के की डायरी / सुधांशु गुप्त
लोग कहते हैं कि कहानियां सड़कों पर पड़ी मिल जाती हैं। लेकिन मुझे आज तक कोई कहानी सड़क पर नहीं मिली। हां, किताबें जरूर सड़कों पर मिलती हैं। दरियागंज के फुटपाथ पर मैं अक्सर किताबें खरीदने जाता हूं। वहां भी मुझे बेहद पुरानी किताबें ही पसंद आती हैं। खासकर ऐसी किताबें जिनके पन्ने पीले पड़ गये हों, जिन्हें लोग उपेक्षा की दृष्टि अनदेखा कर देते हैं। मैं देखता हूं कि लोग नयी और चमकदार किताबों को ही खरीदना पसंद करते हैं। लेकिन मुझे लगता है कि किताबों को चमकदार इसलिए रखा या बनाया जाता है, क्योंकि उनमें अच्छा कंटेंट नहीं होता। हो सकता है मेरी यह धारणा गलत हो। लेकिन बरसों फुटपाथों पर किताबें तलाशने के बाद मैंने यह धारणा बनाई है। दरियागंज के इसी फुटपाथ से मैंने रूसी साहित्य के ऐसे कथाकारों की किताबें खरीदी हैं, जिन्हें विष्व में आज भी श्रेष्ठ माना जाता है।
उस दिन भी मैं दरियागंज के फुटपाथ पर झुका हुआ अच्छी किताबों की तलाश कर रहा था। काफी कोशिशों के बाद भी मुझे मेरी पसंद की कोई किताब नहीं मिली। अचानक मेरी नजर किताबों के नीचे दबी पड़ी एक डायरी पर पड़ी। मुझे आश्चर्य हुआ। यह डायरी यहां क्या कर रही है, मन में सवाल उठा। जवाब तलाशने के लिए मैंने डायरी को नीचे से खींच कर निकाल लिया। उम्मीद के विपरीत डायरी कोई बहुत पुरानी नहीं थी। मैं डायरी के पन्ने पलटने लगा। उसके पन्ने अभी सफेद थे। यानी इस डायरी को इस फुटपाथ तक आए बहुत दिन नहीं हुए हैं। मैं पन्ने पलटने लगा। अधिकांश पन्ने खाली थे। अचानक मेरी नजर खूबसूरत लिखावट पर पड़ी। मैंने देखा डायरी पर किसी ने लिखा हुआ था। पन्ने पलटने पर मैंने पाया कि किसी ने सिलेसिलेवार डायरी लिखी हुई थी। मैंने डायरी लिखने वाले का नाम देखने की कोशिश की। मैंने पाया कि लिखने वाले ने अपना नाम नहीं लिखा है, उसकी जगह ‘के’ लिखा हुआ था। यह जानना भी मुश्किल था कि लिखने वाला लड़का है या लड़की। मेरी डायरी के प्रति रुचि बढ़ती गयी। मैंने यह भी देखा कि डायरी लिखने वाले ने तारीखों का बड़ा ध्यान रखा था। कुछ भी लिखने से पहले उसने तारीख डाली हुई थी। मैं काफी देर तक डायरी को देखता रहा। तारीखें बता रही थीं कि डायरी बहुत पुरानी नहीं है। पहली बार मेरी रुचि किसी नयी चीज को खरीदने में हुई। मैंने एक पल की भी देरी नहीं की और डायरी खरीद कर घर ले आया। घर पर आकर मैंने सबसे पहले डायरी में लिखे गये सभी पन्नों को पढ़ा। मुझे यह समझते देर नहीं लगी कि लिखने वाली कोई लड़की थी। यह भी मैं समझ गया कि लिखने वाली लड़की कानाम के से शुरू होता होगा और उसने अपनी पहचान छुपाने के लिए ही अपना पूरा नाम नहीं लिखा होगा। डायरी के पन्नों से इतना भी स्पष्ट था कि डायरी लिखने वाली लड़की की उम्र 22--23साल से ज्यादा नहीं रही होगी। हालांकि मुझे डायरी में कुछ भी ऐसा नहीं दिखाई दिया, जिससे कोई अपनी पहचान छिपाये। हो सकता है उसके घरवाले ज्यादा दकियानूस हों’ मैंने सोचा। मुझे ‘के’ द्वारा लिखी गयी डायरी में कहानी का खासा माद्दा नजर आया। मैं यहां पाठकों के लिए उसकी डायरी को ज्यों को त्यों रख रहा हूं।
