कृष्ण सखी / भाग 53 - 56 / प्रतिभा सक्सेना

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53.

'आज कैसा निचिंत तुम्हारे पास बैठा हूँ सखी, बस यही क्षण मेरे अपने होते हैं. जब तुम्हारे साथ होता हूँ, तुमसे सुन लेता हूँ अपनी कह देता हूँ. और कौन है जिससे कह लूँ ? कल नहीं होऊँगा यहाँ......पता नहीं फिर. . '

यह कैसा स्वर हुआ जा रहा है- क्या हो रहा है आज इन्हें! उसने विस्मय से देखा,

' स्वस्थ हो न? बहुत श्रमित हो? ....मुझसे ऐसे तुम्हारा मुख नहीं देखा जा रहा, कुछ दिन विश्राम कर लो, फिर चले जाना. '

'वहाँ से बुलावा आ रहा है, अब नहीं रुक पाऊँगा. चाहता था एक बार गोकुल-वृंदावन जाऊँ पर कहाँ. . . '

उन्मन मन में वृषभानु-सुता की स्मृति जाग उठी है- समझ गई, स्मित हास्य पूर्वक छेड़ती हुई बोली,' क्यों मित्र, वार्धक्य में क्या स्मृतियों की चुभन बढ़ जाती है? '

कृष्ण को हँसी आ गई,' मुझे तो यही लगता है. जीवन की आपाधापी में किसे इतना विराम मिल पाता है. . !. . '

'हाँ, नेक विराम मिला तो अंतर की करवटें शुरू,' पांचाली एकदम बोल पड़ी,' मधुसूदन, तुम्हारा व्यक्तित्व ही एकदम निराला है. तुम्हें सभी चाहते हैं. . . . पर जिसे सब चाहते हैं वह किसे चाहता है, यह भी तो कोई सोचे!'

'सखी,' वही टेढ़ी- सी हँसी मुखमंडल को और मोहक बनाती हुई,' मेरी कह रही हो या अपनी? आज बता दो कि तुम सच में किसे चाहती हो? '

'मेरे चाहने न चाहने का प्रश्न कहाँ उठता है? दस मर्यादायें जिसके साथ लगी हों, ऊपर से कितनी वर्जनायें? मैं कृष्ण नहीं जो मुक्त मन से किसी को भी चाह सकूँ,'

कृष्ण की ओर देखा फिर बोली,

'तुम तो गउएँ चराते रहे हो. जानते होगे जहाँ कोई भटकी, कैसे, हाँक कर ठिकाने लगा दी!'

हँस दिये दोनों.

'जुगाली करने दो अपनी गउओँ को. . '

खिलखिला कर हँस पड़ी,' गो-चारण करते बहुत सिख-पढ़ गये हो न!'

चुप ही रहे वे -किसी सोच में डूबे.

'बहुत गंभीर हो आज. '

'वहाँ द्वारका की स्थितियाँ ठीक नहीं हैं. '

कहते-कहते गांधारी का शाप याद आया, अंतर उद्वेलित हो उठा.

'. . . वे लोग किसी को अपने समान नहीं समझते. मत्त होकर अपनी अहम्मन्यता में एक दूसरे को नीचा दिखाने को तत्पर रहते हैं. किसी की नहीं सुनते ? '

'दाऊ तो हैं न ? '

'सीधे-भोले मेरे दाऊ. उनके समझाने हँस-हँस कर, हाँ-हाँ करते हैं सब, और उनके मुड़ते ही. . . . '

वाक्य अधूरा छूट गया, सोच में पड़े-से द्रौपदी का मुख देखने लगे,

'. . आत्मश्लाघा और अपनी श्रेष्ठता का गर्व. मदपान में लीन सब, कोई किसी की सुनता नहीं . 'इतने चिंतित मत हो माधव. इससे भी विषम स्थितियाँ संभाली हैं तुमने. ये तो तुम्हारे अपने लोग है. '

अपने हैं इसीलिये इतने सिर चढ़े हैं, वे तो मुझे ही टोकने लगते हैं, मेरे कार्य-कलापों पर आक्षेप करना ही रह गया है उन्हें.

विचार चलते रहे, पर प्रकट में, बोले,'जाऊँगा, प्रयत्न करूँगा. पूरी तरह करूँगा. '

'हमेशा ही जाते रहे हो. कहीं टिके कब तुम? फिर आओगे. वहाँ से निवृत्त हो कर, चिंता रहित. '

ढाढस बँधाना चाहती है-

'माधव,फिर आओगे तुम. कहने-सुनने को कितना सारा शेष है. तुम्हें बताये बिना मुझे कहाँ चैन पड़ेगा!'

'हाँ,फिर कभी. . . . '

कैसा स्वर!. . . पांचाली का जी धक् से रह गया. कंठ में आकर कुछ अटक गया हो जैसे. साँस ऊपर की ऊपर नीचे की नीचे.

'तुम मुझे घबरा देते हो!'

श्वेत पड़ गया वह मुख देख, बोल उठे यादव, 'घबराओ मत. सब ठीक है. '

'तुम क्या कह रहे थे ? '

'मैं तो कुछ नहीं, तुम कह रहीं थीं. . '

'तुमसे कहना कभी समाप्त नहीं होता. पर आज सब भूल गई हूँ. तुमने सामने हो और विश्वास नहीं हो रहा कि तुम यहीं हो. . '

पांचाली व्याकुल.

'मैं हूँ, यहीं हूँ देखो,' आगे बढ़ प्रिय सखी के सिर पर हाथ रख दिया.

'मैं कभी भी, कहीं भी होऊँ, जब तुम्हारा मन पुकारेगा, मुझे समीप अनुभव कर लोगी!'

कृष्ण की असीम करुणामय दृष्टि! द्रौपदी का अंतर द्रवित हो उठा.

'इस बार तुम शीघ्र आ सके. चिर जीवें उषा-अनिरुद्ध! अच्छा हुआ तुम शोणित पुर पहुँच गये. बाणासुर को शान्ति से समझा दिया. '

'हाँ, उषा योग्य वधू है. '

थोड़ी देर दोनों चुप.

'तुम बिन पता नहीं जीवन कैसा होता, क्या होता मेरा! पर अब तुम भी जा रहे हो. . . '

उनके चित्त की गहनता इस पर भी छाई जा रही है.

