कैथरीन और नागा साधुओं की रहस्यमयी दुनिया / भाग - 12 / संतोष श्रीवास्तव

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नरोत्तम गिरी एक वर्ष तक कन्दराओं में रहा। खुद को परिष्कृत कर मन को बाँधा। मोबाइल फोन स्विच ऑफ करके रख दिया। वैसे भी इन पर्वतीय इलाकों में नेटवर्क नहीं पकड़ता। मोबाइल पोटली में समा गया। हालाँकि दिन भर में न जाने कितनी बार वह पोटली पर नज़र डाल लेता जैसे कि कोई संदेश बाहर आने वाला है। पोटली देखना उसकी आदत में शुमार हो गया था। वह चाह कर भी पोटली कहीं छुपा नहीं सकता था और पोटली उसके कार्यों में व्यवधान भी पैदा करती थी। पोटली या कैथरीन!

कंदराओं से निकलकर वह हरी-भरी पहाड़ी ढलान में उतर आया। दूर उसे कुटिया-सी नजर आई। उसने सोचा वह भी यहीं कुटिया बनाकर तीन-चार माह रहकर फिर हरिद्वार लौटेगा। तभी उसे कुटिया के आसपास कुछ नागा साधु नजर आए। वह तेजी से उस ओर बढ़ा। नागा साधुओं के हाथों में तलवारें थीं और वे बहुत क्रोध में नजर आ रहे थे। जब वह नजदीक पहुँचा तो उनमें से एक ने पूछा-"कौन से अखाड़े के हो? क्या नाम है?"

"मैं नरोत्तम गिरि महंत, जूना अखाड़ा।"

"तब तो तुम हमारे ही अखाड़े के हो। मेरा नाम महेंद्रआनंद पुरी महाराज कोतवाल।"

"कोतवाल?" नरोत्तम गिरी ने प्रणाम किया।

"और ये हैं थानापति सर्वेश्वर आनंद पुरी महाराज।"

इन दोनों के साथ लंगोटधारी चार और नागा थे। निश्चय ही महेंद्रआनंद और सर्वेश्वरआनंद जैसे गुरुओं की सेवा सुश्रुषा और देखभाल के लिए ही वे थे।

नरोत्तम गिरी ने उनके साथ उस कुटिया रूपी अखाड़े में रहने का मन बना लिया। कुटिया पहाड़ की ढलान पर थी। कश्मीर और पहलगाम गाँव के आसपास ही लिद्दर नदी बहती थी जिस पर बने लकड़ी के पुल से दिनभर घोड़ों के मालिक घोड़ों पर पर्यटकों को लिए गुजरते हैं। हालाँकि अब पर्यटक नहीं के बराबर कश्मीर आते हैं। इक्का-दुक्का का ही कारवां चलता है।

बहुत खूबसूरत घाटी में तैयार की गई बड़ी-सी कुटिया में सभी नागा साधु धूनी रमा कर बैठ गए। चारों चेले भोजन की व्यवस्था में जुट गए।

धूनी के सामने बैठे हुए नरोत्तम गिरी सोच रहा था कितना अद्भुत है नागाओं का संसार। वह पर्वतों में रहता है तो गिरी है। महेंद्रआनंद और सर्वेश्वरआनंद नगरों में भ्रमण करते हैं तो वे पुरी हैं। जंगलों में विचरण करने वाले अरण्य हैं। उसे तो जंगल बहुत लुभाते हैं तो वह कभी अरण्य हो जाता है। कभी गिरी।

"हम तो अखाड़े की व्यवस्था में लगे रहते हैं हरिद्वार स्थित जूना अखाड़े में। अब तो दान भी बहुत आने लगा है।" थानापति सर्वेश्वर आनंद पुरी महाराज बोले। "महिलाओं के आगमन से होने लगा है ऐसा। यही तो माया है प्रभु की। महिला आगमन सब कुछ के बदलाव का कारण बन जाता है।" नरोत्तम गिरी ने ठंडी साँस भरते हुए कहा।

