कैजुअल रिलेशन / मौसमी चन्द्रा
पिछले तीन दिनों की बारिश। ठंडी हवा की थिरकन! इसीलिए ठंड कुछ ज्यादा ही है आज। खिड़की भी खोलो तो ऐसा लगे जैसे खून जम रहा!
कमरे में पड़े-पड़े कोफ्त होने लगी थी। ऐसी ठंड दो साल बाद आयी, पर ये वाली बेरहम है, हड्डियाँ हिला देने वाली!
पिछली ठंड जानलेवा जरूर थी पर औरों के लिये!
मेरे लिए नहीं! पिछली ठंड में तुम जो साथ थे!
बाहर हाड़ कंपाने वाली वे सर्द रातें...और अंदर...तुम्हारे प्रेम का जलता अलाव!
किताबों में पढ़ा था गुलाबी ठंड! पर महसूस बस तभी किया था। कोमल सर्दी की गुलाबी ठिठुरन में तुम्हारी वह गर्म छुअन! भूल सकती हूँ कभी! नहीं!
इस बार की बर्फ़ीली हवा तेज़ झोंको के साथ फिर तुम्हारी याद ले ही आयी।
तुम्हारे जाने के बाद मैंने वह ब्लैंकेट तक नहीं ओढ़ी जिसे उन सर्दियों में ओढ़ा था।
तुम्हारी वह सिकामोर वुड डियो की महक उसमें रच-बस गयी है। डर लगता है कहीं हवाएँ उनकी महक न चुरा ले।
पर आज तुम्हारी याद थोड़ी ज्यादा ही परेशान कर रही है।
कॉफ़ी लेकर बिस्तर पर आयी और जैसे ही बन्द पड़ा ब्लैंकेट खोला! यूँ लगा तुम पास ही सोये हो!
पहले की तरह! जबर्दस्ती अपनी पलकें भींचे!
और मैं तुम्हें बोल रही हूं-
"बेबी मुझे पता है तुम जगे हो, मेरी कविता न सुननी पड़े इसलिए नाटक! चुपचाप उठते हो कि नहीं?"
"ओह नेहु! यार तुम्हें कैसे पता चल जाता है मैं जगा हूँ? सारी एक्टिंग बेकार गयी! पर कह देता हूँ एक कविता से ज्यादा नहीं सुनूंगा और छोटी होनी चाहिए! एक तो तुम फूल, पत्ती, चिड़िया, मैना पता नहीं किस-किसपर कविता लिखती हो फिर मुझे सुनाती हो!"
रेयान बेचारा पक जाता!
"प्रेम पर भी लिखती हूँ" !
मुझे उसका पका चेहरा भी क्यूट ही लगता।
"उसपर लिखती क्यों है? प्रेम तो करने की चीज़ है..."
कमरे में हमदोनों की खिलखिलाहट गूंजने लगती। अभी भी यहीं-कहीं दबी होगी किसी कोने में वह हँसी।
एक थकी साँस लेकर मैं खिड़की से बाहर देखने लगी।
उदास रात...टूटा आसमान...छटपटाता चाँद!
एक कैजुअल रिलेशन में और क्या मिलना था!
मैंने आँखें बन्द करके सर तकिए से टिका दिया।
याद आ गयी चार साल पहले की वह शाम ...
कलीग की शादी एन्जॉय कर रही थी तभी!
माँ का फोन-
"कहाँ हो नेहू? शोर कैसा?"
"अन्वी की शादी है आज! होटेल में हूँ बात करती हूँ घर जाकर"।
"हाँ...हाँ तुम्हारी सारी सहेलियाँ शादी कर रही है बस तुम्हें ही शादी से ..."
पूरी बात बिना सुने फोन काटना पड़ा! कौन क्या कर रहा है उससे मुझे क्या? नहीं करनी! मतलब नहीं करनी शादी!
मूड स्विंग कर गया।
सॉफ्ट ड्रिंक्स की एक ग्लास उठाई और टैरेस पर आकर खड़ी हो गयी।
माँ तो बच्चों की हर बात को बिना कहे समझ जाती है फिर मैंने तो बता रखी है मम्मी को! शादी जैसे रिश्ते से भागने की वजह! फिर भी मम्मी समझती क्यों नहीं?