'मीत, बहुत थक गई हूँ. अब इस सब से निवृत्ति चाहती हूँ. '

गहरी उदासी घिर आई है मुख पर,

'तुम्हीं ने कहा था, मेरे निमित्त कर दो सब कुछ, फिर तुम्हें कुछ नहीं व्यापेगा. '

माधव देखते रहे उस श्यामल मुख पर घुमड़ती गहन भाव-रेखायें.

'ये दुख-सुख, शोक-क्लेश अब मुझे न व्यापें! सारी अशान्ति, ग्लानि, और कामनाओं का भार तुम्हें सौंप देना चाहती हूँ - अब नहीं संभाला जाता मुझसे!'

'हाँ सखी, हाथ पसारे खड़ा हूँ. लाओ, सब डाल दो मेरी झोली में और मुक्त हो जाओ. '

कृष्ण के दो अरुण कर-तल किंचित आगे बढ़ आये.

'अब तक जो गट्ठर लादे रही उतार कर फेंक रही हूँ तुम्हारे आगे. कोई लगाव नहीं रहा अब. मोह-वश गाँठ में सेंत रखे थी. सब बेकार था- सड़ गल गया! डूब जाये सब काल की अतल गहराइयों में. मैं हल्की होकर जाना चाहती हूँ. आगे तुम जानो तुम्हारा काम.'.

उसे लगा वे हँस रहे हैं.

'वाह, कम तुम भी नहीं हो. जब तक काम का लगा अपना सम्हाले रहीं. बेकार लगने लगा तो सौंप दिया मुझे! मैंने तो पहले ही कहा था- क्यों लादे हो, दे दो मुझे, तुम्हारा भार मैं ग्रहण कर लूँगा. पर तुम. . '

'यही तुम्हारी माया है, गोविन्द! कहते हो पर समझने योग्य बुद्धि देर से आती है. '

उस दारुण पल में भी कृष्णा के होंठों पर मुस्कान खेल गई.

'जो पाँच पतियों से नहीं कह सकती, जो संसार के सामने व्यक्त नहीं कह सकती, अपने मन का वह बोझ तुम्हारे आगे रखे दे रही हूँ. गीता में तुमने कहा था तुम सबकी व्यथा झेलते हो कृष्ण, मुझे विश्वास हो गया है. क्योंकि जो मेरे अनुभव-क्षेत्र में था उसकी पीड़ा मैंने भी सही है. '

' विभाजित होकर रहना ही मेरी नियति रही. एक सामान्य नारी की तरह मुझे भी सुख- दुख व्यापते हैं, मन में कामनाओं की तरंगें उठती हैं, मुझ में भी दुर्बलतायें हैं.'

कृष्ण चुप रहे कुछ देर,

'सब बीत गया. विगत का बोझ मुझे सौंप दिया तुमने. अब क्या. .  ? '

'क्यों सखे, सबके दुखों का बोझ तुम्हीं उठाते हो ? '

'हाँ सखी, मेरा संबंध इसी माध्यम से बनता है? कब सुख दे सका किसी को ?

दुख में ही मुझे याद करते हैं सब, तुम भी तो...याज्ञसेनी..’

वह उदास-सी मुस्कराई, ' साक्षी रहे हो तुम.’

अपार उदासी से पुता वह मुख-मंडल .

'मेरा जीवन और सुख? कभी मिला क्या –याद नहीं आता ..अरे, चैन से रह पाऊँ वही बहुत!'

दृष्टि कृष्ण पर नहीं शून्य में, जैसे अतीत के खुले पृष्ठों को बाँच रही हो,

‘प्रारंभ से ही खींच-तान, उठा-पटक, छुटकारा कहाँ मिला मुझे. हर दिन जैसे कोई चुनौती लेकर आता है. कैसा दुर्भाग्य...नहीं मीत, नहीं. तुम साथी रहे जिसके, दुर्भाग्य नहीं कहूँगी .. पर ,बहुत थक गई हूँ , मुक्ति चाहती हूँ अब!’

शीष झुकाए सुन रहे हैं कृष्ण.

‘कह भी नहीं सकती किसी से, एक तुम्हारे सिवा ...’

‘सोचो मत सखी, जैसा ठीक लगे किये जाओ, जीवन है जब तक ..’

‘ बस एक सहारा तुम.... पर तुमने अपने लिये क्या रखा जनार्दन? “

‘मेरा इसी में सुख है, संतोष है. जीवन ही इस निमित्त है? आसरा लगाता है जो, साथ दे लेता हूँ थोड़ा-सा. बस.. हाथ बँधे हैं मेरे भी. भवितव्य कौन मेट सका है कृष्णे, ’

'लेकिन क्यों ? '

'क्यों? मैं ही तो हूँ, ये सब अनुभव करता हूँ. मेरा मैं सीमित नहीं सर्वव्याप्त हो गया है. मैं रोया हूँ गान्धारी बन कर, कुंती बन कर जीवन भर दग्ध होता रहा. कितने अपमान झेले, उत्ताप झेलता रहा कर्ण रूप में. सखी, तुम्हारा अपमान, आक्रोश, संताप और अशान्ति मैंने निरन्तर भोगे है. द्रौपदी, मैं तुम्हें अनुभव कर रहा हूँ- अपने भीतर, तभी इतना जुड़ गया हूँ. 'तुम सब मे व्याप्त हो कर असीम हो गये, सब ग्रहण करते गये. '

वातावरण बोझिल हो उठा था. जाने की घड़ी समीप थी, चलते-चलते उनके शब्द थे-

सौंप दो अपने को इन लहरों में, बहे जाओ. सहज रूप से करती चलो क्योंकि इससे बचने का कोई उपाय नहीं कोई निस्तार नहीं. अपने विषय मे मत सोचो उस. विराट् चेतना के रूप में इस दृष्य-जगत की साक्षी बनती चलो. फिर कुछ तुम्हें नहीं व्यापेगा!'

नहीं रोक सकती अब.

एक मैं ही तो नहीं, और संबंध हैं,परिवार है. उनसे विरत हो कैसे रह सकते हैं. बहुत साधा है, अब जाना तो होगा ही.

