कृष्ण सखी / भाग 9 - 12 / प्रतिभा सक्सेना

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9.

अर्जुन वनवास पर हैं, बारह वर्ष के लिये.

द्रौपदी का मन कभी-कभी बहुत अकुलाता है. पर यह दुख किसी से नहीं बाँट सकती - चार पति हैं न! व्याकुलता क्यों?

हरेक को लगेगा, हम हैं तो!

वे समझ नहीं सकते. मैं समझा नहीं सकती. चुप रहना है बस.

पार्थ, कैसे बीतेंगे बारह साल तुम्हें देखे बिन? तुम्हें रोक नहीं सकती कि मत छोड़ जाओ ऐसे. मैं तो साथ भी नहीं जा सकती, कैसे बीतेगी यह दीर्घ अवधि? तुम्हें पुकारे बिना कैसे रहूँगी!

कौन सा अपराध किया था पार्थ ने? कर्तव्य परायण अर्जुन की सदाशयता ही उसे दंडित कर गई.

सारा परिदृष्य पांचाली के नेत्रों के आगे घूम गया -

कक्ष में युधिष्ठिर के साथ है द्रौपदी.

ऐसा लगा बाहर कुछ शोर उठ रहा है. लोगों के दौड़ने- भागने की आवाज़ें भी -

युधिष्ठिर उठे, वातायन के कपाट पूरे खोल बाहर झाँकने लगे.

आवाज़ें अब अंदर भी सुनाई देने लगी हैं -

'अरे, अरे, हमारी गउएँ.. वे खींचे लिये जा रहे हैं '.. 'है कोई क्षत्रिय-पुत्र, जो इन आतताइयों से बचा ले... ' 'वे खींचे लिये जा रहे हैं. अरे.. रे भाई को घायल कर दिया.. अरे कोई है. '. 'बचाओ, बचाओ, कोई हमारी गौओं को बचाओ.. मार डालेंगे वे उन्हें..,'

अचानक अर्जुन ने वेग से कक्ष में प्रवेश किया, दृष्टि खूँटी पर टँगे अपने अस्त्रो पर जमी है. त्वरित गति से शस्त्र उतारे और एकदम पलट कर बाहर निकल गये.

युधिष्ठिर पलटे थे कुछ कहने को तत्पर, 'अर्.. ' निकला था मुख से पर शब्द पूरा होने से पहले ही अर्जुन जा चुके थे.

'तुमने रोका नहीं, पांचाली?

कुछ समझने-सोचने कहने का अवसर ही कहाँ दिया? किसी और दिशा में देखा भी नहीं था अर्जुन ने. विस्मित बैठी रह गई द्रौपदी.

'कुछ कहा उसने.?'

'कहा? देखा तक नहीं. बस हवा का झोंका जैसे आये और निकल जाये.. '

'मैं समझ गया... कर्तव्य में वह कभी नहीं चूका,और आज भी.. '

♦♦ • ♦♦

फिर अर्जुन ने कक्ष में अनधिकार प्रवेश का दंड स्वीकार लिया.

पहली आपत्ति बड़े भइया ने उठाई -

मेरे कक्ष में तुम्हारा प्रवेष-निषेध कैसा?

युठिष्ठिर ने कहा था,'बंधु, मैं अग्रज हूँ, मेरे कक्ष में तुम कैसे वर्जित हो सकते हो? यह मर्यादा तो बड़े भाई के लिये है कि छोटे भाई के दाम्पत्य-एकान्त में प्रवेश न करे.

बड़ा भाई तो पिता समान होता है. नहीं भइया, नहीं. किसी को कुछ गलत भी लगे तो मैं क्षमा करता हूँ. जब मुझे ही आपत्ति नहीं तो फिर यह सब क्यों? क्यों द्रौपदी?

' और फिर इनकी दृष्टि -वही लक्ष्य-बेध वाली, अपने शस्त्रों पर एकाग्र, कक्ष के और कुछ पर दृष्टि भी नहीं गई. '

सब समझा रहे हैं- तुमने अपना धर्म निभाया कोई अपराध नहीं किया.

