कैथरीन और नागा साधुओं की रहस्यमयी दुनिया / भाग - 14 / संतोष श्रीवास्तव
5 वर्ष हिमालय में तपस्या कर नरोत्तम गिरी हरिद्वार लौटा। आते ही उसे बुखार ने जकड़ लिया। अखाड़े के वैद्य जी ने जड़ी बूटियों का काढ़ा पिलाया पर बेअसर। महीना भर गुजर गया। बुखार उतरने का नाम ही नहीं ले रहा था। छाती में कभी-कभी तेज़ दर्द उठता और वह तड़प जाता।
"यह तुम्हें क्या हो गया नरोत्तम?" गुरुजी उसकी हालत पर चिंतित थे।
"ठीक हो जाएगा गुरुजी। अभी समय अनुकूल नहीं है। व्याधि के घेरने का यही कारण है।"
नरोत्तम ने गुरुजी को प्रणाम करते हुए कहा।
"मुझे लगता है तुम्हें विशेषज्ञ को दिखाना पड़ेगा। बुखार निरंतर तुम्हें जकड़े है। जो ठीक नहीं।"
"गुरुजी उसकी आवश्यकता नहीं पड़ेगी। मैं ठीक हो जाऊँगा।"
"ठीक है देखते हैं 2 दिन और।" कहते हुए गुरु जी चले गए। उसने पानी पीने को कमंडल की ओर हाथ बढ़ाया ही था कि कैथरीन का फोन आ गया।
"अब कैसी तबीयत है नरोत्तम?"
नरोत्तम गिरी को आश्चर्य हुआ? "तुम्हें कैसे पता चला। मैं तुम्हें फोन करने ही वाला था लेकिन..."
"तुम फोन नहीं करोगे तो क्या मुझे तुम्हारी हालत पता ही नहीं चलेगी।"
"अंतर्यामी हो तुम!"
"गुरुजी ने बताया। चिंता कर रहे थे। नरोत्तम मेरा सबसे प्रिय शिष्य है। हे ईश्वर उसे कुछ न हो।"
"ओह, गुरुजी को मैंने चिंता में डाल दिया।"
"अब तुम यह सब मत सोचो। अपनी तबीयत पर ध्यान दो। तुम्हें अच्छा होना है हम सब के लिए। आद्या ने मेरी टिकट करा दी है। मैं अगले हफ्ते 10 तारीख को तुम्हारे पास पहुँच जाऊँगी।"
नरोत्तम का मन खिल गया। जैसे वह प्रतीक्षा कर रहा था कि कैथरीन कहे कि वह आ रही है। इतने वर्ष हो गए, न जाने कैसी होगी वह। वह और आद्या। हालाँकि उसकी भेजी तस्वीरों से और फोन पर हुए निरंतर वार्तालाप से इतने बरसों का सन्नाटा अखरा नहीं।
"आद्या कैसी है?"
"फाइन। उसे यहाँ वियना में बहुत अच्छा लग रहा है। कंपनी का जॉब भी वह एंजॉय कर रही है और उसके फ्रेंड्स का बहुत बड़ा सर्कल भी बन गया है। जिसमें वह रमी रहती है।"
"और तुम्हारी किताब?"
"उसका क्लाइमैक्स बाकी है अभी।"
"क्लाईमैक्स के लिए आ रही हो? कथा का अंत यहीं होगा। है न कैथरीन?"
इस साल किताब पूरी करने का इरादा है इन बीते वर्षों में उसे छोड़ मेरी चार किताबें पब्लिश हुई हैं। जिनमें से दो हिंदू आध्यात्म पर हैं। "" वाह बधाई, एक निवेदन है भोजवासा किताब की पांडुलिपि ले आना। हम पढ़ना चाहते हैं किताब। "
"छपने के बाद पढना। उसका नाम रखा है" दिव्य पुरुष नरोत्तम नागा"
आद्या ने उसके लिए बेहतरीन चित्र बनाएँ हैं, कहानी से मैच करते। जो किताब में प्रकाशित होंगे। छपने के बाद पढ़ना पूरी किताब। "
"छपने के बाद तो पढ़ेंगे ही। आग्रह है ले आना पांडुलिपि।"
महाराज जी काढ़ा ले आए थे।
"अब रखिए मोबाइल। आपको बहुत जोर पड़ रहा है बातचीत में।" कैथरीन ने सुन लिया, कहा-"अपना ध्यान रखना नरोत्तम शुभरात्रि।"
नरोत्तम गिरी की हालत दिनोंदिन बिगड़ती जा रही थी। गुरुजी उसका विशेष ध्यान रखते। अखाड़े के सभी नागा उसके आसपास मंडराते रहते। उसका प्रिय मित्र गीतानंद गिरि लगातार उसकी सेवा में रत था। उलाहना भी देता
"तुमसे चूक हो गई नरोत्तम। सौ परसेंट नागा नहीं बन पाए तुम।"
वह तेज बुखार में भी उठ कर बैठ गया-
"क्या कहते हो गीतानंद! स्वयं को तपा डाला, भूल गया मैं अपना होना।"
"यही तो पीड़ा की बात है कि तुम भूले नहीं स्वयं को।"
"कहीं तुम्हारा इशारा कैथरीन की ओर तो नहीं है?"
