपूर्ण व्यवहार और धर्म-बुद्धि का परिणाम है यह.
पांचाली ने सिर उठा कर उनकी ओर देखा था.
सब चुपचाप सुन रही है कृष्णा, विचार चल रहे है - वासुदेव धर्मराज के परम मान्य हैं, उन्हें धर्म की मर्यादा का स्थापक मानते हैं. फिर उनकी तरह विचार क्यों नहीं कर पाते! इन्हीं के उस बंधु ने कितनी रूढ़ियाँ निश्शंक हो कर तोड़ दीं. नई मर्यादायें रच दीं. एक सहज मानवी दृष्टि लेकर जो उचित लगा उससे विरत नहीं हुआ, किसी का कुछ कहना कभी उसके आड़े नहीं आया.
पूरे परिवार को ऐसी विषम स्थितियों और कुत्सित षड्यंत्रों से घिरा देख वे कैसे शान्त रह लेते हैं, उसे विस्मय होता है.
वह समझ नहीं पाती कि उनके मन में क्या है, या सबसे उदासीन हैं. जो होता है उसे वैसा ही चलने दो. क्या यही धर्म है?
अनीति होते, अत्याचार होते देखते रहना नीति है या धर्म? धर्म अत्यंत गूढ़ वस्तु है या सहज-स्वाभाविक?
अगर गूढ़ है सब उसे समझ नहीं सकते तो वह सबके लिये साध्य नहीं हो सकता. इतना सहज हो कि सर्व-सुलभ, सर्वसाध्य-सर्वमान्य हो सके, सबके कल्याण का सबके सुख का मार्ग प्रशस्त कर सके, सहज प्रस्फुटित हो अनायास अंतर में जागे सुन्दर संकल्प के समान.
बीच-बीच में कृष्ण से दृष्टि विनिमय- एक दूसरे के मनोभाव समझ रहे हैं.
भीम ने अपनी गदा पर दृष्टि डाली, 'जब दुर्योधन -दुःशासन आदि ही गदा की भेंट चढ़ गये, तो सब गया समझो!'
अपनी गदा के आघात से बहुत संहार किया था उनने भी.
'नहीं भैया, जब तक कर्ण रहता हम निष्कंटक नहीं हो सकते थे, और फिर पितामह को भी तो युद्ध से हटाना था. नहीं तो हममें से कोई नहीं बचता.'
अब नकुल -सहदेव को भी बहुत-कुछ याद आने लगा.
कृष्ण बैठे सुन रहे थे - अब जब सब बीत गया तो कैसे श्रेय लेने को आतुर हैं ये लोग!
वे चुप न रह सके -
'युद्ध की वास्तविकता तो वही बता सकता है जो इस संपूर्ण काल को आँखों देख कर भी साक्षी-मात्र रहा हो.'
सब की दृष्टि उधर घूम गई.
'ऐसा कौन है, जो निष्पक्ष सब-कुछ देखता रहा?'
'है, ऐसा वह वीर! रण में उतर आता तो किसी की कुशल नहीं थी. घोर विनाश अवश्यंभावी था.'
सब चकित एक-दूसरे का मुख देख रहे हैं.
'अच्छा!' कई स्वर एक साथ, 'कहाँ हैं वह? हम अवश्य जायेंगे उनके पास.'
कौन है ऐसा धीर-वीर, जिसने आद्योपान्त यह महा-रण देखा और अपने एकान्त में कहीं निर्लिप्त बैठा है?
जनार्दन के साथ वे पाँचो गये, जानना चाहते हैं युद्ध का सत्य!
पांचाली नहीं गई. इस सब से तटस्थ रहना चाहती है. जो मन पर स्मृतियों की खरोंच छोड़ते निकल गये, अब उन अध्यायों को याद करने की इच्छा नहीं है.
ये सब भ्रम में पड़े हुये हैं.
ले गये कृष्ण - कर्ता और भोक्ता नहीं, दृष्टा बर्बरीक! चलो वही बतायेगा युद्ध का सच.