शस्त्र के बिना कैसे चलता. तुमने हम सब को अकल्याण से बचाया, तुम गये, अपने आयुध ले कर चले आये. हम सब के हित के लिये.

पर अर्जुन को स्वीकार नहीं -

'ये सब बहाने हैं, मुझे दंड से बचाने के लिये. नियम सबके लिये एक-सा. क्या बड़ा, क्या छोटा. अपराध जग विदित है. नहीं, मैं नहीं मान सकता. '

दंड शिरोधार्य कर वनवास की दीक्षा ली और चल दिए.

पांचाली का अंतर हाहाकार कर उठा.

बारह वर्ष- पूरा एक युग! और मैं तो तुम्हें रोक नहीं सकती. तुम्हारे साथ जा नहीं सकती,धनंजय. मत छोड़ जाओ ऐसे!

सब ने देखा, सब ने समझा. तुम्हारे जाते समय मेरी उद्विग्नता और तुम्हारी भी.

और हर एक को लगा - मैं हूँ तो. फिर यह व्याकुलता क्यों?

मेरा प्रथम पुरुष वही और उसकी प्रथम स्त्री मैं. बाकी हिस्से-बाँट तो बाद में हुई.

पार्थ, कैसे बीतेंगे ये बारह साल बिन तुम्हारे!

उन सबकी अपनी पत्नियाँ नहीं क्या? वहाँ तो मैं कहीं नहीं.

हाँ, धनंजय की भी हैं. तो क्या बारह वर्ष ब्रह्मचारी रहता? कितनी तो उस पर मर मिटी होंगी. मेरा पार्थ है ही ऐसा. उर्वशी का प्रणय-प्रस्ताव अस्वीकार कर सके जो और बदले में शाप स्वीकार ले. है कोई?

तुमने विवाह किये कृष्ण से सूचना मिलती थी. मुझे अच्छा लगा, मैं भी तो यहाँ जीवन को भोग रही हूँ.

कैसे दोष दूँ उसे?

बरस पर बरस बीतते जाते हैं. वैसे रात में न सही, दिन में तो पार्थ को देख लेती थी, बीच-बीच में वार्तालाप हो जाता था. और अब यह दीर्घ अवधि. चार वर्ष बाद अर्जुन की बारी आती थी -एक वर्ष के लिये केवल, उनकी होती थी मैं वह मेरे होते थे, उतना ही अपना भाग समझ कर मन को समझा लिया था. पर... विधाता को उतना भी स्वीकार न हुआ.

भाइयों पर कोई अभिशाप पड़े तुम से देखा नहीं जाता.

पार्थ, तुम क्यों हो इतने कर्तव्यपरायण, इतने स्नेही, इतने सहृदय!

10.

कैसे हैं, कहाँ हैं अर्जुन?

कृष्णा का मन बार-बार पुकारता है!

कृष्ण समझते हैं सखी की मनोव्यथा - और तब राज-रनिवास सब पीछे रह जाता है.

बराबर मित्र की खोज-खबर रख रहे हैं कि वह कहाँ है, किस हाल में, क्या कर रहा है.

वनवास चल रहा है साथ ही साधना का अविराम क्रम. देश-देशान्तर भ्रमण करते जीवन के गहन अनुभव बटोर रहे हैं धनंजय, अपने व्यक्तित्व को माँज-माँज कर और चमका रहे हैं.

पर एक निरंतर कथा चलती रहती है मन में. पुरानी स्मृतियाँ कौंध जाती हैं.

उस दिन लक्ष्य-बेध के उपरान्त पांचाली ने धनंजय का वरण किया था.

सारे भाई जब घर पहुँचे तो आगे रहे युधिष्ठिर ने आवाज़ लगाई, 'देखो माँ, आज हम क्या वस्तु लाये हैं?'

माता कुन्ती किसी कार्य में व्यस्त थीं, आने में कुछ विलंब होना जान, हमेशा जैसा उत्तर देतीं थीं, वे अंदर से ही से बोलीं ,'सब भाई मिल कर बाँट लो. '

विस्मित-चकित पाँच जन, छठे युठिष्ठिर सदा की तरह मौन-शान्त, निरुद्विग्न!