उसे यहीं रहना है, और कहाँ जायेगी ? मित्र-हीना, पुत्र-हीना पांचाली के लिये वे जो वचन छोड़ गये, उन्हें सुमिरती अलिप्त-सी जीवन विताती रहेगी!

54.

कृष्ण चले गये. बहुत दिन बीत गये.

कृष्णा प्रतीक्षा करती रही. वे नहीं आए. समाचार आते रहे.

द्वारका के तट पर कैसी ऊँची-ऊंची घास उगी है- एरका! कभी देखी नहीं ऐसी लंबी-लंबी नुकीली पत्तियाँ. उखाड़ने के बाद ऐसी कड़ी पड़ जाती है जैसे मूसल!

सागर तट पर यादव-कुमार आकर मनोविनोद करते हैं. सबका उपहास करना उनका मनोरंजन है.

एक दिन सूचना मिली वृष्णि-वंश के लोग मदिरा-सेवन के पश्चात् विवेकहीन हो कर, परस्पर लड़ कर समाप्त हो गये. कोई नहीं बचा, एक कृष्ण के सिवा.

ऋषि दुर्वासा और विश्वामित्र का उपहास किया था यादव कुमारों ने. कृष्ण-पुत्र सांब को गर्भवती महिला बना कर उसका भविष्य जानने लाये थे. परिणाम में पाया उस के पेट पर बँधे आवरण से लौह- मूसल, समूचे वंश-नाश का कारण बनने को!

भयंकर शाप सुन वे भयभीत हो गये. लौह-मूसल घिस-घिस कर सागर में बहा दिया. अवशिष्ट ज़रा सी नोक सागर में फेंक दी.

मूसल की घिसन जल में दूर-दूर तक लहराई, फिर उसी तट आ लगी.

सांब, अनिरुद्ध, प्रद्युम्न इस संसार से बिदा हो चुके थे. कृतवर्मा और सात्यकि परस्पर नीचा दिखाने में तत्पर थे. युद्ध-काल की अनीतियों पर एक दूसरे को धिक्कारने लगे. सारे यादव एकत्र हो गये- अपने अहं और मद्य के नशे में चूर. कोई किसी से कम पड़ने को तैयार नहीं.

सब एक-दूसरे की कलंक-कथा खोलने लगे. उत्तेजना बढ़ती गई.

इतने आवेश में आ गये कि उसी एरका घास को उखाड़-उखाड़ एक दूसरे पर अंधाधुंध वार करने लगे.

अतिशय मदपान ने सबकी मति हर ली थी.

उस घात से कोई नहीं बच पाया, सारे यादव-कुल का संहार हो गया.

और दाऊ? बलराम

यादवों के आत्म-विनाश के पश्चात्, वे अति दुखी हो गये. अंतिम बार उन्हें सागर की ओर जाते देखा गया था, वे अकेले चले जा रहे थे, लौटते कभी किसी ने नहीं देखा उन्हें.

♦♦ • ♦♦

श्री हरि कहाँ हैं ?

एकाकी, संतप्त मन ले निकल गये सघन वनों में छाँह पाने.

श्रान्त हो गये थे - तन से और मन से भी.

वन-तुलसी की गंध पूरित अरण्य प्रान्तर. अश्वत्थ की शीतल छाया, लता गुल्मों की एकान्त ओट, दाहिनी जंघा पर वाम पद-तल टिकाये, शिथिल-से अर्ध-निमीलित नेत्र, विश्रान्त मुद्रा में टिके हैं तरु के तने से.

पत्तों की ओट से झलकता, अर्द्धचंद्राकार नख-कोर से ईषत् आवृत्त वाम पग का तिरछा अँगुष्ठ हिल-हिल जाता है!


'जरा, ओ आखेटक,तुम्हें नहीं मालूम यहाँ पुरुषोत्तम आत्मलीन हो विराज रहे हैं?

तुम्हें कुछ नहीं मालूम?

अरुण-श्याम अँगूठे में मृग-नेत्र का आभास हो रहा है तुम्हें?

रुको,.... रुको, बाण मत साधो,,व्याध ,अरे.. ,अरे ...

ओह, कर दिया शर-संधान!

वह दौड़ा उसी ओर. अपने लक्ष्य की परिणति देखने.

हाय!

जरा चीख उठा,' हाय, मैंने क्या कर डाला? '

सिर पटकने लगा.

'रुको व्याध,शान्त होओ!'

'मुझे क्षमा करो स्वामी. . . हाय, मैं क्या करूँ अब. . मैं पापी कहाँ जाऊँ ' व्याकुल हो- हो कर विलप रहा है.

बाण खींच कर निकाला, हथेली से दबाये हैं कृष्ण, रक्त से रंजित अँगूठा.

व्याध ने शर को घुमा-फिरा कर देखा

वही लौह खंड!

याद आ गया उसे मछली के पेट से जो मिला था.

'कितना नुकीला! एकदम घातक. शर के अग्र-भागके लिये बिलकुल उपयुक्त, सोच कर रख लिया था उसने.

'आह, इसके अग्र-भाग में वही तीक्ष्ण लौह-खंड, शर कितना संघातिक हो गया. '

ध्यान से देखा कृष्ण ने.

'तुम केवल निमित्त हो. व्याध, अपराधी नहीं तुम. '

'क्या नाम है तुम्हारा ? '

'पापी हूँ मैं, घोर पापी! मत पूछिये मेरा नाम. . . . . '

वह कुछ सुन नहीं रहा, कुछ उसकी समझ में नहीं आ रहा, कहे जा रहा है, कुछ बोले जा रहा है पगलाया-सा. .

'शान्त हो, मैंने क्षमा किया ? '

'मेरा एक काम है, पहले नाम बताओ अपना. '

'प्राण दे कर भी करूँगा. स्वामी, जरा नाम है इस पातकी का. . '

उसे समझा-बुझा कर शान्त किया कृष्ण ने, और तुरंत द्वारका जाकर सूचित करने को

व्याध दौड़ा चला गया!

♦♦ • ♦♦

मन जाने कैसा-कैसा हो रहा है.

अपना वचन पूरा करने आये हैं अर्जुन!

