केदारनाथ अग्रवाल का आलोचनात्मक लेखन / गोपाल प्रधान
केदारनाथ अग्रवाल के आलोचनात्मक लेखन पर उनके जीवनकाल में ध्यान नहीं दिया गया । रामविलास शर्मा भी उनके गद्य की तारीफ़ उनकी चिट्ठियों के प्रसंग में ही ज्यादातर करते हैं । लेकिन शताब्दी वर्ष में हम उनके गद्य के मुक्त प्रवाह मात्र पर नहीं, बल्कि उसकी तार्किकता पर विचार कर सकते हैं । इसके लिए उन्हें बाकी प्रगतिशीलों के साथ रखकर देखना होगा । उनके आलोचनात्मक लेखों के तीन संग्रह, ‘समय समय पर’ (परिमल प्रकाशन, 1970), ‘विचार बोध’ (परिमल प्रकाशन, 1980), ‘विवेक विवेचन’ (परिमल प्रकाशन, 1981) हैं । इसके अलावा उन्होंने अपने काव्य संग्रहों की भूमिकाएँ लिखी हैं जिनका इस्तेमाल भी उनके लेखन पर विचार करते हुए किया जायेगा । सबसे पहली बात यह कि केदार जी को पढ़ते हुए एक तरह की सरलता का अनुभव होता है । इसे अनेक लोग अभिधा कहकर छोटा साबित करना चाहते हैं, लेकिन एक उलटबाँसी करते हुए कहा जा सकता है कि आसान लिखना कठिन है और कठिन लिखना अपेक्षाकृत आसान । अभिधा को न सिर्फ़ श्रेष्ठ कविता का लक्षण माना गया है (यहाँ अभिधा पर आचार्य शुक्ल के बल को उनकी निजी रुचि नहीं बल्कि काव्य चिंतन की एक समानांतर परम्परा का उद्घाटन समझना चाहिए) बल्कि शब्द शक्ति विचार में भी इसको लेकर संघर्ष रहा है । कुछ विद्वान शब्द की तीन शक्तियाँ मानते हैं लेकिन कुछ ऐसे भी हैं जो उसकी केवल एक शक्ति, अभिधा, मानते हैं और अन्य अर्थों को तात्पर्य वृत्ति के सहारे समझने पर जोर देते हैं । लिखने में एक तरह की बनावट परम्परा से ही हमें मिल जाती है इसलिये उसके दबाव से पीछा छुड़ाकर सहज लेखन बेहद कठिन होता है । अपने गद्य की विशेषता बताते हुए केदार जी ने लिखा- ‘वकील हूँ इसलिए मेरा गद्य विश्लेषणात्मक और तथ्यपरक अधिक है । तर्क से तना मेरा गद्य जो बात कहता है दम खम से उभारकर बिना शील संकोच के बल देकर कहता है । मेरे गद्य की भाषा भी कभी-कभी बहसनुमा कभी-कभी कठोर और कटु कटारनुमा होती है । मेरा गद्य मेरे अनुभूत सत्य का पक्ष प्रेषित करता और स्थापित करता है ।…जैसे मैं आदमी को उसके परिवेश के संदर्भ में समझता हूँ वैसे मेरा गद्य उसे उसके परिवेश के संदर्भ में समझता है । मैं होकर भी मैं औरों से घनिष्ठ हूँ मेरा गद्य भी मेरा होकर औरों के गद्य से घनिष्ठ है । कवि भी हूँ इसलिए कभी-कभी मेरा गद्य भी काव्यात्मक हो जाता है ।…गद्य में भी काव्य की समस्याओं के मूल कारणों को जानना मेरा लक्ष्य होता है। जैसे मैं अंतर्गुहावासी अहं नहीं हूँ वैसे मेरा गद्य भी अंतर्गुहावासी नहीं है ।’ (भूमिका, ‘समय समय पर’) संक्षेप में कि केदार का गद्य उनके व्यक्तित्व का ही विस्तार है । स्पृहणीय है यह उपलब्धि । इस पूर्वपीठिका के बाद हम उनके लेखन की चिंताओं को समझने की कोशिश कर सकते हैं । इसके दायरे में उनकी कविता, उनके समय की कविता, अतीत की कविता के अलावा विचार को कविता में आयत्त करने की जद्दोजहद है । आश्चर्यजनक रूप से ‘देश देश की कविता’ शीर्षक से प्रकाशित देश दुनिया की कविताओं के अनुवाद के बावजूद इन लेखों में विदेशी सन्दर्भ बेहद कम आये हैं । कुल एक लेख हंगरी के कवि सैंडर्स पेटाफी पर है । शायद इसका कारण उनका संकोच है जो रामविलास शर्मा को लिखी चिट्ठियों में बहुत मुखर है । इस सन्दर्भ में तथा अन्य मामलों में भी ‘मित्र संवाद’ का जिक्र मौके-बेमौके हम करते रहेंगे । केदारनाथ अग्रवाल का मूल्याँकन प्रगतिशील कवियों के भीतर उन्हें रखकर ही करना उचित होगा । इस नाते परम्परा के प्रत्यक्ष सन्दर्भ उनके यहाँ सबसे कम दिखाई देते हैं, बल्कि एक तरह का आलोचनात्मक रुख ही पुराने कवियों के प्रति दिखाई देता है । उदाहरण के लिए ‘कालिदास की कविता और मैं’ में कालिदास की कुल प्रशंसा के बावजूद ‘कालिदास की अपनी युगीन सीमायें थीं । उन राजकीय सीमाओं के भीतर रहकर उन्होंने कविता को एक तरफ़ राजकीय बनाया और दूसरी तरफ़ लोक जीवन से सम्बद्ध करके उसे मानव भावनाओं की सहज अभिव्यक्ति में लगाया।’ शिव पार्वती के उनके चित्रण पर भी एक हल्का सा विरोध- ‘भोगवाद की यह व्यंजना दार्शनिक स्तर पर भले ही उचित समझी जाये लेकिन जीवन के स्तर पर काम वासना का ऐसा निरूपण किसी भी प्रकार से औचित्यपूर्ण नहीं कहा जा सकता ।’ इसी तरह तुलसी के प्रसंग में ‘रामायण के सन्दर्भ में तुलसी की कर्मपक्षीय चेतना’ में कहते हैं ‘आदर्श चरित का यह ग्रंथ लोक जीवन जीने वालों के लिये आत्म तोष का ग्रंथ हो गया है । आत्मतोष के ग्रंथ के रूप में यह वंदनीय ग्रंथ है। किंतु करनी का ग्रंथ न होने की वजह से असमर्थ ग्रंथ है ।’ जबकि इसमें वर्णित धर्म ‘कर्मठ धर्म है । वह धर्म लौकिक कर्म है । इसलिये इस बात का विशेष ध्यान रखना चाहिए कि रामायण किसी भी प्रकार से पुजापा का ग्रंथ न बने ।’ इस मामले में वह तुलसी के अंतर्विरोध की चर्चा करते हैं- ‘यह कहना कि उन्होंने राम से अधिक राम के नाम को माना है और उसके जप की महिमा बखानी है इसलिए वह कर्म से अधिक धर्म के कायल थे सरासर गलत होगा । उनका यह कहना उनके चिंतन के अंतर्विरोध को प्रकट करता है ।’ जब रामविलास जी तुलसी की प्रशंसा करते हैं तो भी केदार जी की आलोचनात्मकता में कोई फ़र्क नहीं पड़ता । 13 फ़रवरी, 1974 के पत्र में लिखते हैं, ‘अब इस युग में तुलसी का सेवार ही सब तरफ़ उतराया फिर रहा है ।— बेचारे सतह के नीचे धँसे तुलसी का असली मर्म तो कोई समझता ही नहीं ।’ फिर 26 अक्टूबर, 1974 के पत्र में दोबारा विश्वनाथ त्रिपाठी की पुस्तक ‘लोकवादी तुलसीदास’ पढ़ने के बाद, ‘मैंने सोचा था कि इस पुस्तक से मेरा भ्रम टूटेगा ।— वह भ्रम न टूटा । बल्कि इस किताब से और भी साफ हो गया कि तुलसी अवध के राज्य के आदर्शों से भरपूर बँधे थे और कदापि क्रान्तिदर्शी न थे ।’ अतीत के प्रति उनका यह रुख उन्हें थोड़ा ज्यादा ही कठोर साबित करता है । सारे प्रगतिशील कवि मार्क्सवाद के सम्पर्क में आने से पहले ही कविता करने लगे थे । उन पर अनेक विचारधाराओं के प्रभाव पड़ चुके थे । केदार जी में विचार को पकड़ने की ललक सबसे अधिक है । नागार्जुन उसके लिये कोई संघर्ष किये बगैर उसे साध लेते हैं । केदार जी की आलोचना में इस मामले में आत्मसंघर्ष सबसे ज्यादा है । इसी कारण उनसे कभी अति भी हुई है, लेकिन महत्वपूर्ण बात उनकी ईमानदारी है । वह रामविलास शर्मा का साथ पाने के कारण इसमें ज्यादा गहरे उतरे भी । विचारधारा की पकड़ के लिये उनकी लड़ाई हमें मुक्तिबोध की याद दिलाती है । अपने संग्रह ‘समय समय पर’ की भूमिका में उन्होंने इस आत्मसंघर्ष का जिक्र किया है । ‘ऐसे स्वभाव का मैं, भौतिकवादी दर्शन से तालमेल बैठाकर, कविता को वस्तुसत्ता के सन्दर्भ में पढ़ने-समझने लगा और पढ़ते-पढ़ते समझते-समझते इस निष्कर्ष पर पहुँचा कि कविता भी वस्तुसत्ता की आत्मपरक अभिव्यक्ति है और यह अभिव्यक्ति भी देश काल से बँधी है और ऐसे बँधकर ही न ‘अहं’ की अभिव्यक्ति है- न वस्तुसत्ता की ठोस अभिव्यक्ति है वरन दोनों की वास्तविक अभिव्यक्ति है जो आदमी को आदमी से जोड़ती है, एक युग को दूसरे युग से जोड़ती है; वर्तमान को भूत और भविष्य से मिलाती है; और आदमी की सभ्यता और संस्कृति का विकसित प्रारूप प्रस्तुत करती है ।’ इसी आधार पर वह कहते हैं- ‘मैं इसे भी वैज्ञानिक नहीं समझता कि काव्य का मूल्याँकन- या पुनर्मूल्याँकन- केवल कथ्य या शिल्प या कलात्मकता के आधार पर किया जाये और उसके सामाजिक या राजनयिक प्रभाव को दरकिनार कर दिया जाये और कृति को केवल कृति की एक मात्र इकाई के रूप में देखा जाये ।’ पुनः ‘इस इकाई का वस्तुजगत में– यथार्थ जगत में- इतिहास में- आदमियों के समाज में- देश काल में- एक स्थान होता है । अपने उस स्थान पर आकर यह इकाई दूसरों को उस वस्तुसत्ता का भान कराती है जो मूर्तजगत की वस्तुसत्ता के आत्मपरक बनने के उपरांत रचना प्रक्रिया से होकर सम्बद्धशीलता पा चुकी होती है और दूसरों के लिये एक ग्रहणीय सम्वेदनशील वास्तविक सत्य बन चुकी होती है ।’ इस टुकड़े की व्याख्या से हम कविता की रचना प्रक्रिया और लिख जाने के बाद उसके सामाजिक प्रकार्य की रहस्यपरक समझ के मुकाबले एक ज्यादा साफ तस्वीर प्राप्त कर सकते हैं। साहित्य के प्रसंग में मार्क्सवादी समझ को अंगीकार करने की उनकी कोशिश का प्रमाण ‘विचार बोध’ में संकलित ‘संज्ञान की कलात्मक अभिव्यक्ति: कविता’ शीर्षक लेख है । इस लेख में उन्होंने लेनिन की काग्नीशन संबंधी धारणा को समझने का प्रयास किया है । ध्यान देने की बात यह है कि लेनिन को आमतौर पर राजनीतिक नेता ही माना जाता रहा है और बेहद प्रतिबद्ध लोगों को छोड़कर शेष बौद्धिक उन्हें गम्भीर विचारक नहीं मानते । यह लेख केदार जी की कविता संबंधी मान्यताओं के मूल को निरूपित करता है इसलिये इसे थोड़ा विस्तार से देखना जरूरी है । कहते हैं, ‘…कविता केवल व्यक्ति की मानसिकता या चेतना की इकाई मात्र नहीं होती । वह वस्तुसत्ता से निरूपित हुई एक नितांत नयी संश्लिष्ट इकाई होती है । यह संश्लिष्ट इकाई मानवीय बोध की इकाई होकर दूसरों के मानवीय बोध की इकाई बन जाती है । ऐसा ही क्रम बराबर चलता रहा है और आदमी ऐसे क्रम के द्वारा ही अपने को, अपने समाज को, अपने परिवेश को और देशकाल के घटनाक्रम को और उसके विभिन्न आयामों को और तदनुरूप कविता को रचता रहा है ।’ इस क्रम को स्पष्ट करते हुए वे समूची हिन्दी कविता के इतिहास का मूल्याँकन करते हैं और बताते हैं कि ‘हिन्दी कविता के अब तक के इतिहास से यही पता चलता है कि वह उसी ऐतिहासिक जीवन के नाना रूपों को जीती चली आई है, जिस ऐतिहासिक जीवन के रूपों को आदमी का समुदाय जीता चला आया है ।’ इसके बाद प्रगतिशील कविता के जड़ मूल खोजते हुए भारतेंदु के समय आने वाले परिवर्तन को रेखाँकित करते हैं जब ‘कविता शास्त्रीय काव्य लोक से बाहर निकलकर लोक जीवन के हर्ष-विषाद से आलोड़ित होने लगी’ । फिर ‘प्रथम महायुद्ध के बाद जन जागृति जोरदार हुई’ । ‘कवियों के मन पंख खोलकर मुक्त आकाश में उड़ने लगे—जो प्रकृति पहले उद्दीपन के लिये ही प्रयुक्त होती थी वह प्रकृति अब स्वयं कविता का विषय बन गयी ।’ याद रहे कि यह सब कुछ प्रगतिशील कविता के समर्थन में हिन्दी नवजागरण को खड़ा करने के लिये है । प्रगतिशील कविता का योगदान था कि ‘जन जीवन के लिए समर्पित हुई इस कविता ने पूर्वकालीन और पारम्परिक साहित्यिकता से कविता को बाहर निकाला ताकि आम आदमी भी कविता को कविता की तरह प्यार करने लगे और समाजवादी यथार्थवाद की मानसिकता से वह सम्बद्ध होने लगे ।’ यह काम आज़ाद भारत के सत्तारूढ़ शासकों के लिये परेशानी का सबब बन गया और ‘देश के राष्ट्रीय कर्णधारों ने जब शासन का कार्यभार संभाला तब वह इस आंदोलन से सहम गये—देश के बुर्जुआ मनोवृत्ति वाले पढ़े-लिखे लोगों ने दल बनाकर इस आंदोलन को कुचल डालने का जान कर या अनजान कर षड्यंत्र रचा ।’ नतीजा कि ‘विरोध में प्रयोगवाद का नया आंदोलन चलाया गया ।—हिन्दी कविता को इस प्रयोगवाद ने सामाजिक और राजनीतिक मूल्यों से शून्य कर दिया । अब आई नयी कविता ।