गीतानंद हंसा-"लो पढ़ना शुरू कर दो। कैथरीन ने अपनी किताब की पांडुलिपि भेजी है।" दिव्य पुरुष नरोत्तम नागा"आहा, लीजेंड (legand) लेकिन लीजेंड का एक अर्थ किंवदंती भी होता है। क्या तुम किंवदन्ती बनोगे?"
"क्या यह मेरे चाहने पर निर्भर है? छोड़ो यह सब। कुछ पेज पढ़ कर सुनाओ।"
गीतानंद गिरि पढ़ने लगा-
"जब मैं उससे पहली बार मिली वह किसी रोमन साम्राज्य का शापित राजकुमार लगा। वैसा ही सुगठित, मोहक बड़ी-बड़ी आँखों में संसार के उस पार का रहस्य जानने की जिज्ञासा। उन्नत ललाट पर तिलक जैसे आवाहन देता-सा कि आओ मुझ में समा जाओ और मैं समा गई। मैं उसकी जिज्ञासा भरी आँखों के समंदर में गोते लगाने लगी। एक लहर आती और मुझे भीतर तलहटी तक ले जाती। दूसरी लहर मुझे उछाल कर ऊपरी सतह पर ले आती। मैं लहरों पर सवार न डूबती न उबरती... कैसा दिव्य व्यक्तित्व उसका...उसका नरोत्तम का।" नरोत्तम ने सुनते हुए आँखें मूँद लीं और एक विशाल दुनिया में खो-सा गया। जहाँ वह होकर भी नहीं था, नहीं हो कर भी था। उसे लगा उसे नींद आ रही है। नींद में कैथरीन ही बिराजी है। यह कैसी तंद्रा जिसके आगोश में वह डूबता जा रहा है। गीतानंद गिरि ने पढ़ना बंद किया। कमरे की लाइट बुझाई और अपने कक्ष में चला गया।
जड़ी बूटियों का लेप, काढ़ा, परहेज से नरोत्तम गिरी धीरे-धीरे ठीक होने लगा। आज कैथरीन आएगी। वह उत्साह से भरा है। दूध और फलों का सेवन कर वह लैपटॉप पर कैथरीन की किताब की पांडुलिपि पढ़ने लगा।
"नरोत्तम।" पुकार एकदम नजदीक थी।
"कैसे हो नरोत्तम? मैंने ईश्वर से प्रार्थना की है। तुम्हें कुछ नहीं होगा।"
कैथरीन ने उसके कमरे में प्रवेश करते हुए कहा। नरोत्तम की आँखों में चमक आ गई।
" एक युग में बस एक ही वर्ष कम है जब हम मिले थे।
"एक युग अर्थात बारह वर्ष... है न।"
वह नजदीक बैठ गई।
"मैंने भारतीय समय की गणना भी पढ़ी है। अद्भुत। सुनो आद्या ने कहा है मैं तुम्हें वियना ले आऊँ। वहाँ तुम्हारा विशेषज्ञों द्वारा इलाज कराऊँ। कुछ दिन हम साथ रहें।" "नागाओं का कैसा इलाज? हम तो जड़ी-बूटियों, परहेज से ठीक हो जाते हैं। कभी न तो अस्पताल जाते, न डॉक्टरों के पास। आज तो मैं काफी अच्छा महसूस कर रहा हूँ।"
"मेरे आने का असर है।"
नरोत्तम गिरी के चेहरे पर मुग्ध मुस्कान थी-"आद्या को ले आना था तुम्हें। वह तुम्हारी प्रतिछाया है। भोली भाली, जिज्ञासु लड़की।"
"ओह, यानी कि उसके बहाने मेरी तारीफ कर रहे हो।"
इतने में गुरु जी आ गए-"माता कैथरीन, जूना अखाड़े में आपका स्वागत है।"
"जी प्रणाम करती हूँ गुरुदेव।"
कैथरीन ने परंपरा अनुसार उनके पैर छुए।
"नरोत्तम गिरी का नागा होना हम सबके लिए प्रेरणादायी है। जिसमें एक खगोल शास्त्री हो, विचारक हो, सारे संसार की चिंता से चिंतित हो, ऐसा व्यक्ति पहली बार नागा रूप में देखा। देखो उसी नागा के लिए आप खिंची चली आई हैं सात समंदर पार से।"
"इनकी तो किताब भी पूरी हो गई" दिव्य पुरुष नरोत्तम नागा"नाम से।"
