केंद्रीय असेंबली का चुनाव / क्यों और किसलिए? / सहजानन्द सरस्वती
मिलवालों के साथ जो मेरा संघर्ष शुरू हो गया उसका परिणाम सभी दृष्टि से अच्छा हुआ। हमारे कांग्रेसी नेता ऐसे संघर्षों से बहुत डरते और इन्हें होने देना नहीं चाहते। इनमें मुल्क की, कांग्रेस की और जनता की भी हानि का भूत उन्हें नजर आता है। मगर यहाँ हमने उलटा ही पाया। सन 1935 ई. में जो केंद्रीय असेंबली का चुनाव हुआ और जिसने लार्ड विलिंगटन का 'कांग्रेस खत्म हो गई'वाला हिसाब गलत ठहरा दिया,उसमें पटना और शाहाबाद इन दो जिलों से कांग्रेस की तरफ से बाबू अनुग्रह नारायण सिंह खड़े थे। उनकेविरोधमें रुपयों के बल पर श्री रामकृष्ण डालमिया और हिंदू हितों की ठेकेदारी के बल पर हिंदू महासभा के मंत्री और योध्दा बाबू जगतनारायण लाल डँटे थे। डालमिया का यह भी खयाल था कि बिहटा और डेहरी-आन सोन की दो मिलें और उनके हजारों आदमी भी उसकी मदद करेंगे। इधरइन दो जिलों से अनुग्रह बाबू का कोई खास ताल्लुक न था। इसीलिए कांग्रेसी लीडर डरते थे। मगर फिर भी वह जीते और बहुत अच्छी तरह जीते। उधर दोनों ही प्रतिद्वंद्वी न सिर्फ हारे,प्रत्युत बाबू जगतनारायण लाल की जमानत तक जब्त हो गई! पटने में जो वोट डालमिया को मिले उनसे तो उसकी भी जमानत जब्त हो जाती, यदि शाहाबाद में भी उसी हिसाब से मिलते। मगर वहाँ कुछ ज्यादा वोट मिल गए। इसलिए राम-राम करके उसकी जमानत रह गई!
इस चुनाव में कुछ मजेदार बातें हो गईं। बिहटा से दक्षिण पालीगंज में एक सभा थी। उसमें अनुग्रह बाबू और बाबू श्रीकृष्ण सिंह मौजूद थे। लेक्चर हुए। किसानों ने सुना। उसके बाद एक किसान ने मुझसे साफ कहा कि आपकी बात तो हम मानेंगे ही और अनुग्रह बाबू को ही वोट देंगे। मगर यह तो बताइए कि यह भी जमींदार ही तो नहीं है? मैं सहमा। लेकिन अंत में जैसे-तैसे करके उसे विश्वास दिलाया। नहीं कह सकता कि उसे मैं संतुष्ट कर सका या नहीं। मगर इस घटना से मुझे अपार खुशी हुई कि किसानों में यह चेतना आ गई। अब आसानी से जमींदारों के चकमे में वह आ नहीं सकते।
मगर उसका भय तो ठीक ही था। क्योंकि वह जानता था कि यह भी जमींदार ही हैं। पीछे तो मुझे उलाहने भी मिले। कांग्रेसी मंत्रिमंडल के जामने में अट्ठारह वर्ष के एक उसी इलाके के कोइरी के जवान लड़के ने अजीब चेहरा बना के मुझे सुना दिया कि आप ही के कहने से तो वोट दिया और अब यह हालत?मैंने उससे स्वीकार किया कि वोट ले कर धोखा जरूर दिया है। मगर उस परिस्थिति में दूसरा होई नहीं सकता था। हाँ,अब आगे ऐसा हर्गिज नहीं होगा।
दूसरी बात यह थी मिस्टर डालमियाँ ने जैसा, कि पीछे अनेक जरियों से पता चला, प्राय: एक लाख रुपया चुनाव में खर्च कर डाला! इतनी बसें, मोटरें और दूसरी सवारियाँ लाई गईं कि औरों को उस समय सवारियाँ मिलना कठिन हो गया! बनारस तक की बसें उनके काम में आई थीं। रुपए पानी की तरह बहाए जाते थे। जैसा कि धनी आदमियों का होता ही है, कुछ जी-हुजूरों की दरबारदारीवाली बातों पर ही उनने विश्वास कर लिया था कि जीतेंगे। यह भी अभिमान उन्हें था ही कि रुपए से जो चाहें कर सकते हैं। लोगों ने उनसे रुपए भी, वोट दिलाने के बहाने, खूब ही कमाए। मगर मेरा विरोध तो तेज था। फलत:, वे अंटाचित्त गिरे। अगर मेरा संघर्ष उनसे न रहता तो यह बात कदापि न हो पाती। उनके कांग्रेस विरोध का नतीजा यह हुआ कि श्री राजेंद्र बाबू को मैं बिहटा मिल की डाइरेक्टरी से हटाने से समर्थ हुआ। जब उस मिल की नीति किसान विरोधी हो गई, तभी मैंने भूकंप के बाद ही उन्हें हट जाने को कहा था। पर टालमटूल कर रहे थे। लेकिन अब क्या करते?
हिंदू महासभा के महारथी को बड़ा गर्व था कि जरूर जीतेंगे। उस इलाके से वे एक बार डिस्ट्रिक्ट बोर्ड के मेंबर चुने जा चुके थे। साथ ही उधर उनका बराबर आना-जाना और सट्टापट्टा रहा करता था। नमक सत्याग्रह में वहीं पकड़े भी गए थे। इसलिए कई बार दृढ़तापूर्वक राजेंद्र बाबू से उनने कह भी दिया था कि अनुग्रह बाबू जरूर हारेंगे, आप उन्हें हटा लें। मगर हमने विश्वास दिलाया था। इसलिए वे डँटे रहे। उस समय जो गन्दी नोटिसें कांग्रेस के विरुध्द वे निकालते रहे, वह उन्हीं का काम था। कांग्रेस का सीमा प्रांत की पठान जातियों के साथ एक करके उन्होंने दिखलाया और कहा कि कांग्रेस की जीत होने पर न गाय बचेगी न मंदिर, न बहू-बेटियाँ, न किसी का शिखासूत्र और न हिंदूपन का एक भी चिद्द! मंदिरों में घड़ियाल भी बजने न पाएगा! मगर उनकी एक न चली। न जाने पीछे कैसे फिर कांग्रेस की ही पूँछ पकड़ के प्रांतीय असेंबली में पहुँचने की उन्हें हिम्मत हुई! किस विचार से नेताओं ने, न सिर्फ उन्हें मेंबर बनाया, प्रत्युत पार्लिमेंटरी सिक्रेटरी भी! यह तो रहस्य ही रह जाएगा। कम-से-कम जनसाधारण के लिए तो खामख्वाह।