उसकी असीम सामर्थ्य देख कृष्ण अवाक् हो गये थे. समझ गये थे अगर युद्ध में बर्बरीक सम्मिलित हो गया तो क्या होगा?जो रास्ते पर लाये हैं सब बिखर जायेगा.
तब वह युद्ध में भाग लेने जा रहा था.
उसकी माता ने आज्ञा माँगने पर उसे कह कर भेजा था कि दोनों पक्ष तुम्हारे पूज्य हैं.तुम्हारे लिये उचित यही होगा कि जो हार रहा हो उसके सहायक बन उसी की ओर से युद्ध करो.'
नहीं, नहीं होने दूँगा यह. उन्होंने निश्चय कर लिया.
ब्राह्मण का वेश बना उसे वचन-बद्ध कर उसका शीष मांग लिया, तब उसने जाना कि यह कृष्ण हैं.
याचक का समुचित मान कर उसने शीष समर्पित कर दिया और उनके पूछने पर महासमर देखने की अपनी कामना व्यक्त कर दी.
कृष्ण ने टीले पर स्थित, अश्वत्थ-शिखर पर वह मस्तक स्थापित कर, दिव्य-दृष्टि प्रदान की, कि इस ऊँचाई से तुम सब कुछ असली रूप में देख सकोगे.
बर्बरीक का शीष अभी उसी टीले पर टँगा है!
सारा महाभारत उसके सामने से गुज़रता चला गया.
क्या कहा बर्बरीक ने?
'धर्म-युद्ध'? वह हँस पड़ा था.
'प्रारंभ से अंत तक छल और प्रवंचनायें, निहित स्वार्थ!'
उसने धर्मराज की ओर देखा-'क्यों महाराज, प्रारंभ से आपने क्या किया? विलक्षण चातुर्य कि माँ से मनोनुकूल कहला लिया. भाइयों पर शासन, स्त्री पर दाँव और गुरुहत्या? धर्म क्या यही होता है ? '
उन्होंने सिर झुका लिया.
‘सबकी पोल-पट्टी मैं जानता हूँ.'
भीम-अर्जुन को देखा- 'नीति की निरंकुश अवहेलना- कितनी बार. गिनवा दूँ क्या?'
नत-शिर ,वाणी मौन !
एक ओर नहीं दोनों ओर का सच यही है.'
उसने कहा -
'युद्ध कहाँ था वह? कहीं नहीं किसी की हार-जीत. श्रीकृष्ण का चक्र चारों ओर घनघनाता घूम रहा था. सब कट-मर रहे थे- केवल सुदर्शन चक्र और कुछ नहीं. और?...और क्या था?
.प्रतिहिंसा-हेतु आवाहित, यज्ञ- वेदी से प्राप्त गंध-धूम रुचिरा, अग्निकन्या, मुक्तकेशी पांचाली विचरती हुई खप्पर भर-भर, रक्त-स्नान करती- अपना निमित्त पूरा कर रही थी.'
तनिक व्यंग्य से कहा था उसने - 'ये पाँचो पांडव! कैसे विभ्रम में पड़े हैं, जिनका जीवन ही-किसी के उत्सर्ग से प्रति-फलित दान है!'
अवाक्-प्रश्नमयी दृष्टियाँ कृष्ण की ओर उठीं. उन्होंने शान्त रहने का इंगित किया.
आगे कुछ बोल सके किसी में साहस नहीं था.
लौटते समय कृष्ण ने बताया था - बर्बरीक भीम का पौत्र था- घटोत्कच और नागकन्या अहिलवती का पुत्र. शिव के वरदान से वह त्रैलेक्य-विजयी होने में समर्थ था.
भीम का पौत्र - बर्बरीक!
जिससे नारायण ने कहा था, 'तुम में वह नरोत्तमता अनायास व्यक्त हो उठी है जिसके लिये योगी-मुनिजन, जन्म-जन्मान्तर साधना करते हैं!'