सोचा था शायद यहाँ नेटवर्क पकड़े और कैथरीन का फोन आए। पर आतंकवादी गतिविधियों के कारण यहाँ नेट बंद कर दिया गया है। नरोत्तम गिरी का मन करता है उठाए शस्त्र और पिल पड़े आतंकवादियों पर जिन्होंने कश्मीर को युद्ध का मैदान बना रखा है। आज यहाँ बम फट रहा है तो कल वहाँ। रोज ही इनका मुकाबला करते हुए सैनिक शहीद हो रहे हैं। कश्मीरी हिंदू अपना घर-बार त्यागकर जम्मू तथा अन्य जगहों पर शरणार्थी हो रहे हैं। छोटे-छोटे बच्चे पत्थरबाजी का हुनर सीख कर चंद रुपयों में अपने ही लोगों पर पत्थर बरसा रहे हैं। भारतीय सैनिक जमकर मुकाबला तो कर रहे हैं बरसों से इन आतंकवादियों का पर अगर अखाड़े के गुरुगण आदेश करें तो नागा साधु भी अपने देश की रक्षा के लिए शस्त्र उठा सकते हैं। उन्हें तो मार्शल आर्ट में प्रशिक्षित किया जाता है और वह हमेशा त्रिशूल, तलवार, बेंत और भाले अपने साथ रखते हैं।

नरोत्तम गिरी ने पढ़ा था कि एक बार मुगल शासकों से हिंदुओं की रक्षा करने के लिए वे प्रशिक्षित सशस्त्र बल के रूप में अपनी सेवा दे चुके हैं और इसके साथ ही कई सैन्य अभियानों में शामिल रह चुके हैं। हालाँकि आजादी के बाद सशस्त्र गतिविधियों में नागाओं के शामिल रहने की आवश्यकता नहीं पड़ी इसलिए उन्होंने धर्म की ओर रुख किया लेकिन नागाओं के लिए देश सर्वोपरि है। धर्म का स्थान बाद में आता है।

भोजन के पश्चात भी वह भूमि पर शयन करते हुए इन्हीं विचारों में गुम रहा। दो महीने पहलगाम की घाटी में बिताकर नरोत्तम गिरी ने अपने साथियों से विदा ली और हरिद्वार लौट आया। कोतवाल महेंद्र आनंद और थानापति सर्वेश्वर आनंद साल भर वहीं रहकर साधना करेंगे।

हरिद्वार में अखाड़े का आश्रम चहल-पहल से भरा था। नए नागा चेहरे दिखाई दे रहे थे। उनके चेहरों पर घर, परिवार त्याग देने की विवशता का कहीं नामोनिशान भी नहीं था। एक आह्लाद था भक्त और प्रभु के बीच का, यही तो नागाओं का असली स्वरूप है कि वे सारी पीड़ाओं को भूलकर केवल प्रभु में लौ लगाते हैं।

पहलगाम में कोतवाल महेंद्र आनंद और थानापति सर्वेश्वर आनंद के मिलने और उनके साथ दो महीने बिताने की सारी बातें उसने गुरुजी को सिलसिलेवार बताईं। कश्मीर में आतंक को लेकर गुरुजी और उसमें काफी देर तक चर्चा होती रही। शयन के लिए उठने के पहले गुरु जी ने कहा-

"तुम सप्ताह भर यहीं विश्राम करो। फिर हरिद्वार के जंगल स्थित प्रशिक्षण केंद्र चले जाना।"

नरोत्तम गिरी ने गुरु जी को प्रणाम कर चरण स्पर्श किए और अपने कमरे में आ गया। अभी लेटकर पैर सीधे किए ही थे कि मोबाइल बज उठा। मोबाइल पर नाम चमका कैथरीन बिलिंग। उसने फोन उठाया।

"कैथरीन" आगे उसकी आवाज थरथराहट में बदल गई।

"कैसे हो नरोत्तम, कहाँ हो इन दिनों?"

"हरिद्वार में कुंभ के बाद मैं पहाड़ों पर खुद को खंगालने चला गया था।"

"तो क्या पाया?"

"एक बेचैनी...यूँ लग रहा था जैसे किसी की परछाई मेरे साथ चल रही है। मेरे रुकते ही रुक जाती है और मुझे अपने घेरे में समेट लेती है। मेरी साँसे घुटने लगती और मुझे लगता जैसे मैं पाताल में धंसा चला जा रहा हूँ।" इतने दिनों बाद नरोत्तम से बात होने के कारण कैथरीन बहुत हल्के मूड में थी। उसने नरोत्तम की गंभीर बात को हल्के से लेते हुए कहा-"नागा बाबा क्या मानव हो रहे हैं?" "तो क्या मैं मानव नहीं हूँ? भोजवासा में भी तुमने यही कहा था। बताओ क्या मैं मानव नहीं हूँ?"

