के बोल कान्ह गोआला रे ! / चन्द्र किशोर जायसवाल

Gadya Kosh से
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गाँव में जब कभी आते हैं गवैयाजी, उनके आने की खबर बभनटोली के घरों में कानोंकान पहुँच जाती है। साल में बहुत बार आना होता भी तो नहीं उनका, किसी एक गाँव में दो-तीन बार से अधिक नहीं। गँवई की बात छोड़ें, तब भी इलाके में ढेर सारे बड़े गाँव हैं जहाँ उनका जाना होता है। गीतों के रसिया किस गाँव में नहीं हैं! और विद्यापति के गीतों को सुनने के लिए तो बभनटोली की ललनाएँ मार करती हैं। इन ललनाओं के कण्ठ में ढेर सारे पर्व-त्योहारों के गीत हैं जिन्हें वे गाती रहती हैं, पर विद्यापति के शृंगारिक गीत उन्हें गवैयाजी के कण्ठ से ही सुनना अधिक भाता है। हमेशा ऐसा नहीं होता कि उनका दौरा अपने कार्यक्रम के अनुसार ही होता है, कभी-कभी उन्हें किसी गृहस्थ के आमन्त्राण पर भी कहीं जाना पड़ सकता है। ऐसा तब होता है जब किसी विशिष्ट अतिथि या जामाता आदि के स्वागत के समय इन्हें गीत गाने के लिए बुलाया जाता है। तब गवैयाजी अतिथि की अभ्यर्थना करते हुए उन्हें शिव या कृष्ण जैसे किसी देवता के रूप में प्रतिष्ठित करते हैं। अतिथि कितना भी अनाम या गुणहीन क्यों न हो, गाया जाता है,

स्रवन सुनिअ तुअ नाम रे।

जगत विदित सब ठाम रे।

लिखि न सकथि तुअ गून रे।

कहि न सकथि तुअ पून रे।

अतिथि कितना भी असुन्दर क्यों न हो, गवैयाजी उन्हें चमचमाकर चाँद बना ही देते हैं

बदन बिलोकिअ तोर हे।

ससि जनि निरखु चकोर हे।

गवैयाजी अभी दरवाजे पर अतिथि महोदय को चमचमा ही रहे होते हैं कि आँगन में टोले की औरतों का जुटाव होने लगता है। वे धीरज बाँधे रहती हैं पाहुन के अच्छी तरह चमचमा जाने तक।

जब किसी अतिथि या जामाता को चमचमाने के लिए गवैयाजी का बुलावा नहीं होता और वे अपने कार्यक्रम के अनुसार पधारे होते हैं, तब भी गाँव में उनके प्रवेश की खबर नाच क्यों न गयी हो और जिस दरवाजे की ओर गवैयाजी बढ़ रहे हों उसके आँगन में औरतों का जुटाव क्यों न हो गया हो, ऐसा नहीं होता कि गवैयाजी दरवाजे पर आकर धड़धड़ाते हुए आँगन में घुस जायें बेसब्र हो रही ललनाओं को गीत सुनाने।

उन्हें दरवाजे पर रुकना-ठहरना होता है, हाल-चाल पूछना-बताना होता है, और वहाँ बैठे मरदों को गीत सुनाने पड़ते हैं। मगर अक्सर ये यहाँ से छुट्टी पा लेते हैं दो-चार नचारी गाकर,

एलौं सब मिलि शिब दरबार

सुन लिय शिब मोर करुण पुकार

आनक बेरि छी अधम उधार

हमरहि बेरि किए एहन बिचार

अहींक हाथ सब गति सरकार

बिसरिय जनु शिब करिय उधार

नचारी गा लेने के बाद और कुछ गाने-सुनाने का अवसर कहाँ मिलता है गवैयाजी को ! नचारी गाते-गाते तो आँगन से बुलावा पर बुलावा आने लगता है। बच्चियाँ दौड़-दौड़कर अन्दर से आने लगती हैं, ‘‘गवैयाजी ! चलिए अब आँगन में। सब यहीं सुना दीजिएगा?’’ दरवाजे पर गीत सुन रहे मरदों में से ही कोई एक बोल बैठता है, ‘‘जाइए, गवैयाजी, अब आँगन में ही जाकर सुनाइए गीत। औरतों का दम निकला जा रहा है; घर का काम-धाम छोड़कर गीत सुनने के लिए हाय हाय कर रही हैं।’’

औरतों की भीड़ में रसीले और शृंगारिक गीतों को सुनने के लिए सिर्फ गाँव की गदराई गुलाबी धनिया ही नहीं होतीं, वे कुँवारियाँ भी आती हैं जो अभी-अभी जवान हुई हैं —

शैशव छल नव जउवन भेल

श्रवणक पथ दुहूँ लोचन लेल।

वचनक चातुरि लहु-लहु हास

धरणिए चान्द करइ परकास।

कभी बचपन था, अब तो नवयौवना हो गई। दोनों आँखें कान तक फैल गईं। वचन की चतुर हो गई है। मुखड़े पर विराजता है मन्द-मन्द हास्य। धरती को चन्द्रमा ने प्रकाशित कर दिया है।

मुकुर लेइ अब करइ सिंगार

सखि ठामे पूछइ सुरत-विहार।

किसी का क्या दोष कि अब वह आईना लेकर शृंगार करती है और सखियों से करती हैइश्शकाम-क्रीड़ा की बात? मगर कैसे नहीं करे! यौवन ने शैशव को खदेड़ भगाया है —

जौवन सैसब खेदए लागल छाड़ि देह मोर ठाम।

एत दिन रस तोहे बिरसल

अबहु नहि विराम।

नहीं रुका जाता है उससे। उसके यौवन ने उसके बचपन को कह दिया है, ‘‘अब मेरी जगह छोड़ो। अब तक रस को विरस करती रही; अब तो विश्राम करो।’’ शैशव भागता है, यौवन पास आ जाता है। नवयौवना चली आती है रसीले गीतों को सुनने।

बालाजोबन का क्या दोष? भनइ विद्यापति कि इस बाला को कामदेव ने पंचवाण मार दिया है।

नवयौवना ही नहीं, गतयौवना भी चली आती हैं गीतों को सुनने। दुख कितना भारी !

आहा बएस कतए चलि गेल

बड़ उपताप देखि मोहि भेल।

थोथल थैया थन दुइ भेल

गरुअ नितम्ब सेहओ दुर गेल।

जौवन सेष सुखाएल अंग

पछेहेलि लुएल उमत अनंग।

कहाँ चली गयी युवावस्था? बड़ा दुख हो रहा है मुझे यह देखकर। दोनों स्तन जर्जर हो गये; गुरु नितम्ब भी दूर चला गया। यौवन शेष हुआ, अंग सूख गये। मगर उन्मैा अनंग अभी भी पीछे-पीछे चल रहा है।

किसका क्या दोष? विद्याापति ने तो नहीं लगा दिया है उनके पीछे कामदेव को!

कितनी ही बार चिलबिली नवयौवनाओं ने टोक दिया है चाची-फूफी को, ‘‘तूँ कहाँ चली, चाची? तूँ भी सुनने जायेगी गीत?’’

‘‘मैं क्यों नहीं जाऊँ?’’

‘‘वहाँ भगवान के भजन नहीं गाएँगे गवैयाजी।’’

‘‘मैं कोई गीत-भजन सुनने थोड़े जा रही हूँ,’’ चाची झूठ बोल जाती है,

‘‘मीठागला है गवैयाजी का; मैं तो उनके कण्ठ का मीठा स्वर सुनने जा रही हूँ।’’

गवैयाजी किसे सुनाने बैठ गए अपने गीत? विरहिणियों के लिए ये गीत तो और भी विरह-विरस होंगे —

जकरा भरे घर युवती रे

से कैसे जाए विदेस।

जिसके भरोसे घर में युवती है, वह कैसे विदेस जाए?

सिर्फ जाने की बात ही तो नहीं है, गवैयाजी तो विद्यापति से भी एक कदम आगे बढ़कर गाते हैं —

भार यौवन के जेकरा सहल नहीं जाय।

तेकर पिया परदेश कोना बसलै गे दाय।

इन गीतों को सुनाने गवैयाजी परदेश में बसे पियाजी के पास क्यों नहीं जाते? अब तो कागा संदेश नहीं ले जाता; गवैयाजी ही संवदिया क्यों नहीं बन जाते?