17 अक्तूबर 2008
जिंदगी अजीब होती है। जब आप पूरी तरह निराश हो जाते हैं, तभी आपको कहीं से रोशनी की एक किरण दिखाई देती है। और जिंदगी फिर अपने रास्ते पर चलने लगती है। मैं लगभग दो साल से भटक रही थी। मुझे कोई ऐसा रास्ता नहीं मिल रहा था, जहां से मैं अपने करियर को उड़ान दे सकूं। ऐसे में कभी मुझे लगता कि पत्रकारिता की दुनिया छोड़कर कोई और काम शुरू कर दूं। काम के लिए कई लोगों से मिल चुकी थी, लेकिन “कहीं से कोई सदा ना आई” वाली स्थिति थी। आज मुझे एक और व्यक्ति से मिलना था। वह एक राष्ट्रीय अखबार में काम करते थे। मेरे कॉलेज के एक प्रोफेसर ने मुझे फोन करके कहा था कि मैं उनसे मिल लूं, वह मेरी मदद करेंगे। लेकिन पता नहीं क्यों मन में यही विश्वास था कि सब लोग एक जैसे ही होते हैं। मैं लगभग दो बजे उस व्यक्ति के पास पहुंची। उनका नाम था-एस.। मैं उस भव्य इमारत में जाते हुए डर रही थी। किसी तरह पूछते हुए मैं एस तक पहुंच गयी।
’मुझे एस से मिलना है’ — मैंने डरते हुए कहा।
’बैठिये’ — एस ने एकदम उपेक्षा से कहा।
मैं उनके पास रखी एक कुरसी पर बैठ गयी। मैंने इधर-उधर देखा। काफी लोग बैठे अपना-अपना काम कर रहे थे। मन में फिर एक इच्छा पैदा हुई कि काश मैं भी इसी तरह किसी अखबार के दफ्तर में बैठकर काम कर पाऊं।
’चाय पियोगे’— एस ने फिर पूछा। शायद वह अनुमान लगाने की कोशिश कर रहे थे कि मैं किसी लायक हूं भी या नहीं।
’पी सकती हूं’ — मैंने थोड़ा सहज होते हुए कहा।
एक चपरासी वहां चाय के दो कप रख गया। एस या तो सचमुच बिजी थे या बिजी दिखाने की कोशिश कर रहे थे। मैं धीरे धीरे चाय पीने लगी।
’देखो, मैं ना तो फेवर देता हूं और ना लेता हूं। इसलिए तुम भी मुझसे किसी फेवर की उम्मीद ना करना। अगर तुम गंभीरता से काम करना चाहती हो तो मैं तुम्हें एक मौका ज़रूर दूंगा।’ वह प्रवचन देने की सी मुद्रा में बोले जा रहे थे, मानो सब कुछ अपने आप से कह रहे हों। उन्होंने फिर कहा, अगर आपको कोई चीज नहीं आती तो मुझे कोई ऐतराज नहीं होगा, लेकिन यदि आप सीखने के लिए भी तैयार नहीं हैं, तो मेरे साथ काम करना मुश्किल है।
’जी मुझे सीखने में कोई ऐतराज नहीं है।’
वह कुछ देर टेबल पर रखी अपनी फाइलों को देखते रहे और मैं उन्हें देखती रही। मुझे एस में ऐसी कोई भी बात नजर नहीं आई, जिससे प्रभावित हुआ जा सकता है। फाइल में से उन्होंने अंग्रेजी का एक आर्टिकल निकाला और मेरी ओर बढ़ाते हुए कहा, ये रखो। इसे अपनी भाषा में लिखना है। अनुवाद मत करना।