"तुम्हें समझना जरा कठिन है। कोई तो एक सूत्र है जो तुम्हें पूरी तरह सन्यासी होने से रोक रहा है। अच्छा सुनो, किताब लिखनी शुरू कर दी है मैंने। जिसका वादा मैंने भोजवासा की गुफा में धूनी की आँच को नकारती उस बर्फीली रात में किया था।"

"हाँ मुझे याद है। यह भी ज्ञात हो गया है कि किताब मुझ सिरफिरे पर ही केंद्रित होगी।" इस बार नरोत्तम खुलकर हँसा जिसकी वजह से उसे ठसकी लग गई। आवाज अवरूद्ध हो गई। उसने फोन काटा नहीं बल्कि गोद में रखकर कमंडल से निकाल कर पानी पिया। थोड़ा शांत होकर उसने कहा-

"अब ठीक हूँ।"

"इसीलिए तो कहती हूँ नरोत्तम नागा बाबा, तुम मानव नहीं रहे। हँसने तक की आदत छूट गई है तुम्हारी। हाँ तो मैं किताब की बात कर रही थी। उस किताब में बस तुम हो और मैं और बीच में नागा संसार जिस के दरवाजे मेरे कौतूहल, प्रेम और शांति की ओर खुलेंगे। मैं जानती हूँ काम कठिन है पर मैं कर लूँगी। लो आद्या से बात करो।"

"हाय अंकल, कैसे हो?"

आद्या का मधुर स्वर कान में मिश्री घोल गया।

"अंकल नहीं आद्या, बाबा कहो मुझे। मैं समस्त रिश्ते, नातों, बंधनों से मुक्त हो चुका हूँ। संसार के लिए नागा साधु और खुद के लिए मृत।" वह थोड़ी देर रुका। आद्या निःशब्द थी। नरोत्तम को लगा उसने अधिक कठोर बात कह दी है। स्वर में मुलायमियत अपनाते हुए बोला-"अगले सप्ताह मैं हरिद्वार के जंगलों में स्थित प्रशिक्षण केंद्र में चला जाऊँगा।"

"फिर आप से बात करने का समय क्या होगा बाबा जी?"

"यही समय। यह मेरे विश्राम का समय होता है।"

"और हमारे जागने का। हा-हा हा।" कहते हुए आद्या ने फोन रख दिया।

इस बार मित्र गीतानंद गिरि से मुलाकात नहीं हुई। वह गढ़वाल की ओर तप साधना के लिए गया था। मोबाइल तो उसे भी दिया था गुरुजी ने पर वहाँ नेटवर्क नहीं पकड़ रहा था इसलिए बात नहीं हो सकी।

आज सुबह से ही बादल छाए थे। नरोत्तम नागा बालों की जटाओं को लपेटकर उनमें रुद्राक्ष की मालाएँ पिरो रहा था कि तभी कोतवाल ने गुरुजी के साथ रात्रि के प्रथम प्रहर में बैठक की सूचना दी। बैठक में सभी आएंगे। थानापति, कोतवाल और सभी पदों पर नियुक्त नागा। भस्म अच्छी तरह से पूरे शरीर में लेपकर नरोत्तम गिरी ने माथे पर तिलक लगाकर शृंगार किया और दैनिक साधना में लीन हो गया। उसके गौर वर्ण पर भस्म खूब सजती थी। साधना में लीन उसे देखकर कोई भी कह सकता था कि यह ईश्वर का भेजा दूत है।

सूर्य पश्चिम में उतर आया था। संध्या वंदन के लिए वह गंगा की ओर चला गया। गंगा का सुनसान किनारा उसने संध्या वंदन के लिए ही खोजा था। पश्चिम की सुनहरी आभा गंगा की तरंगों को पिघले स्वर्ण में बदल रही थी। पंछियों की कतार घोंसलों की ओर लौट रही थी। एकाएक नरोत्तम आह्लाद से भर उठा। कितना खूबसूरत है संसार। सँध्या अपनों से मिलन का संकेत देती है। घरों की ओर लोग ऐसे भागते हैं जैसे बरसों से बिछड़े हों। रसोई घर की चिमनियों से निकलता धुँआ संकेत देता है कि चूल्हे जल चुके हैं और उन पर सोंधी दाल पक रही है। मनलुभावन रोटियाँ सिंक रही हैं।

