कृष्ण सखी / भाग 57 - 60 / प्रतिभा सक्सेना
57.
सबसे आग्रह था कथा के श्रवण हेतु ऊंच-नीच, धनी-निर्धन, पंडित-अपढ़ का कोई भेद नहीं. सब समकक्ष हो कर श्रवण करें.
उछाह भरे प्रजा- जन उमड़ आये. सम्राट् को अपने पास, समान आसन पर पा कर अभिभूत हो गये.
सबकी सुख-सुविधा हेतु चारों भाई सजग हैं,
कोई किसी को बता रहा है -' इस आयोजन में भोग हेतु प्रसाद साम्राज्ञी को स्वयं बनाना है '
विस्मय से सुनते हैं लोग.
व्यास देव की मनोरम शैली, श्रोताओं का औत्सुक्य - क्या सुन्दर ताल-मेल!
कथा चल रही है, अध्याय पर अध्याय खुलते जा रहे हैं -
युद्ध की विभीषिका ने आर्यावर्त की धरती पहले ही वीरों से विहीन कर दी, अनेक महान् वंश समाप्त हो गये. माँ और पितामही, की बातों से जो जाना है युवराज ने आज कथा-क्रम में सब सुन रहे हैं.
यदुकुल के लोगों का बहुत स्नेह पाया परीक्षित ने, उनके वार्तालाप से लाभान्वित होता रहा है, बोले,
' हाँ,मुझे ज्ञात है, कृतवर्मा पितामह को बहुत दुख रहा कि उन्होंने ऐसा क्यों किया. '
'जाने दो पुत्र,उनकी बातें उनके साथ गईँ. '
'परीक्षित को जन के सम्मुख उपस्थित कर उसकी पात्रता सिद्ध करने का समय आ गया है.
उसे ही शासन सूत्र सँभालने हैं. यहाँ की स्थितियों से परिचित होता चले. '
भावी राजमाता है उत्तरा. अपने सामने ही सब से परिचित कराना उचित होगा.
तब युधिष्ठिर ने संशय किया था, ' धार्मिक कार्यों में राजनीतिक उद्देश्य जोड़ना,. . . . '
'राजनीति ? कौन सी नीति हो रही है यहाँ ? हमारा कर्तव्य,हमारा धर्म. राजा-प्रजा में सामंजस्य का प्रयास, परस्पर सद्भावना और समझ उत्पन्न करने का, इसमें राजनीति कहाँ से आ गई ? '
व्यास बोले थे, वाचक के आसन पर पर बैठ कर पोथी नहीं जीवन के अध्याय खुलते हैं. सत्य-वाचन किये बिना कैसे रहा जा सकता है. धर्म वैयक्तिक जीवन के साथ समाज को भी साधता है.
लोक को जानना ही उचित है कि वह किस ओर जा रहा है,'
परिवार के सदस्य भागवत श्रवण करेंगे. उपस्थित जन से संपर्क तो होना ही है. '
पार्थ बोले,'सही है. उसके जन्म का वृत्तान्त जान लें सारे जन. जीवन की आपाधापी में किसे याद होंगी वे पुरानी घटनायें ? '
क्या-क्या घट चुका अपने उस इतिहास को यह पीढ़ी समझ ले. '
पांचाली स्वयं स्वागत करती है, आवश्यक शिष्टाचार का निर्वाह करती है.
कोई संकुचित न हो कहती है,' मेरे बाँधव कृष्ण ने स्वयं अतिथियों के जूठे पात्र उठाये थे,और आप तो भागवत-कथा का श्रवण कर रहे हैं - मेरे आदरणीय हैं. '
गद्गद् हो जाते हैं जन.
गद्दी पर आसीन महर्षि व्यास ,कथा के बीच स्पष्ट करते हैं, ब्रह्मास्त्र से कोई बच नहीं पाया आज तक. पर श्रीकृष्ण ने देवी उत्तरा के गर्भस्थ शिशु की रक्षा की अपने सत और तप से की. यही है वह परीक्षित. आपके सम्मुख. '
मर्मर ध्वनि उठती है -'परीक्षित ? '
'पुत्र सम्मुख आओ, ये सब तुम्हारे अपने, मिलो इनसे!'
कितना सुदर्शन, गौर वर्ण युवक!
वह,शीष झुका कर, कर जोड़ देता है 'आप सब मेरा प्रणाम स्वीकारें!'
हर्ष की लहर दौड़ जाती है.
पांचाली ने पौत्र का सिर सूंघा, हृदय से लगा लिया, वात्सल्य उमड़ पड़ा.
उत्तरा के पुत्र में कृष्ण और पार्थ दोनों की झलक पा ली .
अपने पुत्र के संपर्क से पयोधर उमड़ आये हों ज्यों, वही अनुभूति परीक्षित को पहली बार गोद में लेने पर जाग उठी थी, वही अनुभव दुहरा आया अपने सजल होते नेत्रों को छिपा गई वह.
अभी ऊँचे-पूरे युवक-पौत्र को निहार अंतर उसी भाव से भर उठा.
मेरी ही टोक न लग जाय कहीं. उसने दृष्टि-दिशा बदल दी.