नहीं जाते गवैयाजी किसी परदेश में। जाते और ये गीत सुनाते, तब भी क्या पियाजी बिसराये रह जाते? इसी महिचन्दा में एक बार एक दुलहिन हँसते-हँसते पूछ बैठी थी गवैयाजी से, ‘‘गवैयाजी! आप कभी पूर्णिया नहीं जाते?’’

‘‘नहीं, दुलहिन,’’ गवैयाजी ने मुसकुराकर कहा, ‘‘मुझे कोर्ट-कचहरी का कोई काम नहीं रहता।’’

‘‘कोर्ट-कचहरी के काम से नहीं, गवैयाजी; गीत सुनाने जाते हैं या नहीं?’’

‘‘इन गीतों के रसिया उधर नहीं हैं। वहाँ तो और तरह के गीत-नाद चलते हैं।’’

‘‘हैं क्यों नहीं, गवैयाजी!’’ दुलहिन ने बताया, ‘‘पूर्णिया का कोरठबाड़ी मोहल्ला तो मैथिलों का मोहल्ला है। वहाँ तो इन गीतों को सुनने वाले भरे पड़े हैं। आपका तो खूब स्वागत-सत्कार होगा वहाँ, खूब दान-दक्षिणा मिलेगा।’’

‘‘नहीं, दुलहिन,’’ गवैयाजी ने जवाब दे दिया था, ‘‘मुझे तो अपने इस इलाके से ही फुरसत नहीं मिलती; दान-दक्षिणा के लोभ में तो जहाँ-तहाँ धावा नहीं मारूँगा।’’

नहीं जाते गवैयाजी परदेशी पिया के पास, मगर विरहिणियाँ चली आती हैं उनके गीत सुनने। भाड़ में जाये कण्ठ की मिठास, उन्हें तो गीतों के बोल से मतलब है। परदेशी पिया को भेजे जाने वाले पत्र में वे चुन-चुनकर गवैयाजी के गीतों के बोल लिखेंगी। वे खुलकर लिखेंगी — भार यौवन के जेकरा सहल नहीं जाय।तेकर पिया परदेश कोना बसलै गे दाय।

इलाके के गाँव-गाँव में कीर्तन-मंडली है और हर गाँव में गवैया हैं, पर इलाके में सिर्फ गवैयाजी के नाम से अगर कोई जाने जाते हैं, तो वे हैं चानन के पूर्णानन्द झा, और वे इस इलाके के हर गाँव में जाने जाते हैं। इलाके में जहाँ कहीं भी गायन-कीर्तन का आयोजन होता है त्रिकुंज हो या नौकुंज या कोई और आयोजन इन्हें अवश्य बुलाया जाता है। इन व्यस्तताओं के बाद ही इन्हें फुरसत मिलती है गृहस्थों के घर जाकर गीत सुनाने की। मगर ये फुरसत निकालते हैं। इन्हें उन बच्चियों के लिए भी समय निकालना पड़ता है जिन्हें ये उनके घर जाकर गायन विद्या सिखाते हैं। हर किसी के लिए सप्ताह का एक दिन ही तय होता है। इसके लिए अक्सर वे सन्ध्या का समय तय करते और अक्सर रात गृहस्थ के घर गुजारकर ही आते हैं।

अब तक उनका कहीं भी अकेले ही जाना होता था, मगर अब उन्होंने एक नवयुवक गवैया को भी अपने साथ कर लिया है। जब भी कहीं पहली बार उसे साथ लेकर जाना हुआ है, वहाँ इस नवयुवक गवैया के बारे में लोगों ने पूछ लिया है और उन्हें इस गवैया का पूरा परिचय देना पड़ा है। पिछले कई महीनों से महिचन्दा आना नहीं हो पाया था गवैयाजी का। कुछ लोग तो सृष्टिदेव मिश्र से पूछने तक लगे थे, ‘‘गवैयाजी तो बहुत दिनों से नहीं आए हैं न?’’

‘‘हाँ, नहीं आए हैं,’’ जवाब मिलता था, ‘‘तीन-चार महीने तो हो ही रहे होंगे।’’

‘‘हाँ, अब बूढ़ा शरीर हुआ, नहीं सपरता होगा बहुत आना-जाना।’’

‘‘शरीर कुछ बूढ़ा हुआ होगा, मगर गला बूढ़ा नहीं हुआ है गवैयाजी का।’’

हर पूछने वाला सृष्टिदेव बाबू को यह सलाह भी देता गया कि बलेसरा को चानन भेजकर खबर की जाय गवैयाजी को आने के लिए।

सृष्टिदेव बाबू ने मन बना लिया किसी दिन नौकर बलेसरा को चानन भेजने का, मगर उससे पहले ही गवैयाजी हाजिर हो गये, इस बार अपने नये संगतिया के साथ।

गवैयाजी का सृष्टिदेव बाबू के पूरे परिवार के साथ बड़ा ही रागात्मक सम्बन्ध था। यह सम्बन्ध उस समय ही अत्यन्त प्रगाढ़ हो गया था जब वे सृष्टिदेव बाबू की बेटी सुनयना को हर शनिवार की शाम गायन विद्या सिखाने आते थे। उन्हें सोचकर आना पड़ता था कि रात महिचन्दा में ही काटनी होगी। अक्सर देर राततक भजन-कीर्तन चलता रहता था और भोजन करते-करते इतना समय हो जाता था कि उस रात में अपने चानन लौट जाना उनके लिए सम्भव नहीं होता था। सुनयना की माँ बहुत श्रद्धापूर्वक उन्हें रात में भोजन कराती थी और सुबह हलवा खिलाकर ही विदा करती थी। यह सम्बन्ध तब भी ज्यों का त्यों रहा जब काॅलेज की पढ़ाई के लिए गाँव छोड़ने के कारण सुनयना की संगीत शिक्षा में बाधा आ गयी। गवैयाजी तब भी, जब भी उनका महिचन्दा आना होता, वे सीधे सृष्टिदेव बाबू के घर का रुख करते और रात बिताकर ही चानन लौटते।

जिस समय गवैयाजी सृष्टिदेव बाबू के घर पहुँचे, वे अपने दालान में कुरसी पर बैठे हुए बलेसरा से बतिया रहे थे। गवैयाजी के आते ही वे सम्मान में उठ खड़े हुए और उन्हें प्रणाम कर कुरसी पर बैठने का इशारा किया। तब तक गवैयाजी खाली चैकी पर बैठ गये थे और अपने संगतिया को भी उस पर बैठने का इशारा किया। सृष्टिदेव बाबू ने गहरी निगाहों से अपरिचित आगन्तुक को देखा और उसे ब्राह्मण का बच्चा नहीं मानकर गवैयाजी से कहा, ‘‘आप दरवाजे पर ही चलिये, गवैयाजी। इसे यहाँ बैठने दीजिए।’’

गवैयाजी को साथ लिये सृष्टिदेव बाबू घर के बाहरी बरामदे पर आए और वहाँ चादर बिछी चैकी पर गवैयाजी को बैठाकर बलेसरा को हाँक लगा दी दालान से कुरसी ले आने के लिए।

चैकी पर बैठते ही गवैयाजी ने सुनाया, ‘‘आज रात मैं यहाँ टिक नहीं पाऊँगा, सृष्टिदेव बाबू। रात में चानन में रहना जरूरी है, इसलिए अभी ही चला आया। आज दिन में ही गीत-नाद होगा। मुझे एक जरूरी काम से रुदौली जाना है। वहाँ से लौटकर सीधे घर चला जाऊँगा।’’

सृष्टिदेव बाबू ने गवैयाजी की बात सुन ली और कुरसी पर बैठते हुए हँसकर पूछा, ‘‘अब झोला ढोने के लिए एक आदमी को साथ लेकर चलते हैं, गवैयाजी?’’