यह कहाँ भटकने लगा वह? जल्दी-जल्दी उसने वंदना की और अखाड़े में लौट आया। आज तो जोरदार भूख लगी है। भोजन में बाजरे के टिक्कड़, गुड़, घी, ओंटाया हुआ दूध और आलू टमाटर की रसेदार सब्जी थी। महाराज ने मेथी की भाजी भी आलू डालकर बहुत स्वादिष्ट बनाई थी। थाली की बगल में छोटी तश्तरी में मूंग की दाल का हलवा था। खाने के बाद धूनी के सामने बैठकर उसने चिलम पी फिर बैठक के लिए अखाड़े के बैठक कक्ष में चला गया।

सभी आ चुके थे। गुरुजी भी पहले-पहले से ही आसन पर विराजमान थे।

"लैपटॉप पर प्रशिक्षण केंद्र की सभी सूचनाएँ भेज दी जाएंगी। उन्हें आप सुरक्षित कर लें। आप 10 प्रशिक्षक 200 युवाओं को प्रशिक्षित करेंगे। हर एक के बीस शिष्य होंगे। उनमें से कई युवा कॉलेज से डिग्री प्राप्त भी हैं। हमें पूरी यूथ को ट्रेनिंग देकर ऐसे कमांडो बनाना है जो आवश्यकता पड़ने पर शस्त्र भी उठा सकें। केवल शास्त्रों तक ही सीमित नहीं रखना है। उन्हें मार्शल आर्ट मल्लयुद्ध की भी ट्रेनिंग देना है। सभी का खानपान विशेष रूप से पौष्टिक खाद्य पदार्थों से युक्त होगा ताकि इस प्रदूषण के काल में उनकी रोग प्रतिरोधक क्षमता मजबूत हो। उनके अंदर तप साधना की धारा बहानी होगी। ध्यान रहे नागा ईश्वर की ओर से नियुक्त किया गया ऐसा सेवक है जिसे देश और धर्म दोनों की रक्षा करनी होती है। इस बार इंजीनियरिंग और एमबीए ग्रैजुएट से लेकर कॉलेज और स्कूलों के टॉपर छात्र भी नागा ट्रेनिंग के लिए आए हैं। विभिन्न अखाड़ों में ऐसे दस हज़ार विद्यार्थियों को प्रवेश दिया गया है। इनमें से कुछ विदेशी भी हैं। आप लोगों को बहुत सतर्कता से प्रशिक्षण देना होगा। पहले किसी साधु की अनुशंसा से अखाड़े में नागा बनने के लिए प्रवेश मिल जाता था लेकिन अब सन 2000 से कड़ी चेकिंग के बाद ही प्रवेश दिया जाता है। अब सरकार के द्वारा जारी किए जाने वाले पहचान पत्र के अलावा हमने अपने स्तर पर भी जानकारियाँ जुटा कर ही उन्हें प्रवेश दिया है। पूरी सरकारी नौकरी जैसा कठिन हो गया है अब अखाड़ों में प्रवेश। आप सभी जानते हैं कि नागा बनने की एक लंबी और मुश्किल प्रक्रिया है जिससे आप सब गुजर चुके हैं। सभी नए विद्यार्थियों को अखाड़ों के नियम कानून को समझाना होगा। धैर्य की परीक्षा लेनी होगी। आपको मालूम है इस सबमें कितने साल लग जाते हैं। अब तो आधार कार्ड, वोटर आईडी और एक गारंटर की भी आवश्यकता पड़ती है। फिर उनकी गोपनीय जांच भी कराई जाती है। सभी स्टेज में सफल होने के बाद नागा सन्यासी की दीक्षा दी जाएगी। अखाड़े की मोहर लगा उन्हें एक प्रमाण पत्र भी दिया जाएगा। आप सब कल से तैयारियों में जुट जाइए। कोई संदेह हो तो पूछ लीजिए।" गुरु जी ने अपनी वाणी को विराम दिया। थोड़ी देर कक्ष में मौन छाया रहा। वैसे भी किसी को कोई संदेह न था। । गुरुजी ने इतने विस्तार से और स्पष्ट शब्दों में सारी बातें समझा दी थीं।

