कैथरीन और नागा साधुओं की रहस्यमयी दुनिया / भाग - 13 / संतोष श्रीवास्तव

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सूर्य उगता है, ढलता है। उसका उगना और ढलना प्रकृति के चक्र का प्रत्यक्ष उदाहरण है। संसार कभी नहीं रुकता। वह गतिमान है। उसकी गति में लाखों-करोड़ों तारे आकाशगंगाएँ, ग्रह नक्षत्र अपने रास्ते बदलते हैं। प्रकाशवान होते हैं, धूमिल होते हैं, टूटते हैं। कहीं कोई कार्य नहीं रुकता। नरोत्तम की भी जीवन गति नहीं रुकती। प्रशिक्षण, अखाड़े से जुड़ी जिम्मेदारियाँ, सतत कुंभ के मेले, नए नागाओं की दीक्षा, बर्फ के पर्वतों पर, गहरी अंधकारमयी गुफाओं में तपस्या, साधना में बीत गए लंबे-लंबे ग्यारह वर्ष। इन ग्यारह वर्षों में एक बार भी कैथरीन से मुलाकात नहीं हुई। जब नेटवर्क पकड़ता तो बात हो जाती वरना वह भी दूभर।

लेकिन कैथरीन के नेटवर्क में नरोत्तम गिरी आसपास ही होता। वह समझ चुकी थी कि नरोत्तम गिरी ने उसके हृदय में गहरी जड़ें जमा ली हैं। इतना दिव्य प्रेम तो उसे प्रवीण तक से नहीं हुआ। जिस प्रेम में किसी भी तरह की कोई अपेक्षा नहीं। बस उसे जीना है इस प्रेम की होकर। ऐसी कोई व्याकुलता भी नहीं रही कि इन ग्यारह वर्षों में वह नरोत्तम गिरी के पास चली जाए। कुछ दिन संग गुजार ले।

किताब अंत की ओर थी। बहुत वक्त ले लिया किताब ने लेकिन अभी भी उसमें कुछ महत्त्वपूर्ण बातें लिखना शेष था।

"चली जाओ न एक बार भारत। वरना किताब अधूरी रह जाएगी।"

लॉयेना ने एक शाम कैथरीन के फॉर्म हाउस के लॉन में कॉफी पीते हुए कहा।

कैथरीन देर से चिड़ियों की चहचहाहट सुन रही थी। जो आडू और चेरी की डालियों पर शोर मचा रही थीं। कहीं से मद्धम-सा धुँआ उठ रहा था। हवा में धुँए की चुभन थी।

"जाना तो है लॉयेना... अभी तय नहीं कर पा रही हूँ कि कब जाना हो पाएगा।"

"ऐसी क्या उलझन है? तुम्हारा जीवन तो निर्बाध बहती नदिया है। तुम्हें आद्या से भी परेशानी नहीं। वह रॉबर्ट के साथ लिव इन रिलेशन में है और तुमने यह बात स्वीकार भी कर ली है। दोनों एक ही कंपनी में बेहतरीन जॉब में हैं और क्या चाहिए।"

"वह बात नहीं लॉयेना।"

"तो फिर? और हाँ सुनो, तुम तो प्रवीण के साथ जाने का प्लान कर लो। प्रवीण दुष्यंत और शांतनु के एडमिशन के लिए देहरादून जाना चाहते हैं।"

"दोनों देहरादून में पढ़ेंगे? अम्मा मान गईं?"

"क्यों नहीं, मानेंगी। अब विरोध करने की शक्ति कहाँ रह गई है उनमें। 92 साल की हो गई हैं। मातृ भक्त प्रवीण खुद ही करते हैं सब उनका।"

लॉयेना के कुछ शिकायत से भरे शब्द महसूस किए कैथरीन ने...नहीं वह पूछेगी नहीं। जबकि पूछना चाहिए। न जाने क्यों कैथरीन इतनी तटस्थ होती जा रही है प्रवीण से, प्रवीण के परिवार से। "डायपर बदलने, मालिश करने और नहलाने के लिए जो नर्स रखी है प्रवीण ने, उस पर भी उन्हें भरोसा नहीं। हमेशा टोकते रहते हैं कि" ठीक से काम नहीं करती। कमरे की सफाई पर भी तो ध्यान देना चाहिए। अम्मा कैसे इस कमरे में तुम सारा दिन गुजारती हो? "