और भी-
'बर्बरीक, किसी आगत युग में तुम श्याम-सम पुजोगे तुम्हारी पुरुषोत्तमता को पूरी प्रतिष्ठा मिलेगी!'
48.
सारा राज-पाट अब पांडवों का हुआ. मृत-रिजनों के अंतिम संस्कार, उनका ही कर्तव्य है. और युधिष्ठिर कर्तव्य निर्वाह से कभी पीछे नहीं हटते.
पर अचानक कुन्ती माता ने उस दिन सबको चौंका दिया.
उन्होंने कहा ,'पुत्र, वसुषेण का अंतिम संस्कार तुम्हें ही करना है. '
पाँचो पांडव चौंक कर उनकी ओर देखने लगे,
'न हमारे कुल का न पक्ष का, जीवन भर विरोधी रहा हमारा, कितने अहित किये,कभी शान्ति से रहने न दिया. हम क्यों. . . “
भीम ने कहा 'माँ वह हमारा शत्रु,. . . '
कुन्ती ने एक उसाँस भरी. कुछ क्षण चुप रहीं
'वसुषेण!. . हाँ वह मेरा पुत्र था, तुम सबका ज्येष्ठ भ्राता. . . '
सारे पांडव विस्मय से माँ का मुख देख रहे हैं.
अर्जुन उठ कर खड़े हो गये, 'किस प्रकार का भ्राता, भाई क्या आकाश से गिरते हैं, सदा प्राणों का प्यासा रहा था. . . !'
बीच में टोक दिया युधिष्ठिर ने, ' बंधु, उत्तेजित न हो. माता की पूरी बात सुन लो. '
पांचाली एकटक कुन्ती की ओर देख रही है.
अशान्त मौन सर्वत्र.
'अब तक समझ नहीं पाई कैसे बताऊँ, क्या बोलूं. लेकिन आज. . . आज विवश हूँ कहने के लिए. . . . हाँ, वह मेरा सबसे बड़ा पुत्र. . '
उसने सिर झुका लिया कुछ रुकी, फिर बोलने लगी -
'दुर्वासा ने मुझे वर दिया था - सर्वविदित है. उस समय अनुभवहीन थी. विवाह से पूर्व उस वर का प्रयोग कर के देखना भारी पड़ गया. सूर्य-देव का आवाहन किया था. वे निष्फल कैसे जाने देते. परिणाम यही. जिसे मैंने - जन्मते ही अपने से दूर कर दिया. . '
अनायास धर्मराज कह उठे, ' ओह! यह क्या हो गया!. . . काश, पहले पता होता. . . कितना अनर्थ घटता रहा. '
अर्जुन का मुख एकदम श्वेत, ' हम वंचित रह गये अग्रज भ्राता की छाँह से, उनके संरक्षण से, स्नेह से, सदा उन्हें लांछित प्रताड़ित करते रहे उन्हें. माँ. ऐसा क्यों किया तुमने ? भाई ही भाई के प्राणों का बैरी हो गया!'
'फिर सब उनके प्रति इतने क्रूर क्यों रहे ? माँ, तुम भी. . ? ' युधिष्ठिर चुप न रह सके.
अर्जुन अति व्याकुल ,' और मेरे कारण, हाँ मेरे ही कारण. जीवन भर अपमान दुर्वचन कहे गये उनसे -क्या करूँगा ऐसा जीवन लेकर, इस विजय का क्या अर्थ रह गया मेरे लिये ? '
' हे विधाता, फिर तो स्त्रियों के पेट में कोई बात न पचे कभी,. . . ऐसे अनर्थ तो न घटें. ' युधिष्ठिर एकदम कह गये.
कुन्ती,चुप. पर कहाँ तक चुप रहें, बताना ही पड़ेगा.