नीतिज्ञ, संयत, विचारवान, धर्मराज!

पाँच ब्राह्मण कुमारों का दैनिक भिक्षाटन नहीं था, यह दान में मिली चीज़ नहीं थी, वीर्य-शुल्का कन्या अपनी सामर्थ्य से जीती थी पार्थ ने.

बड़े भैया के धर्म और नीति को कई बार समझ नहीं पाते, पर चुप रह जाते हैं.

कुछ बातें पूछी नहीं जा सकतीं, बस मन में दबी की दबी रह जाती हैं.

अरे, यह सब तो पांचाली से भी नहीं कह सकते! नहीं, किसी से भी नहीं!!

परस्पर का विग्रह सदा बचाना होगा.

आज सोचते हैं, नवागता पांचाली को कैसा अटपटा लगा होगा?

विस्मय की रेखायें और प्रश्न के चिह्न पांचाली के मुख पर भी उभरे देखे हैं और दृष्टि बचा गये हैं पार्थ. मेरे ही कारण तो झेल रही है इतना कुछ!

कितनी समझ, कितनी सद्बुद्धि-सहृदयता है, और कितना गहन गांभीर्य! मन ही मन कृतज्ञता का अनुभव करते हैं वे. एकाकी विजन में भटकते वह पुराना सब अचानक ही कौंधने लगता है.

टिक कर कैसे रह पायें कहीं. अशान्त मन को समेट कोई नया उद्देश्य ढूँढते और चल पड़ते आगे.

इस परम-मित्र की पूरी खोज-ख़बर रखते हैं गोविन्द कि पूरा विवरण देना होगा प्रिय सखी को.

11.

एक उन्हीं का तो सहारा है द्रौपदी को.

क्या कुछ घटना क्रम है, कैसे अपने व्यक्तित्व को निरंतर माँज रहे हैं, रगड़-रगड़ कर और और परिष्कृत कर रहे हैं. अर्जुन का कब, कहाँ, क्या, सब जानना होता है कृष्णा को.

और साथ में चलती हैं दुनिया भर की चर्चाएँ.

स्थान होता है कृष्णा के कक्ष के आगे का भाग, उसका प्रिय स्थान. चौकी पर गोविन्द और पीठिका पर पांचाली. सामने वाटिका है - ऋतु के पुष्प-पत्रों से सुसज्जित.

वृक्षों से झरते हवा के झोंके, पुष्प-गंध लिये चले आते हैं.

आकाश मेघाच्छन्न हो तो मयूरों का नर्तन, और एक बार तो एक मोर-पंख पांचाली के पास आकर गिरा.

अर्जुन के विस्तृत समाचार लेकर जब कृष्ण का आगमन होता है,चारों भाई परम उत्सुक हो उठते हैं- चेहरे पर आई प्रसन्नता छिपाये नहीं छिपती. बहुत सत्कार करते हुये घेर लेते हैं उन्हें.

तुरंत पुकार होती है,' पांचाली कहाँ हो, देखो तो कौन अतिथि आये हैं!'

अर्जुन की नई उपलब्धियाँ सुनते भाइयों की छाती फूल उठती है.

'अब दुर्योधन और शकुनि की चालें कुछ नहीं बिगाड़ सकेंगी. हम समर्थ हो गये हैं. कोई भिड़ने की हिम्मत नहीं करेगा. अनेकों स्थानों, तीर्थों का भ्रमण किया, कितनों से मैत्री जुड़ी, कितनों से संबंध. वहाँ सुदूर पूर्वी प्रदेशों की नारियाँ जिनके नेत्र-नासिका आदि मुखावयव बिलकुल भिन्न. वहाँ के सौन्दर्य के प्रतिमान भिन्न हैं.

द्रौपदी जानती है किरात परिवार की - मुँदी-मुँदी आँखें, ऐसी एक सपत्नी मिली है - चित्रांगदा. कभी न कभी तो आयेगी.

शूल- सा चुभा हृदय में.