गवैयाजी ने मुसकुराकर जवाब दिया, ‘‘वह झोला ढोने वाला नहीं है; वह भी गायक है। अब कहीं जाता हूँ, तो गाने के लिए उसे भी साथ कर लेता हूँ।’’

‘‘ब्राह्मण तो नहीं है?’’

‘‘नहीं, ब्राह्मण नहीं है, मगर अच्छा गायक है।’’

‘‘मैंने उसके रूप-रंग से ही जान लिया था कि वह ब्राह्मण का बच्चा नहीं है,’’ बोलकर सृष्टिदेव बाबू ने पूछा, ‘‘क्या नाम है?’’

‘‘गणेश।’’

‘‘गणेश?’’

‘‘गणेश मंडल।’’

‘‘किस जाति का है?’’

‘‘कोइरी।’’

‘‘कुछ-कुछ गणेश भी है या बिलकुल गोबर गणेश है?’’

‘‘मैं गोबर को अपना संगतिया बना सकता था क्या?’’

‘‘किसी ब्राह्मण को संगतिया बनाना था। कोई ब्राह्मण पात्र नहीं मिला आपको?’’

‘‘कोइरी पात्र भी बुरा नहीं है,’’ गवैयाजी ने जवाब दिया, ‘‘इनका पानी चलता है। हमारे चानन में तो ब्राह्मणों के घर में प्रवेश है इनका। ये पूजा-घर तक में आते-जाते हैं।’’

‘‘आप झोला ढोने के लिए तो नहीं रख रहे हैं इसे,’’ सृष्टिदेव बाबू बोले,

‘‘आप गीत सुनाने बाबू-बबुआनों के घर जाते हैं। कोई भी इस आदमी का रंग-रूप देखकर इसकी जाति पूछ बैठेगा। आप झूठ भी नहीं बोल सकते।

आपके बताने पर लोग हँसेंगे नहीं कि कोई कोइरी गवैया हो गया है? इसके कण्ठ से विद्यापति के गीत शोभा पायेंगे?’’

‘‘इसके गीत सुनकर आप अपनी राय बदल लेंगेे, सृष्टिदेव बाबू,’’ गवैयाजी ने कहा, ‘‘ब्राह्मण पात्र मिला तो था, मगर इसके जैसा मीठा गला कहीं नहीं मिला।’’

‘‘सिर्फ गला देखा, रूप-रंग भी तो देखना था।’’

‘‘अच्छा गला मिल रहा था, इसलिए रूप-रंग नहीं देखा,’’ गवैयाजी ने बताया, ‘‘यह लड़का अमाही की कीर्तन-मंडली में था। वहीं से मैंने इसे उठाया और अपने साथ कर लिया। पूरा एक साल लगाया है मैंने इसे एक अच्छा गायक बनाने में। आप इसके कण्ठ से विद्यापति के गीत सुनेंगे, तो मान लेंगे कि रूप-रंग से न सही, गला से तो यह आधा ब्राह्मण है ही।’’

गवैयाजी की बात पर सृष्टिदेव बाबू मुसकुराए और फुसफुसाकर उनसे पूछ बैठेे, ‘‘आधा ब्राह्मण सचमुच तो नहीं है?’’

बोलकर सृष्टिदेव बाबू ठठाकर हँस पड़े और गवैयाजी भी अपनी ऐसी ही हँसी रोक नहीं पाए।

जिस दिन गवैयाजी आए, उससे दो दिन पहले ही सुनयना भागलपुर से महिचन्दा आ गई थी। जैसे ही उसे गुरुजी के आने की खबर मिली, वह अन्दर से उनके पास आई और उनके चरण-स्पर्श किए। गुरुजी को अपना हाल-चाल सुनाकर पुरानी शिष्या ने ढेरों आशीष लिए और यह जानकर कि गीत-नाद का कार्यक्रम अब थोड़ी ही देर में प्रारम्भ हो जाएगा और गुरुजी थोड़ी ही देर रुकेंगे, वह आँगन में आवश्यक व्यवस्था करने झट अन्दर चली गई।

गुरुजी ने दरवाजे पर दो-चार गीत गाए और हारमोनियम गणेश गवैया की ओर बढ़ा दिया। अपने पहले गीत के साथ ही कोइरी गवैया का जादू ब्राह्मण श्रोताओं के सिर चढ़कर बोलने लगा। अपने गीतों से समाँ बाँध दिया गणेश मंडल ने। मगर गीत-नाद का कार्यक्रम दरवाजे पर अधिक समय तक नहीं चल पाया। घण्टा भर रुककर गवैयाजी ने विदा ले ली और गणेश गवैया को कहकर गए, ‘‘अब अभी से आपका ही कार्यक्रम होगा। मैं जब तक रुदौली से वापस नहीं आ जाता हूँ, तब तक आप यहीं रहेंगे। यहाँ लोग जब तक गीत सुनना चाहें, सुनाइएगा और खा-पीकर दालान में आराम कीजिएगा।’’

अगर दरवाजे पर अपने गीत गाकर नहीं आए होते गणेश गवैया, तो उसकी सूरत देखते ही बिदक गई होतीं आँगन में ब्राह्मणियाँ; मगर, हाँ, उस सूरत को पचाते देर नहीं लगी। फिर तो यह आलम हुआ कि विद्यापति के गीतों का अपना पूरा भण्डार ही खोलना पड़ गया था गवैया गणेश को। देर तक भूखे पेट भी गाना पड़ गया था उसे। यह सब तो हुआ, मगर उस दिन एक दुर्घटना भी हो गई, और दुर्घटना ऐसी हुई कि भोजन करने के बाद दालान में चौकी पर आराम कर रहे गणेश कोइरी को सृष्टिदेव बाबू ने चीखकर सुनाया, ‘‘भागो यहाँ से, जल्दी भागो।’’

महाविद्यालय के छात्रावास के जिस कमरे में सुनयना रहती थी, उसमें उसके साथ किरण को भी जगह मिली थी। वह सुपौल की रहने वाली थी। दोनों का प्रथम परिचय छात्रावास में ही हुआ था।

महाविद्यालय में उन दोनों का यह दूसरा साल था और इस दूसरे साल में दोनों को एक कमरे में साथ-साथ रहने का मौका मिला था। सुनयना को महाविद्यालय के किसी उत्सव में तो गीत गाते नहीं सुना किरण ने, मगर छात्रावास में कमरा बन्द कर अक्सर वह गीत गाती थी और किरण को सुनाती थी। विद्यापति का नाम तो सुना था किरण ने, दो- चार गीत भी सुने होंगे, मगर विद्यापति के गीतों के जाल में वह पहली बार फँसी थी। ऐसा हुआ कि चार-पाँच महीने के अन्दर ही सुनयना से उसकी गीतों की पोथियाँ लेकर उसने अपनी एक अलग गीतों की पोथी तैयार कर ली। सुनयना ने उसे सिर्फ गीत सुनाए ही नहीं, धीरे-धीरे उसे गीत गाना भी सिखाया। सुनयना की तरह तो नहीं, मगर धीरे-धीरे किरण ने गुनगुनाना शुरू किया और फिर गाना भी।

घर पर छुट्टियाँ बिताकर जब सुनयना छात्रावास पहुँची, तो दो दिनों तक उसे कमरे में अकेली ही रहना पड़ा। किरण तीसरे दिन आई। किरण को आते ही सुनयना की झाड़ सुननी पड़ी, ‘‘कहाँ लटक गई थी? पढ़ाई- लिखाई में मन नहीं लगता है क्या? अपना दुलहा खोजने गई थी? तीन दिनों से तुम्हारा इन्तजार कर रही हूँ।’’

किरण ने मुसकुराकर जवाब दिया, ‘‘मैं पहली बार दो दिन देर से आई हूँ। इससे पहले तुम हमेशा दो-चार दिन जहाँ-तहाँ लटककर आती रही हो। तब तो तुमने नहीं बताया था कि तुम्हारा मन पढ़ाई-लिखाई में नहीं लगता है या हर छुट्टी में तुम अपना दुलहा ढूँढ़ने निकलती हो।’’

‘‘पहले बताने के लिए कुछ होता नहीं था, मगर इस बार बताने के लिए है,’’ बोलकर सुनयना ने सुनाया, ‘‘मैं दो दिनों से बेचैन हूँ तुमसे अपनी बात कहने के लिए। किसी और से बतिया भी तो नहीं सकती थी।’’

‘‘कोई समस्या है क्या?’’