सच कैथरीन लगता है जैसे मुझ पर ही तंज कस रहे हैं, जैसे मैं ही जिम्मेदार हूँ इन परिस्थितियों की। सुबह-शाम खाना मैं ही खिलाती हूँ। उन्हें रोज उबले आलू की सब्जी चाहिए। मिर्च बिल्कुल नहीं। अगर गलती से भी जिस चाकू से मिर्च कटी है उसी से आलू काट लिया तो हाय तौबा मचा देती हैं। पराठा या ब्रेड दूध में भीगा मसला, फिर दवाइयाँ उनकी समय पर देनी पड़ती हैं। इतना टाइम निकल जाता है कि दोनों बच्चों पर ध्यान नहीं दे पाती। इसकी भी शिकायत है प्रवीण को मुझसे। "

कैथरीन ने लॉयेना को गले से लगा लिया-"रिलैक्स डियर, शेफालिका भी उनकी सेवा करते करते... वाक्य अधूरा ही रह गया। प्रवीण ने ड्राइंग रूम में प्रवेश करते हुए कहा-" हेलो कैथरीन, कैसी हो? "

"मैं तो ठीक हूँ पर तुम्हें क्या हो गया! अचानक कितने बूढ़े नजर आ रहे हो। वेट भी कम हुआ है तुम्हारा।"

"कुछ नहीं... जिंदगी कहाँ सही रास्ता पकड़ पाती है। बच्चों की चिंता है। उन्हें सही एजुकेशन दे पाऊँ। अम्मा को शांति संतुष्टि भरे दिन और ..."

"और क्या प्रवीण? अपने लिए भी तो सोचो। लॉयेना के लिए भी सोचो। जिसने अपना करियर तुम्हें समर्पित किया। तुम्हारे घर को संभाला।"

प्रवीण ने गहरी नजरों से लॉयेना को देखा। कुछ इस अंदाज में कि कर दी मेरी और अम्मा की शिकायत यहाँ भी।

"कैथरीन, बहुत ही अहम मसले पर तुम से डिस्कस करना है। पर आज नहीं। हमें घर से निकले काफी देर हो चुकी है। अम्मा को नर्स और बच्चों के भरोसे छोड़ा है। अब हमें जाना होगा।" कहते हुए प्रवीण उठा। टेबल पर रखे पैकेट को उसे देते हुए बोला-"इसमें कुछ किताबें हैं तुम्हारे लिए।"

लॉयेना और प्रवीण को विदा कर कैथरीन सोच में पड़ गई। न जाने क्या डिस्कस करना चाहता है प्रवीण। इतना तो तय है कि दोनों अपने दांपत्य जीवन में खुश नहीं हैं और इसकी बहुत कुछ जिम्मेवार अम्मा हैं। उन्होंने शेफालिका को भी अपने ढंग से जीने नहीं दिया और अब लॉयेना।

तभी फोन के स्क्रीन पर नरोत्तम नाम चमका। घड़ी देखी शाम के 6: 30 बजे थे। भारत में रात के 11: 00 बजे होंगे। नरोत्तम गिरी के विश्राम का समय... उसने पूछा "सोए नहीं नरोत्तम?"

"सोने के लिए रात पड़ी है। तुम क्या कर रही हो कैथरीन?"

"कुछ खास नहीं। अभी-अभी प्रवीण और लॉयेना गए हैं। प्रवीण आद्या के पिता।"

"हाँ बताया था तुमने। किताब अभी कितनी बाकी है?"

"बस खत्म हुई समझो। खत्म करने के लिए तुम्हारे पास आना होगा। किसी भी चीज का अंत बहुत सरल नहीं होता और वह भी तब जब आप पूरी तरह उससे जुड़े हों।"

"स्वागत है तुम्हारा। पर मेरे पास आकर तुम्हें किताब का अंत कैसे मिलेगा?"