—यह प्रयोगवाद से आगे तो गये लेकिन ये भी बिना किसी ठोस जीवन दर्शन के खोखले मानववाद के वृत्त में भ्रमण करते रहे और इस बात में खुश होते रहे कि वे व्यक्ति के मौलिक अधिकारों के लिए जी रहे हैं। इसलिए नयी कविता का कथ्य और शिल्प लोक जीवन का कथ्य और शिल्प नहीं हो सका ।’ प्रसंगवश हमें विजय देव नारायण साही के ‘लघु मानव’ और इस भंगिमा के ही चक्कर में उनको सर पर उठाए प्रगतिशील आलोचकों के मुकाबले केदार जी का यह मूल्याँकन गहराई से देखना होगा । इसी लेख में केदार जी ने प्रगतिशील कविता के सामने उपस्थित कार्यभार भी गिनाए हैं । उनका उल्लेख इसलिये आवश्यक है क्योंकि वह अन्य जड़ प्रतिबद्ध लोगों से अलग एक हद तक खुले और आत्मालोचनात्मक भी थे- ‘सबसे पहली बात तो यह है कि ‘संज्ञान’ से प्राप्त हुए सत्य की अभिव्यक्ति करने वाली कविता तभी कविता होगी जब वह कलात्मक होगी । कलात्मक होने की पहली शर्त यह है कि वह सत्य जिसकी अभिव्यक्ति कविता करती है स्पष्ट और लोक जीवन को बिंबित करने वाला हो…। अस्पष्टता और दुरूहता कविता की कलात्मकता को नष्ट करने वाले तत्व होते हैं ।’ इस टिप्पणी से ही कविता की कलात्मकता के प्रति उनकी सावधानी को समझा जा सकता है । अक्सर ऐसा लगता है कि सभी प्रगतिशीलों ने कला के प्रति एक तरह की असावधानी बरती है लेकिन इस समझ को गलत साबित करने के लिए त्रिलोचन की कविता सशक्त प्रमाण तो है ही, केदार जी की यह राय भी कोई कम सबल तथ्य नहीं है । इस नाते प्रगतिशील कवियों की कला पर न के बराबर काम हुआ है । ‘दूसरी बात यह है कि जिस तथ्य की या सत्य की अभिव्यक्ति की जाये वह सशक्त बिम्ब विधान से उद्दीप्त हो अर्थात वह केवल सत्य की नंगी पकड़ न होकर हो वरन वह आवश्यक वस्तु सत्ता की बुनावट के रूप में उभरकर अभिव्यक्त हुआ हो । अन्यथा पाया हुआ सत्य यदि केवल प्रतीकात्मक शैली में ही व्यक्त हुआ तो वह दुर्बल और क्षीण हो जाता है…।’ शायद याद दिलाने की जरूरत नहीं कि इस मान्यता में रामचंद्र शुक्ल की इस धारणा की गूँज है कि कविता में अर्थग्रहण की बनिस्बत बिम्बग्रहण अपेक्षित होता है । असल में प्रगतिशील साहित्य ने सचमुच हिन्दी की स्वस्थ परम्परा का पुनरुद्घाटन किया था । ‘तीसरी बात यह है कि यदि ‘संज्ञान’ से पाया हुआ सामाजिक या राजनीतिक सत्य अखबारी भाषा में या मोहल्ले की चलताऊ भाषा में व्यक्त किया गया तो वह वैसे स्थायित्व की संरचना के रूप में नहीं होगी जो समय के प्रहार से ढहने से बच सके । ‘चौथी बात यह है कि जनता की बनी बनाई मानसिकता तभी टूट सकती है जब नयी मानसिकता मानवीय जीवन के अंतर्विरोधों की समस्या का कोई समाधान दे सके । इसके लिये कविता को वे वस्तुवत्तीय तत्व व्यक्त करने होंगे जो आदमी को विरूपित करते रहते हैं । ‘पाँचवीं बात यह है कि कवि की अनुभूतियाँ दूसरे की अनुभूतियाँ बनें ।’ इस बात को वे अक्सर प्रयोगवादी और नई कविता के कवियों के विरोध में उठाते हैं और अपनी निजी अनुभूतियों की अभिव्यक्ति का माध्यम कविता को बनाने का विरोध करते हैं । ‘छठीं बात यह है कि कोई भी कला शाश्वत नहीं है…इसलिये इस मोह में नहीं पड़ना चाहिए कि कविता स्वयं में कोई सिद्धि है और वह देश और काल का अतिक्रमण कर सकती है । ‘सातवीं बात यह है कि…सत्य का और शिल्प का जब द्वंद्व चलता है तभी कथ्य का अपना शिल्प तैयार हो जाता है और वही अर्थ बोध देने लगता है। ‘आठवीं बात यह है कि कला भी और कविता की कला भी आदमी की चेतना का बिम्बन करती है ऐसा न हो कि कवि की आत्मपरकता ही कविता में व्यक्त हो और वस्तुसत्ता के वे तत्व उसमें न आयें जो उस आत्मपरकता के कारण खो चुके हैं । ‘नवीं बात यह है कि न कला, कला के लिए है और न कविता, कविता के लिए है इसलिए शुद्ध कविता मानवीय मूल्यों से वंचित कविता होती है ।… ‘अंत में कविता को संश्लिष्ट कविता बनाये जाने की अवधारणा औचित्यपूर्ण लगती है । तभी कविता बोलती है और कवि नहीं बोलता ।’ यह अंतिम माँग तो उन्हें बहुत ही गहरे चिंतक की कोटि में खड़ा कर देती है । कविता को उसका स्वतंत्र व्यक्तित्व प्रदान करना कठिन साधना की माँग करता है । इस पूरे उद्धरण में केदार जी ने हालाँकि रामचंद्र शुक्ल की तरह कहीं भी अपनी कविता का उदाहरण नहीं दिया है लेकिन उनकी कविता को समझने की इससे बेहतर कुंजी नहीं हो सकती, लेकिन इसका महत्व महज इसी कारण नहीं । आज की कविता पर विचार करने वालों और कवियों के लिये भी इसमें अनेक काम की चीजें हैं । केदार जी के आलोचनात्मक लेखन को पढ़ते हुए लगातार उस वैचारिक कशमकश के माहौल में रहना पड़ता है जिसे हम शीत युद्ध का वैचारिक संघर्ष कहते हैं । चाहे वह किसी पुराने कवि की बात करें या अपने लेखन की चर्चा करें या फिर समकालीन वातावरण का जिक्र करें, यह खेमेबंदी लगातार बोलती रहती है । इस चक्कर में कहीं कहीं जोश में वह भूलें भी कर जाते हैं। मसलन अपने लेख ‘शासन, जनता और लेखक’ में पश्चिमी लेखन का सर्वेक्षण करते हुए वह तत्कालीन खेमेबंदी के जबर्दस्त प्रभाव में सार्त्र, सीमोन, काफ़्का सबको एक ही डंडे से हाँकते हैं और भ्रमवश सीमोन को पुरुष लेखक के बतौर बतलाते हैं । लेकिन हिन्दी साहित्य की दुनिया में उनका पक्ष इतना कमजोर नहीं है । वह जनपक्षधर परम्परा के लेखक प्रेमचंद और निराला की सकारात्मकता को बलपूर्वक उठाते हैं और इनके जरिये अपने पक्ष को मजबूत बनाते हैं । मार्क्स के शब्दों को एक दूसरे प्रसंग में याद करें तो ऐसा लगता है कि वर्तमान में गुत्थमगुत्था शक्तियों को जब अपनी ताकत कम लगती है तो वे अतीत के प्रेतों को अपनी