जब वे द्वारकापुरी गये थे तब एक कार्य सौंपा था कृष्ण ने,

बोले थे जनार्दन, 'अभिशप्त हैं हम सब, किसी न किसी रूप में,'

यादव वंश का भवितव्य घट कर रहेगा, कितना भी कहें, कोई सुनने को तैयार नहीं.' वे अति गंभीर थे.

,' पार्थ, पुरुष सारे मर-खप जायें तो वृष्णि, और अंधक वंश की इन कुलनारियों की सुध लेना मित्र, इन्हें सुरक्षित स्थान पर पहुँचा देना, संभव है उस समय मैं भी यहाँ न होऊं.'

विस्मय हुआ था पार्थ को, कैसी बात कर रहे हैं जनार्दन!

'. . . उनका वह पहलेवाला. सहज जीवन समाप्त हो चुका है. मदमत्त हो-हो कर मनमानी करते हैं. अपने आगे किसी को नहीं गिनते. मद और पारस्परिक अहं. कोई समझने को तैयार नहीं. क्या कहूँ मेरे पुत्र भी उनके साथ उच्छृंखल हो गये. '

अर्जुन क्या बोलें?

'कितना भी प्रयत्न करो सब ठीक करने का, कहीं न कहीं कुछ दोष निकल ही आता है '

' संसार है यह, बिलकुल सही कौन रह सका है यहाँ. .  ? '

एक उसाँस भरी कृष्ण ने.

कैसी मनस्थिति है आज. अर्जुन ने कुछ पूछना चाहा, पर उनकी मुद्रा देख कुछ न कह सके.

'न तुम कहीं जा रहे न मैं,' पार्थ ने हलका करना चाहा था,' मैं उन सब का दायित्व लेता हूँ. तुम चिन्तित न हो. '

'आओ, मिल लें मित्र, फिर तो. . . '

दोनों मित्र गले मिलते भावाकुल हो गये थे.

♦♦ • ♦♦

सब कुछ बदल गया है. यादवों का पारस्परिक विनाश लोगों का भय समाप्त कर गया, द्वारका अरक्षित हो गई. इस समृद्धिपूर्ण नगरी पर बाहरवालों की आँखें लगी हैं.

पुर में सूचना हो गई, कुछ भी ठीक नहीं है. कृष्ण का पूरा रनिवास प्रस्थान कर रहा है

पुरजन त्रस्त हो उठे, अपने आश्रय खोज, संबंधियों के पास प्रस्थान करने लगे.

अपने वचनानुसार महाधनुर्धारी अर्जुन परम मित्र की अट्टालिकाओं से कुलनारियों को सुरक्षित स्थान की और ले जा रहे हैं, जहाँ उन्हें अपनत्व मिल सके, जीवन सुविधापूर्वक बीत सके.

अनगिनती रथ राज-महिषियों, सहचरियों के साथ चलने को, बहुमूल्य सामग्री रथों पर लाद दी गई.

सारी व्यवस्था कर प्रस्थान को उद्यत हैं सब.

रथों के पास जाकर उन्होंने रुक्मिणी, सत्यभामा, कालिन्दी, जांबवंती, मित्रविन्दा, नीला, लक्ष्मणा. आदि सबसे बात की, उन्हें धीर बँधाया.

मित्र -पत्नियों के श्री-हत मुख, शृंगारहीन वेष!

देख कर इच्छा हो रही थी फफक कर रो पड़ें. किसी तरह संयत किया अपने-आप को . रथ में चढ़ा-चढ़ा कर सारथियों को सावधान किया. 'कहीं अधिक रुकने की आवश्यकता नहीं. कोल-भीलों के आवास से जितनी दूर रहो उतना अच्छा. मार्ग में आभीरों की बस्तियाँ हैं, धीमे से रथ निकाल लेना- कोई वार्तालाप, कोलाहल हलचल न हो. '

अनेक रथ चल पड़े.

निरंतर आगे बढ़ते रहने का आदेश.

मार्ग लंबा, दुर्गम वन-पर्वतों से संकुल. कोल-भील और वन्य-जातियों से भरा पड़ा है. पग पग पर भय.

रथ द्वारका से निकल कर अधिकांश वाहन आधा रास्ते भी पार नहीं कर पाये थे, तीर-कमान लिये अधनँग कोल-भीलों के समूह-के-समूह वन-मार्गों पर निकल आये.

अर्जुन की भृकुटियाँ तन गईं. इतना साहस, वन्य जातियों का!

वे झुंड-के-झुंड शोर मचाते पास आ रहे थे.

अर्जुन ने ललकारा,' दूर हट जाओ, अपनी कुशल चाहते हो तो एक पग भी आगे मत बढ़ाना!'

पर वे और वेग से आगे बढ़ रहे थे. आगे के रथों को दूसरी ओर मोड़ने का निर्देश देकर पार्थ सन्नद्ध हो गये. वन के निवासियों की उत्तेजनाभरी आवाज़ें, चीत्कार और पुकार भरी मदोन्मत्त ध्वनियाँ बढ़ती जा रहीं थीं. उन्होंने वेग से रथ हाँकने को कहा. सारे वाहन आगे बढने लगे.

वे लोग निकट आ गये, पीछे दौड़ रहे हैं.

आवाज़ें आ रही हैं-

'ये कितनी-कितनी औरतें रख लेते हैं? '

'अरे, इतनी औरतों का तुम क्या करोगे? हमें भी चाहियें. '

'खूब धन जोड़ा है न, इसीलिये तो. तरह-तरह की औरतों के बिना मन नहीं भरता. '

'और ये औरतें भी तो, इनका जी नहीं ऊबता. अरी,चलो उतरो. हमारे साथ चलो!'

अर्जुन ने निकल कर टोका, 'नहीं बलात् नहीं ले जा सकते उन्हें. '

'सारे उपदेश हमारे लिये. तुम लोग भी तो अपने भुज-बल से छीन लाते हो,'

'ये सारी अपने आप थोड़ी चली आई होंगी!'

अर्जुन क्या उत्तर दें?

'अब वे विवाहितायें हैं,'

'तो का? कुंआरी हो चाहे बियाही, कौनो छूत लग जाती है. ई सब तुम लोगन के चोंचले.'

दूसरा बोला -

'जान्यो, शंबर की पत्नी मायावती भी तो उसकी बियाही थी, काहे हरण किया था? '

'. . दूसरों की बेर शिक्षा दे रहे हैं. औरत तो औरत! जो भुजबल से जीत ले उसकी. . . '

तीर चलाने लगे वे.

