कैथरीन और नागा साधुओं की रहस्यमयी दुनिया / भाग - 15 / संतोष श्रीवास्तव

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कैथरीन का कथन प्रवीण के आने से रुक गया।

"किताब पूरी हुई कि नहीं?"

कहते हुए प्रवीण ने कॉफी का प्याला अपने करीब खींचा और एल्बम कैथरीन की ओर बढ़ाया

"लो देखो शरारतियों को।"

अल्बम के पन्ने एक के बाद एक स्वयं लॉयेना खोलती गई-

"यह उनकी स्कूल यूनिफार्म है। यह कैप, यह कत्थई स्वेटर, कोट। दूसरे रंग का नहीं पहन सकते। यह स्कूल की बिल्डिंग है। यह शांतनु का क्लास रूम है। यह दुष्यंत का। यह मैस है। यह प्लेग्राउंड और यह वार्षिकोत्सव का फोटो है। पहचानो इसमें, कहाँ हैं दोनों।"

कैथरीन कई साल के बाद बच्चों को देख रही थी। लंबाई बढ़ गई है पर चेहरे नहीं बदले। उसने तुरंत पहचान लिया दोनों को।

"पहचानेंगी कैसे नहीं। माँ हैं उनकी।" कहते हुए प्रवीण ने दोनों के चेहरों की कैफियत पढ़ी। फिर संभल कर कहा-"माँ और मौसी में अंतर नहीं होता।"

कैथरीन ने बात बदलते हुए कहा-"तुम किताब के बारे में जानना चाह रहे थे प्रवीण। पूरी हो गई है किताब। अंतिम अध्याय के लिए ही हरिद्वार गई थी। नरोत्तम गिरी बीमार हैं प्रवीण।"

"अरे, क्या हुआ?"

"इंसान को पता हो कि वह घुल रहा है। संसार त्याग कर भी संसार अपनी ओर खींचे, कहाँ तक सहेगा शरीर। साधु हो, तपस्वी हो, साधारण इंसान हो, देह तो उन्हीं पंचतत्वों से बनी है न।"

"लेकिन इंसान समझ कहाँ पाता है। उसी में लिप्त रहता है और उम्र फिसलती जाती है।"

"तुम जरा जल्दी-जल्दी उम्र जी रहे हो प्रवीण।"

कैथरीन ने मुस्कुराते हुए कहा-"देखो चेहरे की झुर्रियाँ, सारे बाल सफेद।"

"मगर सफेद बाल में भी हैंडसम लगते हैं मेरे दूल्हा।"

तीनों खिलखिला कर हँसे।

"अरे दूल्हा शब्द तुमने लखनऊ आकर ही जाना न?"

" हाँ, अब अम्मा मुझे तापसी नाम लेकर नहीं बुलातीं। प्रवीण की दुल्हन कहती हैं।

"हैं कहाँ अम्मा? जब से आई हूँ मिली ही नहीं उनसे।"

"अब सुबह मुलाकात होगी। अभी सो रही हैं। सोते से जगाएंगे तो रात भर फिर सो न पाएंगी।" प्रवीण ने कहा।

"उनका सोना जागना प्रवीण जानते हैं। अम्मा की नब्ज़ इनके हाथ।"

लॉयेना ने बहुत धीरे से कैथरीन से कहा। पता नहीं प्रवीण ने सुना या नहीं पर लॉयेना ने मान लिया कि नहीं सुना होगा।

"अब तुम भी सो जाओ कैथरीन सफ़र से थक गई होगी। शुभरात्रि।" कहते हुए प्रवीण तुरंत कमरे से चला गया। कैथरीन को सिगरेट की तलब लगी थी। लॉयेना ड्रॉइंग रूम से ऐश ट्रे ले आई। पानी का जग, ग्लास टेबल पर रखते हुए कहा

"मैं भी चलती हूँ। नहीं तो बात ही करते रहेंगे और रतजगा हो जाएगा।"

"ओके डियर, शुभरात्रि।"

लॉयेना के जाते ही कैथरीन ने सिगरेट सुलगाई और नरोत्तम गिरी को फोन लगाया। लेकिन तुरंत काट भी दिया। मैसेज कर दिया पहुँचने का। तुरंत जवाब भी आया "हम प्रतीक्षा ही कर रहे थे, कल बात करेंगे।"


प्रोफेसर शांडिल्य समय के पाबंद... ठीक 10 बजे हाजिर हो गए। कैथरीन ड्राइंग रूम में ही थी।

लॉयेना ने कहा-"देखो कैथ कौन आया है।"

"हेलो मिस बिलिंग।"

"आइए प्रोफेसर, कितने सालों बाद मिल रहे हैं। पर आप जरा भी नहीं बदले।"

अब क्या करें, बेगम जिस हाल में छोड़ गई हैं, उसी हाल में तो उनके पास जाएंगे। नहीं तो कहेंगी बदल गया प्रोफेसर " और ठहाका लगाते हुए सोफे पर आ बैठे।

"लॉयेना मेरी बहन और प्रोफेसर से तो तुम मेरी बातों की वजह से परिचित हो ही।"

"स्वागत है आपका प्रोफेसर। मैं प्रवीण को खबर करती हूँ।"