ऊँह...खटाक!
मारे झुंझलाहट के मैंने ग्लास टेरेस के किनारे रखा।
"अरे! अरे! अपना गुस्सा ग्लास पर क्यों निकालना?"
किसी ने कहा और मैं पीछे पलटी!
गोरा, लम्बा, फेस पर प्यारी स्माइल लिए एक हैंड्सम लड़का खड़ा था!
"क्या हो गया? नीचे पार्टी चल रही और आप ऊपर? आपकी फ्रेंड की शादी है न? राइट?"
उसकी पेशानी पर दो-तीन रेखाएँ उभरी।
"कलीग है!"
मैंने दूसरी तरफ देखकर जवाब दिया।
"ओहोहो...!" उसने सर हिलाया।
"वैसे आप भी ऊपर ही हैं! जबकि शादी तो नीचे चल रही है। राइट!" -मैंने उसी के अंदाज में पूछा।
वो ठठाकर हँसने लगा-
"सच बोलूं की झूठ? चलिए सच ही बोल देता हूँ... एक्चुअली मुझे शादी बहुत बकवास चीज़ लगती है। सिरे से बेकार! मुझे लगता है इतनी खूबसूरत-सी जिंदगी दी है भगवान ने तो उसे क्यों इस तरह बर्बाद करना! मज़े से जियो न बिंदास! पहले शादी, फिर बीबी-बच्चे! उनके नखरे उठाओ! ओह गॉड! मैं तो कभी न करूं बल्कि मुझे तो लगता है लड़कियों को भी नहीं करनी चाहिए। पढ़े-लिखे, जॉब करे, मनपसंद लाइफ जिये, बेकार के झंझटों में पड़कर अपनी जिंदगी हेल बना लेती है। अकेली रहेगी तो ऑप्शन भी रहेंगे बहुत से, कभी ये बॉयफ्रेंड...कभी वो! ऐसे तो एक ही पति! उसका ही थोबड़ा देखते रहो और घी चुपड़ कर रोटियाँ खिलाती रहो।"
उसने ऐसे नाक सिकोड़कर कहा मुझे हँसी आ गयी।
पहला मिला मुझे कोई, जिसकी सोच बिल्कुल मुझसे मिलती थी। मुझे हंसते देखकर उसे भी हँसी आ गयी।
बन्दा इंटेरेस्टिंग लगा। हल्की-फुल्की बातचीत हुई। नाम पता चला-रेयान!
हमारे फोन नम्बर एक्सचेंज हुए और अपने-अपने रास्ते!
एक दिन बाद कॉल आया!
आमतौर पर मैं 5 से 10 मिनिट इससे ज्यादा किसी से बात नहीं कर सकती पर उस दिन हमारी पहली कॉल तकरीबन घण्टे भर से ज्यादा की हुई।
बहुत सारी बातें हुई।
"चलो अब रखता हूँ! बाय... कहकर वह रुका और फिर कहा-" मज़ा आया तुमसे बात करके यार! कल मिलता हूँ। "
हम मिले और मिलते ही रहे। वो अब बेहिचक मेरे हाथों को पकड़ता, मेरी उंगलियों में अपनी उंगलियाँ फँसाता, कभी-कभी मुझे चूम लेता।
हमारी बात लगभग हर टॉपिक्स पर होती! बस कविता पर आकर उसके होठों पर ताला! मैं उसके चेहरे के भाव देखती और मज़े लेती।
"नेहू एक बात कहूँ! तुम्हें भी शादी से परेशानी है और मुझे भी। तो क्या... हम... लिवइन रिलेशनशिप रख सकते हैं...? आई मीन! कैजुअल रिलेशन...! मतलब...जब तक मन जमे तब तक... साथ! तुम भी अपने दिल का करो, मैं भी! कोई टोका-टाकी नहीं, कोई बंदिशें नहीं। जब मन न जमे तो ब्रेकअप! बोलो रहोगी?"
रेयान ने एक झटके में बोल दिया। मैं चौंक गई थी। रिश्ते के इस नए रूप से। ऐसा नहीं कि सुना नहीं था लिवइन के बारे में पर फिर भी...