‘‘नहीं, मेरे लिए कोई भारी समस्या नहीं है, मगर बेचैनी है।’’

‘‘बोलो, किस बात की बेचैनी है?’’

‘‘अभी तुरत नहीं, स्थिर होकर रात में, आराम से, सोने से पहले बताऊँगी।’’

‘‘कहती हो कि बेचैनी है, और बताओगी आराम से?’’

जवाब में सुनयना मुसकुराकर रह गई।

रात में आराम से सोने से पहले सुनयना ने अपना किस्सा खोला, ‘‘मैं कह नहीं सकती कि इस बार की छुट्टियाँ मेरी खराब हो गईं या खूब अच्छी कटीं, यह जरूर कह सकती हूँ कि छुट्टियों के बीच ही मैं घर से भाग आना चाह रही थी। अचानक ही घर पर मैं बिलकुल अकेली हो गई थी और तुमसे मिलने के लिए जी तड़फड़ाने लगा था।’’

‘‘तो चली आती मेरे पास; मेरे गाँव का पता तो था ही तुम्हारे पास।’’

‘‘उस वक्त, समझ लो, मुझे घर से बाहर कहीं भी निकलने की इजाजत नहीं थी। मुझे तो डर लग रहा था कि कहीं अब पढ़ाई के लिए भागलपुर आने से भी मुझे रोक नहीं दिया जाए।’’

‘‘ऐसा क्या हुआ था?’’

‘‘हुआ था विद्यापति के गीतों का उत्पात।’’

‘‘गीतों का उत्पात?’’

‘‘हाँ, किरण,’’ सुनयना ने सुनाया, ‘‘गुरुजी के कण्ठ से तो मैंने कितनी ही बार कितने ही गीत विद्यापति के सुने होंगे, मगर कभी ऐसा नहीं हुआ था। इस बार गुरुजी अपने साथ एक नया गवैया लेकर आए थे जिसके गीतों ने उत्पात खड़ा किया।’’

‘‘क्या उत्पात किया?’’

‘‘मैंने उसे चूम लिया।’’

‘‘चूम लिया?’’

‘‘हाँ।’’

कुछ रुककर पूछा किरण ने, ‘‘सबके सामने?’’

‘‘नहीं, अकेले में।’’

फिर कुछ रुककर पूछा किरण ने, ‘‘बहुत खूबसूरत था?’’

‘‘नहीं, था तो बदसूरत, बिलकुल बदसूरत।’’

‘‘जवान था?’’

‘‘था तो जवान, मगर मुझ पर उसकी जवानी का कोई असर नहीं हुआ था।’’

‘‘फिर क्यों चूमा रे? चूमने के पहले कुछ सोचा नहीं?’’

‘‘कुछ सोचकर नहीं चूमा; अचानक चूम बैठी।’’

‘‘अचानक कैसे?’’

सुनयना ने बताया, ‘‘गुरुजी आए तो थे, मगर उस दिन वे दरवाजे पर ही दो-चार गीत सुनाकर किसी से मिलने पास के एक गाँव चले गए और हमारे आँगन में गीत सुनाने का भार अपने नए गवैया को दे दिया। आँगन में इस नए गवैया के गीत सुनकर मन्त्रमुग्ध तो हो गई थी मैं, मगर बेकाबू नहीं हुई थी।’’

‘‘कब हुई बेकाबू?’’ बोलकर किरण मुसकुराई।

‘‘जब गीत-नाद का कार्यक्रम समाप्त हो गया, तब मैंने ही उस गवैया को भोजन कराया था। भोजन के बाद उसे गुरुजी के आने का इन्तजार करना था। वह दालान में चला गया आराम करने।

‘‘भोजन करने के बाद पिताजी कहीं बाहर निकल गए थे और माँ अपने कमरे में आराम कर रही थी। मेरे मन में क्या हुआ कि मैं दालान की ओर निकल गई।’’

‘‘अभिसार पर?’’

‘‘दुर ! अभिसार पर नहीं,’’ सुनयना हँसकर बोली, ‘‘यों ही उसे एक नजर देख आने। अभिसार पर तो मैं तब निकल गई थी, जब आँगन में उसने सुनाना शुरू किया था —

जलद बरिस जलधार

सर जओं पलए प्रहार

काजरे रांगलि राति

बाहर होइतें साति

उसके कण्ठ से यह गीत सुनते हुए मुझे सचमुच लगने लगा था कि अँधेरी रात है, भीषण वर्षा हो रही है, विषधर विचर रहे हैं, चारों ओर कीचड़ है और विद्युत् के प्रकाश में ही कदम बढ़ाये जा सकते हैं। बाहर निकलते भी भय होता है, मगर मैं अभिसार पथ पर बढ़ी जा रही हूँ।’’

‘‘विद्यापति तुम्हें लिए जा रहे थे?’’

‘‘नहीं, विद्यापति नहीं,’’ सुनयना मुसकुराकर बोली, ‘‘इस गीत को मैं पहले भी कई बार सुन चुकी थी। वह गायक मुझे लिए जा रहा था। गीत के भावों को ऐसा जागृत किया उसने और गीत में ऐसी लहरें पैदा कर दीं कि उन लहरों पर बैठकर मैं बहती चली गई। अब मैं यह महसूस करती हूँ कि कृष्ण की बाँसुरी सुन क्यों गोपियाँ सुध-बुध खोकर दौड़ी चली आती थीं। कृष्ण क्या तब तक भगवान बन गए होंगे! सारा जादू वंशीधर की वंशी का रहा होगा।’’

‘‘जब अभिसार पर नहीं निकली थी तुम, तब जाकर उस गायक को चूम कैसे लिया?’’

सुनयना खुलकर हँसी और फिर आगे सुनाया, ‘‘मैंने दालान में चौकी पर उसे सोया देखा और मेरे कदम उसकी ओर बढ़ गए। मैं बहुत धीमे कदमों से उसके पास आई थी। उसके पास पहुँचकर खड़ी हो गई मैं ।

"वह गहरी नींद में सोया हुआ था। मैं देर तक उसका चेहरा निहारती रही।’’

‘‘फिर?’’

‘‘फिर मेरी निगाहें उसके होंठों पर जम गयीं; उन निगाहों को सिर्फ उसके होंठ नजर आने लगे।’’

‘‘फिर?’’

‘‘फिर उसके होंठों से निकले गीतों की स्वर-लहरियों ने मुझे घेरना शुरू किया। मैं सुध-बुध खोने लगी, और फिर मुझमें ऐसा आवेग आया कि मैं उसके ऊपर झुकी और उसके होंठों को कसकर चूम लिया।’’

‘‘उसने आँखें खोल दी होंगी?’’

‘‘हाँ।’’

‘‘तब तो उसने उठकर तुम्हें अपनी बाँहों में भर लिया होगा?’’

‘‘बाँहों में?’’

‘‘हाँ।’’

‘‘नहीं, ऐसा नहीं हुआ।’’

‘‘तो बेचैनी इसी बात की हो रही है,’’ किरण मुसकुराई, ‘‘कि उसने उठकर तुम्हें बाँहों में भर क्यों नहीं लिया?’’

‘‘इस बात की बेचैनी?’’

‘‘हाँ, तुम्हें पता न हो, मगर तुम्हारे अन्दर बेचैनी इसी बात की है। गायक ने वह नहीं किया जो उसे करना था। यह तो सीधे-सीधे सुन्दरी का अपमान हुआ, सुनयना। तुम अपने अन्दर अपमान झेल रही हो।’’

‘‘गायक ने अपमान नहीं किया है, किरण। मैंने उसे समय कहाँ दिया उठकर बाँहों में भर लेने का! मैं तो उसके पहले ही वहाँ से भाग गई।’’

‘‘भाग गई !’’ किरण फटकार के लहजे में बोली, ‘‘भाग क्यों गई, री पगली? विद्यापति को ही भूल गई?