पर ठीक तो है. मैं भी तो जीवन को भोग रही हूँ और वह इस लंबी अवधि में बिलकुल वंचित रहेगा क्या? कुछ तो राग-रंग जीवन में चाहिये ही.

एक दम ध्यान आया, एक युठिष्ठिर और एक अर्जुन! कितनी भिन्नता है दोनों में. और हो भी क्यों न - वे धर्म राज, कभी विचलित होते नहीं देखा, न कभी उद्विग्न, कुछ होता रहे उन्हें कोई अंतर नहीं पड़ता. शान्त- संयत, परम नीति परायण, सत्यवादी - सोचते-सोचते कुछ अटकती है और बहुत से धीरोदात्त होने के गुण. हाँ, यह तो सभी मानते हैं.

और धनंजय? इन्द्र का अंश- स्वच्छंदता स्वभावगत. सौंदर्य का भोगी और रसज्ञ - धीर-ललित! पर भाई के सामने सदा मर्यादित. यह भी जानती है वह कि भीम में थोड़ा औद्धत्य है, वेग-आवेग से युक्त. वायु की संतान जो हैं. शेष दोनों अपने ढंग के, छोटे पड़ जाते हैं. सारे भाई कितने भिन्न. फिर भी सदा एक साथ!

सब के साथ संयत बनी, सारा कुछ सुनती रहती है.

'अब तुम भी विश्राम करो बंधु, ' कह कर बड़े भैया उठ जाते हैं,

भोजन के पश्चात लेटने का उनका नियम है. शेष बंधु भी धीरे-धीरे बिदा हो लेते हैं.

इसी क्षण की प्रतीक्षा रहती है उसे, पूरा अवकाश होता है मीत से मनमानी बातें करने का. सखा से पूछने में काहे का संकोच. कृष्ण समझते हैं उसकी व्याकुलता, द्रौपदी छोटी-से छोटी बात जान लेना चाहती है.

मणिपुर की राजकन्या चित्रांगदा के रूप पर मुग्ध, अर्जुन ने चित्रवाहन से अपनी कामना प्रकट की. पिता ने अपनी शर्त सामने रख दी- हमारे कुल में एक ही संतान जन्म लेती है. चित्रा यहीं रहेगी, और उसकी संतान भी ननिहाल में!

चलो यह भी ठीक -याज्ञसेनी ने सोचा.

धनंजय ने कहा है, 'अश्वमेध के अवसर पर आने के लिये. '

' हाँ, उचित है. '

कर्ण का उल्लेख हमेशा टालने का यत्न करती, पर कभी-कभी उन चर्चाओँ में वह साक्षात् खड़ा हो जाता- पांचाली में कुछ नये संताप जगाता हुआ.

ऐसे ही एक वार्तालाप में कृष्ण ने कहा था-

जब किसी की वास्तविकता नहीं जानते हम तो आक्षेप करने का क्या औचित्य? उसका व्यक्तित्व क्या उसकी कुलीनता का आभास नहीं देता. अपने जन्म का प्रमाण कोई कहाँ से लाएगा? एक शृगाल के कुल में क्या सिंह पैदा हो सकता है!'

और कहा था, 'हाँ, मैं भी कहीं जन्मा कहीं पला, मेरे माता-पिता का पता न होता तो.तब मेरे साथ भी यही सब होता...!.

'तुम अग्नि संभवा हो पर प्रखरता में वह तुमसे कम नहीं. कोई कमी, कोई तुच्छता कभी दिखी क्या उसमें? मुझे तो लगता है इन राज-पुरुषों से अधिक संभ्रान्त है वह. '

कृष्णा बड़ी उलझन में पड़ जाती है. अब यह सब कह रहे हैं पर उस दिन क्या हो गया था?

इतनी विशेषतायें गिना रहे है, कभी किसी कमी की चर्चा नहीं की. फिर क्यों.... वह पूछना,चाहती है - उस दिन क्यों इसी मुख पर असंतोष की रेखायें उभर आईँ थीं. मेरी दृष्टि ने प्रत्युत्तर में अनुकूलता क्यों नहीं पाई थी?