सारथी घायल हो-हो कर गिर रहे हैं.

झपट रहे हैं वे लोग. नारियाँ चीत्कार कर रही हैं.

'काहे रोती हो री,' हम भी आदमी हैं, जानवर थोड़े ही न. रक्खेंगे तुम्हें अपने साथ. '

अर्जुन के तीर चलने लगे. गिरे कुछ लोग, पर वे रुके नहीं.

'छीन लो रे, ये सीधे देने वाले नहीं. '

दूसरा बोला, 'इनकी कहाँ से हो गईं, जिसमें ताकत होगी, उसकी. . '

'चलो री, उतरो नीचे. हमारे साथ चलना है तुम्हें.'

महिलायें त्रस्त हो कर चीत्कार कर रही हैं. अर्जुन क्रोध से भरे, ललकार रहे हैं.

चारों ओर से घेर लिये गये हैं.

कुछ वनवासी, रथों को स्त्रियों सहित हाँके लिये जा रहे हैं.

अर्जुन पीछे दौड़ते हैं, गाँडीव से शर-संधान करते हैं. एकाध कोई गिर भी गया तो दूसरे तैयार. इनके पास जुझारू पुरुष गिनती के. और वे तक-तक कर निशाने लगाते हैं. उनके तीर औषधियों से सिक्त हैं. लगते ही अपार पीड़ा और मूर्छा.

मौका पाते ही झपटते हैं और स्त्रियों को खींच कर ले भागते हैं.

किस-किस का पीछा करें पार्थ? जो रथ आगे चले गये हैं, उनकी भी चिन्ता. कुशल से पहुँच जायें किसी तरह.

कोल-भील बहुत हैं एकदम जंगली - रुक्ष और कठोर.

अर्जुन का गांडीव प्रभाव खो चुका है. न वह टंकार, न वह वेग!

पता नहीं रानियों का क्या हाल होगा?

किसी तरह बच कर निकले अर्जुन.

कुछ वाहन जो आगे निकल गये या शीघ्र पलायन कर गये थे उनकी चिन्ता नहीं की वनवासियों ने. जो सामने थे वही उन्हें यथेष्ट लगे. उन्हें घेर लिया. स्त्रियों को ले-ले कर सघन वनों की ओर भाग गये. धन-संपदा भी लूट ली उन लोगों ने.

अवसाद ग्रस्त- अर्जुन.

गांडीव की गरिमा कहाँ खो गई!

उस दिन अर्जुन के तीर व्यर्थ हो गए. इतनी बड़ी भीड़ में एक अकेला योद्धा!

किसी तरह प्राण ले कर वहाँ से निकले. आगे रानियोंवाले रथों की चिन्ता चैन नहीं लेने दे रही!

♦♦ • ♦♦

कृष्ण परमधाम सिधार गये!

उदधि हिलक-हिलक कर रो रहा है. उत्ताल तरंगें उमड़ी चली आ रही हैं. मन का आवेग नहीं थम रहा, प्रवाह बढ़ा चला आ रहा है. आगे, द्वारावती से आगे और आगे - कहाँ हैं श्री हरि के चरण!

एक के ऊपर एक, चढ़ती लहरें, उद्दाम वेग जल का- नहीं सागर के खारे आँसू ये!

अधीर सागर उफन रहा है, दुखोद्गार पर संयम खो गया, दहाड़-दहाड़ कर दिशायें पूर रहा है.

उस वृक्ष के तल तक चली आईँ व्यथा से बल खाती, नीली लहरें. चरण परसने को व्याकुल!

पखार रही हैं वे सुकोमल चरण तल.

वनभूमि में बिखर-बिखर, सिर टकराती विलपती रहीं विकल लहरियाँ. प्रस्तरखंडों और तरुओं से लिपट-लिपट प्रहरों-प्रहर रोईं. अंततः निढाल हो सागर में जा समाईं.

अश्रु-धाराओं के शेष चिह्न उस वनभूमि में अपना खारापन बो गये.

श्रीकृष्ण की गंभीर मुद्रा देख सहम गया जलनिधि.

कुछ नहीं कहेंगे वे. परम शान्त हैं पुरुषोत्तम!

♦♦ • ♦♦

अपनी शैया पर विश्राम हेतु आते होंगे वे,

और पयोधि ने वह सुन्दर नगरी, जिसके वैभव का कोई सानी नहीं था, अपने अतल जल में समेट ली.

संसार ने समझा श्री कृष्ण की द्वारकापुरी सागर में समा गई!

'त्वदीयं वस्तु गोविंद तुभ्यमेव समर्पये!'

55.

विषम जीवन के दुर्दांत क्षणों में जो निरंतर अवलंब दिये था, वह आधार चला गया. अधीर हो-हो कर बार-बार रो पड़ती है पांचाली.

बिखरे केश, वस्त्र मलीन - धरती पर बैठी है. सारे भान भूल गई है.अनायास आँसू बहने लगते हैं, पोंछने की सुध नहीं.अंतर की वेदना बार-बार मुखर हो उठती है-

'ओ मीत, कहाँ हो तुम ? '

अंतर्मन से रह-रह कर पुकार उठती है.

कृष्ण बिना इस संसार में कैसे जिया जायेगा ?

कैसे समझेगा कोई - कृष्ण, तुम कौन थे मेरे ?

कोई नहीं - सब-कुछ!

संसार के सारे काम चल रहे हैं, पर भीतर एक शून्य समा गया है. कुछ अनुभव नहीं हो रहा. एक रिक्ति -सबसे विरक्ति.

वेदना अंतस्तल में जम गई है.

कोई अपना नहीं रहा था जब, बिलकुल अकेली पड़ गई थी, बस, एक ने साथ दिया था.

हर विषम क्षण में, उसे ही बार-बार पुकारता है आकुल मन!

पर वह कहाँ है?

स्मृतियाँ बार-बार उमड़ती हैं. विगत कथा के बिखरे अंश समेट लाती,

विचलित कर जाती हैं.

पतियों का मुख हत-तेज हो गया है. पार्थ घोर ग्लानि से ग्रस्त! नहीं बचा सके उन कुलनारियों को, वन्य जातियों द्वारा हर ली गईं वे. कुछ नहीं कर पाये, नितान्त असमर्थ!