’जी’ — मैंने कहा। और मैं वहां से निकल गयी।
बाहर निकलते हुए मुझे पहली बार लगा था कि मुझे गाइड करने वाला कोई सही व्यक्ति मिल गया है। आज मैं सचमुच बहुत खुश हूं।
17 नवंबर 2008
जिंदगी इतनी जल्दी पटरी पर आ जाएगी, ये मैंने नहीं सोचा था। एक माह बीत गया। अब मेरा एक अखबार में लिखना शुरू हो चुका है। इस एक महीने में मेरे कई लेख छप चुके हैं। एस मुझे लगातार सपोर्ट करते हैं, सिखाते हैं और आगे बढ़ने के लिए प्रेरित करते हैं। मुझे लगता है अब मैं जल्द ही अपने लक्षय को पा लूंगी। मेरा लक्ष्य कोई बहुत बड़ा भी नहीं है। मुझे बस एक नौकरी चाहिए। पत्रकार का पहचान पत्र। अब एस से मेरी मुलाकात ऑफिस से बाहर भी होने लगी है। हम दोनों एक-एक कप चाय पीते हैं। हम दोनों के लिए बातचीत का अर्थ केवल इतना होता है कि वह बोलते हैं और मैं सुनती हूं। लेकिन इस एक महीने में मेरे भीतर एक नये साहस का संचार हो चुका है। मैं भी अपनी बातें एस के सामने कहने लगी हूं। एक रोज हम फुटपाथ की ही एक दुकान पर चाय पी रहे थे। मैंने कहा, क्या आप मेरी कहीं नौकरी नहीं लगवा सकते।
’नहीं, मैंने तुम्हें पहले ही समझाया था कि मैं ना फेवर देता हूं ना लेता हूं।’ — उन्होंने अपना रटा-रटा वाक्य बोल दिया। फिर कुछ क्षण रुककर कहा, मेरा मकसद तुम्हें इस लायक बनाना है कि तुम्हें अपने दम पर नौकरी मिल जाए। अब वह जहां कहीं भी जगह खाली होती, मुझे फोन करके बताने लगे। मैं भी हर चीज पूछने के लिए उन्हें फोन करती। अब मुझे लगने लगा था कि जल्द ही मुझे भी नौकरी मिल जाएगी और मैं पत्रकारों की जमात में शामिल हो जाऊंगी। मेरे घरवाले, जो पहले मेरे काम को एकदम बेकार का काम समझते थे, अब उसकी अहमियत समझने लगे हैं। मुझे मेरा सपना अब एकदम सामने दिखाई पड़ने लगा है। बस मुझे हाथ बढ़ाकर उसे छूना भर है।
2 जनवरी 2009
वक्त पंख लगाकर उड़ रहा है। मैं इतनी खुश रहने लगी हूं जितनी अब तक के जीवन में कभी नहीं रही। मेरा जन्मदिन आने वाला है। मैं उसकी तैयारियों में जुटी हूं। मेरी दिली इच्छा है कि मेरे जन्मदिन पर एस भी मेरे घर आएं। लेकिन मैं उन्हें कहने की हिम्मत नहीं जुटा पा रही हूं। हालांकि अब हम दोनों के बीच एक अच्छा सा रिश्ता बन चुका है। मैं दिन में उन्हें कम से कम पचास बार फोन करती हूं। कभी कुछ पूछने के लिए और कभी कुछ बताने के लिए। उनका फोन भी अक्सर मेरे पास आने लगा है। मैं उन्हें हमेषा ‘सरजी’ कहकर ही बुलाती हूं। कभी-कभी मैं उन्हें एसएमएस भी भेज देती हूं। वह मुझे कभी एसएमएस नहीं भेजते। एक बार मैंने उन्हें लिख कर भेजा, यू आर टू गुड सरजी। बाद में उन्होंने बताया कि उन्हें यही मैसेज सबसे अच्छा लगता है। मैं अक्सर अपने आप से पूछती हूं कि क्या मैं एस से प्यार करने लगी हूं, इस सवाल का मुझे कोई जवाब नहीं मिलता। हम दोनों के बीच इस विषय पर कभी कोई बात नहीं हुई। वह मेरी बहुत केयर करते हैं, मुझे लकर बहुत पजेसिव हैं, किसी भी खराब व्यक्ति से मुझे नहीं मिलने देते। कभी-कभी वह इस तरह बिहेव करते हैं, जैसे मेरे पिता हों। वह अक्सर कहते भी हैं, मैं अक्सर अपने सपनों को तुम्हारे द्वारा पूरा होते देखना चाहता हूं। पता नहीं मैं उनके सपनों को पूरा कर भी पाऊंगी या नहीं।