गीतानंद गिरी अपने साथ महाराज को लिए हुए आया। महाराज के हाथ में कैथरीन के लिए चाय का कुल्हड़ और दोने में गरमा गरम आलू पोहे थे।
"अच्छा, यह तो बढ़िया खबर दी गीतानंद गिरि तुमने। इस तरह की यह पहली किताब होगी। जिसे एक विदेशी लेखिका ने जूना अखाड़े के विशिष्ट नागा के बारे में लिखी है।" गुरुजी ने कहा तो कैथरीन खुशी से खिल उठी-"गुरु जी इसे पब्लिश भी भारत में ही कराएंगे।"
"अवश्य।"
"एक बात कहूँ गुरुजी। भारत की प्रतिभा विदेशी पहचानते हैं। आपके देश के महात्मा गांधी पर विदेशी निर्माता रिचर्ड एटनबरो फ़िल्म बनाता है और तब भारतीय निर्माता जागते हैं। इसी तरह मशहूर अभिनेत्री नाडिया जिसकी सफलतम हिन्दी फिल्म हंटरवाली ने तहलका मचाया था। वह ऑस्ट्रेलियन थी। पर्थ नगर में पैदा हुई तब उसका नाम मैरी एन इवान था। भारत के होमी वाडिया के प्रेम में गिरफ्त हो वह भारत आ बसी। प्रेम का ऐसा समर्पण कि वाडिया मूवीटोन के द्वारा निर्मित फिल्मों में ही जिंदगी भर काम किया। लेकिन उसकी प्रतिभा को पहचाना अंतर्राष्ट्रीय निर्माता मारियान बार्ल्स ने और" नाडिया दि फियरलेस"वृत्तचित्र का निर्माण किया। नाडिया दी फियरलेस में नाडिया के जीवन, होमी वाडिया से रोमांस, कला जगत में सफलता के परचम लहराते हुए लगभग 35 फिल्मों में अभिनय का सफर और होमी वाडिया के संग निर्विरोध चला 30 वर्षों के संग साथ का वर्णन है।"
"बहुत बढ़िया जानकारी दी माता कैथरीन। यह बात सत्य है कि भारत की प्रतिभाओं को भारतवासी नहीं समझ पाए।" गुरुजी ने कहा। इतनी देर से शांत बैठे नरोत्तम गिरी से रहा नहीं गया-
" यह भी तो हो सकता है गुरु जी। हम सार्वभौमिक हैं। विश्व के किसी भी देश में लोग अपना समझकर हम पर कलम चला लेते हैं। फिल्म बना लेते हैं।
"बहुत खूब, सौ प्रतिशत सही कथन।"
"लेकिन एक विदेशी प्रतिभा को हमने पहचाना।"
"वह कौन?"
आप स्वयं माता कैथरीन। विदेशी होते हुए भी आपका संस्कृत और हिन्दी पर जो प्रभुत्व है उसके हम कायल हैं। बल्कि हम तो कहेंगे कि अगर जूना अखाड़ा के नरोत्तम गिरी कोहिनूर हैं तो आप भी बेशकीमती हीरा हैं। "
"ओह आज तो मुझे गुरुजी के द्वारा पारितोषिक मिल गया।"
"आप इस योग्य हैं। अब आप नरोत्तम गिरी से वार्तालाप करिए। हम चलते हैं। रात्रि को भोजन कक्ष में आपसे भेंट होगी। महाराज जी और नरोत्तम से दीक्षा पाए नागा आपके लिए कुछ विशेष बना रहे हैं।"
गुरुजी के साथ गीतानंद गिरि भी चला गया।
"अब मेरे मन में नागाओं को लेकर कोई प्रश्न नहीं है। मैंने कुंभ भी देख लिया। शाही डुबकियाँ भी देख लीं। संतो, महामंडलेश्वरों के साथ ही नए बने नागा सन्यासियों की डुबकी लगाने की आतुरता भी देख ली। कितनी बार उन्हें धूनी के सामने बैठकर पूरी रात ओम नमः शिवाय का मंत्र जाप करते देखा। पवित्र भभूत भी तैयार होते देखी। साथ ही गुरु मंत्र का जप भी देखा पर नहीं देख पाई तुम्हारी गहराई। तुम विलक्षण हो नरोत्तम।"
नरोत्तम गिरी निर्विकार था। जानता है कैथरीन उससे मोहवश यह सब कह रही है। लेकिन वह इस बात से भी चकित है कि उसमें नागाओं के प्रति कितना आकर्षण है!
