केस / पद्मजा शर्मा

Gadya Kosh से
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घर की घंटी बार-बार बजती रही। वे उठे ही नहीं। घर में आज कोई और नहीं था। सब बाहर गए थे। मैं कढ़ी में चमचा चला रही थी। अगर बीच में दरवाजा खोलने गयी तो वह फट जाएगी। ये अजीब इंसान हैं, इतना मग्न हो के कौनसी फाइल पढ़ रहे हैं कि घंटी सुनाई ही नहीं दे रही है। पर इनको यह कहना कि देखो न दरवाजे पर कौन है, मुसीबत मोल लेना है। यह तो शहर के नामी 'वकील साहब' को बेइज्जत करना है।

घंटी तो बजे ही जा रही थी। मैंने गैस बंद की और देखा। इनका दोस्त था। ड्राइंग रूम में बिठाया। आकर मैंने कहा-'दुलीचंद भाई आए हैं।'

ये अब भी चुप थे। मैंने ज़रा ऊंची आवाज में कहा-'दुलीचंद भाई आए हैं।'

ये फाइल बंद करते हुए बोले-'मैं बहरा नहीं हूँ। सुनता है मुझे। यह बार-बार और वह भी ऊंची आवाज में कहने का क्या मतलब है?'

'अरे, घर की घंटी दस बार बजी. आपने नहीं सुनी। मैं बोली तब भी आपने कोई जवाब नहीं दिया इसलिए तेज बोली।'

ये कठोर स्वर में बोले-'मैं इस घर का मालिक हूँ, मालिक। अगर मालिक ही दरवाजे खोलने लगे तो फिर...' वे कहकर चुप हो गए.

मैंने कहा-'साफ-साफ कहो न कि तब यह नौकरानी क्या करेगी?'

ये बोले-'तुम एक औरत हो। अपनी औकात में रहो। ज़्यादा ऊंची आवाज सुनने की मेरी आदत नहीं है। यह जो तुम बात-बात पर कहा करती हो न' स्वाभिमान',' स्वाभिमान', वह तुम्हारा' मैं'बोलता है। पर मेरे घर में' मैं'के लिए कोई जगह नहीं है सिवाय मेरे' मैं' के और अपने दोस्त के पास चले गए.

मैंने फाइल देखी। एक औरत का केस लड़ रहे हैं जिसको उसका पति बात-बात पर अपमानित करता है। जिसके साथ जानवरों की तरह बर्ताव करता है। मरने मारने की धमकियाँ देता है। उसे शारीरिक और मानसिक रूप से प्रताडि़त करता है।

'अगर ऐसी सोच वाले वकील ही औरत को न्याय दिलाने वाले हैं, तब तो मिल गया न्याय' ऐसा सोचते हुए मैं रसोई में आ गई.

कढ़ी फट चुकी थी।