केरल फिल्म उद्योग में क्रांति / जयप्रकाश चौकसे

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केरल फिल्म उद्योग में क्रांति
प्रकाशन तिथि :22 मई 2017


केरल फिल्म उद्योग की महिला कलाकारों और तकनीशियनों ने अपना संगठन बनाया है और विरोध दर्ज किया है कि महिलाओं को पुरुषों के बराबर मेहनताना और सुविधाएं मिलनी चाहिए तथा पटकथाओं में महिलाओं की वस्तुओं की तरह प्रस्तुति रोकी जानी चाहिए। उन्होंने अपने पुरुष सह-सितारों से भी सहयोग मांगा है कि वे असमानता का विरोध करें। इतना ही नहीं पुरुष कलाकारों को निर्माताओं पर दबाव बनाना चाहिए कि वे असमानता दूर करें। फिल्म उद्योग के इतिहास में देविका रानी से लेकर दीपिका पादुकोण तक को कम मेहनताना मिलता रहा है परंतु कंगना रनौट ने जिद करके 'रंगून' में सैफ अली खान और शाहिद कपूर को दिए मेहनताने से एक रुपया अधिक लिया था।

यह भी सच है कि उसी फिल्म का व्यवसाय अधिक होता है, जिसे देखने महिला दर्शक वर्ग जाता है और बोनस यह है कि कुछ दर्शक तो महिला दर्शकों को देखने जाते हैं। इस तरह फिल्म के बाहर एक तमाशा यह भी जारी रहता है। नरगिस अभिनीत 'मदर इंडिया' ने सबसे अधिक कमाई की और 'आवारा' सबसे अधिक देशों में दिखाई गई है। यहां तक कि रूस का जो दल नार्थ पोल की ओर रवाना हुआ था, उसे भी यात्रा के एक पड़ाव पर पोर्टेबल प्रोजेक्शन भेजकर 'आवारा' दिखाई गई। 'मदर इंडिया' की कामयाबी के बाद दक्षिण भारत की एक फिल्म निर्माण कंपनी ने नरगिस को यह प्रस्ताव दिया कि उनके लिए वे एक फिल्म करें, जिसके निर्माण व्यय के बराबर धनराशि उन्हेें बतौर मेहनताना दिया जाएगा। इस प्रस्ताव को अस्वीकार किया गया।

अत: केरल की महिला कलाकारों द्वारा दर्ज विरोध नारी-पुरुष समानता के आदर्श को प्राप्त करने की दिशा में महत्वपूर्ण कदम माना जाना चाहिए। फिल्म उद्योग के विकास की सारी पहल दक्षिण भारतीय फिल्म उद्योग द्वारा की जाती रही है। 'बॉम्बे टॉकीज' महज तमाशा है। भ्रष्टाचार की लहरें भी दक्षिण के तटों को कम ही प्रभावित करती हैं और उनका मुख्यालय तो गंगा बेल्ट ही रहा है, इसलिए रजनीकांत के राजनीति में प्रवेश की संभावना आशा का संचार करती है। उन्होंने बयान दिया है कि सारी व्यवस्था ही सड़ांध ग्रसित है और वे जानते हैं कि फिल्म में एक घूंसे से सौ खलनायक मर जाते हैं परंतु व्यवस्था में आमूल परिवर्तन हिमालय पर चढ़ने से कहीं अधिक कठिन काम है। पर्वत के शिखर दिखते हैं परंतु समुद्र की गहराई तक दृष्टि नहीं जा सकती।

श्रीलाल शुक्ल की तर्ज पर कहें तो व्यवस्था आम सड़क पर मंडराती बीमार कुतिया है, जिसे सब लतियाते हैं परंतु उसका उपचार कोई नहीं करता। इसी व्यवस्था से जन्मा कोई डॉक्टर नहीं, जो इसका उपचार कर सके। मां का दूध पीता हुआ शिशु भी इसी प्रक्रिया में मां को लात मारता है। पुरुष का नाशुक्राना जन्म से ही शुरू होता है?

केरल की महिला कलाकारों ने इस पर भी आक्रोश प्रकट किया है कि महिला शरीर को सहलाता, निहारता व खा जाने को इच्छुक कैमरा भी यहीं सक्रिय रहा है। याद कीजिए 'हर नाइट्स,ड्रीम क्वीन' इत्यादि फिल्में जिन्हें पूरे भारत ने लार टपकाते हुए देखा है। नीले फीते का यह जहर भी केरल की नहरों से पूरे भारत में प्रवाहित हुआ है परंतु सच यह है कि यह सभी शहरों में छोटे पैमाने पर बनाया गया है। डेनमार्क में अश्लील फिल्में बनने पर कोई प्रतिबंध नहीं है। सैक्स फंतासी को डेनमार्क ने जमकर भुनाया है और केवल पर्यटक ही साहसी शो देखने जाते हैं। वहां के मूल निवासी जानते हैं कि यह महज एक उद्योग है और नैतिक मूल्यों का निर्णायक नहीं है। छुई-मुई नैतिकता हमने गढ़ी है, जो अन्य अपराधों को छिपाने का आवरण मात्र है।

मुंबई फिल्म उद्योग में शिखर सितारे मेहनताने के एवज में फिल्म के लाभ का तीस या चालीस प्रतिशत लेने लगे हैं। दीपिका पादुकोण और प्रियंका चोपड़ा ने भी लाभांश प्राप्त करने की चेष्टा की है। अब आर्थिक समीकरण इस तरह बनता है कि सबसे कम लाभांश निर्माता को मिलता है गोयाकि इसे हम एक वाक्य की तरह देखें तो निर्माता न कर्ता है, न ही क्रिया। वह बस अर्धविराम मात्र रह गया है। केवल कुछ निर्देशक हैं, जिन्हें सम्मान और धन मिलता है। सोद्‌देश्य मनोरंजन देने वाले राजकुमार हिरानी और मसाला मनोरंजन देने वाले रोहित शेट्‌टी से लेकर शास्त्रों से संविधान तक में महिलाओं को पूजनीय स्थान दिया गया है परंतु यथार्थ में वे मुश्किल दोयम दर्जे की नागरिक ही रह जाती हैं। अमेरिका के चुनाव में भी महिला की हार कोई सिद्धांत आधारित नहीं थी। उन्होंने एक हेकड़ीबाज अल्पबुद्धि से शासित होना पसंद किया है। संभवत: सभी देशों में हेकड़ीबाज, बंडलबाज लोगों की चल पड़ी है। आम मतदाता स्वयं को दोषमुक्त नहीं मान सकता। यह हमारे विगत के सामूहिक अपराध बोध का परिणाम माना जा सकता है।