"तुम्हें पता है नरोत्तम। मैंने जूना अखाड़ा के उप गवर्नर और एबीएपी (अखिल भारतीय अखाड़ा परिषद) के जनरल सेक्रेटरी महंत हरी गिरी जी से भी मुलाकात की। जब मैंने उनसे पूछा कि नागा बनने के लिए बैकग्राउंड कैसा होना चाहिए? उन्होंने कहा कि जाति धर्म चाहे जो हो लेकिन जो व्यक्ति वैराग्य की तीव्र इच्छा रखता है वह नागा साधु बनने के योग्य है। इनमें वे लोग भी शामिल है जो पहले डॉक्टर, इंजीनियर, प्रोफेसर रह चुके हैं। तुम भी तो प्रोफेसर थे। बल्कि हो नरोत्तम। दिल्ली में तुम साइंस पढ़ाते थे इधर नए नागा रंगरूट तैयार करते हो। तुम्हारा जीवन बेहद कठिन है। रास्ते दुर्गम लेकिन तुम ऊपर से चाहे जितने कठोर बनो अंदर से बेहद नरम हो जैसे नारियल।"
दोनों ही देर तक हँसते रहे। तभी एक नागा युवक नरोत्तम गिरी के लिए फलाहार और दूध ले आया। गर्म पानी कमण्डल में भरकर रख दिया। आसन झटक कर उसने नरोत्तम के पैर छुए।
"माताजी, भोजन के लिए चलिए। मैं रात को आऊँगा गुरुजी आपके पैर दबाने।"
उसके जाते ही नरोत्तम गिरी ने बताया-
"कैथरीन यही है विशाल सिंह जिसकी मैंने तुम से चर्चा की थी। अब इसका नाम घनश्याम गिरि है।"
"घनश्याम तो बहुत हैंडसम है। बिल्कुल तुम्हारी तरह।"
"मेरी बहुत सेवा करता है। कॉमर्स की पढ़ाई के दौरान इसे एहसास हुआ कि इसका उद्देश्य नागा होना है। सनातन धर्म को अपने बूँद भर योगदान से आगे बढ़ाना है। इसने पढ़ाई छोड़ दी और नागा ट्रेनिंग लेनी शुरू कर दी। बहुत कुशाग्र है। 2 साल बाद ही इसे हरिद्वार के कुंभ में नागा बनने के लिए दीक्षा दी गई है।"
"यानी यह बर्फानी नागा है। तुमने भी तो हरिद्वार के कुंभ में ही दीक्षा ली थी न नरोत्तम?"
घनश्याम गिरि दोबारा आया-"चलिए माता भोजन कक्ष में सब आपकी प्रतीक्षा कर रहे हैं।"
"जाओ कैथरीन भोजन कर लो।"
" अब तुम भी विश्राम कर लो फलाहार लेकर। इतनी देर से मुझे ध्यान ही नहीं रहा कि तुम थक गए
होगे। "
"नहीं मैं थका नहीं हूँ, लेकिन अब विश्राम करना चाहता हूँ।"
"शुभरात्रि" कहते हुए
कैथरीन घनश्याम गिरी के साथ भोजन कक्ष में आई। गुरुजी और अन्य नागा सभी प्रतीक्षा कर रहे थे। गुरु जी ने सभी से कहा
"यह कैथरीन बिलिंग ऑस्ट्रेलिया निवासी हैं लेकिन फिलहाल जर्मनी के वियना शहर से आई हैं और हम नागाओं पर किताब लिख रही हैं।" सभी ने करतल ध्वनि से हर्ष व्यक्त किया।
" किताब का अंतिम अध्याय लिखना अभी बाकी है। माता कैथरीन किताब भारत से ही प्रकाशित करवाना चाहती हैं। वे स्वयं नागा नहीं है पर हमारे नागा समुदाय की सदस्य जैसी हैं।
कैथरीन ने देखा कुछ महिला नागा भी साथ में ही भोजन के लिए बैठी हैं। महिला नागा वह प्रथम बार देख रही है। कितना परिवर्तन होता जा रहा है नागाओं के समुदाय में लेकिन इतना तो तय है कि नागाओं का आकर्षण आम जन समूह में कम नहीं है। सनातन धर्म में विश्वास करने वाले बड़े-बड़े उद्योगपतियों के दान से पोषित यह समुदाय दिनों दिन तरक्की की राह पर है। अब तो नागाओं के व्हाट्सएप ग्रुप भी हैं जिनसे कई वैष्णव नागा संत जुड़े हैं और अपनी-अपनी जानकारियाँ एक दूसरे से शेयर करते हैं।
भोजन बहुत स्वादिष्ट था। भोजन के बाद महाराज ने बूंदी से भरे दोने परोसे-"लो माता, किताब की खुशी में गर्मागर्म बूंदी।"
बूंदी पीली और नारंगी रंग की मिक्स थी जिस पर खरबूजे के बीज, इलायची के दाने और केवड़े की खुशबू थी।
"अमेजिंग, बहुत ही स्वादिष्ट है यह।" कैथरीन ने बूंदी का आनंद लेते हुए कहा।
भोजन समाप्त कर सब अखाड़े के प्रांगण में जो टीन की छत वाला था और जहाँ धूनी रमी हुई थी बैठ गए। धूनी के अंगारे तेजी से धधक रहे थे। सभी ने चिलम पीना शुरु किया और आध्यात्म की बातों में मगन हो गए। कैथरीन महिला नागाओं से थोड़ी बहुत जानकारी लेती रही। उनमें से एक महिला नागा काफी वाचाल लग रही थी, हँसमुख भी। उसी से पूछा कैथरीन ने-"आपका नाम क्या है? कैसा लगता है आपको नागा सन्यासी बन कर?"