सामर्थ्य तुम्हारी थी, निमित्त मात्र थे शेष सब.

नर, नारायण से विच्छिन्न हो गया. नारायण छोड़ कर चला जाये तो नर अकेला क्या करे- एकाकी,आहत, विवश!

मीत, तुम इस जीवन में न होते तो. . . . . बस, आगे नहीं सोचा जाता.

अब क्या करना है? सौंप दो सब, जिसका जो हो ले, ले. हमारा कुछ नहीं, न राज न भोग.

पांचाली का मन पुकारता है, कहाँ हो तुम ? कहीं तो होगे. पर अब मैं नहीं हूँ मीत, क्योंकि तुम यहाँ नहीं हो. तुम्हारे जाते ही सब समाप्त हो गया मान-अपमान, सुख-दुख, यश-अपयश. तुमने सम्पत्ति-विपत्ति में समभाव से जीना सिखाया. अब, जब तुम नहीं हो मैं व्यर्थ-सी रह गई हूँ. मेरी बात आती है तो सारी मर्यादायें, सारे औचित्य बदल जाते हैं, और तटस्थ दर्शक बना देखता रहता है सारा संसार!

तुम्हारे बिन क्या करती मैं?

लाख प्रयत्न करती हूँ, नहीं भूल पाती, उस असह्य क्षण को, जो भयावह स्वप्न बन कर मुझ पर घिर आता है. लगने लगता है, भरी सभा में कोई निर्वस्त्र कर रहा है मुझे. तुम्हें टेरती हूँ. उद्भ्रान्त सी हो हो.

नहीं उबर पा रही. इन सब संबंधों से मेरा विश्वास उठ गया है!

जिस दिन आकाश से एकदम गहरी खाई में जा पड़ी थी, कहीं सहारा नहीं था. पूरे प्राण-प्रण से पुकारा था तुम्हें और तभी समझ गई थी कि तुम्हारे सिवा, और कोई मेरा नहीं.

भयानक अकेलापन घेर लेता है बार-बार. .

तुम्हारे बिना उस विभीषिका से मुक्त नहीं हो पाती मैं!

मन में बोलता है कोई,' तुमने सारा भार मुझे सौंप दिया था. अब क्यों खोल रही हो पुरानी गठरी ? '

अनायास अश्रु प्रवाहित होने लगते हैं.

-व्यथा का ज्वार उमड़ता चला आता है. संयम के सारे बाँध टूट जाते हैं.

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जिसने सदा धैर्य दिया, साहस बँधाये रखा वह द्रौपदी बिखर रही है.

सब निबटा गये तुम, अब कुछ नहीं बचा करने को. तो फिर मैं क्यों हूँ ?

पाँच पति, पर किसी को धीरज देने का साहस नहीं हो रहा. जस के तस विमूढ़ से सब.!

सबसे बहुत कुछ पूछना है. पर किसी के पास कोई उत्तर नहीं. हाँ, मेरे पतियों,अब मैं मुक्ति चाहती हूँ. जीवन जीने की इच्छा नहीं रही मुझमें. नहीं होना चाहती पट्टमहिषी.

रह-रहकर स्वर खो जाते हैं हिचकियों में -

आज, मैं सब भूल गई हूँ सारी मर्यादायें सारे औचित्य!

'कभी-कभी पुरुष-मात्र से वितृष्णा होने लगती है मुझे!....अपने उद्देश्य की पूर्ति का माध्यम बना लिया स्त्री को. कामना-पूर्ति का हेतु मात्र!

पर पुरुष ही तुम भी थे - पुरुषोत्तम सही. '

विमूढ़ युधिष्ठिर सुन रहे हैं, चुपचाप!

उन्हें लगता है वेग उतरेगा, तो शान्त हो जायेगी.

ठगे से भीम, व्यथित अर्जुन, जड़ हो गये नकुल-सहदेव.

सब जैसे एक दूसरे को न झेल पा रहे हों, परस्पर दृष्टि बचाये. कोई नहीं जो आगे बढ़े कुछ कह सके. ज्वार का वेग कौन थामे!

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लगातार पुकार उठ रही है - 'कहाँ हो?'

तुम बिन इस संसार में कैसे जिया जायेगा?

लगा कृष्ण ने हाथ पकड़ लिया है - 'गंभीरता से मत लो सखी! खेल समझ कर खेलो. आरोपित वस्तुओं को ऊपर -ऊपर से ही बीतने दो. '

'सब ओर तुम्हें हेर रही हूँ. कहाँ हो तुम? '

विषाद-मग्नता बार-बार जड़ कर देती है.

उसने कहा था, 'जब भी पुकारोगी, मैं होऊँगा तुम्हारे पास. '

यह भी कहा था उस महारास में हर गोपी के साथ मैं ही तो रहा था. . . . . .

कहाँ है वह? हाँ, शब्द हैं उसके -

'शंका मत करो, मैं हूँ, सतत तुम्हारे साथ,

मैं सदा था, हूँ और रहूँगा. और तुम भी पांचाली !

अपने संस्कारों के अनुकूल मनोवृत्तियाँ धारे जन्म-जन्मान्तरों तक मिलते रहेंगे हम!'

कितने रूप, कितने नाम, सहस्र-सहस्र दृष्यों में विद्यमान!

हाँ, कहा था तुमने,' अनगिनत रूप धारे. यहाँ-वहाँ हर जगह व्याप्त. दिग्-दिगंत तक, आत्म से परमात्म तक. वही चेत सब में झंकारता, योजता, जैसे माला में डोरी!'

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शीश नत कर लिया द्रौपदी ने.

लगा मन के आगे डोल गया वह अपरूप.

माधव, तुम नहीं गये, बस ओझल हो गये हो दृष्टि से. '

लगा कह रहा है -' मैं तो ग्वाला हूँ, सदा चराता हूँ तुम्हारी गायें . '

वही टेढ़ी मुस्कान.

पर आज खीझने के स्थान पर मन रीझा जा रहा है.

'हाँ, तुम हो. आभासित होते हो, मेरे अंतर में.'

'अपनी ही अलापे जाओगी, या कुछ मेरी भी सुनोगी?'