कहते हुए लॉयेना चली गई।

"किस सिलसिले में आना हुआ? आप तो आजकल वियना में है न।" "हाँ, आद्या का जॉब है वहाँ। मुझे भी सिडनी से बुला लिया। किताब के सिलसिले में आई हूँ भारत।"

"नागाओं वाली? बहुत कठिन प्रोजेक्ट है तुम्हारा। पिछली बार आपने चर्चा की थी मिस बिलिंग। मेरे शोध छात्र आपसे मिलना चाहते हैं, जानना चाहते हैं नागाओं के बारे में।"

"किताब जल्दी ही प्रकाशित हो जाएगी। मैं भिजवा दूंगी कुछ किताबें आपके छात्रों के लिए।"

"यह तो बढ़िया सोचा आपने।"

लॉयेना कॉफी की ट्रे लिए प्रवीण के साथ आई। परिचय कैथरीन ने कराया फिर लॉयेना से बोली-"पहले नाश्ता कर लेते हैं। फिर कॉफी, क्यों प्रोफेसर?"

"हाँ बिल्कुल, हमें तो कसकर भूख लगी है। यह मिठाई का डिब्बा आपके लिए लॉयेना जी"

प्रोफेसर ने मिठाई का डिब्बा लॉयेना की ओर बढ़ाया।

सभी डाइनिंग रूम में आ गए। नाश्ते की प्लेट में पावभाजी देखकर प्रोफेसर खुश होकर बोले-"वाह मजा आ गया, घर का नाश्ता किए बरसों हो गए। बेगम थीं तो बहुत बढ़िया मूंग के चीले बनाती थीं।"

"आपको पसंद है? पता होता तो गर्म सिकवा देती। अम्मा उसी का नाश्ता करती हैं।"

"थोड़ा मसाला बचा हो तो बनवा दो प्रोफेसर के लिए।" प्रवीण ने कहा।

"अगली बार के लिए कुछ न छोड़ेंगे मिस्टर प्रवीण? अब तो आना जाना होता रहेगा। क्यों मिस बिलिंग।"

"जी, प्रवीण और लॉयेना को भी अच्छा लगेगा।"

"आज ही चलेंगी क्या यूनिवर्सिटी?"

प्रोफेसर ने कॉफी का घूँट भरते हुए पूछा।

"मुझे लगता है कल ही ठीक रहेगा। लॉयेना को भी आना है यूनिवर्सिटी। आज उसके काम बिखरे हुए हैं।" कैथरीन के कहने पर प्रोफेसर घड़ी देखते हुए उठ खड़े हुए।

"ठीक है, तो मैं चलता हूँ। सुबह का वक्त है। आपका अधिक समय नहीं लूँगा। यूनिवर्सिटी भी जाना है। मिस्टर प्रवीण को भी ऑफिस जाना होगा।"

"मैं भी साथ ही निकल रहा हूँ आपके।"

"चलिए आपको ऑफिस ड्रॉप कर दूँ। इसी बहाने ऑफिस भी देख लूँगा आपका।"

"फिर गाड़ी।" प्रवीण ने असमंजस में कैथरीन की ओर देखा।

"प्रोफेसर की गाड़ी में चले जाओ। तुम्हारी गाड़ी लेकर हम आ जाएंगे शाम को।"

दोनों के जाते ही कैथरीन अम्मा से मिलने उनके कमरे में चली गई। लॉयेना आपने काम जल्दी-जल्दी निपटाने लगी।


शाम को 5 बजे लॉयेना ने अपने को बिजी बताते हुए कैथरीन से आग्रह किया-"तुम चली जाओ न प्रवीण के ऑफिस। मैं तुम्हारी पसंद का डिनर तैयार करने में कुक की मदद करूँगी। अम्मा की दवाई, डिनर आदि भी देखना पड़ेगा।" समझ गई कैथरीन। प्रवीण के साथ वह उसे अकेला छोड़ना चाहती है। लेकिन इससे क्या फर्क पड़ता है। अब ऐसा कुछ दोनों के बीच रहा नहीं।

ऑफिस में कैथरीन को अकेले आया देख प्रवीण ने पूछा-"लॉयेना नहीं आई? सोचा था गोमती के किनारे थोड़ा वक्त गुजारेंगे। तुम चलना चाहोगी?"

"चलो ताजी हवा में हम भी ताजादम हो जाएंगे।"

रास्ते में प्रवीण ने मानो गाइड की भूमिका अदा की-

" जानती हो कैथरीन, लखनऊ अपनी अदा, इतिहास और मीठी जुबां के लिए जाना जाता है। गोमती के किनारे अब काफी बदल गए हैं। पर अंदाज वही पुराना है। लखनऊ के बादशाहों ने अपने धर्म के साथ-साथ हिंदू धर्म के लिए भी कई धार्मिक इमारतों का निर्माण किया।

"यानी हिंदू मुस्लिम एकता का प्रतीक है लखनऊ।"

"लेकिन तब भी विवाद तो होते ही रहते थे।"

दोनों नदी किनारे सीढ़ियों पर आ बैठे। घने दरख़्तों की हरियाली मन मोह रही थी। सूरज अभी-अभी डूबा था। शाम सुरमई थी।

"उम्मीद करती हूँ तुम दोनों की जिंदगी सुकून भरी होगी।"