गुरुजी के प्रस्थान करते ही सब आपस में एक दूसरे से परिचित होने लगे। 10 प्रशिक्षकों में हनुमान गिरी ने ही नरोत्तम गिरी से ज्यादा बातचीत की। हनुमान गिरी के मित्र निरंजन गिरी से भी परिचय हुआ। बैठक कक्ष से निकलकर तीनों धूनी के सामने काफी देर तक चिलम पीते बातचीत करते रहे। बाहर झाड़ियों में जुगनू चमक रहे थे। मानो वे रात के पहरेदार हों।

प्रकृति स्वयं बंदोबस्त करती चलती है दिन के हर प्रहर का।

इस बार का प्रशिक्षण केंद्र बहुत बड़ा था। जंगल के काफी भीतर बनाया गया था। आसपास घने दरख़्तों का मीलों फैला सुरम्य वातावरण। पर्वत से उतरकर झरने ने भी मीठे पानी का एक कुंड-सा बना दिया था। हरी-भरी जंगली वनस्पतियों ने भूमि को हरीतिमा से ढक दिया था।

पहला दिन विद्यार्थियों से परिचय में बीता। सभी 10 आचार्यों से 200 विद्यार्थियों का परिचय। फिर ईश वंदना कर सभी अपने-अपने कमरों में दुबक गए। रात ठंडी और हवाओं से भरी थी। हवा जब दरख्तों से गुजरती तो एक नशीली-सी साँय-साँय नरोत्तम गिरी के दिल में उतरती जाती। जैसे कहीं कोई सिंफनी, कोई प्रेम धुन बज रही हो।

उसने कैथरीन को फोन लगाया। घंटी कुछ क्षण बजी फिर नरोत्तम गिरी ने फोन डिस्कनेक्ट कर दिया। फिर दोबारा, फिर एक बार, चौथी बार डायल का बटन दबा ही रहा था कि कैथरीन ने खुद ही फोन लगाया।

"कितने सारे मिस कॉल? ठीक तो हो नरोत्तम? कहाँ हो?"

"हरिद्वार के जंगल स्थित प्रशिक्षण केंद्र में और तुम?"

"वहीं, अपने ठिकाने पर। अपने अपार्टमेंट में। अपने बिस्तर पर। जस्ट अभी लेटी हूँ। आज शाम से ही किताब लिख रही हूँ। पूरा एक चैप्टर कंप्लीट कर लिया। पर तुम कुछ बेचैन लग रहे हो।"

"कैसे जाना तुमने कैथरीन?"

"बार बार मेरे फोन की रिंग बजा कर काट रहे हो। मुझे सोच भी रहे हो और अपनी सोच से दूर भी कर रहे हो।"

"कैसे समझ लेती हो मुझे? हजारों मील दूर रहकर भी मुझे अपने पास कर लेती हो?"

"तुम तो मेरे पास ही हो नरोत्तम। तुम नागा नहीं होते तो मैं तुम्हारा अपहरण कर लेती।"

कहते हुए वह खिलखिलाकर हँसी।

"एक बार मन होता है तुम्हें कपड़ों में देखूँ। कोट, पतलून, टाई, सिर पर हैट, पैरों में जूते। आहा, कितने हैंडसम लगोगे तुम।"

"यह तो बाहरी स्वरूप है। कपड़े, बनाव शृंगार मनुष्य को रूपवान नहीं बनाते। रूपवान होता है उसका निष्कलुश ह्रदय। प्राकृतिक स्वरूप। हम तो लगभग रोज ही प्रकृति से साक्षात्कार करते हैं। वे पल स्वर्गिक आनंद से भरे होते हैं। हम न तो संसार के बारे में सोचते हैं। न संसार में अपने होने के बारे में। हमारी लौ सीधे-सीधे ईश्वर से लगी है। आसपास कुछ भी दिखाई नहीं देता।"

"मैं भी।"

"तुम उस लौ का एक हिस्सा हो। कई बार तुम्ही से मैंने प्रकाश पाया है। कई बार तुमने मुझे भटकने से बचाया है। कई बार मेरे लड़खड़ाने पर तुम ही ने तो मुझे थामा है।"