' मैं तो दोनों में से किसी को नहीं जानती थी गोविन्द, ' उस दिन कह ही डाला कृष्णा ने,

'कितनी बातें सुनी थीं कर्ण के विषय में, अज्ञात कुल-शील, दुर्योधन का कृपा-पात्र, सारथी की आजीविका... और अर्जुन, सव्यसाची, इन्द्र का अंश, कृष्ण का बंधु, अद्वितीय धनुर्धर, और भी जाने-क्या-क्या, जिसकी गौरव-गाथा गाते पिता थकते नहीं थे. '

' कृपा पात्र? कर्ण? दुर्योधन का! कर्ण के,ऐसे अप्रतिम योद्धा के,परम वीर के संरक्षण में आ गया वह... अरे, निश्चिंत हो गया वह. अर्जुन की टक्कर का और कौन था यहाँ?'

'इतनी प्रशंसा करते हो उसकी, और तब तुम्ही अनुकूल नहीं थे. जब कर्ण मत्स्य-बेध हेतु शर-संधान हेतु तत्पर हो गये. तुम्हारी दृष्टि क्यों मुझे बरज गई थी?'

कृष्ण मौन. द्विधा में रहे कुछ समय.

फिर बोले-,'हाँ.. तुम्हारे जन्म का जो निमित्त था वह तो पूरा होना था पांचाली.

सारे सरंजाम इसलिये रचे गये थे कि महाराज द्रुपद को अर्जुन ही अपने जामाता के रूप में स्वीकार था. उनका सारा आयोजन इसीलिये था. ये कर्ण जाने कहाँ से आ गया तब कौन जानता था? किसी को अनुमान भी नहीं था कि वह बीच में कूद पड़ेगा.

'.. और मैंने क्या सोचा.. क्यों नहीं चाहा कि वह जीत ले शर्त. वह भी सुन लो. दुर्योधन ने आगे बढ़ कर कर्ण को अपनाया अपने समान स्तर पर ला कर उसे अपना मित्र बनाया. जिस भी कारण से हो लेकिन उसे पद और प्रतिष्ठा देने वाला वही था. कर्ण क्या कभी यह भूल सकता था?

'उसके बिना क्या था कर्ण? किसने मान्यता दी थी उसे? किसने उसकी क्षमताओं को पहचाना? बस एक दुर्योधन ने. वैसे भी कर्ण स्वार्थी नहीं,अपना सब कुछ देकर उऋण होने का प्रयत्न करनेवाला. जिसने मान-सम्मान दिया,पहचान दी उस मित्र के लिये वह कुछ भी करने से चूकेगा नहीं. उसी मित्र के मन में तुम्हारे प्रति लालसा जान कर वह तुम्हें स्वयं स्वीकारता क्या? नहीं. वह तुरंत उस की कामना पूरी करता. और यह मैं नहीं चाहता था कृष्णा,कि तुम उस कुटिल-मति की सहधर्मिणी बनो.

'लेकिन तुम इस प्रकार उसे अपमानित कर निकालोगी यह भी नहीं सोचा था. बाद में घटना-चक्र ने जो मोड़ लिया उसकी कोई संभावना मैंने नहीं की थी. तुम्हारे मन में उसके प्रति इतनी विरक्ति, इतनी वितृष्णा कहाँ से आ गई, याज्ञसेनी,जब तुम उसे जानती तक नहीं थीं?

वैसे जानती तो तुम..पार्थ को भी नहीं थीं. '

एक उसाँस ली द्रौपदी ने,' हमेशा दाँव पर लगा रहा यह जीवन! पिता, सासु-माँ, और पति भी. सब अपना-अपना सोचते रहे. मेरे लिये कभी किसी ने नहीं सोचा. कैसी दुरभिसंधियों से घिरी रही!

कभी-कभी लगता है सब शामिल हैं उसमें. एक साथ ये पांचो- इनका भ्रातृत्व का रिश्ता सबसे ऊपर है - मैं सब के लिये गौण रह गई हूँ... समझ नहीं पाती किसका आसरा करूँ.. .'

'ऐसा न कहो सखी, स्थितियाँ ही ऐसी विषम हैं. कोई करे तो क्या करे?.. पर मैं हूँ न, वन में हो चाहे पुर में. देखो, स्मरण करते ही दौड़ा चला आता हूँ.'