'मेरा पालन-पोषण महाराज कुन्तिभोज ने किया. वे मेरे पिता नहीं थे. माता का सान्निध्य कभी मिला नहीं. माता-पिता और पुत्री का सहज अपनत्व और नेह अप्राप्य रहा. '
'जननी-जनक का संतान के प्रति वात्सल्य संबंध कभी नहीं जाना. पुत्री होने के दायित्व निभाती रही, हर घड़ी परीक्षा की घड़ी लगती थी. माता-पिता के साथ जो सहज-भाव होता है, वहाँ कभी अनुभव नहीं किया. यही लगता रहता कहीं कोई चूक न हो जाय. जिनके घर में थी उनकी अपेक्षाओं पर खरा उतरना था.
फिर दुर्वासा मुनि का आतिथ्य मेरा दायित्व रहा. जिस महा क्रोधी को झेलने में समर्थ- जनों के छक्के छूटजाते हैं, मेरा कर्तव्य रहा उन्हें प्रसन्न रखना. कैसे करती रही, जैसे क्षुर-धार पर चलना. निभा दिया सब. उसके बाद भी सारी अशान्ति अपने पल्ले बाँध लाई. शाप ही तो हिस्से में आये.
आगे तक सोच-समझ लूँ तब इतनी बुद्धि कहाँ थी! व्यवहार-कुशल हो सकूँ ऐसा वातावरण कभी नहीं मिला, न परिवार की छाया न सामाजिक संबंधों का विस्तार . . भय और आशंकाओं से त्रस्त. किससे कहती. धात्री ने जो उचित समझा करवाती गई, मैं करती गई. समाज में रहना था. कर्तव्य निभाना था. मेरा अपना क्या था वहाँ!. . . मुझे क्षमा करना मेरे पुत्रों!'
'रहने दो माँ, जो हो चुका उसके लिए क्या करेगा अब कोई, ' युधिष्ठिर बोले थे.
हम सब उस अन्याय के हिस्सेदार हैं. '
सबके शीष झुके थे.
एक झूठ कैसे-कैसे अनर्थों की जड़ बन जाता है.
बहुत बार पछताई है कुन्ती. पर आज अपने जीवन को धिक्कार रही है.
वसुषेण की निष्प्राण देह को देख रहे हैं युधिष्ठिर, अर्जुन तीनों भाई और कुन्ती, जिनके नेत्रों में उमड़े वाष्प-कण दृष्टि धुँधलाये दे रहे हैं.
कुंती बैठ गई, कर्ण का मुख दोनों हथेलियों में भर लिया मन में आया काश, उसके जीवित रहते कभी उसका मुख यों निहारा होता!
'रहने दो बुआ, अब वह इस सबसे परे जा चुके हैं!'
कुन्ती ने सुना या नहीं, वह चौंक उठी थी -
'अरे इसके ये दाँत टूटे हुये, मुख रक्त से सना. अर्जुन तुमने. . ?
'नहीं माँ, ऐसा नीच कार्य मैं नहीं कर सकता. '.
कृष्ण बोल उठे, 'उस घायल अवस्था में मरते-मरते भी एक याचक की इच्छा पूरी करने से विरत नहीं हुए वह, अपनं स्वर्णमंडित दाँत स्वयं उखाड़ कर दे दिये. '
रक्त-रंजित होने की याचक की आपत्ति पर, कैसे कर्ण ने अपने शऱ-संधान द्वारा निकाली गई जल-धारा से उन्हें धोया था. खंडित शरीर से घिसटते हुये सब करता रहा. '
स्तंभित सब!
कानों में शब्द जा रहे हैं -
पांचाली उद्भ्रान्त-सी, अस्थिर -विकल, विस्फारित नयन – भावहीन मुख
सुने जा रही है.
वह दीप्तिमान देह कवच- कुंडल उतरने की खरोंचें, धूल और घावों के रुधिर से लिप्त, सामने पड़ी है.
शरीर पर जगह-जगह सूखे हुये रक्त के चिह्न, कई जगह तो ऊपर से कवच पहनने की रगड़ से हो गये घाव भी.
यह तो शरीर के घाव हैं. जन्म से मृत्यु पर्यंत हृदय पर जो घाव होते रहे
उसे कौन जानेगा ? द्रौपदी ने गहरी साँस ली.