"सोचकर बताऊँगी।"
कहकर मैंने बात टाल दी।
पर सच तो ये था मैं सीरियसली सोचने लगी थी। कैजुअल रिलेशन! कोई बंदिश भी नहीं और अकेलापन भी नहीं! बेस्ट है। ऐसे भी दिल्ली के इस सत्रहवें फ्लोर पर कौन देखने आ रहा मुझे! न किसी का आना न जाना।
"रेयान तुम शिफ्ट हो जाओ मेरे घर! मुझे मंजूर है कैजुअल रिलेशनशिप!"
-जैसे ही मैंने उसे ये कहा वह उछल पड़ा।
"बस मेरी एक शर्त है" मैंने कहा।
"मान ली! मान ली!"
उसने बिना सुने कहा।
"हहहह...अरे सुन तो लो। तुम्हें रोज मेरी एक कविता सुननी पड़ेगी! बोलो मंजूर है?"
"ओह! हद है यार। चलो मंजूर। लेकिन बस एक। उससे ज्यादा नहीं। वरना मैं ब्रेकअप कर लूंगा।" -उसने हँसकर कहा।
और आ गया रेयान मेरे पास। मेरी रिक्तता को भरने। मेरे बर्फ सरीखे सुसुप्त रिश्तों को अपने स्नेहसिक्त चिंगारियों से पिघलाने।
मेरे मन की पथरीली जमीन को रेयान ने नर्म और थोथी कर दी थी। उसे खुद पता नहीं चला कब इस बंजर जमीन में उग आया वह एक जंगली फूल की तरह!
जंगली फूल! हॉं... तुम उग आए थे, एक जंगली फूल की तरह। जो कंटीली झाड़ियों और सूखे पड़े पेड़ों में उगकर एहसास दिला जाता है... एक उम्मीद का!
एक बंजर पड़ी जमीन में खिलकर उसे खूबसूरत बना देता है।
मेरी जिंदगी भी खूबसूरत दिखने लगी थी।
बहुत दिनों के बाद ऐसा लगा जैसे किसी शांत-सी पड़ी झील में कोई कंकड़ आ गिरा हो...! और जलतरंग बजने लगा!
किसी का साथ रास्ते आसान कर देता है। ये मैंने केवल किताबों में पढ़ा। बचपन को याद करूँ तो रात के सन्नाटे में गूँजती माँ की चीखें याद आती है...उसके बदन पर उभरे नीले निशान और उनपर मरहम लगाती मैं!
छोटी-छोटी गलतियों पर माँ को एक गुनहगार की तरह आँखों में आँसू लिए कोने में खड़ा देखा! स्त्री होने की विवशता!
शायद तभी पापा के अंतिम यात्रा के समय माँ की आँखें सूखी थी।
पर विवाह जैसे बंधन से विरक्ति की कुछ वजहें बाकी थी।
दीदी के विवाहोपरांत जब उसके जीवन में भी इस पवित्र रिश्ते की धज्जियाँ उड़ते देखा तो ठान लिया। पूरी जिंदगी अकेले काटनी पड़ी तो काट लूँगी पर ऐसे दमघोंटू रिश्ते में कभी नहीं बंधना।
विवाह की अगर यहीं परिणीति है तो लानत है ईश्वर के बनाये इस रिश्ते पर!
अपना आसमान खुद बनाया। अच्छी-खासी नौकरी! खुद की मर्ज़ी की मालकिन! पर अकेलापन कभी-कभी काटता। उसपर माँ के हज़ार सवाल। आँखें मूंदने से पहले बेटी का घर बसे देखने की चाहत!
इन सवालों को झेलने की आदत पड़ चुकी थी तभी तुम आ गए रेयान! अमलतास बनकर! मेरी खूबियों के साथ-साथ मेरी खामियों को भी मुस्कुराकर अपनाने वाला।
उनदिनों वक़्त उड़ता था! खासकर शनिवार और इतवार! दोनों की छुट्टियाँ। सुबह की चाय उसके हाथों से मिलती! साथ में ऑमलेट या मैगी!