"हमने एक दूसरे के स्वभाव, रहन-सहन, खान-पान, धर्म, त्यौहार से समझौता कर लिया है। इन बातों को लेकर हमारे बीच कभी मनमुटाव नहीं होता लेकिन..." "लेकिन क्या प्रवीण। बताओ मुझे। कैथरीन की आँखों में जिज्ञासा थी।" प्यार को लेकर में समझौता नहीं कर पाया। तुम अब भी मेरे दिल के करीब हो। "

प्रवीण ने बहुत मुलामियत से कहा। " प्यार पर हमारा बस कहाँ रहता है प्रवीण। कभी-कभी जिंदगी में एक के होते हुए भी दूसरा कब प्रवेश कर जाता है पता ही नहीं चलता। प्रवीण कैथरीन के मन की गहराई नहीं समझ पाया।

"चलो चलते हैं लॉयेना इंतजार कर रही होगी।"

लौटते हुए प्रवीण ड्राइव करते हुए गुनगुनाता रहा।

" होशवालों को खबर क्या बेखुदी क्या चीज है

इश्क कीजिए फिर समझिए जिंदगी क्या चीज है"

कैथरीन आँखें मूंदे सुनती रही। एक तरन्नुम में रास्ता कट रहा था। सिग्नल पर गाड़ी रुकते ही प्रवीण ने कहा-"निदा फ़ाज़ली की गजल है। जगजीत सिंह ने गाई है। जगजीत सिंह के गीतों की सीडी घर चल कर सुनेंगे। तुम्हें पसंद आएगा उनका गायन।"

"श्योर"

सिग्नल के उस पार पान की दुकान थी-"पान लगवा लो न प्रवीण। पिछली बार जब लखनऊ आए थे तो प्रोफ़ेसर ने खिलाए थे।" पान की दुकान के पास कार रोकते हुए प्रवीण ने कहा-"तो मोहतरमा पान से परिचित हैं। अभी खाएंगी या पैक करवा लें?"

"पैक करवा लो मोहतरम।"

दोनों हँस पड़े।


लॉयेना के साथ गपशप, डिनर और जगजीत सिंह की गाई गजलों पर देर तक चर्चा करके जब कैथरीन सोने के लिए कमरे में आई तो फोन पर नरोत्तम गिरी का मैसेज था-"क्या बहुत बिजी हो? पहुँच कर फोन ही नहीं किया।"

उसने तुरंत फोन लगाया।

"हाँ थोड़ी व्यस्त रही। अब तुम्हारी तबीयत कैसी है?"

" बिल्कुल ठीक हूँ कैथरीन। कल से तप, साधना आरंभ करेंगे।

"मैं भी कल प्रोफेसर शांडिल्य की यूनिवर्सिटी में शोधछात्रों से महिला नागा साधुओं पर चर्चा करूँगी। बड़ा रोमांचक और रहस्यमय है यह।"

"तुम सच में बहुत मेहनत कर रही हो कैथरीन... एक व्यापक कथानक को लेकर सर्जन रचने का हिमालयी कार्य। मैं अभिभूत हूँ।" "बहुत धन्यवाद नरोत्तम, किताब पूरी होने में समय बहुत ले रही है।" "उत्कृष्ट सर्जना समय साध्य होती है कैथरीन। काल की अग्नि में तपकर ही शिखर मिलता है।"

"तुम ऐसा कहते हो तो मुझे हौसला मिलता है नरोत्तम। तुम ही तो इस किताब के प्रेरक हो।"

सृजन की विराट साधना में निमग्न तुम मेरे लिए अकल्पनीय, अभिनंदनीय कैथरीन। "

" नरोत्तम ...चाहती हूँ तुम सदा स्वस्थ रहो। वरना मैं विचलित हो जाती हूँ।

"नहीं कैथरीन, लिप्त मत हो मोह में। ईश्वर तुमसे विराट कार्य करा रहा है। शरीर के संग तो व्याधि लगी ही रहती है।"

"अब सो जाओ कैथरीन, कल लैक्चर भी तो देना है तुम्हें। शुभरात्रि।"

"शुभरात्रि नरोत्तम।"


कैथरीन और लॉयेना नियत समय पर यूनिवर्सिटी पहुँच गईं। प्रोफेसर शांडिल्य के केबिन में दाखिल होते ही दोनों ने प्रोफेसर को खुद का इंतजार करते पाया।

"आईए मिस बिलिंग, वेलकम मिसेज़ लॉयेना। पंक्चुअल हैं आप दोनों। चलिए सीधे चलते हैं कॉन्फ्रेंस रूम।"

कॉन्फ्रेंस रूम में शोध छात्र उनका इंतजार कर रहे थे। प्रोफेसर शांडिल्य ने मिस बिलिंग का सबसे परिचय कराया। फिर छात्रों को सम्बोधित करते हुए कहा-"जैसा कि मैंने आपसे बताया था मिस बिलिंग नागा साधुओं पर बेहद गहन पड़ताल करके किताब लिख रही हैं। आज इसी विषय पर आपके प्रश्नों, जिज्ञासाओं का समाधान करेंगी।"

छात्रों ने ताली बजाकर कैथरीन का स्वागत किया। प्रश्न के लिए कुछ हाथ उठे। कैथरीन ने शुरुआत छात्रा से की-

"जी, पूछिए। नाम भी बताएँ अपना।"

"आशालता, मैं समाजशास्त्र में रिसर्च कर रही हूँ। जानना चाहती हूँ, क्या महिलाएँ भी नागा साधु हैं?"