"तुम्हीं तो आदि हो, अंत भी तुम्हीं। मैं मध्यमा हूँ तुम्हारी जिंदगी की।" "किसी के जीवन में प्रवेश करना क्या इतना आसान है?"

"नहीं, बिल्कुल नहीं। लेकिन जब कोई व्यक्ति हमेशा आस-पास हो तो पता थोड़ी चलता है आप कब उसके हो गए।"

बात करते-करते फोन कवरेज एरिया से बाहर हो गया।

कैथरीन को फिर देर तक सूझा ही नहीं कि क्या करे। किचन में आकर डिब्बे खोल-खोल कर देखे। नौकरानी बहुत कुछ बना कर गई थी डिनर में। सोचा होगा रॉबर्ट, आद्या भी डिनर करेंगे लेकिन वे दोनों तो नाटक देख कर बाहर ही डिनर लेंगे। फॉर्म हाउस आएंगे ही नहीं। लेकिन कैथरीन रुकेगी यहाँ कुछ दिन। किताब का काम आगे बढ़ाना है और एक दो जरूरी आलेख भी लिखना है पत्रिका में कॉलम के लिए।

दूसरे दिन शाम को प्रवीण अकेले आया।

"तुमसे जरूरी बात डिस्कस करनी थी न। लॉयेना को बताया ही नहीं है कि मैं यहाँ हूँ।"

लॉयेना के प्रति प्रवीण की तटस्थता कैथरीन के लिए तकलीफदेह थी। वैसे भी अब प्रवीण से कैथरीन के पुराने जैसे सम्बंध तो रहे नहीं। लेकिन वह इसे लॉयेना के हित में अच्छा ही मानती है। प्रवीण का इस तरह अकेले आना और बिना किसी भूमिका के अपनी बात पर उसकी राय जानना कैथरीन की उत्सुकता बढ़ा रहा था-"बताओगे भी, बात क्या है?"

कॉफी नहीं पिलाओगी? ऑफिस से सीधा यहीं आया हूँ। "

कॉफी कैथरीन को खुद ही बनानी पड़ी। नौकरानी आज छुट्टी पर है। कॉफी के साथ प्रवीण का मनपसंद नमकीन भी था। "

"अरे तुम्हें अभी तक याद है मेरी पसंद नापसंद!"

प्रवीण के कहने पर कैथरीन ने विस्मय से उसकी ओर देखा। कहना चाहा तुम तो ऐसे कह रहे हो जैसे मैंने नई दुनिया बसा ली हो।

"कैथरीन अब मैं भारत शिफ्ट होना चाहता हूँ। बुढ़ापा तेजी से दस्तक दे रहा है। शांतनु और दुष्यंत को भी देहरादून में पढ़ाने का सोचा है और सबसे बड़ी बात अम्मा... जिंदगी भर वे मेरी ज़िद्द पर विदेश में रहीं। अब जबकि उनके जीवन की सँध्या है वे लखनऊ रहना चाहती हैं। हमारे सब रिश्तेदार भी वहीं हैं।"

"लॉयेना से यह बात डिस्कस की?"

"डिस्कस क्या करना। बता दिया है। उसकी ओर से कोई रिस्पांस अभी तक नहीं मिला। कभी-कभी उसका यह व्यवहार चुभ जाता है। वह तुम्हारी बहन जरूर है पर तुम्हारे जैसी नहीं कैथ।"

प्रवीण के स्वर में जैसे पछतावा-सा था।

"मुझे पता है मेरा यह कदम मुझे तुमसे दूर ले जाएगा। पर शायद जिंदगी की यही सच्चाई है।"

कैथरीन नहीं चाहती थी कि प्रवीण उसे लेकर भावुक हो।

"प्रवीण अब जब सोच ही लिया है तो ठीक ही सोचा है। वैसे भी किसी एक मुकाम पर आकर जिंदगी के मायने बदल जाते हैं। स्थितियाँ बदल जाती हैं। हम जो चाहते हैं वह हो नहीं पाता। आद्या और रॉबर्ट को भी ऑस्ट्रिया के शहर वियना में विदेशी कंपनी का बहुत बढ़िया पैकेज मिला है। फिलहाल तीन साल का।"