'हे ग्वाल, मेरी गौ बार-बार हरक कर भागती है. मन भटकता है यत्र-तत्र-सर्वत्र, समा लो अपने झुंड में!'

'हँकार लाता हूँ जब भटक जाती हैं, पर दुहना तो तुम्हें ही है न - इन्द्रियों का आनन्द! कभी सरस कभी फीका!'

'ग्वाला हूँ न पांचाली, ये चतुर्दिक् गोचर जो हैं. देख लो इन चरती हुई गायों को. . . चाहता हूँ खींच लूँ अपने पास. '

हँस रहा है, नटखट.

'तुम भी तो मुकुन्द. सबसे भिन्न सबसे निराले!'

'भिन्न न रहूँ तो ग्वाल कैसे बनूँ ? '

लगा वह हँस रहा है मुँह टेढ़ा किये,' क्यों, मैं मिला नहीं क्या तुम्हें ? '

शान्त हो चला है मन!

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समय बीत रहा है. कितने दिन- कितनी रातें.

अपने आप में डूबी, यंत्रवत् सारे दायित्व निभाती है.

मन में मौन संवाद चलता है.

'परिताप कहाँ झेला तुमने? सारी सुलगन तो मेरे हिस्से आई. '

'तुम्हें क्या पता ? '

एक उसाँस उठी हो जैसे!

'जानती हूँ, पर कह लेती हूँ, एक तुम्हीं से तो. '

'द्रौपदी, देह का स्वभाव है ताप!. . औरों के दुख देखो. अपने से कम कर के मत आँको.

और देह! यही तो बनती है सारे पापों की मूल. '

' भीतर दहकती है तो आँच आती है. तपाती है. फिर विचारती हूँ, जल छींटती हूँ ज्यों. . कुछ शान्ति पड़ती है उस समय. पर मेरे बस में नहीं, आवेगों का उफान फिर-फिर उमड़ता है. '

' सुविचारों का छिड़काव शान्त करता रहे. और पांचाली, देह है तो

ताप उमड़ेगा, यही संसार का क्रम है, कौन बचा है इस सुलगन से!

. . माटी की रचना सखी, कभी मंद, कभी तीव्र आंच नहीं खायेगी तो पकेगी कैसे? मीता, इससे निस्तार नहीं. देह के साथ विदेह को निभाना यही तो जीने की कला है. '

उसने आगे कहा था -

'पांचाली, मेरा-तुम्हारा भौतिक संबंध कब रहा? केवल शब्द, विश्वास और पारस्परिक समझ. तभी तो पक्के साझीदार हो सके. '

'तुम क्या अंतर्मन में जागते हो,कृष्ण?'

कोई उत्तर नहीं.

कर्तव्य पूरे करने को निभाती रहे देह अपना धर्म, यही तो था उस कथन का मर्म!

सामने होता तो चिढ़ाता, 'जुगाली कर रही हो? '

सोच कर अनायास मुस्करा दी.

कोई देखे तो क्या कहे! साम्राज्ञी पगला गई हैं,

अपने आप हँसे जा रही हैं.

'साम्राज्ञी, देवी वृषाली पधारी हैं. '

परिचारिका कह रही थी.

'हाँ, हाँ, भूल गई थी मैं ,विशेष कक्ष में सम्मानपूर्वक आसन दो. कहो, मैं बस उपस्थित हो रही हूँ. '

उठ पड़ी वह.

कर्ण की स्मृति उदित हुई

-कितनी संश्लिष्ट. कितने-कितने दृष्य एक-दूसरे में गुँथे.

वृषाली. मेरे बाँटे भी आये थे तुम्हारे पति. पर यह भी उनका दुर्भाग्य रहा, सखा ने उनके लिये कहा था, ' जितना निर्मल अंतःकरण उतनी दमक से दीपित. कवच-कुंडलहीन हो कर भी वही ओज-तेज. '

तुम अनजान नहीं हो. पति की कोई बात तुम जैसी पत्नी से अजानी नहीं रहती, कितनी सहनशील कितनी संयमी हो तुम!

वह चली गई वृषाली से भेंट करने.

56.

काल का चक्र अविराम घूमता रहा. महा-समर के बाद दो पीढ़ियाँ धरती पर आ चुकीं.

बहुत-कुछ बीत गया. हर विपद् में सहारा देनेवाला अभिन्न मित्र खोकर नर एकाकी रह गया. प्रिय सखा अब कभी नहीं मिलेगा जान कर भी पांचाली दिन बिताती रही.

कृष्ण का प्रस्थान एक रिक्तता सिरज गया, किसी के आने की उत्सुक प्रतीक्षा नहीं रहती. सब कुछ निश्चित ढंग से चलता है. शत्रुओं के साथ मित्रों-संबंधियों का भी विनाश हो गया. वह पारस्परिक-मिलन-आवागमन, वैसे आयोजन और वह उल्लास अब कहाँ? बराबरी के संबंध कहाँ रहे?

एक उदासीनता सर्वत्र व्याप्त हो जैसे.

अपार जलराशि दहाड़ रही है, जहाँ द्वारकापुरी थी.

अब उस पर कहाँ-कहाँ के विदेशी पोत दिखाई देने लगे हैं.

सब ओर क्षरण के लक्षण. कैसा युग कि आस्थायें और विश्वास बिखरे जा रहे हैं.

फिर एक दिन द्रौपदी ने कहा, 'सम्राट् युधिष्ठिर, सुनो!'

सब सचेत, आज पांचाली, बड़े पांडव को नाम से बुला रही है.

कुछ चौंके से बोले, 'कहो, साम्राज्ञी. '

गंभीरता छाई है, वातावरण की शान्ति बोझिल -सी.

' मुझे लगता है, हमें जो करना था कर चुके. समय बदल गया. अब बागडोर नये हाथों में दे कर मुक्त हों. '

' मैं भी यही कहना चाह रहा था.'

सब के मनों में इस सब से उपराम होने की इच्छा जागने लगी है.

परस्पर विचार कर शासन-दंड परीक्षित को सौंपने को प्रस्तुत हैं युधिष्ठिर.

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कृष्ण द्वैपायन के सम्मुख चर्चा हुई.