" लॉयेना और प्रोफेसर शांडिल्य सामने ही बैठे थे।

"जी हाँ आशालता जी, अब महिलाएँ भी नागा साधु की दीक्षा लेकर सनातन धर्म के लिए समर्पित हैं।"

"मैडम नागा साधु बनने के लिए तो कई साल लग जाते हैं। कठिन प्रक्रिया से गुजरना होता है। क्या उस प्रक्रिया से महिलाएँ भी गुजरती हैं?"

" बिल्कुल उन्हें भी 6 से 12 साल तक कठिन ब्रह्मचर्य का पालन करना होता है। इसके बाद गुरु यदि इस बात से संतुष्ट हो जाते हैंं कि महिला ब्रह्मचर्य का पालन कर सकती है तो उसे दीक्षा देते हैंं।

महिला नागा सन्यासिन बनाने से पहले अखाड़े के साधु-संत महिला के घर परिवार और पिछले जीवन की जांच-पड़ताल करते हैंं।

महिला को भी नागा सन्यासिन बनने से पहले स्वयंं का पिंडदान और तर्पण करना पड़ता है। "

"मैडम क्या उन्हें अपना अखाड़ा, अपना गुरु निर्धारित करने की स्वतंत्रता रहती है?"

"हाँ, जिस अखाड़े से महिला संन्यास की दीक्षा लेना चाहती है, उसके आचार्य महामंडलेश्वर ही उसे दीक्षा देते हैंं।"

"मैडम विस्तार से संपूर्ण प्रक्रिया पर प्रकाश डालें हम सब उनकी रहस्यमयी, रोचक दुनिया को जानने के इच्छुक हैं।"

" अच्छी लगी कैथरीन को छात्रों की जिज्ञासा। वह भी तो इस जिज्ञासा से गुजर चुकी है।

उसने सम्बोधित किया-

" प्रिय छात्रों,

महिला को नागा साधु बनाने से पहले उसका मुंडन किया जाता है और नदी में स्नान करवाते हैंं।

महिला नागा साधु पूरा दिन भगवान का जप करती है। सुबह ब्रह्म मुहूर्त में उठना होता है। इसके बाद नित्य कर्मो से निवृत्त होकर शिवजी का जाप करना होता है। दोपहर में वे भोजन करती हैंं और फिर से शिवजी का जाप करती हैंं। शाम को दत्तात्रेय भगवान की पूजा करती हैंं और इसके बाद शयन।

सिंहस्थ और कुम्भ में नागा साधुओं के साथ ही महिला साधु जो सन्यासिन कहलाती हैं शाही स्नान करती हैंं। अखाड़े में सन्यासिन को भी पूरा सम्मान दिया जाता है।

जब महिला नागा सन्यासिन बन जाती हैंं तो अखाड़े के सभी साधु-संत उन्हें माता कहकर सम्बोधित करते हैंं।

सन्यासिन बनने से पहले महिला को ये साबित करना होता है कि उसका परिवार और समाज से कोई मोह नहीं है। वह सिर्फ भगवान की भक्ति करना चाहती है और सनातन धर्म के लिए समर्पित है। इस बात की संतुष्टि होने के बाद ही दीक्षा दी जाती हैं। "

कैथरीन कुछ पल रुकी। दो तीन हाथ प्रश्न पूछने के लिए उठे। उसने एक छात्र से कहा-"हाँ पूछिए।"

"मैम, पुरुष नागा साधु और महिला नागा साधु में क्या फर्क है?"

"केवल इतना ही है कि महिला नागा साधु को एक पीला वस्त्र अपने शरीर से लपेटकर रखना पड़ता है और यही वस्त्र पहनकर स्नान भी करना पड़ता है। नग्न स्नान की अनुमति नहीं है। यहाँ तक कि कुम्भ मेले में भी नहीं।"

"मेम कुछ नागा अखाड़ों के बारे में भी बतलाएँ। क्या समय के साथ उन अखाड़ों में कुछ परिवर्तन दिखाई देता है?"

" बहुत बढ़िया सवाल है आपका। परिवर्तन सृष्टि का नियम। समय बीतता जाता है, स्थितियाँ भी बदलती जाती हैं।

समय के साथ अखाड़ों में साधना के लिए साधनों में बदलाव हुआ है। प्रयागराज यानी इलाहाबाद में 1989 में लगे कुंभ के बाद हाथी-घोड़ा, ऊंट, बैलगाड़ी से पेशवाई पर प्रतिबंध लगने के बाद अब वाहनों का प्रयोग भी होने लगा है। जहाँ एक ओर भगवाधारी साधु बाइक चलाते नजर आएंगे वहीं नागा साधु भी अखाड़े की कार चलाते दिखेंगे।

"मैंने कभी किसी नागा साधु को कार चलाते नहीं देखा। मैंने तो उन्हें कभी अस्पतालों में भी नहीं देखा।"

हाँ कार से यात्रा करने और कार चलाने की परंपरा नागा साधुओं में अभी कम ही है। अस्पताल वे कभी नहीं जाते। जड़ी बूटियों से ही अपना इलाज करते हैं। "

"मेम कुछ नागा अखाड़ों के बारे में भी बतलाएँ। क्या समय के साथ उन अखाड़ों में कुछ परिवर्तन दिखाई देता है?"

