केदारनाथ, कहर या कयामत? / जयप्रकाश चौकसे

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केदारनाथ, कहर या कयामत?
प्रकाशन तिथि : 10 दिसम्बर 2018


सुशांत सिंह राजपूत और सारा अली खान अभिनीत फिल्म सेंसर द्वारा प्रमाणित फिल्म है परंतु उत्तराखंड की सरकार ने कुछ स्थानों पर इसका प्रदर्शन प्रतिबंधित कर दिया है। जिला मजिस्ट्रेट को भी अपने जिले में फिल्म प्रतिबंधित करने का अधिकार है कि कानून-व्यवस्था के टूटने के अंदेशे मात्र पर वह फिल्म का प्रदर्शन रोक दें।

इस प्रकरण में अदालत ने अत्यंत सारगर्भित निर्णय यह दिया था कि फिल्म टिकट खरीदकर देखी जाती है। अत: जो फिल्म देखना चाहें, उन्हें फिल्म देखने की सहूलियत प्रदान की जानी चाहिए और जो नहीं देखना चाहते वे भी स्वतंत्र हैं। गोयाकि फिल्म देखने के लिए हल्दी लगे चावल के साथ निमंत्रण पत्र नहीं भेजा जाता। जैसे आप अपनी पसंद की सब्जी खरीदते हैं वैसे ही आप अपना मनोरंजन चुनने के लिए स्वतंत्र हैं।

जैसे फिल्म के नायक व नायिका विभिन्न धर्मों के अनुयायी हैं, वैसे ही फिल्म के प्रेमी विभिन्न धर्म के अनुयायी हैं। इस तरह कलाकारों का चयन फिल्म में निहित भावना को धार प्रदान करता है। दिलीप कुमार की 'गंगा जमुना' में भी एक भाई डाकू की भूमिका अभिनीत कर रहा था, तो दूसरा भाई पुलिस इंस्पेक्टर की। सबसे अधिक चिंताजनक बात यह है कि अदालत के आदेश की भी प्रांतीय सरकार ने अवहेलना की है। इस तरह यह अदालत की अवमानना का प्रकरण भी बनता है। मौजूदा व्यवस्था में हुक्मरान जहां खड़ा होता है, वहीं अदालत मानी जाती है और उसकी हर तर्कहीन बात कानून की तरह स्वीकार की जाती है। उसकी हुड़दंग समानांतर व्यवस्था शक्तिशाली है, क्योंकि उन्हें अलिखित आदेश प्राप्त है कि वे न्याय संगत फैसले को बदल दें। इन हुड़दंगियों को बड़ी चतुराई और गुप्त साधनों से धन भी मुहैया कराया जाता है। एक आदरणीय सत्ता प्राप्त महोदय का कथन है कि फिल्म का नाम 'केदारनाथ' नहीं रखकर 'कहर' या 'कयामत' भी रखा जा सकता है। क्या यह बात नजरअंदाज की जा सकती है कि इस तरह के दुर्गम तीर्थ स्थानों पर सामान व मनुष्य गधे पर लाद कर ले जाए जाते हैं। जानवरों में जाति-पाति या धर्म को लेकर कोई ध्यान नहीं है। सेंसर बोर्ड की एक्जामिनिंग कमेटी में अलग-अलग धर्म के अनुयायी व अलग अलग मातृभाषाओं के लोग नियुक्त किए जाते हैं। इनकी रपट रीजनल अफसर के पास जाती है। इस व्यवस्था में यह नहीं देखा जाता कि सदस्य को फिल्म विधा का कितना ज्ञान है। फिल्म विधा पाठ्यक्रम में नहीं है परंतु फिल्म विद्या सिखाने वाली संस्थाएं अनेक हैं। इन संस्थाओं में पढ़ाने वाले समाज शास्त्र, राजनीति शास्त्र या अन्य किसी विधा के स्नातक हैं परंतु फिल्म विधा से वे अपरिचित ही हैं। प्राय: एक्जामिनिंग कमेटी के सदस्य नायिका का उघड़ा कंधा, कमर की गोलाई या वक्ष का जरा सा खुला भाग देखकर नाराज हो जाते हैं या नाराजगी का अभिनय करते हैं और अपनी टपकती लार को पी जाते हैं।

जिलाधिकारी को फिल्म प्रतिबंधित करने का अधिकार अंग्रेजों के जमाने का दिया हुआ है। फिल्म सेंसर गठन किया गया था 1918 में और डाक-तार के नियमों को ही फिल्म सेंसर में समाहित किया गया था। फिल्म विधा के जानकार को कभी कोई अधिकार नहीं दिया जाता है। अमेरिका में फिल्म उद्योग ही अपनी फिल्मों को प्रमाण-पत्र देता है। यह व्यवस्था हमारे यहां लागू नहीं की जा सकती। फिल्मों की तरह किताबें भी प्रतिबंधित की जाती हैं। रोम का चर्च समय-समय पर अपने धर्म के अनुयायी लोगों को केवल परामर्श देता है। वह फतवा नहीं देता, न आदेश देता है। उसे अपने धर्म में निष्ठा रखने वालों की विचार शक्ति पर भरोसा है और वह उनकी इच्छा पर सब कुछ छोड़ देता है। हमारी व्यवस्था हमारे आवाम पर विश्वास नहीं करती। वह उसे भेड़ मानकर हकालती है। 1933 में जेम्स जॉयस के उपन्यास 'यूलिसिस' पर एक मुकदमा कायम हुआ था। कुछ लोग उसे अश्लील मानते थे। जज वूल्जे ने एक ऐतिहासिक फैसला दिया था कि किसी भी कृति के समग्र प्रभाव को महत्वपूर्ण माना जाए और किसी अंश के आधार पर प्रतिबंधित नहीं किया जाए। फिल्म 'केदारनाथ' को प्रतिबंधित किया गया है। धर्म आधारित राजनीति करने वालों को दर्शक की समझ पर विश्वास नहीं है। व्यवस्था ने सारे अधिकार हड़प लिए हैं। आज वह तय करती है कि उनकी रियाया क्या खाए, क्या पहने और क्या सोचे। केदारनाथ में बाढ़ का कहर इसलिए नहीं टूटा था कि वहां विभिन्न धर्म मानने वालों ने प्रेम विवाह किया था, वरन बाढ़ से हानि इसलिए हुई कि अवैध मकान बना लिए गए थे। नदी और नारी पर अत्याचार सदियों से जारी है। यह भारत महान में कभी रुक नहीं पाएगा, क्योंकि इसे आख्यानों के मनमाने अनुवाद शासित करते हैं। दरअसल, यह प्रतिबंध प्रेम के खिलाफ है। प्रेम से व्यवस्था बाधित रहती है, क्योंकि प्रेम के प्रकाश से उनकी आंखें चौधियां जाती है।