'वत्स तुम्हारे पिता के मामा-श्री के तप और सत् से आज तुम हमारे सामने हो. नहीं तो हमारा वंश ही डूब गया था. प्रयत्न करना उनके शुभ्र चरित्र पर कोई आँच न आये. '
'आपका आशीष साथ रहे, पितामही. '
सब देख रहे हैं दक्षिण बाहु पर यह नील-लोहित चिह्न - यह क्या ?
'हाँ, और हृदय के समीप भी. जैसे उस समय की मुद्रा में था, अस्त्र शिशु के हृदय में प्रविष्ट हुआ हो. '
“हाँ, यही है उस ब्रह्मास्त्र का शेष चिह्न जो अश्वत्थामा ने इस के लिये छोड़ा था. “
किसी की उत्सुकता जागी है.
'तुम्हें क्या अनुभव हुआ था वत्स, उस समय ? "
कुछ स्मरण करता-सा बोला, ' बहुत धुँधली स्मृति. अभी भी कँपा देती है! इतना तीव्र ताप जैसे पल में वाष्प कण बन जाऊँगा. तभी कानों में कुछ ध्वनित होने लगा. लगा मेरे चारों ओर अत्यंत वेग से कुछ घूम रहा है- घनघनाता चक्कर काट रहा. इतना समीप कि अभी स्पर्श कर लेगा. . . . हाँ, फिर ताप घटने लगा,' कहते-कहते उसकी वह बाँह हिल गई, ' यहाँ तीव्र पीड़ा, असहनीय. अभी भी लगता है जैसे सनसनाहट हो रही हो.
तब भी यह बाँह काँपी थी फिर माँ के कर का स्पर्श अनुभव किया,'
उसने समीप बैठी राजवधू उत्तरा की ओर देखा,
' माँ ने मेरे उदर पर अपना हाथ धरा था. कुछ निश्चेष्ट सा हो गया मैं.
धीरे-धीरे शीतलता व्यापने लगी. . आगे कुछ याद नहीं. '
महिलाओं के समूह में किसी ने उत्तरा से सहानुभूति प्रकट की, ' इन्हें कैसा लगा होगा उस समय, हे भगवान!'
'पुत्री, तुम पर क्या बीती होगी!'
सुभद्रा पास खिसक आईं आश्वस्त करती बोलीं.
'कुछ बोलोगी, वत्से ? कहने-सुनने से हृदय का भार हल्का हो जाता है. '
कुछ क्षण सिर झुका रहा, मुख पर कुछ भाव आये-गये, जैसे स्वयं में कुछ समेट रही हो.
बोली उत्तरा,' हाँ, मुझे लगा अचानक एक भयंकर ताप मेरे उदर को दग्ध करने लगा, इतनी व्याकुल हो गई. . .
हाथ उदर पर धर लिया, मुख से चीत्कार निकल गया तभी जैसे किसी ने कहा हो, चेत मत खोना वधू, परीक्षा का समय है, अचेत हुईं कि गर्भस्थ पुत्र गया. . '
और मैं दूसरे हाथ से अपनी देह नखों से खरोंचने लगी कि इस पीड़ा के आगे वह ताप ध्यान न आये,. '
मुझे याद आ गया, माँ की अनजाने में उस निद्रा से कितना बड़ा अनर्थ हो गया था. '
दृष्टियाँ सुभद्रा की ओर चली गईं.
उन्होंने ने सिर हिलाया.
विशाल कक्ष. अपार जन-समुदाय. वधू का मृदुल-सा स्वर एक सीमा तक ही पहुँच रहा था, पर विलक्षण शान्ति. स्तंभित से हो गये थे सब.
'ओह, कैसे बीता वह समय? जैसे क्षण-क्षण कोई शत-शत अग्नियों से दहा रहा हो. जैसे पल भर में वाष्प में बदल जाऊँगी. कैसा दारुण, विष-बुझे सैकड़ों तीरों के चुभन की पीड़ा. असह्य! ओह. '
स्मृति-मात्र से वह कंपित हो उठी थी.
'बस, बस, अब कुछ मत बोलो,'
'मत याद दिलाओ उन्हें उस दारुण क्षण की. अंत भला सो सब भला!
नारियाँ चर्चा कर रहीं थीं,
'चेत बनाये रखा फिर भी. . ' कोई कह रहा था.
और एक नारी स्वर -
. 'सुख और आनन्द के सब भागीदार, दारुण पीड़ा और जतन केवल माँ का भोग. '
वह फिर भी कहती रही,
'. . . नहीं,अब ठीक हूँ. मैं बताती हूँ पूरी बात... फिर, लगा मामा-श्री ने घेर लिया है, लपटों से जूझ रहे हैं मुझे आश्वस्ति देते हुये. कहते जा रहे थे
कुछ क्षण और, कुछ क्षण और. पर मुझे लगता पता नहीं समय कितना लंबा खिंच रहा है. और फिर, मैं एकाग्र होने लगी. ध्यान केन्द्रित हो गया . ताप का भान भूल गई.
उन्होंने कहा ', बस, शान्त हो,सो जाओ पुत्री. '
और मैं विचित्र निद्रा में लीन हो गई. लगता रहा अमिय-कणों की फुहार रह-रह कर दग्ध तन को शीतल कर रही है. . '
'जब जागी तो उदर पर एक ऐसा ही नील-लोहित व्रण था जो बाद में चिह्न शेष रह गया. . ' सुभद्रा बोलीं, उनकी अभिभूत दृष्टि वधू के सुकुमार मुख पर.