" हम शैलजा माता हैं। माया मोह त्यागकर अखाड़े में शामिल हुए हैं।
न मन पर कोई बोझ, न तनाव। परमानंद की अवस्था है। "
कैथरीन ने देखा शैलजा माता का सिर घुटा हुआ, माथे पर तिलक और शरीर पर एक गेरुआ वस्त्र जिसकी गठान गर्दन के पीछे लगी थी। बाकी की महिला नागाओं के खुले लंबे बाल थे।
"यह हमारा गेरुआ वस्त्र देख रही हो? यह 5 मीटर का होता है। यह कहीं से भी सिला नहीं होना चाहिए। हाँ हमारी नागा बनने की प्रक्रिया भी पुरुषों जैसी ही होती है।"
"लेकिन वह तो नपुंसक बना दिए जाते हैं। मगर आप!"
कैथरीन संशय से गुजर रही थी।
"6 से 12 साल लगते हैं हमें नागा बनने में। उस समय कठोर नियमों से हमें गुजरना होता है। पांच छै दिन हमारी योनि को शिथिल करने के लिए हमें भूखा रखा जाता है। हमारी कामेच्छा उसी दौरान समाप्त हो जाती है। बाकी शक्ति हमारी माता पार्वती और शिव भोला भंडारी हमें देते हैं।"
"ओह" कैथरीन हतप्रभ थी। कितनी कठोर साधना, कितना कठोर जीवन। सचमुच ये धरती पर विलक्षण प्रतिभा के हैं। कैथरीन जब शयन के लिए कक्ष में आई तो उसने नरोत्तम के कमरे में झाँक कर देखा। नरोत्तम सो रहा था और घनश्याम उसके पैर दबाते हुए ऊँघ रहा था। उसने दबे पाँव जाकर घनश्याम के कंधे पर हाथ रखा-"तुम्हारे गुरु जी सो गए हैं। जाओ तुम भी सो जाओ।"
घनश्याम आज्ञा मिलते ही शयन के लिए चला गया।
कैथरीन बिस्तर पर लेटी अद्भुत अहसास से गुजर रही थी।
फोन पर लॉयेना थी।
"तुमने तो हरिद्वार पहुँच कर फोन तक नहीं किया। मुझे आद्या से पता चला कि तुम हरिद्वार में हो।"
लॉयेना का स्वर शिकायती होना स्वाभाविक था। कैथरीन ने तो अपने पहुँचने की सूचना आद्या को भी नहीं दी। कैसी विस्मृत अवस्था में पहुँच गई है वह यहाँ आकर।
"ओ लॉयेना माय डियर, तुम समझ सकती हो। मैं अद्भुत अहसास से गुजर रही हूँ यहाँ आकर। जैसे सब कुछ अदृश्य है, दृश्य है तो केवल जूना अखाड़े का यह आश्रम। कितना अनूठा वातावरण है यहाँ का। मैं जैसे ईश्वर के बिल्कुल नजदीक हूँ।"
पल भर ठहर कर उसने पूछा-"तुम कैसी हो लॉयेना? अब तक तो तुम लखनऊ में एडजस्ट हो गई होगी?" "तुम्हारे एहसासों को सुनकर अच्छा लगा। सचमुच कैथ तुम असाधारण हो। दुनियावी मसलों से दूर। अपने मन की नदी में बहती।"
"प्रवीण कैसा है? बिजनेस जम गया होगा उसका?"