वैसे भी उसकी पाक-कला केवल मैगी, चाय, कॉफ़ी और अंडे के एक दो रेसिपी तक ही सीमित थी। तभी मेरे हाथ के बने पराठे खाकर हमेशा कहता-
"नेहू! ऐसे पराठे खिलाओगी तो शादी कर लूंगा तुमसे।"
"अच्छा! लेकिन तुम्हें तो घी चुपड़ कर रोटियाँ खिलाने वाली लड़कियाँ तो पसन्द नहीं?" मैं कहती और वह जोर से हँस देता।
हम पति पत्नी नहीं थे, पर उसके आने से किसी और कि जरूरत महसूस नहीं होती।
"नेहू यार! तेरे बाल कितने ड्राई लग रहे, आजा ऑयलिंग करता हूँ!"
कहकर बड़े प्यार से वह मेरे बालों में तेल लगाता।
वो संडे अच्छे से याद है मुझे, जब पार्लर के बाहर ड्राप करते हुए रेयान ने मेरे बालों की एक लट उठाकर चूमते हुए कहा था—
"मिस यू डियर"
"बालों से बातें?" मैं हंसने लगी
"क्यों न करूं? इतने दिनों से कितनी सेवा करी मैंने इनकी। आज शहीद हो जायेगे बेचारे!"
"मैंम हेयर कट?"
पार्लर में जैसे ही हेयर स्टाइलिस्ट ने पूछा।
"नो! ओनली फेसिअल, ब्लीच!"
अचानक मेरे मुंह से निकल गया। जाने क्यूँ उस दिन से बाल बढ़ाने का शौक चढ़ गया था।
रेयान भी अब मेरे कहने पर क्लीन शेव्ड रहने लगा था।
तब के दिन सुहाने थे और रातें...! बहुत हसीन! रेयान की बाहों में अलग ही सुकून था। सच कहूँ तो तब जिंदगी सबसे खूबसूरत थी!
हु...हु...हु...
हवा बन्द खिड़की से भी अंदर दाखिल हो रही थी...बारीक झरोखों से...यादें भी कहाँ मानती है! कितने ही जतन कर दो भागने की! कोई न कोई झरोखा ढूँढ ही लेती है।
पर्दे खींचकर मैंने करवट ली, ब्लैंकेट को गालों के करीब कर लिया। ह्म्म्म...साँसों में सिकामोर वुड की खुशबू!
आँखों के किनारे भींगने लगे!
बीते पलों को याद करूँ तो किसी परीकथा जैसी लगती है। एक राजकुमारी जिसे अचानक एक राजकुमार मिलता है... दोनों हँसी-खुशी जी रहे होते हैं और फिर...दुःखद अंत!
नहीं! नहीं! मेरी बचपन की कहानियों में राजकुमारी को अंत में राजकुमार मिल जाता था। वो सर्द रातों में अकेली रोती नहीं थी! और अगर ये राजकुमारी रो रही है तो इसमें उसी की गलती है।
खुद पर क्रोध आया, क्यों पाषाण बन गयी, रिश्तों के भंवरजाल से इतना डर था तो क्यों फंस गई? वो भी आधे-अधूरे रिश्ते में।
जिसका अंजाम रोना ही लिखा था।
अच्छे से याद है! शनिवार का दिन था। बॉस ने केबिन में बुलाकर एक लिफाफा पकड़ाया!
वो खोलती वैसे ही बॉस ने स्माइल करते हुए कहा—
"कांग्रेट्स निहारिका! गुड न्यूज़ फ़ॉर यू! नाउ इट्स टाइम टू फ्लाई लूगानो! यू आर सिलेक्टेड फ़ॉर इंटर्नशिप!"
मेरा मुंह खुला का खुला रह गया। लूगानो! स्विट्जरलैंड! ओ माय गॉड!
इससे बड़ी खुशी क्या होगी! चिरप्रतीक्षित अभिलाषा!
बड़े-बड़े शॉपिंग बैग्स देखकर रेयान पूछ बैठा-
"पूरी दुकान उठा लायी क्या जान!"
"ओह बेबी आज कुछ मत पूछो! बहुत खुश हूँ। ऑफिस के तरफ से मुझे इंटर्नशिप के लिए सेलेक्ट किया गया है। लूगानो स्विट्जरलैंड! ग्रेट न! आई एम सो हैप्पी टुडे!"