" बहुत बढ़िया सवाल है आपका। परिवर्तन सृष्टि का नियम। समय बीतता जाता है, स्थितियाँ भी बदलती जाती हैं।

समय के साथ अखाड़ों में साधना के लिए साधनों में बदलाव हुआ है। प्रयागराज यानी इलाहाबाद में 1989 में लगे कुंभ के बाद हाथी-घोड़ा, ऊंट, बैलगाड़ी से पेशवाई पर प्रतिबंध लगने के बाद अब वाहनों का प्रयोग भी होने लगा है। जहाँ एक ओर भगवाधारी साधु बाइक चलाते नजर आएंगे वहीं नागा साधु भी अखाड़े की कार चलाते दिखेंगे।

"मैंने कभी किसी नागा साधु को कार चलाते नहीं देखा। मैंने तो उन्हें कभी अस्पतालों में भी नहीं देखा।"

"हाँ कार से यात्रा करने और कार चलाने की परंपरा नागा साधुओं में अभी कम ही है। अस्पताल वे कभी नहीं जाते। जड़ी बूटियों से ही अपना इलाज करते हैं।"

"मैम उनका अंतिम संस्कार कैसे होता है?"

कैथरीन के लिए यह प्रश्न अप्रत्याशित था। लेकिन वह उत्तर के लिए तैयार थी। उसकी अपनी जिज्ञासा ने नरोत्तम से इस बात की जानकारी भी पहले ही ले ली थी।

"आप सब यह तो जानते ही होंगे कि हिन्दू धर्म में अग्नि से ही अंतिम संस्कार होता है। लेकिन नागाओं का अंतिम संस्कार अग्नि से नहीं होता। उनके शव को पहले जल समाधि दी जाती थी। लेकिन नदियों का जल प्रदूषित होने के नाते अब पृथ्वी पर समाधि दी जाती है। शव को सिद्ध योग में बैठाकर भू-समाधि दी जाती है। धरती के अंदर उन्हें तप करने जैसी अवस्था में बैठाया जाता है और ढक दिया जाता है मिट्टी से।"

"यह तो कैथलिक परंपरा हुई, है न मैम?" एक छात्र ने आश्चर्य प्रगट करते हुए कहा।

"इस्लाम में भी इसी तरह से शव का अंतिम संस्कार किया जाता है।"

"परंपरा तो धर्म के अनुसार ही बनती है, बनी भी हैं। हम केवल उसका निर्वाह करते हैं।" कैथरीन ने कहा।

"मैम नागा साधुओं के समुदाय को अखाड़ा क्यों कहते हैं? अखाड़ा तो वह होता है जहाँ कुश्ती लड़ी जाती है।"

" आप ठीक कह रहे हैं लेकिन जहाँ भी दांवपेंच की गुंजाइश होती है वहाँ इस शब्द का प्रयोग होता है। पहले आश्रमों के अखाड़े को बेड़ा अर्थात साधुओं का जत्था कहा जाता था। तब अखाड़ा शब्द का चलन नहीं था। साधुओं के जत्थे में पीर होते थे। अखाड़ा शब्द का चलन मुगल काल से शुरु हुआ था। हालाँकि कुछ ग्रंथों के मुताबिक अलख शब्द से ही अखाड़ा शब्द की उत्पत्ति हुई है जबकि कुछ धर्म के जानकारों के अनुसार साधुओं के अक्खड़ स्वभाव के कारण उनके समुदाय को अखाड़ा कहा जाता है।

"मैम क्या नियम भंग करने वालों के लिए सजा का भी प्रावधान है?"

" प्रत्येक अखाड़े के अपने-अपने नियम और कानून है। अपराध करने वाले साधुओं को अखाड़ा परिषद सजा देता है। छोटी चूक के दोषी साधु को अखाड़े के कोतवाल के साथ गंगा में 5 से लेकर 108 डुबकियाँ लगाने के लिए भेजा जाता है। डुबकी के बाद वह भीगे कपड़ों में ही देवस्थान पर आकर अपनी गलती के लिए क्षमा माँगता है। फिर पुजारी पूजा स्थल पर रखा प्रसाद उसे देकर दोष मुक्त करते हैं। विवाह, हत्या या दुष्कर्म जैसे मामलों में उसे अखाड़े से निष्कासित कर दिया जाता है। अखाड़े से निकल जाने के बाद ही

उन पर भारतीय संविधान में वर्णित कानून लागू होता है। अगर अखाड़े के दो सदस्य आपस में लड़ाई करें, कोई नागा साधु विवाह कर ले या दुष्कर्म का दोषी हो, छावनी के भीतर से किसी का सामान चोरी करते हुए पकड़े जाया, देवस्थान को अपवित्र करे या वर्जित स्थान पर प्रवेश करे। कोई साधु किसी यात्री यजमान से अभद्र व्यवहार करे, अखाड़े के मंच पर कोई अपात्र चढ़ जाए तो उसे अखाड़े की अदालत सजा देती है। अखाड़ों के कानून मानने की शपथ उन्हें नागा प्रक्रिया के दौरान दिलाई जाती है। जो नागा इस कानून का पालन नहीं करता उसे अखाड़े से निष्कासित कर दिया जाता है। "