"नहीं कैथ, जमने में समय लगेगा। दुष्यंत, शांतनु देहरादून में पढ़ाई कर रहे हैं। अक्सर में ही चली जाती हूँ उनके पास ताकि अपने बच्चों के साथ खुलकर जी सकूँ। प्रवीण अम्मा की सेवा, बिजनेस की दौड़ में व्यस्त रहते हैं। स्वास्थ्य पर भी ध्यान नहीं देते।" फिर फीकी-सी हँसी फोन पर सुनाई दी"मातृ भक्त हैं न।"
"सोच रही हूँ लखनऊ होती हुई वियना लौटूं। मैं तुम्हें देखना चाहती हूँ प्रवीण के घर में रानी के रूप में।"
एक ठहाका फोन को कँपा गया। ठहाके से मानो एक वेदना से फूटी पड़ रही थी, कैथरीन स्पष्ट महसूस कर रही थी लॉयेना की मनःस्थिति।
"मैं भी मिलना चाहती हूँ तुमसे। आ जाओ।"
"ठीक है। अपना ख्याल रखो। अब फोन रखती हूँ। आद्या का फोन आ रहा है।"
फिर देर तक आद्या से बात करती रही कैथरीन। लेकिन लॉयेना की बातों ने उसे व्यथित कर दिया था। रात सपने में उसने प्रवीण और लॉयेना को देखा। स्टीमर पर लॉयेना है। स्टीमर समुद्र की लहरों पर हिचकोले ले रहा है और उसके पीछे एक नाव पर प्रवीण है। लॉयेना दोनों हाथ उठाए प्रवीण को बुला रही है, जोर-जोर से चिल्ला रही है। घबराकर कैथरीन की नींद खुल गई। घड़ी देखी सुबह के 4: 00 बजे थे। आश्रम नागाओं की दैनिक क्रियाओं की चहल-पहल से भरा था।
गुरुजी ने घनश्याम को आदेश दिया था कि जंगल से जड़ी बूटियाँ ले आए। कैथरीन भी उसके साथ हो ली।
हरे-भरे मीलो फैले जंगल में जड़ी बूटियाँ अपने आप उगती हैं। पर उनको पहचानना, ढूँढना कठिन था। कई पौधे तो ऐसे हैं जैसे बिल्कुल जड़ी-बूटी ही हों पर वे असली जड़ी बूटी के करीब उगे जंगली पौधे थे। लेकिन घनश्याम को जड़ी बूटियों की काफी समझ थी। वह पत्तों को सूँघ कर पहचान लेता था। शायद इसीलिए गुरुजी ने उसे यह काम सौंपा।
" देखिए माता, यह बिच्छू बूटी है।
कितनी सुंदर बूटी है यह। लेकिन अगर इसको छू दो तो यह बिच्छू जैसी काटती है। बहुत दर्द होता है तब। उसके बाजू में जो पालक जैसे पत्तों वाला पौधा है न वह बिच्छू बूटी का तोड़ है। तुरंत ही इसके पत्तों का रस लगाने से दर्द गायब हो जाता है। "
"वाह, तुम्हें बहुत जानकारी है घनश्याम।"
कैथरीन ने घनश्याम को प्रोत्साहित किया।
"माता यह जानकारी तो सभी नागाओं को रहती है। बिना वस्त्र के रहने के कारण शरीर पर की भस्म और यह बूटियाँ शरीर की रक्षा के लिए बहुत काम आती हैं।"
"एक बात पूछूँ घनश्याम।"
"अवश्य माता, पूछिए न।"
"तुम नागा बनने के पहले कहाँ रहते थे? तुम्हारे माता-पिता का नाम क्या है?"
पल भर को रुका घनश्याम उसकी आँखों में कौतूहल था। न जाने क्यों ये इतना सब पूछ रही हैं। ठहर कर बोला-
"हम तो नागा घनश्याम गिरी हैं। पिता शिव जी के पुत्र, पार्वती हमारी माता।"
"नागा बनने के पहले का पूछ रही हूँ विशाल।"
घनश्याम आगे चलते-चलते तेजी से पलटा।
"विशाल! यह नाम आपको आचार्य नरोत्तम गिरी ने बताया होगा। लेकिन उनके तो बहुत सारे शिष्य हैं। मेरे ही बारे में आपको क्यों बताया?"
"तुम मेरे सवाल का जवाब दो। फिर मैं तुम्हारे सवाल का जवाब दूंगी। क्योंकि सवाल पहले मैंने किया था। बताओ विशाल, माता पिता का नाम।"
"घनश्याम के मुँह से अपने आप निकल पड़ा-" पिता कीरतसिंह पुलिस में थे। वे चंबल ऑपरेशन में डाकुओं के हाथों मारे गए। तब मैं 10 साल का था। मेरी माता दीपा ने ही मुझे पाल पोस कर बड़ा किया। घर में दादी हैं। बाबा मेरे जन्म के पहले ही स्वर्ग सिधार गए। "
कैथरीन के आगे नरोत्तम गिरी का अतीत खुलने लगा।
"फिर भी तुम नागा बन गए। माँ के लिए नहीं सोचा?"
