केरल फिल्म उद्योग में नर्स व नहर गाथा / जयप्रकाश चौकसे

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केरल फिल्म उद्योग में नर्स व नहर गाथा
प्रकाशन तिथि : 18 मई 2020


जनवरी के प्रथम सप्ताह में केरल में पहला कोरोना संक्रमित मरीज मिला और मात्र पांच महीने में केरल में एक भी व्यक्ति संक्रमित नहीं है। दशकों पूर्व ही केरल में अनपढ़-अशिक्षित व्यक्ति नहीं था। दूसरी बात यह कि केरल में प्राथमिक हेल्थ सेंटर गली-गली खुल चुके थे। अरविंद केजरीवाल जिसका प्रचार कर रहे हैं, वह केरल में दशकों पूर्व स्थापित किया जा चुका है। गोवा संक्रमणमुक्त दूसरा प्रांत है। केरल में फिल्म उद्योग का विकास इतना हुआ कि एक दौर में मुंबई से अधिक संख्या में फिल्में केरल में बनीं। केरल की फिल्म ‘चेम्मीन’ को राष्ट्रीय पुरस्कार प्राप्त हुआ। अदूर गोपाल कृष्णन की एक फिल्म में प्रस्तुत किया गया कि सामंतवाद के खिलाफ सशक्त क्रांति हुई। शोषित व्यक्ति के हाथ में तलवार है और जमींदार सिर झुकाए खड़ा है। परंतु गुलामी, शोषित व्यक्ति के अवचेतन में ऐसी समाई हुई है कि वह तलवार फेंक देता है। गुलामी के आणविक विकीरण दूर तक प्रभाव उत्पन्न करते हैं। इसे साहिर लुधियानवी के माध्यम से समझना आसान होगा- ‘गुजश्ता जंग में तो घरबार ही जले, अजब नहीं इस बार भी जल जाएं, तन्हाइयां भी गुजश्ता जंग में तो पैकर (शरीर) ही जले, इस बार जल जाएं परछाइयां भी’। ज्ञातव्य है कि श्याम बेनेगल की ‘अंकुर’ और ‘निशांत’ पर अदूर गोपाल कृष्णन व अरविंदन का गहरा प्रभाव रहा है। सामंतवाद के खिलाफ उन्होंने अलख जगाई है। ‘अंकुर’ के अंतिम दृश्य में शोषित स्त्री का बच्चा एक पत्थर हवेली पर फेंकता है, जो अभी तक सामंतवादी किले पर नहीं गिरा है, क्योंकि सामंतवादी प्रवृत्तियां आज भी जीवित हैं। कोई गुरुत्वाकर्षण इस क्षेत्र में काम नहीं करता। केरल के सुपर सितारे ममूटी ने अंडमान-निकोबार की पृष्ठभूमि पर बनी एक फिल्म में विलक्षण अभिनय किया। गुलाम की आत्मा तक को जंजीर से जकड़ने का प्रयास किया गया। दर्शक जकड़न का अनुभव करता है। किसी अन्य संदर्भ में निदा फाजली लिखते हैं- ‘चारों ओर चट्‌टाने हाहिल, बीच में काली रात, रात के मुंह में सूरज, सूरज में कैदी सब हारा, जीवन शोर भरा सन्नाटा, जंजीरों की लंबाई तक है तेरा सारा सैर सपाटा, नंगे पैर अकीदे सारे, पग-पग लगे कांटा’।