"मैम क्या अखाड़ों में भी लोकतांत्रिक प्रक्रिया से चुनाव होते हैं।" सवाल एक जिज्ञासु छात्र का था।

" अब शुरू हो गए हैं अखाड़ों में लोकतांत्रिक प्रक्रिया से चुनाव।

निर्मोही अखाड़ा हो या जूना अखाड़ा, इनके अलावा कई अन्य अखाड़ों में भी लोकतांत्रिक व्यवस्था की एक खास प्रणाली है। यह अखाड़ा एक पूरा समाज है जहाँ अखाड़ों के सभी बड़े सदस्यों की एक कमेटी बनती है। ये सभी लोग अखाड़े के लिए सभापति का चुनाव करते हैं। एक बार चुनाव होने के बाद यह पद जीवन भर के लिए चुने हुए व्यक्तियों का हो जाता है।

"अर्थात अखाड़ों में लोकतंत्र का बहुत महत्त्व है मैम।"

" अखाड़े लोकतंत्र से ही चलते हैं। जूना अखाड़े में 6 साल में चुनाव होते हैं। कमेटी बदल दी जाती है। हर बार नए को चुनते हैं। यह इसलिए ताकि सभी को नेतृत्व का मौका मिले। सभी संतो में भी अच्छी नेतृत्व क्षमता आए। कुछ अखाड़ों में बाकायदा चुनाव प्रक्रिया होती है। आवश्यकता पड़ने पर वोटिंग भी होती है। अच्छा काम करने वाले को दोबारा चुना जाता है। नहीं करने पर बदल दिया जाता है। कुछ अखाड़े ऐसे भी हैं जहाँ चुनाव नहीं होता। इसी तरह अखाड़ा परिषद में अध्यक्ष, उपाध्यक्ष, सचिव सहित 16 लोगों की कमेटी चुनी जाती है। इसे कैबिनेट कहते हैं। कमेटी यानी कैबिनेट की समय-समय पर बैठक होती है। आपात बैठक का भी प्रावधान है। सिंहस्थ या कुंभ में जब भी धर्म ध्वज की स्थापना होती है कमेटी स्वतः भंग हो जाती है। सारे अधिकार दो प्रधान के पास आ जाते हैं। ये मिलकर पूरे सिंहस्थ या कुंभ की व्यवस्था संभालते हैं। कुंभ सिंहस्थ के बाद कमेटी वापस अस्तित्व में आ जाती है।

" ओह, विस्तृत विषय है यह और हमारे पास समय कम है। मैम आपने जितना बताया उसके लिए हम आपके शुक्रगुजार हैं। आप

दो घंटे तक हमारे साथ रहीं और हमारी जिज्ञासाओं को शांत करती रहीं। आपका बहुत-बहुत आभार। "

छात्र खुश थे। उन्होंने कैथरीन और प्रोफ़ेसर शांडिल्य का बार-बार शुक्रिया अदा किया।

कॉन्फ्रेंस रूम से बाहर आकर प्रोफेसर शांडिल्य ने कैथरीन और लॉयेना को पूरी यूनिवर्सिटी घुमाई। पुस्तकालय में किताबों के बीच थोड़ा वक्त गुजारा और उन्हें किसी रेस्त्रां में चलकर कॉफी पीने की दावत दी।

"मिस्टर प्रवीण को भी बुला लीजिए। गपशप में शाम गुजरेगी।"

लॉयेना ने प्रवीण को फोन लगाकर प्रोफेसर शांडिल्य को फोन दिया-"लीजिए आप ही बात कर लीजिए।"

"यस मिस्टर प्रवीण, आइए हम रेस्त्रां में मिलते हैं। कुछ देर गर्म कॉफी के साथ चर्चा करेंगे। बौद्धिक शाम गुजारेंगे।"

कहते हुए उन्होंने रेस्तरां का नाम बताया और फोन लॉयेना की ओर बढ़ाया।

"चलिए।"

रेस्तरां काफी खूबसूरत जगह पर था। जिस टेबिल का प्रोफेसर शांडिल्य ने चयन किया वहाँ की खिड़की से बाहर का नजारा हरे भरे पेड़ों और उन पर चहचहाते पक्षियों वाला था।

"जब तक मिस्टर प्रवीण आते हैं एक राउंड कॉफी हो जाए?"

लॉयेना ने फिर फोन लगाया-

"नहीं आ सकूंगा लॉयेना प्रोफेसर से माफी मांग लो। काम में इतना उलझा हूँ कि रात के 10 बज सकते हैं।"

प्रवीण के नहीं आ सकने की खबर सुनकर प्रोफ़ेसर ने तुरंत कहा-

"कोई बात नहीं, व्यापार में इसी तरह अचानक काम आ जाते हैं। तो बताइए आप लोग, क्या खाना पसंद करेंगे?"

"मैं तो कुछ नहीं लूंगी।" लॉयेना ने कहा।

कैथरीन ने भी उसकी हाँ में हाँ मिलाई-"बिल्कुल भी खाने की इच्छा नहीं है। आप चाहे तो अपने लिए आर्डर कर दें।"

"कॉफी चलेगी दोबारा?"