"तुम ऐसा सोचते हो जबकि मैं भी ऐसा ही तुम्हारे लिए सोचती हूँ।" अचानक बर्फबारी होने लगी कैथरीन के शहर में। उसने फोन पर सूचना दी। कहा "कल इसी समय बात करूंगी तुमसे। देखती हूँ आद्या के कमरे में जाकर वह ठीक-ठाक है। रॉबर्ट इन दिनों ट्रेनिंग सेंटर में है। हर वक्त उसे मिस करती है आद्या।"

"उसे मेरा प्यार देना।"

कहते हुए नरोत्तम ने फोन रखा और लेट गया। उसके चारों ओर मानो कैथरीन ने जबरदस्त घुसपैठ मचा दी थी और 3 बजे सुबह उठकर उसे नागा होने की परंपरा निभानी थी। लेकिन नींद कोसों दूर थी।

दैनिक और धार्मिक कर्मों से निपट कर नरोत्तम गिरी ने अपनी टोली के 20 विद्यार्थियों को प्रशिक्षण केंद्र के पश्चिमी कोने में इकट्ठा कर उनके नामों को रजिस्टर में लिखना आरंभ किया। उसे ताज्जुब हुआ। उच्च शिक्षा प्राप्त युवाओं की तादाद उस की टोली में ज्यादा थी। 27 वर्षीय प्रशांत कुमार राय ने कच्छ से मरीन इंजीनियरिंग में डिप्लोमा हासिल किया है। इसके लिए उसे अच्छी खासी तनख्वाह भी मिलती थी पर वह सब कुछ त्याग कर नागा साधु बनने चला आया। 29 वर्षीय शंभूनाथ यूक्रेन से मैनेजमेंट में ग्रेजुएट है। 18 वर्षीय शांतनु उज्जैन से 12वीं बोर्ड का टॉपर है। 16 वर्षीय विशाल सिंह दिल्ली से कॉमर्स की पढ़ाई छोड़ सन्यासी पथ पर चलने को तत्पर है। नरोत्तम ने रजिस्टर का काम खत्म कर सामने खड़ी अपनी टोली पर नजर डाली तो चौक पड़ा। सामने विशाल के रूप में जैसे दीपा ही खड़ी हो। फिर लगा भ्रम हो सकता है। कभी-कभी शक्लें मिलती जुलती पाई जाती हैं। जबकि उनका आपस में कोई नाता नहीं होता। उसे भी तो कॉलेज में सब फिल्म अभिनेता धर्मेंद्र कहते थे।

उस दिन की ट्रेनिंग समाप्त कर वह धूनी के सामने बैठा चिलम पी रहा था। साथ में हनुमान गिरी और निरंजन गिरी भी थे। तीनों आपस में अंतरंग मित्र बन गए थे। महाराज कुल्हड़ों में केसर मिश्री डला ओंटाया हुआ दूध रख गया था।

"इस बार नागा बनने आए युवकों की टीम काफी पढ़ी लिखी है।" हनुमान गिरी ने कहा।

"हाँ, नागा साधु, सन्यास पथ और धर्म अब काफी आकर्षण का केंद्र हो गया है। लाखों लोग नागा बनने पर आमादा हैं।"

"महिलाएँ और छोटे-छोटे बच्चे भी नागा बनने लगे हैं।"

"अब तो कुंभ मेले में करतब दिखाते हैं नागा।"

"लाठियाँ भांजना, तलवारबाजी करके मजमा जुटा लेते हैं। छोटे-छोटे बच्चों को सनातन धर्म की रक्षा के लिए नागा अखाड़ों में उनके माता-पिता द्वारा दान कर दिया जाता है। बचपन से ही वे भावनात्मक रूप से नागा संसार के हो जाते हैं।"

" हाँ अपने विद्यार्थियों में कुछ बहुत छोटी आयु के भी हैं।

निरंजन गिरि ने बताया।

"छोटी आयु के जल्दी सीख लेते हैं। कच्ची मिट्टी का लौंदा होते हैं। जिन्हें चाक पर चढ़ाकर चाहे जैसा गढ़ दो।"