दुइ मन मेलि कमने बेकताओब दारुन प्रथम निवेदन रे।

प्यार में प्रथम निवेदन कितना कठिन होता है, यह जानकर भी भाग गई? जब मन की प्रीति को प्रकट कर दिया, तब क्यों भाग गई री, पगली? होंठों से हटकर उसके चेहरे पर निगाह चली गई होगी तुम्हारी और तुम्हारे हृदय में अचानक काँटा चुभा होगा कि हाय, यह क्या हो गया ! चन्दन के भ्रम में सेमल का आलिंगन कर लिया !

चन्दन भरमे सिमर आलिंगल

सालि रहल हिय काँटे।

"हुआ है न ऐसा ही?’’

‘‘नहीं री, यह भ्रम कैसे होता! सूरत तो उसकी पहले से देखी हुई थी।’’

‘‘तो फिर यह खयाल आ गया होगा,

सुरतरु तर सुखे जनम गमाओल

धुथुरा तर निरबाहे।

सोचा होगा, सुरतरु के नीचे सुख से जन्म बिताया, अब धथूरे के नीचे निर्वाह करूँ?’’

‘‘दुर, बुद्धू! यह क्या जानती नहीं थी मैं कि जो गवैया गाँव-गाँव गीत सुनाने जाता है, वह कुबेर की औलाद नहीं है?’’

‘‘तो फिर कठिन निवेदन के बाद भागी क्यों? बुद्धू तू कि मैं?’’

‘‘अभी भी बुद्धू तू। नहीं भागती, मगर गवैया ने आँख खोली नहीं कि मुझे बिजली का झटका लगा।’’

‘‘बिजली का झटका?’’

‘‘हाँ, उधर गवैया की आँखें खुलीं और इधर कानों में चीख पड़ी, ‘दीदी!’’’

‘‘दीदी!’’ किरण मुसकुराई, ‘‘यह दीदी कहाँ से आ गई?"

‘‘किधर से तो टपक पड़ी मेरी छोटी बहन सुकेशी। उसने मुझे गवैया के चेहरे पर झुकते देखा होगा, दम साधकर खड़ी रही होगी, और ज्यों ही मैंने गवैया के होंठों को चूमा, वह चीख पड़ी।’’

‘‘वह टपक सकती है, यह अनुमान नहीं लगाया था तुमने?’’

‘‘नहीं, बिलकुल नहीं। बताया तो तुम्हें कि बाबूजी घर के बाहर थे, माँ अपने कमरे में आराम कर रही थी। मुझे खयाल ही नहीं रहा इस बिल्ली बहन का।’’

किरण खिलखिलाकर हँस पड़ी,

‘‘कुहु भरमे पथ पद आरोपल

आए तुलाएल पंचदशी।

अमावास्या के धोखे मार्ग पर पैर रखा; पूर्णिमा आकर उपस्थित हो गयी।’’

‘‘हाँ, बिलकुल ऐसा ही हुआ।’’

‘‘कैसी बहन है तुम्हारी? हँसती-मुसकुराती तो क्या, चीख पड़ी! तब भी तुम्हें भागना नहीं था। तुम उलटकर सुकेशी को चुप रहने का इशारा करती, फिर उसके पास आकर उसे बहला-फुसलाकर अपने विश्वास में ले लेती और उससे यह कहकर कि अब आगे वह नहीं चीखे, तुम गवैया के पास लौट आती।’’

‘‘चीखकर क्या वह रुकी रही मेरी मिन्नत-मनौअल के लिए? चीखकर सरपट घर की ओर भागी। मैं समझ गई, वह सीधे माँ के पास जाएगी घटना का बयान करने। तब मुझे भी उसके पीछे भागना था या नहीं माँ से कुछ झूठ-सच बोलकर अपना बचाव करने के लिए?’’

‘‘सुकेशी ने माँ से क्या कहा?’’

सुनयना के चेहरे पर मुसकुराहट उतर आई, ‘‘मेरे कानों में उसकी आवाज आई, ‘गे माँ ! दीदी तो नया गवैया का चुम्मा ले रही थी।’ तब तक तो मैं वहाँ पहुँच ही गई थी। मैंने वहाँ पहुँचकर सुकेशी को भगाया और माँ से कहा, ‘‘कोई बात नहीं है, माँ, कोई बात नहीं है।’’

‘‘माँ मान गई?’’

‘‘नहीं,’’ सुनयना बोली, ‘‘माँ मुझे कड़ी नजरों से घूर रही थी और बोली, ‘यह बात है कि तुमने गवैया का चुम्मा लिया?’

मैं क्षण भर के लिए तो मूक रह गई और फिर कहा, ‘ऐसा क्यों हो गया, माँ, यह सुन लो।’ माँ का रुख कड़ा ही रहा और वह बोली, ‘सुनाओ।’’

बोलकर चुप हो गयी सुनयना, तो किरण ने टोका, ‘‘क्या कहा तुमने?’’

‘‘मैंने कहा, ‘माँ, इस गवैया के गीत तुम्हें भी बहुत मीठे लगे होंगे। इस मिठास से मेरा मन भरा हुआ था। उसे देखते ही क्या हुआ मुझे कि मैंने उसके होंठों को चूम लिया जिनसे वे गीत फूटे थे। उस गवैया को नहीं चूमा मैंने, उसके होंठों को चूमा। यह अचानक हो गया, माँ। कुछ पहले से सोचकर ऐसा नहीं किया मैंने।’ सच कह दिया मैंने माँ से। और क्या कहती? सुकेशी तो सब देखकर गई थी।’’

‘‘माँ ने तुम्हारे सच को सच मान लिया?’’

‘‘हो सकता है, मान लिया हो, मगर वह सवाल कर बैठी, ‘उमता गई हो? ब्याह करोगी?’’’

‘‘क्या जवाब दिया तुमने?’’

‘‘बताओ, क्या जवाब देती अब? कह देती कि हाँ, उमता गई हूँ, कर दो ब्याह , अभी, इसी गवैये के साथ? मैं चुप लगा गई। सिर झुक गया था मेरा और अब तक मेरी आँखों में आँसू भी आ गए थे।’’

‘‘माँ पसीजी?’’

‘‘नहीं!’’ कुछ चीखकर बोली सुनयना और फिर सुनाया, ‘‘माँ ने तो यही माना कि मैं उमता गई हूँ और अब मेरा ब्याह जरूरी है। उसने सुना दिया, ‘अब घर से कहीं बाहर नहीं निकलोगी तुम। तुम्हारा पढ़ना-लिखना बन्द। ब्याह के बाद दुलहा पढ़ाए, तो पढ़ना।’’’

‘‘उस गवैया का क्या हुआ? वह भागा?’’

‘‘उस समय नहीं भागा। माँ ने दालान जाकर उससे कुछ नहीं कहा।

गवैया के मन में कैसा तूफान चल रहा होगा, यह मैं क्या जानूँ, मगर उस तूफान को झेलकर भी वह रुका रहा। गुरुजी उससे कहकर गए थे रुके रहने के लिए। जब पिताजी आए, तब माँ ने उन्हें पूरा किस्सा सुना दिया और किस्सा सुनकर पिताजी ने पहला काम यह किया कि गवैये को भगा दिया।’’

‘‘किस्सा सुनकर पिताजी ने कोई दूसरा काम तो नहीं किया कि तुम्हें बेचैनी हो। उन्होंने तुम्हारी पढ़ाई बन्द नहीं की, तुम्हें भागलपुर के लिए विदा कर दिया।’’

‘‘माँ ने यह क्यों मान लिया कि मैं उमता गई हूँ और मेरा ब्याह जरूरी है? माँ ने मुझे बहुत-सी हिदायतें देकर विदा तो किया है, मगर अब वह चुप नहीं बैठेगी और मेरा ब्याह कभी भी हो सकता है। मैं अभी ब्याह करना नहीं चाहती; मेरी पढ़ाई बन्द हो जाएगी।’’