"हाँ बिल्कुल।"

प्रवीण की इंकारी से लॉयेना डिस्टर्ब हो गई थी, माहौल भी गंभीर हो गया था। रेस्त्रां में एक घंटा तीनों के बीच खामोशी से गुजरा। रेस्त्रां से बाहर आकर पार्किंग की ओर बढ़ते हुए कैथरीन ने कहा-

"सुबह समय पर आ जाईएगा जिससे हम अयोध्या समय पर पहुँच जाएँ। वैसे भी 9: 00 बजे निकलेंगे तो अयोध्या पहुँचते रात हो जाएगी।"

"चिंता न करें। समय का बहुत पाबंद हूँ। ठीक 8: 00 बजे आपके यहाँ की डोर बेल बजाऊँगा।"

"हम भी एकदम तैयार रहेंगे। तो मिलते हैं सुबह, शुभ रात्रि।"


गाड़ी चलाती लॉयेना अब भी खामोश थी।

"बहुत डिस्टर्ब हो गई तुम।"

"हाँ कैथ, प्रवीण को मैं समझ नहीं पाती। हमेशा दूसरों के सामने सीन क्रिएट कर देते हैं। उन्हें मेरी तौहीन करने में मजा आता है।"

"यह सब सोचना बंद कर दो लॉयेना। जीवन का कोई उद्देश्य ढूँढो। दुष्यंत, शांतनु को लायकवर बनाओ। अपने ढंग से जिंदगी जियो। सच कहती हूँ बहुत आनंदित रहोगी तुम।"

"मैं भी ऐसा ही सोचती हूँ कैथ, पर मुझसे हो नहीं पाता। अपने देश, अपने लोग, अपना परिवेश छोड़ने का दुख पीछा नहीं छोड़ता।" कैथरीन को लॉयेना के चेहरे पर एक अदृश्य डर की परछाई भी नजर आई। लॉयेना के इस दुख की, डर की जिम्मेवार वह ही है। एकमात्र वह वरना लॉयेना की जिंदगी कुछ और होती।

रात के किसी वक्त प्रवीण लौटा। तब तक लॉयेना और कैथरीन अयोध्या जाने की तैयारी करती रहीं।

"कहाँ रह गए थे प्रवीण? डिनर तक भी नहीं लौटे।"

कैथरीन ने प्रवीण को थका हुआ देख पूछा।

"तुम दोनों ने डिनर ले लिया न? मैंने अपने एक मित्र के साथ खा लिया था। फिर मैं तुम्हारे लिए जगजीत सिंह की सीडी तलाशता रहा। कल तुम दिल्ली जा रही हो न। लखनऊ फिर पता नहीं कब आओगी।"

"भूल गए प्रवीण। कल तो हम लोग हनुमानगढ़ी जा रहे हैं।" लॉयेना ने टोका।

"अरे हाँ। हो गई तुम लोगों की तैयारी? सुबह ही तो निकल रही हो।"

"हाँ प्रवीण, काश तुम भी साथ चलते।"

प्रवीण ने कैथरीन को भर नजर देखा।

"अब तुम लोग आराम करो। मैं भी थक गया हूँ। शुभरात्रि।"

कहते हुए वह अपने कमरे में चला गया।

पलंग पर लेटे हुए कैथरीन ने नरोत्तम को फोन लगाया वह उसके फोन की प्रतीक्षा कर रहा था।

"कैसा रहा तुम्हारा लेक्चर?"

"बहुत अच्छा, छात्रों में नागाओं को लेकर, बहुत जिज्ञासा है। मेरी जितनी जानकारी थी वह सब मैंने उन्हें दी। बहुत खुश हुए वे।"

"तुम्हारी जानकारी तो संपूर्ण है। अब बाकी क्या रह गया है?"

ज्ञान तो हमेशा अधूरा रहता है। बहुत जानने को शेष रहता है अब देखो न प्रोफ़ेसर ने अयोध्या स्थित हनुमानगढ़ी की बात बताई। वहाँ भी नागा साधु निवास करते हैं। हम जा रहे हैं कल प्रोफ़ेसर शांडिल्य के साथ हनुमानगढ़ी। "

"सदियों पुराना है हनुमानगढ़ी का हनुमान मंदिर। वहाँ कई नागा निवास करते हैं। सचमुच में और भी अधिक जानकारी मिलेगी तुम्हें। बहुत अच्छा निर्णय लिया तुमने।" "सुबह-सुबह ही निकलना है। आज दिन भर लेक्चर से थक भी बहुत गई। अब तुम भी सो जाओ। तुम्हें भी तीन बजे उठना होता है। शुभ रात्रि"

, शुभरात्रि कैथरीन, हनुमानगढ़ी से लौटकर फोन करना। "


सुबह 8: 00 बजे प्रोफेसर शांडिल्य प्रवीण के घर पहुँच गए। खाने पीने के सामान की डलिया, छोटा-सा सूटकेस ड्राइंग रूम में रखा देख प्रोफेसर शांडिल्य ने कहा-"काफी तैयारी कर ली लॉयेना जी ने।"

"13 घंटे का सफर है प्रोफेसर। वहाँ 2 दिन रुकना भी तो पड़ेगा।" ड्राइवर समय पर पहुँच गया था। कार ने लखनऊ 9: 00 बजे तक पार कर लिया था। कहीं रास्ता समतल मिलता तो कहीं उबड़ खाबड़। रास्ते भर अधिकतर बातें प्रोफेसर और कैथरीन में ही हुईं। लॉयेना खामोश रही। अपने में सिमटी सी। हमेशा चहकने वाली लॉयेना अपनी जिंदगी के रूखेपन से एकदम बदल गई है। कैथरीन ढूँढ रही है उस चुलबुली लड़की को ...खिड़की के बाहर खेतों में, लहलहाती फसलों में, ठंडी चंचल हवाओं में, आसमान पर धुँए के गुबार से लगते बादलों में, पर...