मदद के लिये बुला लेते हैं । प्रगतिशील साहित्य के पक्ष में तर्क करते हुए केदार जी ने अज्ञेय के नेतृत्व में संचालित प्रयोगवादी आंदोलन पर सबसे ज्यादा खुलकर आक्रमण किया और उसके खतरे भी उठाए । कलावादी या उन्हीं के शब्दों में अहं के अंतर्गुहावासी खेमे से तो उन्हें क्या मान्यता मिलती, खुद प्रगतिशील आलोचना के भीतर आए भटकाव के नेताओं ने भी उन्हें दरकिनार ही किया। इसकी झलक मित्र सम्वाद के एक पत्र से मिलती है जिसमें वह नामवर सिंह के रुख का जिक्र करते हैं । बहरहाल उन्हें हिन्दी के सबसे बड़े और ईमानदार प्रगतिशील आलोचक रामविलास शर्मा की मित्रता का सुख और उनका सहयोग सुलभ था । यही उनकी सबसे बड़ी पूँजी थी और यह कोई छोटी- मोटी पूँजी न थी । स्वार्जित समझ और प्रगतिशील लेखक संघ की बजाय प्रगतिशील साहित्य और जनतांत्रिक मूल्यों के प्रति अटूट आस्था के कारण ही वह प्रलेस की स्वर्ण जयंती के अवसर पर लखनऊ में होने वाले समारोह में सरकारी मदद की आलोचना करते हैं । वामपंथी आंदोलन के एक खेमे द्वारा आपातकाल का समर्थन करने के बावजूद वह अपना विरोध व्यक्त करते हैं । अपने खुलेपन के कारण ही वह वाम की तीसरी धारा के कवि सौमित्र मोहन की कविता ‘लुकमान अली’ की भूरि-भूरि प्रशंसा करते हैं जो ‘समय समय पर’ में संकलित है । इसी संग्रह की भूमिका में उन्होंने अन्य प्रगतिशील कवियों से अपने आपको अलगाते हुए इस खुलेपन को रेखांकित किया है इसीलिये यह प्रशंसा कोई आशीर्वाद नहीं है, बल्कि उस कविता से उपजे प्रश्नों का स्वीकार है । वह कहते हैं, ‘युगीन और आधुनिक कथ्य को- जन मानस में व्याप्त विसंगति को- जो अब तक की लिखी छोटी-बड़ी कविताएँ न कह सकीं उसको इसने कहा और ऐसा कहा कि भरपूर इंपैक्ट पड़ा ।’ कविता की धारणा के मामले में जहाँ उनके विचार सचमुच उन्हें गहराई से देखने के लिये मजबूर करते हैं वहीं अतीत की कविता का मूल्याँकन करते हुए वह मानव इतिहास और संस्कृति की एक तरह की भोंड़ी समझ का प्रदर्शन करते हैं जब ‘युग की गंगा’ की भूमिका में कहते हैं कि ‘—कवि अथवा उसके व्यक्तित्व को अर्थनीति का अंश ही समझना चाहिये। कवि की विचारधारा और भावधारा दोनों ही अर्थनीति से निःसृत होती हैं…।’ उनके बारे में रामविलास जी का मूल्याँकन एक हद तक सही है जो एक पत्र की शक्ल में है, ‘तुम्हारा इंद्रिय बोध तगड़ा है, वैसा ही दृढ़ भावबोध भी है किंतु इनके साथ विचार और चिंतन की वह गहराई नहीं है— इसलिये कि तुम सहज कवि हो, दार्शनिक नहीं ।’ कोई कारण नहीं कि इस बेबाक टिप्पणी पर अविश्वास किया जाये । इसके आलोक में हमें केदार जी से दोनों ही तरह से सीखना होगा। उनके ईमानदार संघर्ष की मूल्यवान थाती को संजोते हुए उनकी समझ की कमजोरियों के पार जाना होगा ।