‘‘ऊँहूँ, इस बात की बेचैनी नहीं है तुम्हें,’’ किरण ने सुनाया, ‘‘शादी के लिए तुम्हारे पिताजी कोई अच्छा घर-वर ही तलाश करेंगे। यह डर नहीं है कि चन्दन के नीचे जीवन बीता और अब सेमल के नीचे दिन काटने होंगे। तुम्हारी पढ़ाई भी बन्द नहीं होगी। जो लड़कियाँ शादी के बाद भी पढ़ना चाहती हैं, उनकी पढ़ाई अब नहीं रुकती। यहाँ देख ही रही हो कि कितनी शादीशुदा लड़कियाँ पढ़ाई कर रही हैं। माँ ने कहने को कह दिया, मगर तुम्हारे पिताजी ने मान नहीं लिया कि तुम उमता गई हो। अगर ऐसा हुआ होता, तो वे तुम्हें यहाँ आने नहीं देते और तुम्हारा ब्याह झटपट किसी भी काने-लूले से कर डालने के बाद ही तुम्हें घर से बाहर निकलने देते। ऐसा तो नहीं हुआ? अगर तुम्हारी शादी होती भी है, तो तुम्हारे पिताजी ही तुम्हारी पढ़ाई बन्द नहीं होने देंगे, यह तुम भी जानती हो। तुम्हारी बेचैनी कुछ और है।’’

‘‘और क्या बेचैनी हो सकती है भला!’’ सुनयना ने कुछ अचरज प्रकट किया, ‘‘नहीं, और कोई बेचैनी नहीं है।’’

किरण मुसकुरायी, ‘‘मैं जान रही हूँ तुम्हारी बेचैनी।’’

‘‘क्या जान रही हो?’’

‘‘तुम बेचैन हो गवैया के लिए; वह तुम्हारे मन में बस गया है।’’

‘‘मन में बस गया है?’’

‘‘हाँ।’’

‘‘नहीं, ऐसा कुछ नहीं है। मैंने तो झोंक में आकर चूम लिया था उसे।’’

‘‘तुमने बताया था, सुनयना, कि तुम्हारे गाँव-जवार की ललनाओं में विद्यापति के शृंगारिक गीतों को सुनने की बड़ी ललक होती है और एक जमाने से वे सुनती आई हैं इन गीतों को, तो ऐसा कभी हुआ है कि कोई लड़की किसी सुकण्ठ गवैया के गीत सुनकर तुम्हारी ही तरह झोंक में आ गई हो?’’

‘‘ऐसा कोई किस्सा मैंने सुना नहीं है।’’

‘‘एक किस्सा मैं जानती हूँ कि मेरे इलाके के एक मेला में एक सुन्दर लड़की को देखकर एक लड़का इतना बेकाबू हुआ कि मेले की भीड़ में ही उसका आलिंगन कर बैठा और उसे चूम लिया। किसी लड़की ने कभी ऐसा किया, यह मैंने भी नहीं सुना है। उस लड़के की तरह ही तुम भी झोंक में आ गयी। इस झोंक का मतलब है कि तुम्हारे मन में उस गवैया के लिए प्रेम उपज गया।’’

‘‘उस गवैया के लिए प्रेम?’’

‘‘हाँ, प्रेम उपजा और तुमने निवेदन भी कर दिया, प्रेम का पहला निवेदन, अत्यन्त कठिन। यह प्रेम ही अब तुम्हें बेचैन कर रहा है। ’’

‘‘उसे तो पिताजी ने उसी समय भगा दिया था। जब गुरुजी आए, तो पिताजी ने उनसे भी कह दिया कि किसी कोइरी-धानुक चेले को साथ लेकर किसी ब्राह्मण के घर न आया करें। अगर प्रेम उपजा भी, तो उसके साथ चला गया। बात आई-गई हो गई।’’

‘‘बात आई है, गई नहीं है। तुम दिल टटोलकर देखो, वह प्रेम तुम्हारे अन्दर ठहर गया है। तुम्हारा पहला ब्याह तो उस गवैया के साथ हो गया। यह हुआ तुम्हारा मानस ब्याह; अब और किसी के साथ तुम्हारा दूसरा ब्याह ही होगा।’’

‘‘तुम प्रेम से ब्याह तक चली गई ! झोंक में आ गई थी मैं तो, बस; मैं उस गवैया के लिए जरा भी व्याकुल नहीं हूँ।’’

‘‘अभी तुम महसूस नहीं कर रही हो अपनी व्याकुलता, मगर जब पता चलेगा कि वह गवैया तुम्हारे लिए व्याकुल है, तब तुम्हें भी अपनी व्याकुलता का पता चल जाएगा।’’

’’उसका तो कोई अता-पता भी नहीं। और फिर, वह क्यों व्याकुल होने लगा!’’

‘‘अगर उसके आँख खुलते ही तुम भाग नहीं गई होती, तो अवश्य वह उठकर तुम्हें बाँहों में भर लिया होता। तुम्हारे भागने के बाद भी वह भागा नहीं, तुम्हारे पुनः आने का इन्तजार करता रहा। भागा तब, जब उसे भगाया गया। अगर तुम लौटकर आई रहती उसके पास, तो अवश्य वह तुम्हारा आलिंगन कर बैठता और तुम्हारे कानों में कहता, ‘चलो, हम दोनों भाग चलें।’ तुम सोचती हो कि वह ऐसा नहीं कहता?’’

‘‘उस गवैया की यह हिम्मत नहीं होती कि मुझसे ऐसा कुछ कहता, यह हिम्मत भी नहीं कि मेरा आलिंगन कर बैठता।’’

‘‘ऐसा मत कहो, सुनयना। हिम्मत तो उसमें तुमने पैदा कर ही दी। वह आलिंगन के सुख को स्वर्ग का सुख मानकर उस सुख को हाथ से फिसलने नहीं देता। अब वह छूँछा गवैया रहा कहाँ! तुमने अपना प्रेम प्रकट कर दिया उसके सामने, और वह तुम्हारा प्रेमी हो गया।’’

‘‘प्रेमी !’’ मुसकुराते हुए बुदबुदाई सुनयना और बोली, ‘‘वह प्रेम का पूरब- पच्छिम भी जानता होगा क्या! भनइ विद्यापति,’’ हँस पड़ी वह, ‘‘भेक कि जाने कुसुम-मकरन्द। उसे मेढक मानो और तब बोलो कि वह फूलों की मिठास जानेगा? ब्राह्मण के घर में प्रवेश पा गया वह, उसके लिए तो यही स्वर्ग का सुख हो गया। इसके आगे कुछ नहीं। गला अच्छा है, मगर है तो भुच्च-गँवार ही। वह कोई रसिया नहीं हो सकता।’’

‘‘एक ‘भनइ विद्यापति’ मैं भी सुनाऊँ?’’

मुसकुरायी सुनयना, ‘‘सुनाओ।

‘‘तुम मुझे कितनी ही बार सुना चुकी हो।’’

‘‘सुनाओ तो।’’

किरण ने सुनाया,

‘‘सामर सुन्दर हरि रहल आँचर धरि

फोअइतें किंकिनि माला रे।

आओर कहब कत रस उपजल जत

के बोल कान्ह गोआला रे।

तुम तो अभी तक कृष्ण को गँवार ही समझ रही हो! यह भी जान रही हो तुम कि ‘काठेओ रस दे नाना बन्ध।’ नाना प्रकार के उपायों से तो काठ भी रस देता है। जो गीत के रस को अपनी आवाज में ढाल सकता है, वह अवश्य रसिया है। तुम मानती रहो उसे भुच्च-गँवार, मगर ज्यों ही गवैया ने आँखें खोली होंगी, तुम्हें देखते ही वह रसमय हो गया होगा। तुम उसे मेढक मत मानो।’’

‘‘रसमय हो गया होगा, तब भी वह मेरे लिए मेढक ही ठहरा। अभी टर्रा रहा होगा किसी तालाब में।’’

‘‘तुम मेरी बात मानने से इनकार करोगी, मगर मैं तो कहूँगी ही कि वह तालाब भी तुमने अपने मन के अन्दर ही खुदवा लिया है और उस मेढक की टर-टर मन ही मन सुन रही हो।’’

‘‘मुझे तो नहीं, पर तुम्हें अवश्य हो गया है उस मेढक से प्रेम। सुबह तक मैं उसे भुला चुकी होऊँगी। अब सो जाओ। कल से उसकी कोई चर्चा नहीं।’’

‘‘मैं तो सो गई,’’ बिस्तर पर पसरते हुए किरण ने जवाब दिया, ‘‘तुम सोचो कि सो पाओगी या नहीं।’’

‘‘चुप !’’ सुनयना ने मुसकुराकर डाँट दिया, ‘‘सो जा।’’

यह बात भी दो-चार दिनों तक जगी रही उन दोनों में और फिर सो गई। छात्रावास में विद्यापति के गीत गाना और सुनना उन दोनों के बीच बदस्तूर जारी रहा, मगर हँसने-मुसकुराने के बीच भी न किरण ने कभी पूछा कि मेढक गवैया याद आ रहा है या नहीं और न सुनयना ने कभी बताया कि उसे छोटे गवैया याद आ रहे हैं। सिर्फ एक बार जब अगली छुट्टियाँ घर पर बिताकर सुनयना छात्रावास पहुँची थी, तो किरण ने पूछा था, ‘‘सुनयना, उस भागे हुए गवैया के बारे में कुछ सुनने को मिला था गाँव में?’’