हताश अर्जुन धरती पर बैठ गये.
'वे सबसे अधिक अपने थे, वे सबसे श्रेष्ठ थे. वे सबसे ज्येष्ठ थे. '
उन के स्नेह -संरक्षण वरदान से वंचित रह गये हम!
माँ, कैसे सहन कर सकीं तुम. उन पर इतने दारुण अत्याचार कैसे कर सकीं तुम ?
धिक्कार है हमें, जिनके कारण वे सदा तिरस्कृत हुये. '
'ओह, उनके कवच-कुंडल, उतरवा लिये शरीर से जैसे कोई शरीर से चर्म खिंचवा ले, फिर भी वे महाधीर विचलित नहीं हुये. किसी को कष्ट नहीं हुआ उनकी असह्य पीड़ा से. '
सूर्य की माता अदिति, उनकी पितामही ने कवच-कुंडल प्रदान किये थे, इन्द्र ने अपने पुत्र की रक्षा के लिये उतरवा लिये' -कृष्ण ने बताया.
अर्जुन व्याकुल हो उठे.
'नहीं, मैं नहीं क्षमा कर सकता अपने आप को. हमें नहीं चाहिये विजय, नहीं चाहिये राज्य. कुछ नहीं चाहिये जो इतने क्रूर अन्याय से प्राप्त हो '
सब ने तिरस्कार किया, फिर अपने स्वार्थ साधने सब पहुँचे उनके पास! .
और उनने अपने लिये कभी किसी से कुछ नहीं चाहा.
उन्होंने चाहा था कुछ. पांचाली जानती है. उस दृष्टि का ताप आज भी विचलित कर देता है उसे.
मत्स्य-बेधन को तत्पर हुये वसुषेण ने पाँचाली को देखा था.
आज वह दृष्टि याद आ रही है. कितना चाव, कितना नेह -ज्यों कह रहा हो, 'बस, अब तुम मेरी हो. '
अभिभूत-सी देखती रह गई थी, अपलक - कैसा दैदीप्यमान पुरुष!
फिर ध्यान आया यह कौन? पार्थ नहीं है यह.
जब सुना अंगराज कर्ण है, अधिरथ सूत का पुत्र. वह एकदम बोल उठी, ' नहीं,नहीं संधान मत करना. '
वह चकित रुक गया.
'मैं कुलहीन से विवाह नहीं करूँगी. '
पल भर में सारी स्निग्धता, वितृष्णा बन गई, अमृत विष में परिणत हो गया. मेरे मुख से निकले तीखे वचनों ने सौम्य मुद्रा को रौद्र, वीभत्स बना डाला.
मैं कुछ नहीं जानती थी वसुषेण, मेरे कानों में जो भरा गया था वह विष उन वचनों में फूट पड़ा था. मेरा अंतर भी सदा दग्ध रहा उस ताप से. पर फिर भी अपराध मेरा था!
काश, सारे संसार की प्रताड़ना स्वयं पर ले कर उसे निरापद कर पाती .
आज भी मन करता है वह एक बार नेह से देख ले , जिसे अपने व्यंग्य-बाणों से विदीर्ण कर दिया है, एक बार उससे कह दे, 'अपनी भूल के लिये मैं जीवन भर पछतायी हूँ. तरसी हूँ. तुम अधिकारी थे. '
अंतर से स्वर उठता था तुम मेरे हो, पार्थ के साथ कैसी विचित्र समानता थी, जो तुम्हारी याद दिलाती थी.
जब एक माता ने, वधू को पुत्रों विभाजित किया था, पर सबसे पहला अधिकार जिसका था, वही वंचित कर दिया गया.
जब-जब कर्ण अपमानित हुआ, उसके हृदय पर झटका लगा, रातों को अनिद्रित सोचती रह गई. ऐसे देवोपम पुरुष का कैसा दुर्भाग्य.