पांचाली करुणा से भरी चुप देखती रहीं.
पार्थ की नेह-भीगी दृष्टि का अनुभव हो रहा है उसे.
उनके शब्द शीतलता का प्रलेप करते हैं. . 'उत्तरे, मैने प्रारंभ से तुम्हें पुत्रीवत् माना. तुम्हें नृत्य की शिक्षा देने में उसी वत्सल-आनन्द का अनुभव किया. वैसा ही स्नेह बहिन दुःशला के लिये मेरे हृदय में था. '
तभी तो मुझे अपने पुत्र के लिये स्वीकारा सोच कर तप्त हृदय शीतल हो गया. जनार्दन की भागिनेय-वधू, उत्तरा के नैन भर आये. उस विशाल सभागार में कितने नेत्र सजल हो उठे थे. पांचाली भी जानती है, दुःशला के प्रति कितना ममत्व था पार्थ के हृदय में - और वह भी इन पर अपना विशेष अधिकार समझती थी. तभी वन में जब जयद्रथ ने उसका हरण किया तो उसे जीवित छोड़ दिया कि बहिन विधवा न हो जाय.
भावाकुल होकर श्वसुर के हृदय से आ लगी उत्तरा. ' इस घोर दुख में आप दोनों का ही सहारा. नहीं तो कौन बचा है मेरा!'
कृष्ण-भगिनी सुभद्रा सामने खड़ी हैं, भाई का मुख झलकता है व्यवहार झलकता है उनके हर विन्यास में.
'ऐसा न कहो पुत्री,' पांचाली ने शीष पर हाथ धर दिया, ' यह सभी तुम्हारा है!'.
58.
बीच-बीच में होनेवाला ऐसा कथान्तर व्यास की कथा में व्यवधान नहीं, उसका प्रत्यक्षीकरण लगता है.
काल के बीते पृष्ठों को सामने रख रहे हैं व्यास -
अतिप्राकृतिक अस्त्रों का प्रयोग धरती का अंतस्थल दहला गये, उर्वरता रूखी रेत बन गई. महा-समर का अपशिष्ट सरस्वती और उसकी सहयोगिनी सरिताओं में विसर्जित कर दिया गया था, पोषण के स्थान पर दूषणदायी हो गया सारा जल!'
कोई बोल उठा, 'अब कहाँ जल? संपूर्ण वैदिक संस्कृति को जन्म से पोषण देने वाली सदानीरा सरस्वती में जल बचा ही कहाँ!'
'जल कहाँ, अब केवल कीच और विषम गंध!'
दूसरा स्वर, 'पशु-पक्षी आते हैं, बिना पिये लौट जाते हैं. '
व्याकुल हो कह उठते हैं व्यास -
कहाँ हो रे, अश्वत्थामा! आओ देखो. ये परिणाम कहाँ तक चला आया. और आगे कहाँ तक पहुँचेगा! शताब्दियों की अनवरत साधना ने जो उपलब्ध किया था, उत्तेजना के एक पल ने चौपट कर दिया!
सब बड़े ध्यान से सुनते हैं -
कैसे आदिबद्री समीपस्थ हिमनद से प्रारंभ नदीतमा की प्रभास क्षेत्र तक की अथाह जल-यात्रा इसी अहंकारी अतिचार के महादानव ने पी डाली. विस्तीर्ण, वनस्पति-सघन, खग-मृगाकीर्ण प्रदेश रुक्ष मरुथल बन कर रह गया.
तटवर्ती आश्रम ध्वस्त, निर्जन पड़े हैं- ज्ञान का प्रसार कहाँ से हो? चिन्तक मनीषियों और तपस्वियों के बिना वैदिक संस्कृति और सभ्यता लुप्त प्राय है. ज्ञान-विज्ञान की धारायें सूखी जा रही हैं '
आँखों देखा सच है -लोग सिर हिलाते हैं.
'सब इस युद्ध के कारण, जो हम पर थोपा गया. '
'अति हो गई थी,' सबको लगता है. परित्राण के लिये जो हुआ, वह होना ही था.
उसी का तो परिणाम है - यज्ञों की व्यवस्था विस्मृत हो गई. लोग वेदों का शुद्ध उच्चारण भूल गये, मंत्रों का दिव्य प्रभाव क्षीण हो गया. केवल दक्षिणा का लोभ रह गया. दयनीय अर्थ-व्यवस्था एवं आर्थिक और सामरिक दृष्टि से दुर्बल आर्यावर्त को विदेशी आँखें टटोलने लगीं.
आदर्शों के भव्य-प्रासाद ढह गये थे. उतार पर आ था गया सब.
एक संपूर्ण सभ्यता-संस्कृति को निरंतर जीवन-ऊर्जा से सींचती सरस्वती अब कहां है?
उन्नति के शीर्ष पर पहुँची वैदिक संस्कृति के पतन का काल बन गया यह युग, जिसमें दुष्कृतियों को हत करने के लिये कितनी सीमायें पार करनी पड़ीं. '
वर्तमान सम्राट् ने भावी सम्राट् से कहा,
'वत्स, सत्य को जान लो, जनार्दन की छाया में रहे हो. . . तुमसे बहुत आशायें हैं जन को. '
‘मामामह ने मेरे बोधों को जाग्रत कर दिया है, पूज्य. अश्वारोहण द्वारा विविध स्थानों का भ्रमण करवाते थे वे, कि अपनी आँखों से देख लूँ. '
पार्थ ने कृतज्ञ दृष्टि सुभद्रा पर डाली, 'सुभद्रे, तुम्हारे भ्राता बड़े नीतिज्ञ थे. कितने आगे तक की सोच गये. '
'दाऊ जितने सहज विश्वासी रहे, मोहन भैया को कोई चरा नहीं सका,' उसने अपना अनुभव कह डाला. .