"कितने दिनों की है?"
रेयान ने पैकेट्स हाथ से लेकर टेबल पर रखते हुए पूछा।
"सिक्स मन्थ्स!"
वो चुप होकर सोफे पर बैठ गया।
मेरी नज़र उसके उतरे चेहरे पर पड़ी।
"क्या हुआ? तुम खुश नहीं लग रहे?"
"कैसे हो सकता हूँ नेहू? तुम छः महीने के लिए बाहर जा रही हो और मैं यहाँ अकेला! कैसे रहूंगा? कैन यू इमेजिन? नहीं तुम नहीं जा रही।"
उसका स्वर मुझे आदेशात्मक लगा।
इस टोन से मुझे चिढ़ थी बचपन से!
"नहीं जा रही मतलब? डोंट बिहेव लाइक माय हस्बैंड। मैं जाऊंगी...मतलब जाऊँगी! मुझे आर्डर देने वाले तुम कौन हो? अब क्या तुम डिसाइड करोगे मुझे क्या करना है, क्या नहीं?"
मैं बिफ़र गयी। मुँह में जो आया बक दिया।
"सही कहा मैं कौन हूँ? क्या हक है मुझे? हम्म! अच्छा किया मुझे मेरी जगह बता दी" !
रेयान की आवाज़ में एक दर्द था।
"स...सॉरी...यार! मेरे कहने का ये मतलब नहीं था...प्लीज् ट्राय टू अंडरस्टैंड! मतलब अच्छी ऑपर्चुनिटी है छोड़ना गलत होगा न बेबी!"
मुझे अब खुद के बोले शब्दों पर खीज हो रही थी। पर छूटे शब्द किसी को भेद कर जश्न मना रहे थे।
"सॉरी की कोई बात ही नहीं है नेहू...निहारिका! क्यों छोड़ना ऐसी ऑपर्चुनिटी? वैसे भी तुम अम्बिसियस लड़की हो जिसे अच्छी तरह पता है कि एक करियर ज्यादा इम्पोर्टेन्ट है या एक मामूली-सा कैजुअल रिलेशन!"
अप्रत्याशित जवाब!
सालभर में ये पहली रात थी जब मैं रूम में लेटी थी और वह बाहर सोफे पर! सोया कोई नहीं था। सुना था कि पुरुष रोते नहीं पर उस रात ये भ्रम टूटा था।
सुबह आँख खुली! सामने रेयान खड़ा था!
"मैं जा रहा हूँ नेहू! मुझे लगता है हमारे कैजुअल रिश्ते का वक़्त पूरा हो गया। अपना ध्यान रखना!"
मैं रो पड़ी-
"रेयान! मत जाओ न! सिर्फ छह महीने की बात है बेबी! प्लीज मान जाओ न!"
"बात छह महीने की नहीं है नेहू! बात विश्वास की है। केवल एक इंटर्नशिप के लिए तुमने सालभर के हमारे रिश्ते को दरकिनार कर दिया। क्या पता इस छह महीने के बाद फिर कोई नया ऑफर मिले और फिर तुम मुझे...! खैर ...जाओ सफलता पाओ.।आगे बढ़ो...गुडबाय!"
वो चला गया! मैं देखती रही। काश की हाथ पकड़कर रोक लिया होता।
पर नहीं रोका... छह महीने बीत गए।
सुना था स्विट्जरलैंड को पृथ्वी का स्वर्ग कहते हैं... लगा नहीं मुझे!
ऐल्प्स पहाड़ों से ढंकी सरज़मीन... नदियाँ...सरोवर...खूबसूरत गाँव सब उदास थे।
एक नम्बर पर कई बार कोशिश की बात करने की, लेकिन कोई जवाब नहीं आया। शायद नम्बर बन्द पड़ा था।
किसी तरह छह महीने गुजरे!
वापस लौटी लेकिन कुछ नहीं बचा था। रेयान जा चुका था। कहाँ? ये नहीं मालूम!
न रहनुमा था, न रहनुमाई
बची थी तो बस तन्हाई...