याज्ञसेनी, तुमने छू लिया होता नेह के पारस-परस से तो वह स्वर्ण सा दमक उठता!
'मुझे ऐसा लगता था कि पहुँच में होते हुये भी वे हमें हत नहीं करते. . . ' भीम के कथ्य में निहित सच को और भाइयों ने भी अनुभव किया था.
'आज यह भी बतला दो माँ, कि क्या वे जानते थे कि हम उनके भाई हैं ? '
'हाँ, यह बात मैंने उसे बतलायी थी, उसे अपनी ओर करने गई थी, उससे भिक्षा माँगी थी. . . '. . कुन्ती का स्वर बार-बार रुँध जाता है,
'तुम सब के जीवन के लिये!'
'उनके साथ इतना होने पर भी माँ, तुम उन्हीं से. हमारे लिये. . . ,आज समझ में आया. . . ओह मैं सोच नहीं पाता!'
'हमारा जीवन वही भिक्षा है जो तुम माँग लाईँ माँ, उन्हें मृत्यु के मुख में झोंक कर. '
'एक पुत्र के लिये जीते जी दूसरे के तन का चर्म उतरवा लिया, कैसे सह सकीं तुम ? '
कृष्ण ने पूछा ,' आज पता लगा कि अग्रज थे इसलिये इतना दुख? वे भाई नहीं होते, एक मनुष्य होने के नाते सारे व्यवहार उचित थे? और वे, अगर सोचो तो, हर स्थिति में अपने आदर्शों पर अटल रहे थे.
अपने जन्म का रहस्य जानने के बाद भी अपने-पराये की भावना से निर्लिप्त रह अपना कर्तव्य निबाहते रहे. '
युठिष्ठिर, चुप न रह सके,' नहीं बंधु. तब भी वे एक श्रेष्ठ पुरुष थे. अपने पक्ष के लिये अपने निहित स्वार्थ के लिये हम सब उनके साथ अन्याय करते रहे. अपराधी हम हैं. '
अब वे नहीं हैं, कुछ भी कहो, कितना भी पछताओ उन्हें क्या? सब जानते थे पर अपने आदर्शों को अंत तक जीते रहे, किसी से बिना कुछ कहे चले गये. '
कुन्ती सहन न कर सकी मुंह में आँचल ठूँस वहाँ से उठ गई.
रुँधे हुए रुदन की आवाज़ रह-रह कर आ रही है.
आह, वसुषेण ? अपना लिया होता उसे तो जीवनव्यापी बिडंबनायें न झेलनी पड़तीं. जिससे बच कर भागी उसे ही नयनों के सामने देखना, निरंतर अपमानित होते, क्षुब्ध और विवश. वही नियति बन गई. उसी विधि से तीन-तीन पुत्र उत्पन्न करना क्या. यही विधि का विधान था? जिससे भागने का प्रयत्न किया वह बारबार सामने आता रहा.
भिन्न-भिन्न जनक थे. उन पुत्रों को एक जुट रखने के लिये द्रौपदी को माध्यम बनाया. पर उसी वधू के कारण एक पुत्र, अर्जुन के समान प्रतापी पुत्र, वह भी सबसे बड़ा. उससे बैर बँध गया. देखती रही विवश कुन्ती. जो नहीं चाहती वही हो कर रहता है. जिसे टालने के लिये कितने प्रयास करती है वही सामने प्रत्यक्ष हो जाता है. सामाजिक मर्यादा की रक्षा के लिये जो किया, उससे कहीं आगे जा कर वही करने को विवश हो गई किसे दोष दे. ऐसा नहीं कि समाज में वैसा हुआ नहीं था, कृष्ण द्वैपायन, सत्यवती सब. यथार्थ बने सामने खड़े थे.
तभी साहस कर स्वीकार कर लिया होता तो कितनी यंत्रणाओं से बच जाती!
जब पांडु ने संतान की इच्छा जताई थी. कुन्ती विचार -मग्न हो गई थी. क्या कह दे कि एक कानीन पुत्र है स्वीकार कर सको तो!