परीक्षित बोल उठा,'
'महान् नीतिज्ञ माना है, तो फिर उनके दृष्टान्त ही आगे मार्ग दिखायेंगे. '
युधिष्ठिर का विश्वास मुखर हुआ,' मुझे विश्वास हो गया वत्स, तुम इस राज्य के योग्य उत्तराधिकारी हो. '
'तात, आपका मार्ग-दर्शन और आशीष पाता रहूँ. प्रयत्नशील रहूँगा. '
सुभद्रा पुलक उठी. सब ने संतोष से देखा.
ऐसा लगता था जैसे श्रीमद्भागवत का साक्षात निरूपण हो रहा हो.
'वे स्वर्णिम दिवस सदा को लुप्त हो गये ? ' एक चिन्तित स्वर उठा.
'सदा को कुछ लुप्त नहीं होता, वत्स. समय का चक्र, और कर्म तुम्हारे!'
आरती हेतु, रजत पात्र में पातों का द्रोण धर कर कर्पूर की जोत जगाने लगे थे महर्षि द्वैपायन.
सुगंधों से गमकते प्रसाद के बड़े-बड़े गंगाल सेवकों ने लाकर रख रख दिये- साम्राज्ञी के करों से निर्मित भोग!
सब की उत्सुक दृष्टियाँ उधर घूम गईँ.
कहते हैं - जिस मानसिकता से पाक हो, भोक्ता में तदनुकूल भाव का परिपाक अनायास हो जाता है!
सात दिन की भागवत-कथा. सात दिन आचार-विचार से शुद्ध रहने का संकल्प!
हृदयों का संस्कार हो रहा है. ये सात दिवस, वर्ष भर अपना शुभ-प्रभाव बना रखेंगे. सात्विकता आंशिक स्वभाव बन जायेगी.
इतने समय पुनीत मनोमयता की यह डूब, कितनी दूषित भावनाओं का शमन करेगी, धीरे-धीरे वही सात्विकता, स्वभाव में परिणत होने लगेगी.
व्यास-पीठ पर आसीन ज्ञानी वाचक बोले थे -
'सारे जीवन तपे थे वे, संसार को सुन्दरतर बनाने के लिये. उनके संदेश हम जीवन में उतार लें तो विश्व का कल्याण संभव है!'
अभिभूत है नर-नारी. जैसे भागवत के अध्यायों का साक्षात् प्रत्यक्षीकरण देख रहे हों!
सकारात्मक ऊर्जायें जन-मानस में नव-चेतना संचरित करने लगीं थीं.
59.
परीक्षित का राज्याभिषेक धूम-धाम से संपन्न हो गया. मणिपुर नरेश और कौरव्य नाग के परिवारों का समर्थन था ही, उलूपी और चित्रांगदा के साथ सभी पांडव-बंधुओं की अन्य पत्नियों के परिवार भी सादर आमंत्रित थे. सबका समुचित सत्कार किया था पांचाली ने. पौत्र को निर्देश दिया था इस विस्तृत परिवार की शाखायें अलग जा कर भी परस्पर जुड़ी रहें, अपने मूल से संबद्ध रहें. एक दूसरे की संपद्-विपद् में सहयोगी बनी रहें. आस-विश्वास का संबंध कभी न टूटे. परीक्षा की घड़ियों में एक दूसरे को साध कर ही वे अपना अस्तित्व बनाये रख सकते हैं.
पितामही के रूप में सभी संततियों को नेह से सींचती रही थी वह.
पर भीतर ही भीतर एक विरक्ति घेरती जा रही थी. कभी जब अकेली होती, चुपचाप बैठी कुछ सोचती रह जाती. परम मीत चला गया,मन उमड़ आता है किससे कुछ कहे. बार-बार उसके शब्द कानों में झंकारने लगते हैं. वह उपस्थित हो कर भी वर्तमान में नहीं रह जाती.
ऐसी अन्यमनस्कता देख, पार्थ ने पूछा था, ' प्रिये, सबसे तटस्थ होती जा रही हो, सबसे विच्छिन्न- सी. क्या हुआ तुम्हें ? '
'पार्थ, अब मन उचाट हो गया. कितना लंबा जीवन जी लिया, कैसी-कैसी विचित्र स्थितियाँ घेरती रहीं. . . '
'जो बीत गया सो गया उस पर क्या सोचना. '
आगे भी क्या है- कहना चाहती थी पर कहते-कहते रुक गई.
समारोह समाप्ति के पश्चात् एक खालीपन पसर गया था, जैसे खुमार उतर जाने के बाद अवसन्न-सी विरक्ति तन-मन को घेर ले. आगे कुछ करने को नहीं रहा.