दो साल बीतने को आये...रेयान तुम कहाँ हो? प्लीज आ जाओ न! तुम्हारी नेहू तुम्हारे बिना नहीं जी सकती। देखो मैंने अपने बालों पर अब तक कैंची नहीं लगाई। कितने बेतरतीब से हो गए हैं...उलझे-उलझे! इन्हें आकर सुलझा दो न बेबी! प्रॉमिस कविता भी नहीं सुनाऊँगी!
आज कमजोर पड़ गयी। रोना रुक नहीं रहा था। तभी फोन बजा!
मम्मी का फोन!
किसी और का होता तो काट देती। पर माँ की जरूरत थी अभी।
' हैलो मम्मी! "
"बेटा...क्या हुआ! कैसी हो तुम? आवाज़ कांप क्यों रही?"
"कुछ नहीं मम्मी! सब ठीक है। इतनी सुबह-सुबह कॉल! सब ठीक है न!"
"हाँ बेटा सब ठीक है। तुझसे जरूरी बात करनी है।"
"बोलो क्या बात है मम्मी?"
"मैंने तुम्हारे लिए लड़का देखा है। एकदम जेंटलमैन टाइप। अब मैं कुछ नहीं सुनूँगी तुम्हारी! बहुत दिन कर ली तुमने अपनी मनमर्ज़ी। अब बस।"
"मम्मी, मैंने तुम्हें कितनी बार कहा है मुझे शादी नहीं ..."
मैं बात पूरी करती तभी माँ बोल पड़ी-
"चुप करो तुम! क्या चाहती हो मैं तुम्हारी अधूरी जिम्मेदारियों का बोझ लेकर इस दुनिया से चली जाऊँ...बेटा मान जा न। अच्छा लड़का है। देखा-भला! सुख करेगी। इतना विश्वास करो न अपनी माँ पर! अच्छा चलो, इतनी बात मान जा, आकर खुद से मिल ले, अगर न जँचे तो बेशक कर लेना मन की।"
मम्मी ने ये कहकर हथियार डाल दिये।
"ठीक है...आती हूँ इस संडे! पर फैसला मेरा होगा!" -बुझे मन से मैंने कहा और फोन रख दिया।
फैसला सुनाने के लिए भी मिलना तो था ही। अगले संडे मैं माँ के पास थी।
जिससे मिलना था वह शाम को आने वाला था। आठ बजने को आये। मुझे गुस्सा आ रहा था।
"मम्मी! लगता है तुम्हारे जेंटलमैन के पास घड़ी नहीं है, या उसकी शाम, रात को होती है। मुझसे इतना इंतज़ार नहीं होता। कमरे में जा रही हूँ। आये तो मुझे बता देना आप।"
मैंने माँ की तरफ देखे बिना कहा और उठकर चली आयी।
बालकनी में आकर खड़ी हो गयी। सर्द हवाएँ आज और ज्यादा बेरहम लग रही थी। मैंने शॉल को लपेट लिया पर अंदर जाने का मन नहीं किया। मैंने अपने हाथ रेलिंग पर टिका दिए। अंदर की वेदना को बहने से रोक नहीं पा रही थी।
किसी के कदमों की आहट हुई!
मम्मी के पैरों के साथ किसी औऱ के भी कदमों की आहट! मैंने जल्दी से आँसू पोंछने चाहे। कदम तब तक पास आ गए थे।
तभी!
साँसों में चिरपरिचित महक! सिकामोर वुड!
मैं पलटी! सामने खड़ा था मेरा रेयान। उसी क्यूट-सी स्माइल के साथ!
"आ तो गया हूँ पर इस बार कड़ी शर्त है! तुम्हारी कविता बिल्कुल नहीं सुनूंगा!"
मैं उसकी बाहों में झूल गयी...मेरी कविता के सारे शब्द हवा में तैरने लगे...
सुखद होता है जीवन में
प्रेम का आना,
ये महसूस नहीं होने देती
तन्हाई...
हमेशा चलती है साथ किसी की
परछाई.।
खालीपन नहीं खलता...
प्रेम भर देता है
हर रिक्तता ...
अपने ही सांचे में ढाल देता है
और डुबो देता है आकंठ ...
कुछ और कि
चाह नहीं रहती,
सच में इंसान को
पूर्ण कर देता है
प्रेम!