पर मन आशंका-ग्रस्त रहा. अब तक क्यों छिपाये रहीं? विवाह के समय ही बता देती तो आज ये द्विधा नहीं होती. कहीं पूछ दिया गया कि किसका है, क्या प्रमाण है? तो किस-किस को उत्तर देती. और फिर जिसे जन्म लेते ही बहा दिया था जिसे किसी और ने उसे अपना लिया, पुत्रवत् स्नेह-ममता से सींचा. दाई-माँ से सारी सूचनायें मिलती रही थीं. स्वरूपवान् तेजस्वी, देख कर नयन जुड़ा जायँ ऐसा युवक. इतने वर्ष की सार-सँभाल किसी ने की. अब किस मुँह से कहूँगी ये मेरा है, मुझे लौटा दो.
कुन्ती किससे सलाह लेती? माँ-पिता कहाँ जिनसे अधिकारपूर्वक पूछ सके? और जिनने पोषण किया उनसे कहने का साहस नहीं कर सकी.
कर्ण के अंतिम कृत्यों के बाद जब परिवार-जन उसे अंतिम बिदा दे रहे थे, द्रौपदी बढ़ आई थी.
आज कैसी पांचाली को देख रहे हैं धर्मराज! अब तक खुले रहनेवाले केश बँधे हैं पर यह वह द्रौपदी नहीं है. नितान्त परिवर्तित यह नारी!
क्या इसे पहचानते हैं ?
कभी पहचाना था? क्या ज़रूरत थी. पत्नी थी अपना धर्म निभाती हुई. जानने को था भी क्या ? यही है वह ?
क्रोध देखा है उसका, करुणा भी. प्रश्न पूछती तेजोद्दीप्त पांचाली के सम्मुख आँखें नहीं उठा पाये थे. उत्तर उनके पास थे कहाँ? आज पहली बार उसे रोते देख रहे हैं.
वस्त्रहरण पर भी जो चुनौती सी देती रही आज वह कितनी निरीह कितनी विवश .
'आर्य वसुषेण, क्षमा कर देना मुझे. मैं कुछ नहीं जानती थी. मेरी दृष्टि बाँध दी गई थी. '
पहली बार द्रौपदी के मुख पर दारुण पश्चाताप की गहरी छाया देखी. युधिष्ठिर ने कहा कुछ नहीं.
द्रौपदी विषण्ण बैठी है.
कैसा आवेग बार-बार उठ कर मन को मथे डाल रहा है.
दोनों कर जोड़ शीष झुकाये बोली थी, थी 'आर्य वसुषेण, क्षमा कर देना मुझे. '
कर्ण ने उस दिन कुन्ती से कहा था -
'जन्म लेते ही स्वाभाविक संबंधों से काट कर फेंक दिया गया मैं. गर्हित पदार्थ सा. जीवन भर मेरे होने के अपवाद से बचती रहीं आप, अब अंतिम समय में क्यों कलंक लेती हैं? चलने दीजिये ऐसे ही. मैंने कभी नहीं जाना कि मैं कुन्ती-पुत्र हूँ, जीवन भऱ अपमानित हुआ, राधेय बना रहा. जिनने उपकार किया, जीवन दिया, ममता दी, और फिर जिसने मित्र बन कर नाम और विश्वास दिया, जब कि उनका मेरे लिये कोई दायित्व नहीं था, उनका ऋण चुकाना है. फिर भी आप निराश नहीं लौटेंगी मेरे पास से. '
उसका मन उमड़ पड़ा-
माँ थीं तुम? एक के लिये इतना मोह औऱ दूसरा जन्म से मृत्यु तक जीवन परित्यक्त, वंचित, अपमानित! दोनों के लिये समान नहीं तुम. पर अंतर से उठती पुकार दबा गया कर्ण. आशा लेकर आई आगता को आहत नहीं करूँगा.