एक ओर केरल में सामाजिक सोद्देश्यता की फिल्में बनीं तो दूसरी ओर ‘नीले फीते का जहर’ भी बना जिसे सॉफ्ट पोर्न या अश्लील फिल्म भी कहते हैं। एक फिल्म का नाम था ‘हट नाइट्स’। स्वीडन इस तरह की फिल्मों की राजधानी है, परंतु वहां के नागरिक इसे नहीं देखते। इस तरह का कोई फतवा जारी नहीं हुआ है, परंतु नागरिकता बोध उन्हें दूर रखता है। यह पर्यटक को आकर्षित करने के लिए रचा गया उद्योग है। केरल में एकल सिनेमाघरों की संख्या 500 से अधिक है और मध्य प्रदेश में मात्र 170, छत्तीसगढ़ में सौ से कम और राजस्थान में सौ के आसपास। और चर्चा है कि फिल्में इंटरनेट पर प्रदर्शित होंगी। बहुत कम लोग इंटरनेट का उपयोग करते हैं। सबसे बड़ी बात यह है कि फिल्म का आनंद सिनेमाघर में देखने से ही आता है। चार इंच की मोबाइल स्क्रीन 70 एमएम में शूट की गई सिनेमास्कोप फिल्म का पर्याय नहीं हो सकती। अरसे पहले केरल में बनी फिल्म ‘लुबना’ का कथासार यह है कि क्षणिक आवेश और आक्रोश से संचालित व्यक्ति अपनी पत्नी को तलाक देता है। उसे पश्चाताप है। दोबारा शादी के लिए यह आवश्यक है कि तलाकशुदा स्त्री अन्य पुरुष से विवाह करे और वह उसे तलाक दे। क्रोध में दिए गए तलाक का यह दंड माना जा सकता है। ‘पाखी’ में प्रकाशित खाकसार की कथा इस पर नए विचार देती है।

एक जरूरतमंद पांच हजार रुपए लेकर शादी को तैयार है। करारनामे के अनुरूप वह पत्नी का शरीर छूता भी नहीं है। सुहागरात को पत्नी कहती है कि हमबिस्तर होना शादी को मुकम्मल करता है। किराए पर लिया पति कहता है कि इस कमरे में दो व्यक्ति हैं। अत: बाहरवालों को कभी मालूम नहीं होगा कि भीतर क्या घटा। पत्नी कहती है कि खुदा तो सब जगह मौजूद है। विचारणीय यह है कि क्या वह स्त्री विवाह के मुकम्मिल होने के लिए यह कह रही है या वह उसकी अपनी इच्छा की अभिव्यक्ति है? सदियों से महिला को सिखाया जा रहा है कि वह अपने शरीर की भाषा को अनदेखा करे, उसके व्याकरण को नकारे। सिमॉन दा व्बू ने इस क्षेत्र में बहुत लिखा है। ज्ञातव्य है कि केरल की महिलाएं नर्सिंग का प्रशिक्षण लेकर दुनिया के अनेक देशों में सेवा का कार्य कर रही हैं। खाड़ी देशों में पैसे कमाकर केरल भेजती हैं। परिवारों ने इस कमाई का निवेश किया है। केरल की समृद्धि में नर्स सहयोग को अनदेखा नहीं किया जा सकता। एक दौर में केरल में प्रयोगवादी फिल्मों का निर्माण होता था। इन फिल्मों के कैसेट घर-घर भेजे जाते थे। इसी से अर्जित रकम पूंजी पर चौथाई मुनाफा भी देती थी। इस तरह सिनेमा केरल में घरेलू उद्योग बना। यह कुछ-कुछ गांधीजी के खादी आंदोलन की तरह है। नर्सिंग का काम कमोबेश अध्यात्म की तलाश भी माना जा सकता है। नर्स, अपरिचित मरीज का मल-मूत्र साफ करते निर्विकार बनी रहती है। वह अपने करुणामय स्पर्श से ताप हर लेती है। वह चलती-फिरती थर्मामीटर की तरह है।

कमल हासन और श्रीदेवी अभिनीत ‘सदमा’ में नायक केमिकल लोचे से पीड़ित स्त्री को अपने प्रेम से निरोग कर देता है। निरोग होते ही वह पिछली बातें भूल जाती है। स्टेशन पर विदा होते समय कमल हासन उसे याद दिलाने के प्रयास में ऐसा लगता है मानो सौ बिच्छुओं ने उसे डंक मारा हो। इसी तरह ‘खामोशी’ में वहीदा रहमान अभिनीत नर्स भी पागल हो जाती है।