'बस एक तुम ही तो. यहीं कुछ चैन पाता है मन.

'मेरा सहारा बस तुम हो गोविन्द!'

11.

'उलूपी! ऐरावत वंश के कौरव्य नाग की कन्या... '

चारों भाई कृष्ण को घेर कर बैठे हैं. पांचाली आ चुकी है. खिड़की के पास पीठिका पर उसका निश्चित स्थान है.

'उनका निवास तो पाताल में था,' नकुल बीच में बोल उठे.

सहदेव के नयनों में भी प्रश्न की झलक.

' इधर धरती पर आना-जाना लगा ही रहता है. और धनंजय ही कहाँ एक जगह टिकनेवाले. उलूपी एकाकिनी थी. ' कृष्ण ने समाधान किया.

'एकाकिनी?'

'हाँ, पारस्परिक शत्रुता में गरुड़ ने उसके पति को अपना ग्रास बना लिया था. '

सब सुन रहे हैं,

'हाँ, यौवन-संपन्ना अकाल वैधव्य-प्राप्त उलूपी! पर अब नहीं अब वह है धनंजय की सौभाग्यवती पत्नी. '

सब चौंक गये. एकदम चुप्पी छा गई.

मौन भंग किया भीम ने -

'.. तो क्या हुआ? भइया कृष्ण ने भी तो जानते-बूझते उन सोलह सहस्त्र अभागिनियों को सौभागिनी बनाया.... कौन सा दोष था उनका?'

'अपने हित में नहीं..,' कृष्ण का स्वर था, ' कितना अन्याय हुआ था उनके साथ. वे सोलह सहस्र निरपराध अपहृतायें सामाजिक बहिष्कार का जो दुसह दुख भोगतीं और जीवन भर वंचनायें सहतीं, उनका संताप आने वाले युगों को विकृत कर देता. कितने युग अभिशप्त हो जाते, कौन जाने!.. '

द्रौपदी सुन रही है चुपचाप.

' बहुत समर्थ नारी है उलूपी. अपनी साधना से संजीवनी मणि प्राप्त करनेवाली!'

किसी को कुछ कहना नहीं, सब सुन रहे हैं, वासुदेव के स्वर गूँज रहे हैं,

'.... इधऱ. आप लोगों को व्यापक समर्थन और सहायता चाहिये. हर संभव प्रयत्न कर रहे हैं धनंजय. इस संबंध से उन्हें जलचरों के स्वामी होने का वरदान मिला है. कितनी सामर्थ्य बढ़ा रहे हैं अपनी!'

'उचित किया अर्जुन ने,' युधिष्ठिर बोले थे -'अकेले रह कर कौन, क्या कर सकता है?

कितने अलग-थलग पड़ गये थे हम लोग. अब देखो न उधर मणिपुर तक हमारे संबंधी और इधर यह नागवंश भी हमारे साथ हुआ. दूरदर्शी है हमारा भाई. ' युधिष्ठिर संतुष्ट हैं.

द्रौपदी की ओर देखा है कृष्ण ने -

'सारे विवाह विवाह कहाँ? एक समझौता बन जाते हैं. राजाओं के साथ तो और भी. समर्थन जुटाना है, शक्ति बढ़ानी है. जिससे अवसर आने पर सहायता के लिये बहुत से हाथ आगे बढ़ आयें. '

भाइयों के मुख पर आश्वस्ति के भाव हैं.

तभी परिचारिका ने प्रवेश कर भोजन हेतु कक्ष में पधारने का निवेदन किया.

द्रौपदी उठ खड़ी हुई, 'तनिक. उधर की व्यवस्था देख लूँ. '

कृष्ण समझ रहे हैं सखी की मनस्थिति.

12.