'मुझे उसका ऋण चुकाना है, जिसने सबके सामने सिर उठा कर जीने का अवसर दिया. नहीं तो कहीं सिर झुकाये बैठा होता, आपको मेरे पास आने की आवश्यकता भी नही होती. भूल गईँ होतीं आप.
नहीं मारूँगा आपके प्यारे पुत्रों को बस एक को, जो आपका पुत्र होने का अनुचित लाभ उठाता रहा. एकलव्य हो या मैं, वंचित - वर्जित रहे, उसी के कारण.
या पार्थ जाये या परित्यक्त राधेय, आपके पाँच पुत्र जीवित रहेंगे.
वैसे भी मेरे छोटे से परिवार के सिवा और किसे मुझ में रुचि है जिसे दुख होगा?
आपकी ओर भारी शक्तियाँ हैं. येन-केन प्रकारेण मुझे हत करने का उपाय खोज ही निकालेंगी. अब तो जीवन बीत गया. अंत बेला आ गई है.
अपयश का भागी बन क्या करूँगा जी कर? आप निश्चिंत हो कर जाइये. '
नदी के तट से सिर झुकाये कुन्ती लौट रही थीं. झलझलाते नयनों से अपने धुँधलाये अतीत की झलक को वह उनके ओझल हो जाने तक खड़ा देखता रहा था!
कर्ण का ध्यान सबके मन-मस्तिष्क पर छाया हुआ है. कुन्ती कभी हँसती कहाँ थीं, बस हल्की सी मुस्कान कभी-कभी उदित हो जाती थी. युधिष्ठिर राजा बने पर अशेष ग्लानि है. इस राज्य का अधिकारी तो कोई और था. माँ का सबसे बड़ा पुत्र, सबसे प्रतापी, सबसे तेजस्वी, सबसे योग्य!
ओ माँ, तुने क्यों नहीं सत्य को सामने आने दिया? जीवन की धारा ही बदल जाती, जो हुआ है कभी न होता.
द्रौपदी के पछतावे का कोई छोर नहीं.
वह कह उठी ,'मेरे पुत्रों को बैरियों ने मारा किन्तु तुम्हें तो जन्म से अपनों ने ठुकराया, सदा अपमानित किया. क्षमा करना, तुम्हारे आगे हमारे दुख कुछ नहीं. '
इन कुन्ती-पुत्रों से उनकी विचित्र समानता अनुभव करती थी वह. गंभीर स्वभाव, गहन दृष्टि, स्नेह, सहानुभूति से भरी. कभी कोई हल्की बात नहीं. सहज, गरिमामय व्यक्तित्व.
मन में प्रश्न उठता है -
तुमने अर्जुन की कामना की थी ?
हाँ, अर्जुन!
और कर्ण?
कर्ण? नहीं जानती थी उसे. जब जाना तब विरोध करने का, दूर होने का जितना प्रयत्न करती रही उतना ही छाया रहा वह मुझ पर!
कैसा दुर्निवार आकर्षण, जो स्थिर न रहने दे.
अर्जुन दुखी थे, अपने परम तेजस्वी अग्रज को मैंने छल से मार दिया. जीवन भर उन्हें मेरे कारण अपमानित और तिरस्कृत होना पड़ा.
अपने स्वार्थ की सिद्धि के लिये उनका प्रतिद्वंद्वी बना रहा.
उनके साथ सभी ने अन्याय किया.
कर्ण की चर्चा होने पर पितामह ने बताया -
उसने कहा था -'अब कुछ नहीं चाहिये. मन विरक्त हो गया है. जिनका ऋण है मेरे ऊपर वह चुका दूँ, बस.
आशीष दीजिये कि यह अभिशप्त जीवन कालिमा ओढ़ कर न जाये. जो किया कर्तव्य हेतु, अपने स्वार्थ के लिये नहीं '.
'नहीं वत्स, उन्नत शिर और उज्ज्वल मुख ले कर जाओ. सबसे अधिक निर्मल तुम्हारा चरित्र, युग-युगों तक स्मरणीय रहेगा!'