‘‘नहीं,’’ सुनयना कुछ क्षणों तक किरण के चेहरे पर निगाह टिकाए रही और फिर जवाब दिया, ‘‘मैंने कुछ नहीं सुना।’’

‘‘तुमने किसी से पूछा भी नहीं?’’

फिर कुछ ठहरकर सुनयना ने कहा, ‘‘मुझे किसी से पूछने की हिम्मत नहीं हुई। पूछती भी किससे? सही जानकारी तो एक गुरुजी ही दे सकते थे न! उनसे मुलाकात होती, तब भी मैं उनसे पूछ सकती थी क्या?’’

‘‘सच बताना, सुनयना,’’ किरण ने कुछ गम्भीर स्वर में पूछा, ‘‘गवैया के बारे में जानने की मन में थोड़ी भी उत्सुकता कभी पैदा हुई है या नहीं?’’

‘‘इतनी उत्सुकता तो नहीं हुई कि किसी से पूछूँ।’’

‘‘नहीं पूछा, किसी डर से,’’ किरण बोली, ‘‘खयालों में वह कभी आया या नहीं?’’

‘‘यह झूठ तो नहीं बोलूँगी कि कभी खयालों में भी नहीं आया। विद्यापति के गीतों के साथ वह जुड़ गया है, किरण,’’ सुनयना ने सुनाया, ‘‘मगर यह भी सच नहीं है कि मैंने उसे अपने खयालों में बसा रखा है।’’ ‘‘एक बात मैं जानती हूँ।’’

‘‘क्या?’’

‘‘पहला प्यार मरता नहीं है।’’

‘‘बताया न कि वह प्यार नहीं था; मैं झोंक में थी।’’

‘‘उस झोंक में प्यार ही था।’’

‘‘तो होगा जिन्दा मन के किसी कोने में। मन के चारों कोनों को टटोलने नहीं जा रही मैं। मुझे अब उस प्यार से कोई लेना-देना नहीं।’’

‘‘जिस स्वर ने तुम्हें एक बार मुग्ध कर दिया था, वह दुबारा नहीं कर सकता क्या? झोंक में क्या तुम फिर कभी नहीं आ सकती?’’

‘‘वह स्वर क्या अब कभी सुनने को मिलेगा?’’

‘‘मिल सकता है,’’ किरण बोली, ‘‘तुम्हारे अन्दर का प्यार भले मर गया हो, मगर वह गवैया तो अपने पहले प्यार को कभी मरने नहीं देगा। अगर उसकी सूरत पर कोई लड़की लट्टू नहीं हुई होगी, तो उसके स्वर पर सुध-बुध खोने वाली अकेली लड़की का प्यार उसका पहला प्यार ही होगा। बदसूरत गवैया अवश्य मँडरा रहा होगा तुम्हारे आस-पास तुमसे मिलने के लिए। तुमने उसे चूमा है, सुनयना। किसी दिन अवश्य तुम्हें उसके स्वर सुनाई पड़ जाएँगे।’’

‘‘मगर अब मैं झोंक में नहीं आने वाली,’’ सुनयना हँस पड़ी, ‘‘अब यह याद रखूँगी कि सुकेशी मेरे पीछे खड़ी है चीखने के लिए।’’

कुछ रुककर किरण ने पूछा, ‘‘गुरुजी तुम्हारे गाँव में आते हैं या नहीं?’’ ‘‘एक हमारा घर ही पूरा महिचन्दा तो नहीं है,’’ सुनयना ने कुछ रूखी आवाज में जवाब दिया, ‘‘मैं जब तक गाँव में रही, उनके आने के बारे में कुछ नहीं सुना, मगर यह नहीं मानती कि उन्होंने हमारा गाँव ही छोड़ दिया होगा। अपनी इच्छा सेउन्होंने आना भले ही बन्द कर दिया हो, मगर अतिथि की अभ्यर्थना करने के लिए उन्हें दूसरे घरों से अवश्य बुलाया जाता होगा और वे अवश्य आते होंगे।’’

‘‘मैं अब कभी उस गवैया के बारे में पूछूँगी नहीं, सुनयना,’’ किरण ने कहा, ‘‘मगर जिज्ञासा बनी रहेगी उसके बारे में जानने की। अगर कभी तुम्हें कुछ सुनने को मिले, तो मुझे अवश्य बताना।’’

छात्रावास में चार साल तक वे दोनों एकसाथ रहीं। बीएकी परीक्षा के बाद की छुट्टियों में ही सुनयना को एक इंजीनियर दुलहा मिल गया, मगर शादी के बाद भी उसकी पढ़ाई जारी रही।

एमए की पढ़ाई के लिए और दो साल वे दोनों भागलपुर में रहीं, मगर अलग-अलग जगहों में। अलग रहकर भी वे कभी अलग नहीं हुईं। उनका मिलना-जुलना बराबर बना रहा। एकसाथ बैठकर विद्यापति के गीत तक गाने-सुनाने के अवसर वे निकाल लेती थीं, कभी-कभी तो काॅलेज के गल्र्स काॅमन रूम में ही। एमए करने के बाद किरण सहरसा के एक काॅलेज में व्याख्याता के पद पर बहाल हो गई।

एमए की परीक्षा के बाद जब उन दोनों को एक दूसरे से विदा लेने का समय आया, तो दोनों ही बहुत भावुक हो उठी थीं। हालाँकि यह तय था कि आगे के दिनों में भी वे एक दूसरे से मिलती रहेंगी, पर उन्हें लग रहा था कि उन दोनों के लिए ही यह अन्तिम विदाई है। विदाई के उन क्षणों में ही किरण बोली, ‘‘यहाँ से मैं एक सुनयना को ही नहीं, अपने साथ एक अनुपमा को भी लिए जा रही हूँ।’’

‘‘कौन अनुपमा?’’

‘‘तुम !’’ किरण मुसकुरा उठी, ‘‘तुम्हारी कोई उपमा नहीं।’’

‘‘कैसे?’’

‘‘जब से तुमने मुझे अपना किस्सा सुनाया है,’’ किरण ने बड़े ही शान्त स्वर में कहना शुरू किया, ‘‘तब से ही मैं एक और ऐसी लड़की को ढूँढ़ती रही हूँ जो गीत सुनकर इतनी मुग्ध हो उठी हो कि अपनी सुध-बुध खोकर गायक को चूम लिया हो। कोई एक न मिली। कितनी ही कामिनियों के मन में उपजा होगा प्रेम कलाकारों के लिए, पर कोई तुम्हारी तरह झोंक में आ गई हो, ऐसा सुनने को नहीं मिला। मैंने स्वयं कितनी ही बार आँखें मूँदकर यह कल्पना की कि मैं किसी सुकण्ठ से सुरीले-रसाले गीत सुन रही हूँ और प्रयास किया कि सम्मोहित होकर मैं भी तुम्हारी तरह झोंक में आ जाऊँ, मगर मेरा हर प्रयास निष्फल रहा। इसलिए मैंने तुम्हें अनुपमा कहा; कोई उपमा नहीं मिली तुम्हारी।’’

‘‘अब तो मुझे भी अचरज हो रहा है,’’ सुनयना बोली, ‘‘कि मैं झोंक में कैसे आ गई !’’