'क्यों सखी, तुम्हारे तो तीन ही सपत्नियाँ हैं, वे भी साथ नहीं रहतीं -शासन तो तुम्हारा चलता है सब पर, पार्थ के तो और चार सहपति.. '

'बस चुप करो, वे सहपति नहीं भाई हैं सब. जब भाई साथ होते हैं तो पत्नी किसी की नहीं, सब छुट्टे. ' फिर कुछ रुक कर पांचाली ने जोड़ दिया, 'बँधी रहती है बस पांचाली. बिना भेद-भाव, सबकी परिचर्या का व्रत धारे. '

'धीर धरो याज्ञसेनी, जीवन की परिस्थितियों पर हमेशा हमारा बस नहीं रहता... आगे के लिये सोच-समझ कर व्यवस्था करना ही दूरदर्शिता कहलाती है. '

वह चुप रही. वासुदेव कहते रहे -

'यहाँ तुम्हारी राह में कोई नहीं, न ही कोई उस पद की दावेदार. और लाभ सारे अपने. उन दूरस्थ सपत्नियों के पुत्र हैं. उन सब का होना पार्थ के लिये कल्याणकारी होगा. हम सब के लिये भी. सहायता के लिये तुरंत दौड़े आयेंगे. कौन जानता है आगे किस स्थिति से सामना करना पड़े.. '

द्रौपदी जानती है. चित्रांगदा का पुत्र वभ्रुवाहन- भाइयों को उत्सुकता थी कब देखने को मिलेगा.

पर उसके लिये मणिपुर नरेश की शर्त थी- उनके परिवार में एक ही संतान होती है, अतः पुत्री और उसकी संतान वहीं रहेगी, वहीं पलेगी. विशेष अवसरों पर आना-जाना बस. और उलूपी का इरावान - वह तो छोटा है अभी.

कृष्ण की बात कितनी सटीक है, समझ रही है वह.

सुभद्रा का, अभिमन्यु का कितना बड़ा सहारा है हम सबको?

सुभद्रा नहीं होती तो? बचपन से उन्हीं के यहाँ पले हैं द्रौपदी के पाँचो पुत्र.

इतनी सुख-सुविधायें, इतना अपनत्व, ननिहाल का मान-सम्मान मिल पाता क्या?

बहुत ठीक किया था वासुदेव ने.

दुर्योधन अपने वाग्जाल, और धूर्तता से, भोले बलदाऊ को बहका कर अपने अनुकूल बना लेता है, और वे उसकी चिकनी-चुपड़ी बातों में आ कर पांडवों पर ही क्यों, कृष्ण से भी कुपित हो जाते हैं. उन्हें साधना तो बहुत ज़रूरी था.

सुभद्रा के उपयुक्त वर थे अर्जुन,नहीं तो दाऊ कहीं दुर्योधन की चाल में आकर बहिन को ग़लत हाथों में सौंप देते तो? समझ रहे होंगे कृष्ण. तभी सुभद्रा-हरण की योजना बना दी. अब लाड़ली बहिन के पति से कहाँ तक विरोध कर पायेंगे दाऊ!

वाह रे कृष्ण, क्या एक ही वार से दो निशाने साध लिये!

और सुभद्रा - सरल, स्नेहमयी, गोपकन्या, कृष्ण की भगिनी. द्रौपदी के आड़े कहीं नहीं आती. साथ में रहती भी कितना कम है, प्रायः ही मायके जाती-आती हुई..

यह बात तो ठीक है कि विवाह भी आवश्यकता बन जाता है,और कितनी समस्यायओं का समाधान भी. केवल भोग की इच्छा वहाँ नहीं रहती.

और ये मोहन सारा कुछ ऐसी आसानी से कह जाता है.

ऊपर-ऊपर से लगता है बेकार में बोल रहा है पर वाणी प्रतिफलित हो जाती है इसकी. जाने कौन सी बात कहाँ जाकर यथार्थ में परिणत हो जाये!

पर कभी-कभी खीझ जाती है द्रौपदी!

अरे, ये बचपन से ऐसा है - टेढ़ा! कब क्या करेगा कोई ठिकाना नहीं!

सोचती ही रह जाती है - भवितव्य इसे व्याप जाता है या इसके मुँह से जो निकल गया वह सच हो जाता है -

लगता है छलिया, पर इसका कोई काम निरर्थक हुआ है कभी क्या?