दादी ने बताया था कि मेरे देवता समान चाचा मंगल सिंह भी नागा हो गए। मैं उन्हीं के पद चिन्हों पर चलना चाहता हूँ। "
"तुम किसी अखाड़े में मिल चुके हो क्या उनसे?"
"नहीं, लेकिन खोज जारी है।"
कैथरीन ने आगे जानने के लिए घनश्याम का मन टटोला।
"अब जब अपने पिछले जन्म में पहुँच ही गए हो तो प्लीज बताओ दिल्ली में तुम्हारा घर कहाँ था?"
घनश्याम भी रौ में था-ई बटा 95 मालवीय नगर। साइन बोर्ड लगा है घर के गेट पर पिता के नाम का। डीएसपी कीरत सिंह। "
कैथरीन ने बैग में से डायरी निकालकर पता लिख लिया। फिर बरगद की घनी छाँव में बैठते हुए बोली-
"तुम्हारा झोला तो जड़ी बूटियों से भर गया है। और भी लेनी हैं क्या?" "नहीं बस। वापिस चलते हैं अब।" आओ बैठो, एक-एक सिगरेट पीते हैं। "
"सिगरेट? पहली बार पिएंगे हम तो। लेकिन यह सब तो रात्रि भोजन के पहले वर्जित है। ये तो साधना का वक्त है। अखाड़े में लौटकर आचार्य जी को जड़ी बूटियाँ देकर हम साधना, ध्यान, पूजन करेंगे।"
"ओह, अच्छी लगी तुम्हारी दृढ़ता। चलो चलते हैं। मैं भी अखाड़े पहुँचकर ही सिगरेट पिऊँगी।"
दोनों जब अखाड़े पहुँचे तो नरोत्तम गिरी के कक्ष में पहुँचकर कैथरीन ने देखा कि वह ध्यान मग्न था। वह काफी अच्छा महसूस कर रहा था।
"कैसे हो नरोत्तम?"
"ठीक हूँ। बस तीन चार दिन और विश्राम। फिर क्रियाएँ आरंभ।"
"मैं भी तीन दिन बाद लखनऊ प्रस्थान करूँगी। वहाँ आद्या का घर है। मेरी बहन जो आद्या की सौतेली माँ है उससे मुलाकात करनी है फिर दिल्ली के लिए प्रस्थान करूँगी। वहाँ आद्या ने गेस्ट हाउस में कमरा बुक करा दिया है। वहीं रहकर किताब का अंतिम अध्याय लिखूँगी। वक्त भी लग सकता है। शायद महीने दो महीने लग जाएँ। वापसी के पहले तुम्हें वह अंतिम अध्याय मैं खुद यहाँ आकर सुनाऊँगी।"
कैथरीन ने महाराज द्वारा लाई चाय पीते हुए सिगरेट सुलगा ली।
"इतने लंबे समय का कैसे सोच लेती हो कैथरीन? हमारे लिए तो कल का सोचना भी दूभर। हम आज हैं बस यही सत्य है।"
"साधु हो न इसलिए ऐसा सोचते हो। मुझे भी ऐसा ही सोचना चाहिए।" फिर हँसकर बोली-"कहीं तुम मुझे भी नागा साधु बनाने की रूपरेखा तैयार तो नहीं कर रहे हो?"
"यह तो मन में जन्म लेती है। ऐसी इच्छा कोई भी जबरदस्ती किसी पर नहीं थोप सकता। जबरदस्ती किसी को नागा नहीं बनाया जा सकता।"
तभी घनश्याम जड़ी बूटियों से तैयार काढ़ा और एक प्लेट में जड़ी-बूटियों को कूटकर बनाया पाउडर ले आया जिसे नरोत्तम ने शहद में घोलकर खाया। फिर गर्म काढ़ा चाय की तरह पीने लगा। "माता आपका नाश्ता तैयार है।"
"यहीं ला दो घनश्याम। हम नरोत्तम से अभी आवश्यक बातें कर रहे हैं। वैसे भी भोजन कक्ष में अभी कोई होगा तो नहीं। सभी साधना, ध्यान में लीन होंगे।"
घनश्याम चला गया। थोड़ी ही देर में सूजी का मेवों वाला हलवा और दूध ले आया। एक प्लेट में कटे हुए सेब और अनानास की कतलियाँ भी।
"अब तुम्हारी किताब में और क्या जानकारी बाकी है जिसकी तुम्हें प्रतीक्षा है?"