8 जनवरी 2009
आज मेरा जन्मदिन है। घर में पार्टी की तैयारियां चल रही हैं। एस से मेरी सुबह से दसियों बार बात हो चुकी है। मैंने उनसे बहुत आग्रह किया था कि वह घर आएं, लेकिन उन्होंने कहा, नहीं यार, आज ऑफिस में बहुत काम है। मैं उनपर अब भी किसी बात के लिए दबाव नहीं डाल सकती। फिर वे कहते हैं, मेरे लिए काम पहली और अंतिम प्राथमिकता है। मैं अपने जन्मदिन की तैयारियों में बिजी हूं लेकिन मेरा पूरा ध्यान एस की तरफ लगा हुआ है। मेरा मन कहता है कि वह जरूर आएंगे और आकर मुझे सरप्राइज देंगे। इसी तरह घर के काम करते करते रात के आठ बज गये और केक काटने का समय आ पहुंचा। घर में इतने सारे लोग हैं, फिर भी पूरा घर खाली लग रहा है। पता नहीं क्यों मुझे लग रहा है कि इस पूरी पार्टी में एस का होना बहुत जरूरी है। आखिर मेरी सारी सफलता के पीछे वही तो हैं। वह कहा हैं, यहां मेरे घर क्यों नहीं आये। तभी मेरे फोन की घंटी बजी।
’हैलो, केक काट लिया? — एस का ही फोन है।
’नहीं सरजी, आपका इंतजार कर रही हूं।’
’लेकिन मैंने तो आने से मना कर दिया था’ — उन्होंने कहा।
’फिर भी इंतजार कर रही हूं’ — मैंने मासूमियत से जवाब दिया।
’अरे यार, तुम्हारा गिफ्ट तो मैं देना ही भूल गया’ — पहली बार उनकी आवाज में शरारत सी दिखाई पड़ रही थी।
’यानी आप आ रहे हैं’ — मैंने खुशी से चहकते हुए कहा।
’नहीं मैं नहीं आ रहा। लेकिन यहीं बैठे बैठे आपका गिफ्ट दे देता हूं’ — उन्होंने फिर कहा।
पता नहीं क्यों मेरे बदन में हल्की सी झुरझुरी पैदा हो गयी। मैंने सोचा पता नहीं सरजी आज क्या देने वाले हैं।
’तुम्हारे घर में कोई मिरर होगा। उस मिरर के सामने जाओ और मेरी तरफ से अपने फोरहैड पर एक किस कर लो। यही मेरा गिफ्ट है।’
मैंने मूर्खों की तरह अपने फोरहैड पर किस करने की कितनी ही कोशिश की। बाद में उन्होंने मेरा इस बात के लिए काफी मजाक उड़ाया। यह पहला मौका था कि एस ने मुझसे मजाक किया था। मुझे बहुत अच्छा लगा।
1 सितंबर 2009
समय अच्छा हो तो कितनी जल्दी बीत जाता है, इस बात का अहसास मुझे आज हो रहा है। मुझे अखबारों में लिखते हुए लगभग एक साल हो गया है। इस एक साल में मैंने बहुत मेहनत की है और बुहत कुछ सीखा है। एस जैसा दोस्त मुझे मिला, जो हर कदम पर मेरा साथ देता है। मेरी बेवकूफियों को माफ करता है और मेरी समझदारी को प्रोत्साहन देता है। आज मैं अपना अप्वाइंटमेंट लेने उनके साथ गयी। पहली बार