प्रिय सखा के प्रस्थान के बाद पार्थ का व्यक्तित्व भी बदला-बदला लगता है. तेजस्वी धनंजयका वह सव्यसाची रूप उदासीनता के आवरण से ढँक गया. युद्ध के बाद के घटना-क्रम ने हृदय में स्थाई ग्लानि-भाव की छाया डाल दी. नकुल-सहदेव के लिये कोई क्षेत्र नहीं बचा, हाँ अपने को लगा सकें. अवस्था में छोटे होने पर भी वार्धक्य का प्रभाव उन पर कम नहीं था.
नित्यसुन्दरी, चिर-यौवना, पांचाली अपने आप में सिमटी हुई - जीवन की सारी रुचियाँ, सारे चाव हवा हो गये. उसे देख कर लगता जैसे कोई मनोरम चित्र मन को भाये पर थिरता में थम जीवन्तता का बोध गुम जाये. '
भीम का वेग शान्त पड़ गया, युधिष्ठिर की धर्म और नीति की दमक को तो तभी से ग्रहण लग गया था जब बर्बरीक ने औचित्य पर प्रश्न उठाया था. रही-सही कमी कर्ण के वृत्तान्त ने पूरी कर दी.
पांडव -बंधुओं को लगने लगा कि अब यहाँ उनका कोई काम नहीं. योग्य उत्तराधिकारी सब सँभाल लेगा. युगान्तर के आचार-विचार में आया परिवर्तन कभी-कभी उनके वार्तालाप का विषय बन जाता था.
'आगे क्या' का प्रश्न सिर उठाने लगा.
वेदव्यास के शब्द याद आये, 'हमारी नीति-अनीति हमारे साथ! अब नई पीढ़ी को अपने समय के साथ जीने दो. काल-कथा की नई भूमिकाओं में नये पात्रों का आगमन, पुरानों का पृष्ठभूमि में पदार्पण; यही जीवन का क्रम है. . . '
सब गहन सोच में पड़े रहे, किन्तु समाधान खोजना ही था. और उन्होंने निश्चय किया कि अब यहाँ से प्रस्थान करना ही उचित है,
पूरा प्रबंध करने के पश्चात् परीक्षित को समझा-बुझा कर उन्होने सुभद्रा और उत्तरा को प्रबोधित किया, पुत्र के गृहस्थाश्रम में प्रवेश हेतु परामर्श दिया. पांचाली ने उत्तर नरेश की पुत्री इरावती के साथ पौत्र के विवाह हेतु अपना मत प्रकट कर दिया.
प्रस्थान की पूर्व-संध्या वे प्रणाम करने महर्षि व्यास के आश्रम गये.
स्नेह से आसन दे समुचित सत्कार किया उन्होंने.
प्रस्थान की बात जान कर बोले,' उचित है. सारे कार्य संपन्न कर चुके, तुम्हारा निर्णय सर्वथा उचित है. '
कुछ रुक कर उन्होंने कहा, ' अब तक के सांसारिक संबंध अब नहीं, सब समानरूपेण स्वतंत्र हैं. किसी पर किसी का अधिकार नहीं. '
उन्होंने युधिष्ठिर की ओर देखा था.
'सब अपने निजत्व में रमें, सबका व्यक्तित्व अपने ही स्व के अधीन रहे. '
बिदा समय साथ हो लिये थे वे, आश्रम-द्वार पर रुक कर खड़े हो गये. 'जाओ वत्स, पंथ कल्याणमय हो तुम्हारा! अब पीछे लौट कर मत देखना. '
पीछे खड़े वे उन्हें जाते हुये निहारते रहे. श्वेत श्मश्रुओं और रजत भौंहों के नीचे किंचित ढके नेत्र अर्ध निमीलित हो उठे थे.
60.
और फिर प्रस्थान की बेला आ गई.
नगर-सीमा के आगे, जहाँ तक संभव हो सके, रथारूढ़ रहें - परीक्षित का अनुरोध था.
प्रजाजनों और परिजनो के उद्गारों से, चलते समय व्यवधान न पड़े, वे शान्ति से गृह त्याग सकें इसलिये रात्रि की सुनसान, अंतिम बेला में पाँचो पांडव द्रौपदी के साथ उत्तर- यात्रा पर चल पड़े.
जीवन भर संघर्ष से थके प्राणी! अंत में विजय मिली, पर उसके लिये क्या-क्या मूल्य चुकाना पड़ा!
अपने दुष्कृतों के प्रायश्चित हेतु हिमालय की देव-धरा पर जा कर साधना करने का विचार मन में पाले, वे निरंतर बढ़ते गये. जीवन में दीर्घकाल तक वनवासी रहे उन छः जनों के लिये पर्वत के तल-तक चलते जाना कोई बड़ी बात नहीं थी.
गिरि पर आरोहण का श्रम या अपने आप में डूबे, वे अधिक तर मौन ही चलते जा रहे थे. बीच-बीच में कुछ वार्तालाप हो जाता था.
'कितना गहन वन. 'पांचाली बोल उठी, ' यहाँ तो वन्य-जीव रहते होंगे?"
अर्जुन आगे बढ़ आये, 'हाँ छोटे-बड़े सब. यहीं तो वन-शूकर के कारण भगवान पशुपति से झड़प हुई थी मेरी, और फिर पाशुपत अस्त्र की प्राप्ति.'
'अच्छा!'
पार्थ के चले हुये रास्ते हैं ये, इधर ही तपस्या करने इन्द्रकील पर्वत पर आये थे.