‘‘प्रेम जगा, तभी तो तुम झोंक में आई,’’ किरण ने आगे सुनाया, ‘‘तुम्हें एक और कारण से भी मैं अनुपमा मान रही हूँ।’’

‘‘और किस कारण से?’’

‘‘प्रेम के आवेश में तुम अपना निवेदन तक कर बैठी, और उसके बाद उस प्रेम को भुला दिया जिसका प्रथम निवेदन अत्यन्त कठिन होता है।’’

‘‘मैंने तो तुम्हें बताया ही था कि एक झोंक में वैसा हो गया। मैं उस पहली झोंक के बाद ही इतनी सयानी हो गई कि फिर कभी कोई हलकी-फुलकी झोंक भी आने से रही। मैं उसे कबका भुला चुकी हूँ।’’

‘‘इसीलिए तो तुम,’’ किरण ने सुनाया, ‘‘मेरे लिए अब सुनयना कम और अनुपमा अधिक हो गई हो।’’

उस रात वे दोनों रात भर जगी रह गयीं थीं बातें करते हुए। अगली सुबह दोनों एकसाथ निकलीं अपने-अपने घर के लिए। पूर्णिया में दोनों का साथ छूट गया; किरण सुपौल के लिए विदा हो गई और सुनयना महिचन्दा के लिए।

इस जुदाई के बाद भी उनके सम्बन्ध कभी ढीले नहीं पड़े। पहले की तरह साथ रहना तो कभी नहीं हुआ, मगर जब-तब दो-चार दिनों के लिए मिलना होता रहा। किरण की शादी में सुनयना अपने पति के साथ पहुँची थी। अगले पचीस वर्षों में और भी ऐसे कितने ही अवसर आए थे जब सुनयना किरण के पास आ गई थी और किरण का सुनयना के पास जाना हुआ था। सुनयना को जब कभी अपने मायके जाना होता, वह किरण से भी मिलने का कार्यक्रम तय कर लेती। भ्रमण के लिए जब कभी किरण को दिल्ली के आस-पास जाना होता, वह दिल्ली को छू आती और सुनयना से मिलकर आती। मुलाकातों के बीच टेलिफोन पर उनका सम्पर्क बराबर बना रहता।

इन पचीस वर्षों में एक बार भी सुनयना का प्रथम प्रेम चर्चा में नहीं आया।

एक दिन एक विचित्र खबर फूटी सुनयना के टेलिफोन पर। किरण ने खबर दी, ‘‘सुनयना! अब तुम मेरे लिए फिर से सुनयना हो गई, पूरी तरह सुनयना।’’

‘‘क्या मतलब?’’

‘‘याद करो, मैं भागलपुर से सुनयना के साथ किसे लेकर चली थी। आ रहा है कुछ याद?’’

‘‘हाँ, आ रहा है याद।’’

‘‘तो सुन लो कि अब तुम अनुपमा नहीं रही।’’

‘‘खोलकर बताओ।’’

‘‘वह तो मिलने पर ही बताऊँगी।’’

‘‘अब यह सुनने के लिए मैं तुम्हारे पास आऊँ! बताना हो तो बताओ।’’

‘‘बताऊँगी तो मिलने पर ही। तुम इधर कब आ रही हो?’’

‘‘अभी तो कोई विचार नहीं है उधर जाने का।’’

‘‘कभी तो आओगी?’’

‘‘हाँ, कभी क्यों नहीं आऊँगी ! दो-तीन महीने के बाद तो आ ही सकती हूँ।’’

‘‘ठीक है, मैं तुम्हारे आने का इन्तजार करूँगी।’’

‘‘इन्तजार करोगी, मगर अभी बताओगी नहीं?’’

‘‘नहीं, अभी नहीं बताऊँगी।’’

‘‘मत बताओ।’’

सुनयना ने बात यहीं समाप्त कर दी, मगर दूसरे ही दिन उसने किरण को फोन किया, ‘‘किरण! मैं बहुत उत्सुक हो गई हूँ सुनने के लिए। तुम कुछ तो बताओ।’’

‘‘कुछ तो बता दिया, अब बाकी मिलने पर ही बताऊँगी।’’

अगले दिन फिर फोन किया सुनयना ने, ‘‘किरण! मैं परसों तुम्हारे पास पहुँच रही हूँ, अकेली। पति महाशय से कह दिया है कि तुम्हारा फोन आया था, कि तुम मरण-शय्या पर हो और मरने के पहले एक बार मुझसे मिल लेना चाहती हो।’’

हँस पड़ी किरण और हँसी रोककर जवाब दिया, ‘‘इस बहाने ही आओ। मैं तो मरने से रही; हाँ, अनुपमा मर गई।’’

सुनयना के आने पर अनुपमा के मरने का किस्सा सुनाया किरण ने,

‘‘तुम्हारी उपमा मिल गयी, सुनयना; अचानक मिल गयी।’’

‘‘कहाँ?’’

‘‘इतिहास में।’’

‘‘किस इतिहास में?’’

‘‘फ्रांस की एक रानी ने प्रेम-गीत गानेे वाले एक कवि के होंठों को चूम लिया था। वह कवि राजमहल के बरामदे पर एक बेंच पर सोया हुआ था।’’

‘‘चोरी से चूमा था?’’

‘‘हाँ, चोरी से ही चूमा होगा। उसने भी अमावस्या में ही कदम बढ़ाए होंगे और होंठों पर होंठ रखते ही पूर्णिमा उपस्थित हो गई होगी।’’ मुसकुराकर पूछा सुनयना ने, ‘‘उसके पीछे भी कोई सुकेशी खड़ी थी?’’

‘‘इतिहास लेखक ने यह सब नहीं लिखा है कि किसने देखा और बात कैसे फूटी,’’ किरण ने बताया, ‘‘मगर रानी का स्पष्टीकरण उसने दर्ज कर दिया है अपनी पुस्तक में।’’

‘‘रानी ने बताया कि वह झोंक में आ गई थी?’’

‘‘रानी ने ऐसा कुछ नहीं कहा,’’ किरण ने सुनाया, ‘‘रानी ने खुलकर कहा कि उसने किसी इनसान को चूमना नहीं चाहा था; वह तो उन होंठों को चूम रही थी जिनसे इतने मीठे गीत फूटे थे।’’

सुनयना ने गहरी निगाहों से किरण की ओर देखा और बोली, ‘‘मैं तो ऐसा नहीं कह सकती थी, किरण।’’

‘‘रानी ने यह भी कहा कि हर रोज वह उस कवि में ऐसा कुछ नया देखती है जो उसे प्यार और प्रशंसा की राह पर धकेल देता है।’’

‘‘सच कह रही होगी रानी।’’

‘‘यह तुम्हारा सच तो नहीं है?’’

देर तक चुप रहने के बाद सुनयना ने मुँह खोला, ‘‘मैंने एक अपराध किया है, किरण।’’

‘‘कैसा अपराध?’’

‘‘अगर सुनाऊँ तो अनुपमा मरी तो मरी, तुम सुनयना को भी मार दोगी।’’

‘‘मैं मार दूँगी? तुम्हें? सुनयना को?’’

‘‘हाँ?’’

‘‘मैं तो नहीं जानती कि तुमने कभी मेरा कुछ बुरा किया है, कभी बुरा सोचा भी है। तुमने अपराध किया और मुझे पता तक नहीं! क्या अपराध किया है तुमने?’’

‘‘मैं झूठ बोल गई थी।’’

‘‘कैसा झूठ?’’

‘‘मैं कभी किसी झोंक में नहीं आई थी।’’

‘‘तब झोंक में नहीं आई थी, जब तुमने गवैया को चूमा था?’’

‘‘और यह भी झूठ बोली थी कि मैंने उसे बिलकुल भुला दिया है।’’

‘‘यह भी झूठ?’’

‘‘हाँ, किरण, उस गवैया के गीत जब-तब मेरे कानों में गूँजे हैं और जब कभी ऐसा हुआ है, मुझे लगा है कि मेरे होंठ उसके होंठों की ओर बढ़ रहे हैं।’’