"हाँ बताया था आद्या ने। उनका फ्यूचर ब्राइट है। चिंता दोनों बेटों की है।"

"तुम्हारे बिजनेस का क्या होगा?" "बिज़नेस भी लखनऊ शिफ्ट कर रहा हूँ। हालाँकि वहाँ संभावनाएँ कम हैं। मेरी हेल्थ भी अब इतनी मेहनत अलाउ नहीं करती। लॉयेना ने काफी कुछ सीख लिया है। शायद संभाले।"

"कैथरीन अपनी उदासी प्रवीण के सामने प्रकट होने से रोक नहीं पाई।"

"मेरा तो सब कुछ छूट जाएगा। इस उम्र में मैं इतनी तनहा... आद्या के लिए तो उसका भविष्य ही सोचा था। पर तुम से और लॉयेना से हिम्मत थी... हम दूर थे पर एक ही शहर में थे। सूनी जिंदगी के लिए यह एहसास बहुत मायने रखता है।"

"कैथ तुम भी आद्या के साथ वियना में रहो। बहुत सहारा हो जाएगा तुम्हें उनका।"

"हाँ आद्या की भी यही इच्छा है। देखती हूँ जिंदगी कहाँ ले जाती है।" कहते हुए कैथरीन किचन की ओर मुड़ी-

"बहुत सारे फलों का कॉकटेल रखा है। तुम भी पी कर देखो। फिर जाना।"

कॉकटेल पीते हुए कैथरीन को लगा जैसे उसकी जिंदगी भी कॉकटेल की तरह ही है। इतनी घटनाएँ, इतने संयोग, वियोग। एक सिरा पकड़ने की कोशिश में सभी सिरे उलझते गए। यह कैसा वीतराग! यह कैसा जाल का फैलाव! जिसमें वह उलझती जा रही है। लेकिन क्या जाल सिर्फ उलझाव है? वह तो कितना कुछ समेट लेता है अपने में। कितना कुछ बांट देता है मनुष्य के रिक्त जीवन में कि जिनके सुख फिसलते गए थे और वे रिक्त होते गए थे। कोई यूँ ही नहीं देता कुछ। एक आस बनी रहती है समेटने और देने के बीच। कैथरीन उस आस को बड़ी शिद्दत से अपने अंदर समेटे है। अब जब सब कुछ छूट रहा है। तो नए दरवाजे भी खुल रहे हैं। आद्या के साथ वियना में रहने के, नरोत्तम गिरी के जीवन को और अधिक अपने नजदीक लाते रहने के, किताब के बहाने जिसका सर्जन ईश्वरीय संकेत है। छूट जाने की इस पीड़ा में कैथरीन ने नरोत्तम गिरी की पीड़ा भी महसूस की। नरोत्तम गिरी से भी छूटता गया कितना कुछ। प्रेम उससे धीरे-धीरे सब कुछ छीनता गया। वह नागा बनने की गहरी वेदना से गुजरता गया। ऐसा करते हुए वह ईश्वर के और नजदीक होता गया। पर वह मार्ग कंटकाकीर्ण था और वह लहूलुहान होता रहा। तपता रहा और तप कर स्थिर हो गया।

आद्या वियना जाने की तैयारी में जुटी रही। कंपनी उन्हें वहाँ रहने को घर देगी, गाड़ी देगी।

"ममा, बस दो महीने बाद तुम्हें बुला लूंगी। यहाँ थोड़ी रहने दूंगी अकेले तुम्हें।"

"मगर मेरा भारत जाना होता रहेगा। एक बड़े मिशन को मुझे अंजाम देना है।"

"हाँ ममा, मैं सब इंतजाम कर दिया करूँगी। जब छुट्टी मिलेगी तो मैं भी तो मिलना चाहूँगी दादी, पापा और भाइयों से लखनऊ में।"

तो आद्या को भी लगाव नहीं है लॉयेना से। सब कुछ होते हुए भी लॉयेना बिल्कुल अकेली है। उसकी पीड़ा तो कैथरीन की पीड़ा से भी ज्यादा हुई। उसकी इस हालत की जिम्मेदार कैथरीन ही है। उसी ने प्रवीण से शादी करने का उस पर दबाव डाला था जबकि लॉयेना के सामने पत्रकारिता का ब्राइट फ्यूचर था।

उसने देखा सामने लॉयेना है उदास, हारी हुई सी, बिल्कुल परछाई-सी दिख रही है

"लॉयेना तुम यहाँ हो न..."