अपने अनुभव बताने लगते है. दोनों छोटे, कुछ कह-सुन कर परस्पर मन बहला लेते हैं. वे भी चर्चा में सम्मिलित हो गये.
हिमालय के भव्य और दिव्य परिवेश में आगे और आगे, ऊँचाइयों पर चढने लगे वे. पर्वत के शिखरों का विस्तृत क्रम प्रारंभ हो चुका था.
युधिष्ठिर चुप चल रहे हैं, यों भी मौन ही रहते आये थे, उनकी विचार-लीनता स्वाभाविक लग रही है.
वेद व्यास के कथन बार-बार स्मरण हो आते हैं.
'यह मात्र बाहरी यात्रा नहीं, एकान्त अंतर-यात्रा भी हो, जो मन के गहन से परिचित कराये!'
आशीष था, या वानप्रस्थ के लिये संदेश?
उन्होंने कहा था -' किसी का किसी पर अधिकार नहीं '
युधिष्ठिर को लग रहा है उन्हीं के लिये कहा. और तो किसी ने किसी को कहीं अटकाया नहीं...मैंने ही कितनी बार...और द्यूत में. भी...सोचा था केवल क्रीड़ा है, पर कहाँ रहा था वहाँ मनोरंजन! एक दुरभिसंधि थी जैसे.., मनोमालिन्य ही बढ़ा, एक बार नहीं बार-बार...' पश्चाताप से भर उठे. 'स्वयं को धिक्कारते-से पग बढ़ाये जा रहे हैं.
और भी बहुत कुछ याद आ रहा है. तब कुछ नहीं लगा. पर अब जब तटस्थ हूँ तो खटक लगने लगी. मन के गहन में उतरने लगे -
अनुज-वधू थी. कैसे प्रस्तुत किया मैंने, माँ का उत्तर जानता था, ओह, मन का सच!
स्वयं से सचेत रहना था. मैं धर्मराज? कैसा विद्रूप कथनी और करनी का! एक बार नहीं कितनी-कितनी बार..अपने आपको ही बहलाता रहा. पांचाली ने कितनी बार सचेत किया था.....पर मैं! ओह, अपनी ही अहंता में डूबा रहा...
मुझे लगता था सबसे बड़ा हूँ, सब नीतिज्ञ मानते हैं मुझे! जो करूँगा परिस्थितियों के अनुसार उचित कहलायेगा.
उस दिन बर्बरीक ने झटक दिये सारे आवरण!
और अब स्वयं से सामना!
आज मुखर हो उठे युधिष्ठिर-
'बहुत अकार्य कर डाले हैं, तब विचार नहीं किया... अब पश्चाताप ही शेष रहा..'
के प्रत्युत्तर में याज्ञसेनी बोली -
'जीवन भर जो करना पड़ा, अपनी समझ भर किया, अब सारी गठरी ही सौंप आई तो अपना क्या? रिक्त हूँ! उस सबसे मुक्त हूँ...'
धर्मराज क्या कहें!
वही कहती रही. 'देख रही हूँ चारों ओर का असीम विस्तार, डूब जाती हूँ इस में..'
'तुम नारी हो सहज समर्पित हो सकती हो. हमारा अहं, हमारा कर्तृ-भाव हमें जगाये रखता है.'
सब चकित हैं, आज युधिष्ठिर बोल रहे हैं -
'हर पुरुष में एक नारी निहित है, उससे बचता रहता है, पर, उससे भिन्न हो कर वह रिक्त रह जाता है, बस अपने भीतर उसे जगा रहा हूँ. उससे समन्वित हो कर संभव है यह कोलाहल शान्त हो जाये, अंतर की उद्विग्नता से मुक्ति मिल जाये. अब तक उसे दबाता रहा अपने अहं में उसे सुना नहीं. पर अब उसके बिना निस्तार नहीं. साधना के पथ में केवल पुरुष होना पर्याप्त नहीं. यह पुरुष-भाव कहीं समर्पित होने नहीं देगा.
.उस निष्ठा, उस विश्वास और समर्पण के बिना अध्यात्म का मार्ग खुलेगा नहीं.'
सब मौन सुनते रहे.
'आज मैं समझ पाया, सारे संबंध सामाजिकता और सांसारिकता के निर्वाह हेतु जुड़ते हैं प्रत्येक का व्यक्तित्व अक्षुण्ण रहे यही उचित है.'
'संबंधों को भावना मधुर बनाती है बुद्धि या तर्क तो.., ' सबको अपनी ओर देखते पा सहदेव सकुचा कर बीच में ही चुप हो गये.
नकुल ने जोड़ा, 'बौद्धिकता से पूरा नहीं पड़ता, भावना की फुहार बिना लगाव कैसे विकसे!
और कहते हैं, सात जनम का बंधन होता है...'
भीम, चुप न रह सके, '.हे भगवान, सात जनम ! एक को ही ईमानदारी से निभा दे....'
पांचाली कैसे चुप रहती, ' सात जनम वही सारे पति..नहीं रे, नहीं, सोच कर ही जान सूख जाती है.'
फिर स्पष्ट करने लगी -'नहीं, ऐसा नहीं, जनार्दन ने कहा था, ये नहीं होता कि पति, पति ही हो या पुत्र, पुत्र ही हो., बंधु, भगिनी पिता कुछ भी. जन्म लेंगे, मिलेंगे संस्कारवश.'