हम दोनों एक गाड़ी में बैठकर गए। उन्होंने मेरे साथ चलने का कारण यह बताया कि अप्वाइंटमेंट लैटर देने के लिए मालिक ने घर क्यों बुलाया, पता नहीं उनके मन में किस तरह की शंकाएं पैदा हुईं। उन्होंने कहा, मैं तुम्हारे साथ चलूंगा। इस तरह मैंने उनके साथ जाकर अपनी जिंदगी का पहला अप्वाइंटमेंट लैटर लिया। आज मैं बेहद खुश हूं। मुझे आगे बढ़ना है और अब मेरे सामने मेरा लक्षय मौजूद है।
17 अक्तूबर 2010
मुझे नौकरी करते हुए एक साल हो चुका है। मेरा बॉस मेरे काम से बहुत खुश है। वह मुझे लगातार आगे बढ़ने के लिए प्रेरित करता है। मैं अक्सर उसके साथ घूमने भी चली जाती हूं। एस से अब मेरी बातचीत काफी कम हो गयी है। अब मैं भी उन्हें कम ही फोन करती हूं। कभी उनका फोन आता है तो मैं अपने भीतर पहले जैसा उत्साह नहीं पाती। वह अब भी मुझे समझाते हुए कहते हैं, देखो तुम किसी गलत रास्ते पर मत चली जाना। इनसान एक बार गलत रास्ते पर चलने लगे तो वापसी मुश्किल हो जाती है।
पता नहीं क्यों अब मुझे इन सारी नैतिकताओं के कोई अर्थ दिखाई नहीं पड़ते। कई बार मुझे लगता है कि एस सिर्फ कागजी बातें करते हैं, ऐसी बातें जिनका जीवन से कोई लेना देना नहीं है। इधर मेरे नये बॉस मुझे बहुत पसंद करने लगे हैं। एक दिन उन्होंने मुझे कह दिया, मुझे लगता है मैं तुमसे प्यार करने लगा हूं। मैंने उस वक्त तो कोई जवाब नहीं दिया। अब सोचती हूं तो मुझे लगता है कि इसमें गलत क्या है। मेरे बॉस का नाम है.....उनका नाम है...एम।
30 अक्तूबर 2010
मैं एम के बहुत करीब होती जा रही हूं। एस से मेरी बातचीत बहुत कम होती हैं। पता नहीं क्यों लेकिन एस और मेरे बीच की दूरियों को एम पाट रहा है। एम मेरा बहुत अच्छा दोस्त और मार्गदर्शक बन गया है। मैं अक्सर उसके घर जाने लगी हूं। हम दोनों एक साथ फिल्में भी देखने लगे हैं। मुझे लगता है कि एम के साथ करियर से जुड़े मेरे सारे सपने पूरे हो सकते हैं। मैं अब खुले आकाश में उड़ना चाहती हूं।
के की डायरी यहीं तक है। पता नहीं क्यों मुझे लगता है कि यह किसी मंजिल तक नहीं पहुंची है। हो सकता है के की कहानी सचमुच किसी मंजिल तक ना पहुंची हो। लेकिन पाठकों को तो किसी ना किसी मंजिल तक पहुंचाना ही है। इसलिए मैं थोड़ी सी गुस्ताखी कर रहा हूं। इस डायरी का एक पन्ना मैं के की तरफ से लिख रहा हूं। पाठक इसके लिए मुझे क्षमा करेंगे।
3 नवंबर 2010
मुझे एक बड़े अखबार में अच्छे पद पर नौकरी मिल गयी है। अब मेरे पास एम के फोन आते हैं, लेकिन मुझे उनसे बातचीत करना अच्छा नहीं लगता। जाहिर है ये फैसला मुझे करना है कि किसके साथ कब तक रहना है और कब किससे अलग होना है। अब कुछ समय मैं आजाद रहना चाहती हूं। मुझे मालूम है कि जल्द ही मुझे कोई ना कोई नया दोस्त मिल ही जाएगा। उसका नाम कुछ भी हो सकता है — एल, एम, एन या एस।