"हाँ मगर तुम बिना लाइट जलाए इस तरह कमरे में बैठी क्या कर रही हो?"

कमरे की लाइट जलाते हुए लॉयेना ने कहा। वह हड़बड़ाते हुए लॉयेना से लिपट गई। आँखें डबडबा आईं-"अरे क्या हुआ, कुछ कहो तो सही।"

उसने, आँसू पोछते हुए नहीं में सिर हिलाया और सोफे पर बैठ गई। फिर सिगरेट सुलगाते हुए एक सिगरेट लॉयेना को भी दी। इस बार

लॉयेना बेझिझक थी।

"तुम तो खुद को धुँए में डुबो लेती हो पर मैं... कैथ मुझे लखनऊ में प्रवीण का बिजनेस संभालना है। अम्मा की सेवा करनी है। अपने दोनों बेटों से दूर रहकर। प्रवीण अम्मा को लेकर चिंतित व्याकुल रहते हैं। फिर क्यों मेरे बेटों को मुझसे दूर रख रहे हैं। मेरा देश, मेरे बेटे, मेरी कैथरीन ...ओह, सबसे महज एक जिद्द के आगे वियोग!"

"रिलैक्स लॉयेना, जीवन की हर स्थिति का सामना करो। या तो समर्पित हो जाओ या अलग हट जाओ।"

"नहीं कैथ, मैं समर्पित नहीं हो सकती। न अलग हट सकती। दोनों ही स्थितियों में हार मेरी ही है और हार मुझे मंजूर नहीं।"

फिर हंसते हुए कैथरीन के दोनों हाथ पकड़ कर बोली-"यह क्यों भूलती हो, बहन हूँ तुम्हारी।"

कितने हिस्सों में बंट गई है कैथरीन। लॉयेना

को भी उसकी जरूरत है, आद्या को भी उसकी जरूरत है। आद्या जिसे बचपन में ही शेफालिका छोड़कर चली गई थी। आद्या को माँ का प्यार नहीं मिला और लॉयेना को पति का। वह दोनों के बीच सूत्र बनकर रही हमेशा।


दो महीनों में बहुत कुछ बदल गया। प्रवीण लाव लश्कर बिजनेस सहित लखनऊ शिफ्ट हो गया। आद्या और रॉबर्ट वियना में सेटल हो गए और वह वियना जाने की तैयारी में जुट गई। इस बीच नरोत्तम गिरी से संपर्क नहीं हो पाया था। आखिरी बार तब जब वह हिमालय में तप के लिए प्रस्थान कर रहा था

"कल हम चले जाएंगे तप के लिए हिमालय की ओर।"

"मैं भी वियना हफ्ते भर बाद। आद्या और रॉबर्ट वहाँ सेटल हो गए हैं।"

" जीवन की विसंगतियों में तुम भी उलझ रही हो कैथरीन। तुम्हारा ध्यान बना रहता है, ईश्वर के ध्यान के साथ।

"यह तो गलत है नरोत्तम। यह तो भटकाव है"

"भटकने दो न मुझे। यह भटकाव भी ईश्वर का दिया हुआ है। उसकी इच्छा के बिना कुछ भी संभव नहीं। वरना तुमसे मुलाकात होती क्या... कल्पनातीत..."

कैथरीन विलग नहीं है ऐसी भावनाओं से। वह भी इस अनुभूति से गुजर रही है।

"सुनो कैथरीन यह जो तुम अपना राजपाट छोड़ कर वियना जाओगी यह भी तो तप है। तप में स्वयं को भूलना होता है। मुझे लगता है तुम स्वयं को भूल चुकी हो।"

"हाँ नरोत्तम, तुम्ही से सीखा यह भी। तुम्ही मेरे गुरु, अध्यापक, प्राण सखा।"

निःशब्द रहे दोनों देर तक। फोन रखते हुए कैथरीन असीम आनंद में थी।