सहदेव ने एक और मोड़ दिया, ' सात जन्मों की बात है तो ऐसा होता होगा कि इस जन्म में जो पति बन कर सेवा-समर्पण ले, अगले में वह उसी की पत्नी बन कर उसका उधार चुकाये.'
सब हँस पड़े.
'तुम भी इतने ज्ञानी नहीं रहोगे.'
'पांचाली, तुमसे कब जीता मैं?'
भीम का प्रश्न, 'फिर सात जनम क्यों?'
'जिसमें तुम जैसे लोग एक दूसरे के अनुकूल होने के प्रयास करते रहें, विमुख न हों.'
चैन की सांस ली भीम ने, 'वही तो मैं कहूँ..'
'क्यों हिडिंबा भाभी का ध्यान आ गया?'
सबकी विनोदभरी दृष्टियाँ भीम पर.
'वे अगले जनम में नया रूप लेंगी, अपने संस्कारों के अनुरूप. क्यों भीम के पीछे पड़े हो! तुम भी नकुल, आवश्यक नहीं कि इतने सुन्दर ही बने आओ. सदा करेणुका से तुलना करते रहते हो.'
कुछ खिसियाता सा बोला, 'तुमसे तो नहीं करता न!'
युधिष्ठिर सुन रहे थे अब तक, बोल उठे, 'अब यहाँ वे सब चर्चायें नहीं करनी चाहियें.'
'भइया, हम तो केवल हँस बोल रहे हैं, मन से कोई लिप्त नहीं.'
आरोहण का क्रम जारी रहा. भयंकर शीत, पग-पग पर धमकाती उद्दंड हवायें, पल-पल विचलित करती, जीवनी-शक्ति खींचे ले रही हैं. लड़खड़ाते, एक दूसरे को सहारा देते बढ़े जा रहे हैं धीरे-धीरे!
सर्वप्रथम द्रौपदी की सहनशक्ति ने जवाब दे दिया. अग्नि-संभवा पांचाली जीवन भर ताप झेलती रही. उसके जीवन का उपसंहार हो रहा था, चिर-शीतल हिम-शिखरों के बीच.
गिर पड़ी द्रौपदी.
द्रुत गति से अर्जुन आगे बढ़े. वही लाए थे उसे, कितने चाव से भरे, अपने पौरुष की परीक्षा देकर. प्रिया को अंतिम क्षणों में बाँहों का सहारा देने आगे आए.
“नहीं.' युधिष्ठिर ने रोक दिया.
'अब उसे किसी की आवश्यकता नहीं बंधु, उस ओर अकेले ही जाना है.'
जिस नारी ने जीवन भर हमारा साथ दिया आज हम उसके लिए कुछ नहीं कर पा रहे हैं. क्या कभी कुछ कर पाए? आज भी इतने विवश क्यों हैं- पार्थ का हृदय विकल हो उठा.
द्रौपदी ने क्षण भर को नेत्र खोले. पाँचो पर दृष्टिपात किया, अर्जुन पर आँख कुछ टिकी - जैसे बिदा मांग रही हो. बहुत धीमें बोल फूटे, ' हे कृष्ण, गोविंद, माधव, मुरारे... '
जाने कहाँ से एक मोरपंख याज्ञसेनी के समीप आ गिरा.
देखा उसने, ईषत् हास्य अधरों पर खेला और जीवन भर जलनेवाली वह वर्तिका शान्त हो गई.
भीम के आगे बढते पग थम गए, धम्म से वहीं बैठ गए. नकुल, सहदेव स्तब्ध. अर्जुन ने आँसू छिपा लिए.
युधिष्ठिर स्थिर हैं. कुछ क्षण देखते रहे एकदम चुप, अगम से.
फिर बोले, ' कहीं रुकना नहीं है अब कुछ नहीं है यहाँ, बस, चलो आगे!'
अर्जुन कह रहे थे, '..अब तक उसमें प्राण थे, वह सबका हिस्सा थी. अब निर्जीव है किसी की नहीं रही. अब केवल मेरी, '
व्याकुल हृदय आज हर मर्यादा भूल गया, ' नित्ययौवना, याज्ञसेनी, छोड़ कर अभी मत जाओ.. मैं जीवन भर भटकता रहा...कहाँ रह पाया तुम्हारे साथ. रुक जाओ, पांचाली मत जाओ..! '
देखते रहे उस निष्चेष्ट देह को. झुक आये उसकी ओर, 'ओ पांचाली, थक गई तू, नहीं झेल पाई, चली गई तू..'
वहीं बैठे रहे अर्जुन, पांचाली के शान्त निर्विकार श्यामल मुख को निष्पलक ताकते.
'वह किसी की नहीं. केवल मेरी. सब जाओ अब. मैं देख लूँगा..'
सारे भाई शोकाकुल विमूढ़!
युधिष्ठिर आगे बढ़े, 'अब कुछ देखने को नहीं बचा. पागल हुये हो बंधु, अब पांचाली कहाँ! मृत देह, माटी,. मोह छोड़ो, उठो.'
अर्जुन ने सुना कि नहीं सुना?
'वह सौभाग्यशालिनी थी, चली गई.'
कुछ रुक कर बोले युधिष्ठिर, 'हमें भी उसी राह जाना है. रुकना नहीं है अब, उठो बंधु, उठो.'
