के पी शर्मा / पद्मजा शर्मा
के.पी. शर्मा सरकारी महकमें में इंजीनियर है। रिश्वत खाने में अव्वल, छोटे से छोटा काम भी बिना लिए नहीं करता है। अपनी खाऊ मित्र मण्डली में वह सब का आदर्श है। क्योंकि उसने कुछ ही सालों में बेहिसाब प्रोपर्टी बना ली है। सब मित्र उसके आस-पास यूँ मण्डराते हैं जैसे गुड़ पर मक्खियाँ। खिलाने-पिलाने का भी कम शौकीन नही। के.पी. शर्मा यारों का यार है। दफ्तर में भी नीचे से लेकर ऊपर तक सब को सब तरह से खुश रखता है।
आज चूंकि उसका प्रमोशन हुआ है। घर में खास मित्रो का जमावड़ा है। सब हंस-बोल रहे हैं। ठहाके लग रहे हैं, पर के.पी. की माँ सहमी-सी घर में यहाँ-वहाँ ऊपर-नीचे हो रही है। वह के.पी. से कई बार पूछ चुकी है कि 'बेटा, तेरे साथ तेरे ही विभाग में महेन्द्र है। उसके पास आज तक वही पुराना स्कूटर है और तू तीसरी कार खरीदने की बात कर रहा है।'
बेटा माँ को हर बार चुप करवा देता है, यह कहकर कि 'तुम्हें आम खाने से मतलब है कि गुठलियाँ गिनने से?'
माँ ने भी दुनियादारी देखी है। वह भी समझ रही है कि बेटा कैसे आगे बढ़ रहा है। कैसे ऊंचा चढ़ रहा है। सोच-सोच कर माँ, बेटे की ऊँचाई से डर रही है और चाहकर भी कर कुछ नहीं पा रही है।
इधर मण्डली में एक दोस्त ने कहा, 'यार के. पी. तुम साले ब्राह्मण खाने में सदा से ही उस्ताद रहे हो।'
दूसरे ने कहा 'पहले जजमानों को तरह-तरह के भय दिखाकर उनके यहाँ तर माल उड़ाया करते थे और बिना मेहनत के अपना वजन बढ़ाया करते थे।'
तीसरे ने कहा 'पर अब, ये रिश्वत खाते हैं।'
यह सुनकर, पास से गुजरती हुई माँ ने कहा, 'इसलिए, अब इनका वजन घट रहा है।'
माँ का यह दर्द और व्यंग रात के अंधकार से संभाले नहीं संभला। वातावरण में फैल गया। के.पी. सहित सारे दोस्तों को जैसे सांप सूंघ गया। रंग में भंग पड़ गया। अब वहाँ न हंसी-ठहाके थे। न ही आवाजें थीं। सब कुछ अंधकार के जबड़े में था।