उन का मत है पहले युवराज को प्रजा के सामने लाओ, सारी वस्तु-स्थिति से अवगत होने दो. विगत के परिप्रेक्ष्य में वर्तमान को समझेगा तभी भविष्य के लिये उचित निर्णय ले पाएगा.

तब से अधिकतर वार्तालापों में परीक्षित की उपस्थिति रहने लगी .

विचार-विमर्ष में पांचाली के साथ, सुभद्रा और उत्तरा को सम्मिलित करने का आग्रह रहता है. उत्तरा राजमाता होगी, दायित्व-निर्वाह हेतु समुचित मानसिकता बने, प्रारंभ में कोई अवलंब चाहिये उसे, सुभद्रा से अधिक और कौन उसके समीप होगा.

मित्र की भगिनी के नाते सुभद्रा, पांचाली को और प्रिय हो उठी है. वैसे भी पट्टमहिषी के कर्तव्य निर्वाह में बहुत औपचारिकतायें व्यस्त रखती हैं. सुभद्रा के निस्पृह सहयोग से बहुत सुविधा हो जाती है.

इतनी शीघ्र युग-परिवर्तन हो जायेगा किसने सोचा था.

शंकाओं का युग, अनास्था का युग!

उन घटनाओं को नई पीढ़ी अपने ढंग से देख रही है - उल्लेख करती है जैसे कोई इतिहास!.

जन-चर्चाओं की गूँज राजमहल तक चली आती है.

अपनी सुनी-सुनाई के आधार पर वे कहते हैं -' पार्थ सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर नहीं थे. '

पार्थ ने होंठ काट लिये, युधिष्ठिर ने शीष झुका लिया.

पांचाली, कुछ सोचती चुप रह गई.

सर्वश्रेष्ठ धनुर्धऱ?

वसुषेण. हाँ वही, सबसे तिरस्कृत हो कर भी श्रेष्ठतम.

एकलव्य किसी सहायता के बिना, अपनी साधना के बल पर सर्वश्रेष्ठ!


पर इनकी योग्यताओं का यहाँ कोई मूल्य नहीं था!

धनी-निर्धन का भेद तब भी था- एक ओर सारे विलास, दूसरी ओर संतानों को दूध के अभाव में आटे का घोल पिला कर आश्वस्त करनेवाले गुणी - जन तब भी थे. पर तब आश्रय देने वाले समर्थ थे. अब तो वह भी नहीं.


वेश बदल कर पांडव-बंधु लोगों के बीच टोह लेने पहुँच जाते हैं. राज-परिवार के विषय में वार्तालाप करना जनता का स्वभाव है - जो कुछ हुआ नये लोगों में उसे जानने का कौतूहल है.

लोक-मानस उतना सहज-संतोषी नहीं रह गया.

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युवराज परीक्षित की भिज्ञता बढ़ रही है. समय के साथ आनेवाले परिवर्तनों को समझ रहे हैं.

सीमित बुद्धि जब गहन को व्याख्यायित करने पर उतर आती है तो विवेक पर आवरण पड़ जाता है. परिणाम एक से अनेक मत-मतांतरों की उपज. सबकी अपनी ढपली अपना राग, और सामान्य-जन भरमा कर, उसे ही परम-साध्य समझने लगता है.

भक्ति का उद्देश्य उन्नयन से हट कर मन-रंजन हो गया.

किंवदंतियो में व्याप्त कृष्ण का पुरुषोत्तमत्व आच्छादित हो गया. भावना वासना की राह चल पड़ी. प्रेम की दिव्यता, ऐहिकता और दैहिकता में रँग गई.

निस्पृह-कर्म का संदेश भूल गये सब, लीला-कलाओं से विलास की गंध आने लगी.

राधा और गोपियों के साथ के कृष्ण के संबंध को अपनी कुंठित वासनाओं की अभिव्यक्ति बना कर कहाँ-कहाँ घसीट रहे हैं लोग!

वासुदेव का उदात्त, अनासक्त चरित्र, लोक-मन में विलासी नायक का रूप लेने लगा. पुरुषोत्तम के उस दिव्य चरित्र पर कैसे-कैसे आरोपण होने लगे!

जन-रुचि आखिर कहाँ तक पतित होती चली जाएगी ?

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साम्राज्ञी को कुछ सूझा, परिषद् के सामने पूछ बैठीं- 'भागवत कथा का पुरुषों के लिये कोई उपयोग नहीं? '

युधिष्ठिर चौंक गये, 'नहीं सबके लिये कल्याणकारी है. '

वेदव्यास मुस्कराये, 'शुभे, आपका कथन उचित है. श्रीकृष्ण के जीवन में जो नीतिज्ञता, दृढ़ता, जो तत्व-ज्ञान था, सर्वमंगल की कामना थी और अनासक्ति,' व्यास जी ने कहा, 'जिसमें धर्म-युद्ध से विमुखों को भी सम्मुख कर देने की सामर्थ्य हो, उसके क्रिया-कलाप और उसकी वाणी सारे समाज के लिये प्रासंगिक है - पुरुषों को कर्मशीलता की ओर प्रेरित करनेवाली ,'

'तो यह आयोजन सब के लिये क्यों नहीं? ".

विस्मित हो गये वेदव्यास !

' चकित हूँ साम्राज्ञी, जिस अंतःप्रेरणा से ये शब्द आपके मुख से निस्सृत हुये. उसी में भावी कल्याण का समाधान निहित है.'

युधिष्ठिर की ओर प्रवृत्त हुए, ' भागवत का पारायण सार्वजनिक रूप से हो सम्राट्, राज-परिवार और प्रजा दोनों के संबंधों का नया अध्याय प्रारंभ हो. '

युधिष्ठिर की उदारता जाग उठी, ' तो फिर प्रजा हमारी आगत अतिथि हो, प्रसाद पाकर जाये!'

'भावी मंगल और अनिष्ट की छायाओं के निवारण हेतु, सप्तदिवसीय भागवत-कथा का आयोजन. प्रजा-जन सादर आमंत्रित हों.'

क्रियान्वयन का निर्णय सर्व-सम्मति से हो गया.

सुभद्रा धीरे से बोली, 'जीजी,कितना प्रसाद ? '

वैसा ही हँसी भरा उत्तर मिला, 'अक्षय पात्र है न!'