" वह तो ठीक है पर नन्हें बालकों को माता-पिता दान करते हैं तो लगता है जैसे वे अपने कर्तव्य से पीछे हट रहे हैं। उनके पढ़ने-लिखने की उम्र छीन रहे हैं।

जब उनमें इतनी बुद्धि आ जाए कि वे स्वयं नागा होना चाहे तब बात मायने रखती है वरना तो यह सब दबाव कहलाएगा। "

" सही कह रहे हैं निरंजन गिरी। मनुष्य को अपनी मंजिल खुद चुननी चाहिए। छोटे बालक बालिका उन्हें तो यह भी नहीं मालूम कि नागा होता क्या है। कभी-कभी माता-पिता भी ज्यादती कर जाते हैं बच्चों पर


"क्या कीजिएगा हनुमान गिरी जी। यह तो संसार में सदियों से होता आया है। माता-पिता अपने सपने बच्चों पर लाद देते हैं। बच्चे उन रेडिमेड सपनों को पूरा करने में उम्र गुजार देते हैं।"

वातावरण असहज होता जा रहा था। रात ने खामोशी की चादर ओढ़ ली थी। चर्चा को विराम दे तीनों शयन के लिए अपने कक्ष में चले गए। यही समय था कैथरीन से बात करने का। नरोत्तम गिरी के फोन लगाते ही कैथरीन ने उठाया इंतजार उस ओर भी था।

"आज बहुत उद्विग्न हूँ कैथरीन।" "क्यों क्या हुआ?" कैथरीन के लहजे में चिंता थी।

"प्रशिक्षण के लिए आए विद्यार्थियों में एक विशाल सिंह है। उसकी शक्ल दीपा से मिलती जुलती है।"

"कौन दीपा नरोत्तम? तुम किस दीपा की बात कर रहे हो? प्लीज मुझे खुल कर बताओ।"

नरोत्तम ने इस बार कैथरीन के आगे खुल जाना चाहा। स्वयं को खोलकर वह आसानी से दुर्गम रास्तों को पार कर सकेगा।

सब कुछ का बयान कर वह जैसे हलका हो गया। बरसों से हृदय पर पत्थर की शिला बने अतीत को मौजूदा दावानल ने पिघला दिया था। वह देख रहा था अपने हृदय से बहता लावा जिसकी खदबदाहट ने कई-कई बार उसका तप भंग किया है। अपने जीते जी खुद का तर्पण करने के बावजूद वह अतीत से मुक्त नहीं हो पाया था।

"कई बार एक जैसी शक्ल के लोग मिल जाते हैं पर इसका यह मतलब नहीं कि वे आपस में कनेक्टेड हो नरोत्तम।"

कैथरीन ने जानबूझकर दीपा का जिक्र नहीं किया। नरोत्तम ने जितना बताया कैथरीन पर विश्वास करके, वह कैथरीन के लिए भी विश्वास बन गया। इसलिए वह उस बात को दोहराना नहीं चाहती थी। "नहीं तुम विशाल के माता पिता का नाम मत पूछो। कभी पूछना भी मत। यही तुम्हारे हित में होगा। अब जिस राह पर तुम हो वहाँ ऐसी बातें मायने नहीं रखतीं। यह मेरा आग्रह है। आगे तुम खुद बुद्धिमान हो।"

ठीक कह रही हो कैथरीन। नाम पूछ कर न मेरा हित होगा न अहित। मैंने वह संसार त्याग दिया। अब उसमें कल्पना में भी लौटना दुष्कर है। अब शिव ही सत्य है। तुम्ही हो माता, पिता तुम्हीं हो

तुम्हीं हो बंधु, सखा तुम्हीं हो। "" थोड़ा सुधार कर लो नरोत्तम जी महाराज, मेरे प्राणसखा, मैं हूँ तुम्हारी प्राणसखी और माता है पार्वती। देवी पार्वती। पार्वती का मेरे जीवन में अद्भुत प्रवेश है, वे शक्ति की प्रतीक हैं। तभी तो मैंने बेटी का नाम आद्या रखा। आद्या को मैं अपनी शक्ति बनाऊँगी। अब सो जाओ प्राणसखा। अपने सारे दर्द, पीड़ा, संदेह, तनाव मुझे सौंपकर। जानते तो हो एक शांत मन चुनौतियों के खिलाफ सबसे बड़ा हथियार होता है।

शुभरात्रि। "