भीम को संकेत किया, वे अनुज को हाथ पकड़ उठाने लगे.
अर्जुन विवश यंत्र-चालित-से उठे.
भीम और युधिष्ठिर ने बीच में ले लिया.
युधिष्ठिर ने कुछ विचार कर सीधे आगे न बढ़ कर, चढ़ाव के घूम पर मोड़ की ओर पग बढ़ाये, बंधु साथ देते रहे,
अचानक लौट पड़े अर्जुन.
बड़े पांडव ने टेरा, ' कहाँ, कहाँ जा रहे हो, बंधु?.'
कोई उत्तर नहीं.
सब ठिठके खड़े
पार्थ बिना कुछ बोले चलते रहे. पांचाली की देह के निकट पहुँचे. जा कर अर्जुन ने अपना उत्तरीय उतारा और झुक कर पत्नी की देह आवरित करने लगे.
'बंधु, अब उसे शीत-ताप कुछ नहीं व्यापेगा.' युधिष्ठिर पीछे चले आये थे.
पार्थ नहीं मान सके अग्रज का तर्क, जीवन भर पाले गये अनुशासन भंग हो गये,
'उत्तरदायी मैं हूँ, पितृगृह से उसे अर्धांगिनी बनाने को मैं लाया था, दायित्व मेरा था. क्या किया मैंने उसके साथ? जब वह पूछेगी, मुझे अनावृत्त कैसे भेज दिया तुमने? मैं क्या कहूँगा...'
युधिष्ठिर ने कुछ कहा. शब्द उनके कानों तक नहीं पहुँचे.
उनके हाथ ठिठक गये, दृष्टि उस चिर -परिचित मुख पर टिक गई,
नील-कमल की सुपरिचित गंध कुछ देर चतुर्दिक मँडरा कर वायु-मंडल में विलीन हो गई.
युधिष्ठिर बोल रहे थे -
'पांचाली, तुम समर्पित रहीं. जीवन भर किसी को अपना माध्यम नही बनाया. अंत में स्वयं को विसर्जित कर दिया. मैं अधिकार-भावना से ग्रस्त रहा, पांचाली ने निःस्व-भाव में स्वयं को ढाल लिया था. तुम्हारी साधना तक हम कहाँ पहुँचे? हमारी यात्रा अभी शेष है.'
भाइयों से बोले 'माधव की शरण में रही, उसकी मुक्ति सर्व प्रथम होनी ही थी.'
बहुत अस्पष्ट थे स्वर - 'और मेरी, संभवतः सबसे बाद!'
किरीटी ने वह देह यत्न-पूर्वक ढाँक दी.
'वह जीवित थी तब तक सबका अधिकार था. अब वह नहीं है, यह देह-मात्र, वह केवल मेरी. कोई लज्जा नहीं अब. अंतिम बिदा लेने में कोई आड़े नहीं आ सकता.'
'जाता हूँ प्रिये, जीवन भर भागता रहा, तुम्हें पाने को व्याकुल. आज तुम चली गई हो. मैं यहीं रह गया. अब भटकने को है ही क्या? हर तरह से निभा गईं तुम. हम स्वार्थी तुम्हें कुछ न दे सके....' कंठ वाष्पित हो रहा था.
आगे पार्थ क्या बोल रहे हैं, कोई समझ नहीं पा रहा था.
कुछ क्षण खड़े रहे अर्जुन टक लगाये, भीम ने आगे बढ़ हाथ पकड़ा. वे विवश से पलटे और चलने लगे,
भयंकर शीत भरी हवायें अबाध चली आ रही हैं. रह-रह कर तुषार-कणों की वर्षा, वनस्पतिविहीन दुर्गम प्रदेश, हिम-चट्टानें रोर करती फिसल रही हैं, एक-एक पग दूभर, विषम झोंके झेलते लड़खड़ाते किसी तरह बढ़ रहे हैं, एक दूसरे को साधते -सँभालते.
आगे पंचचूली शिखर तक जाने को राह पर्वत के किनारे घूम जाती है. उसी ओर जाना है, मोड़ आ गया था.
कुछ आगे बढ़े वे,
मुड़ने से पहले अर्जुन ठिठके, पलट गये. उनके साथ शेष चारों भी देखने लगे उस ओर, जहाँ पांचाली को छोड़ आये थे.
तल की हिमशिला पर वह श्यामल देह एकदम शान्त. उद्दाम हवाएँ उत्तरीय का छोर बार-बार उड़ा रहीं थीं. सघन केश-राशि की कुछ बिखरी लटें उस अनिन्द्य मुख पर आ पड़ी थीं.
हिमालय की उठती हुई धवल श्रेणियाँ, मंदिर के भव्य शिखरों सी दिशा व्याप्त करती हुई. वहीं नीचे हिमाच्छादन युक्त तल पर निश्चल पड़ी याज्ञसेनी की देह, ज्यों शुभ्र वेदिका पर अर्पित, जल से विच्छिन्न नीलोत्पल!
आगे मोड़ था.
युधिष्ठिर ने कंधे पर हाथ रखा, भीम बाँह से सहारा दिये आगे बढ़े. सब पीछे छूट गया. हिमपात से धुँधलाते परिवेश में दूर जाती, प्रचंड पवन झोंकों में हिलती -डोलती वे पाँच आकृतियाँ दृष्टि-पथ से ओझल हो गईं!