नरोत्तम ने काढ़ा पी लिया था। कैथरीन मजे लेकर गर्म हलवा खा रही थी।
"वाह, तुम भारतीयों का भोजन बहुत स्वादिष्ट होता है। यह प्लेन मिल्क भी कितना स्वादिष्ट है। केसर की खुशबू आ रही है इसमें से।"
नाश्ते के बाद कैथरीन ने सिगरेट पीते हुए कहा-"नरोत्तम थोड़ी जानकारी आज सुबह मिल गई। बस इसी तरह थोड़ी-थोड़ी मिलती जाएगी। मैंने समय निर्धारित कर लिया है दो महीने का। लेकिन मुझे लगता है दो महीने के पहले ही पूरी हो जाएगी किताब।"
"शिवजी तुम्हारा विश्वास कायम रखें। अंतिम अध्याय की पांडुलिपि मेल जरूर करना। बाकी किताब भी मैं लैपटॉप पर पढ़ता रहूँगा।"
"भेज दूंगी। लेकिन अभी तो मैंने तुमसे कहा कि अध्याय पूरा होते ही मैं खुद तुम्हारे पास आकर उसे सुनाऊँगी।"
"इससे बढ़िया और क्या हो सकता है। अपना सर्जन सृजनकर्ता स्वयं सुनाए तो उसमें उसकी भावनाएँ भी जुड़ती जाती हैं। प्रतीक्षा रहेगी कैथरीन। जानना चाहता हूँ तुम मुझे कितना समझ पाईं क्योंकि मैं स्वयं को अभी तक नहीं समझ पाया। ध्यानावस्था में बंद पलकों के सामने एक बड़ा शून्य फैलता जाता है। मैं उसमें स्वयं को बूँद भर भी नहीं पाता।"
"लेकिन मैं जब पलकें मूँदती हूँ तुम पूरे के पूरे मेरे सामने होते हो। हर रात नदी की तरह उमड़ती हूँ तुम्हारी ओर...काश"
"विचलित मत करो कैथरीन मुझे। मैं इससे परे जा चुका हूँ।"
कैथरीन ने एक आह भरी। कितना कुछ सिमट आया उस आह में।
हरिद्वार से दिल्ली आकर कैथरीन ने लखनऊ के लिए फ्लाइट ली। एयरपोर्ट पर लॉयेना आई थी। उसके हाथों में रजनीगंधा के फूलों का गुच्छा था जिसकी खुशबू दोनों के गले लगते ही उन से लिपट गई। कैथरीन ने गौर से देखा लॉयेना को।
"अच्छी लग रही हो कैथ, वियना में रहकर और निखर गई हो।"
"लेकिन तुम मुरझा गई हो। कल से हम तुम्हारी क्लास लेंगे। जिंदगी का पाठ पढ़ाएंगे तुम्हें। मेरे रुकने तक कुछ तो सीख ही जाओगी।" दोनों हँसते हुए कार में बैठीं।
"प्रवीण ने कहा था ऑफिस से मुझे पिकअप कर लेना। चलो उनका ऑफिस भी देख लो।"
दस मिनट में ऑफिस आ गया। कैथरीन को देखते ही खिल पड़ा प्रवीण।
"आओ कैथरीन, तुम्हारा ही इंतजार था।"
"क्या सच?" कहकर दूसरे ही पल उसने लॉयेना के चेहरे पर नजर-नजर डाली। पर वह भावनाशून्य थी।
प्रवीण के घर पहुँचकर कैथरीन ने प्रोफेसर शांडिल्य को फोन लगाया-"कैसे हैं प्रोफेसर, लखनऊ आई हूँ। कुछ दिन रहूँगी यहाँ, आपसे मिलना चाहूँगी।"
"ओह, मिस बिलिंग, इतने सालों बाद? आप कैसी हैं? सुबह ही मिलते हैं।"
"पता मैसेज कर देती हूँ। आप प्रवीण के घर आ जाइए। नाश्ते के बाद आप जैसा प्लान बनाएँ।"
"ओके आता हूँ। दस बजे तक।" फोन रखते ही लॉयेना ने पूछा-"
किससे गुफ्तगू चल रही थी। "" प्रोफेसर शांडिल्य, बहुत दिलचस्प इंसान हैं। पहली बार सिडनी में मुलाकात हुई थी। दूसरी बार जब मैं आद्या को लेकर यहाँ आई थी। "" लो कॉफी पियो। प्रवीण आइए आपकी कॉफी यहीं ले आई हूँ। साथ में बच्चों वाला एल्बम भी ले आइए। "
"बात कर सकते हैं क्या बच्चों से?"
"अभी नहीं, केवल रविवार को। सख्त रूल है।"
"होना भी चाहिए। जिंदगी में अनुशासन बहुत जरूरी है। कभी चलकर नागा साधुओं का अनुशासन देखो। कठोर अनुशासन और नियम, धर्म का पालन करने वाले विलक्षण प्राणी हैं वे।"