"मिस बिलिंग, कोई गीत सुनाइए न आप अपनी भाषा में।"

"गीत? गीत तो लॉयेना गाती है।"

"अब कहाँ? वैसा गला ही नहीं रहा।" लॉयेना ने उदास स्वरों में कहा।

"कोई बात नहीं, सुनाइए न।" प्रोफ़ेसर के आग्रह पर लॉयेना ने धीमे स्वरों में गीत के सूत्र को पकड़ा और फिर ऊँचाई तक ले गई। गीत के बोल थे-"मेरे पास एक अधूरा इंद्रधनुष है। जिसके खोए हुए रंगों को मैं जीवन भर खोजती रही।" गीत मार्मिक था। समाप्ति पर थोड़ी देर कार में सन्नाटा रहा। कैथरीन के हृदय में लॉयेना के लिए पीड़ा उमड़ आई। उसने उसे गले से लगा लिया

"आई एम सॉरी।"

लॉयेना की आँखें भीग गईं।

रात 10 बजे वे अयोध्या स्थित पहले से ही बुक किये होटल पहुँचे। "हम फ्रेश होकर अपने-अपने कमरों में ही डिनर मंगवा लेते हैं। सुबह मिलेंगे। शुभरात्रि।"

कैथरीन और लॉयेना एक ही कमरे में रुकीं। कमरे की बालकनी की ओर खुलती खिड़की से शहर की जगमगाती बत्तियाँ दिख रही थीं।


सुबह तीनों मंदिर की ओर रवाना हुए। मौसम खुशगवार था। हमेशा ही मौसम ने कैथरीन का साथ दिया है। हनुमानगढ़ी के परिसर में प्रवेश करते ही कैथरीन की नजरें चमक उठीं। इमली के छतनारे दरख़्तों के बीच लाल सफेद कँगूरे दार और दीपस्तंभों वाला हनुमान जी का भव्य मंदिर सामने था। दसवीं शताब्दी में निर्मित मंदिर का सौंदर्य देखते ही बनता था। मंदिर ऊँचाई पर था। कैथरीन और लॉयेना तेजी से सीढ़ियाँ चढ़ रही थीं। प्रोफेसर पीछे रह गए। वे एक-एक सीढ़ी संभालकर चढ़ रहे थे। 76 सीढ़ियाँ चढ़कर मंदिर का द्वार आ गया।

विदेशी महिलाओं को देख मंदिर का पुजारी उनके पास आया-"वहाँ से पूजा की थाली ले लीजिए माता जी, हम पूजा संपन्न करा देंगे।"

"हम दर्शन करने आए हैं पंडित जी। आप हमें इस मंदिर के इतिहास की जानकारी देंगे तो बेहतर है।"

कहते हुए कैथरीन ने सिर पर स्कार्फ बाँध लिया। ताकि बाल बिखरे न। लॉयेना ने तो बाल बढ़ा रखे हैं। चोटी करती है वह लंबी-सी और चोटी में खूब प्यारी लगती है।

"हाँ, हाँ हम बताते हैं। कम से कम ये पत्र पुष्प चढ़ाकर संकट मोचन का स्मरण कर लीजिए। आपके सब कार्य सफल होंगे।"

कैथरीन समझ गई पंडित पहले दक्षिणा चाहता है। उसने सौ-सौ के दो नोट पंडित की ओर बढ़ाए। "चलिए वहाँ बैठते हैं।"

"अवश्य।"

खुश होकर पंडित ने बैठने के लिए मंदिर का कोना चुना। प्रोफ़ेसर शांडिल्य भी मंदिर की परिक्रमा कर आ चुके थे। पंडित आसन जमा चुका था-" माताजी पवनपुत्र हनुमान को समर्पित इस मंदिर का निर्माण राजा विक्रमादिय द्वारा दसवीं शताब्दी में करवाया गया था जो आज हनुमान गढ़ी के नाम से प्रसिद्ध है। ऐसी मान्यता है कि पवनपुत्र हनुमान यहाँ रहते हुए कोतवाल के रूप में अयोध्या की रक्षा करते हैं। मंदिर के प्रांगण में हनुमान जी की माता अंजनी के गोद में बैठे बाल हनुमान को दर्शाया गया है।

हनुमान गढ़ी भारत के उत्तर प्रदेश में है। अयोध्या में स्थित, यह शहर के सबसे महत्त्वपूर्ण मंदिरों के साथ-साथ अन्य मंदिरों जैसे नागेश्वर नाथ और निर्माणाधीन राम मंदिर में से एक हैं। उत्तर भारत में हनुमान जी का यह मंदिर सबसे लोकप्रिय मंदिर परिसरों में से एक हैं। यह एक प्रथा है कि राम मंदिर जाने से पहले सबसे पहले भगवान हनुमान मंदिर के दर्शन करने चाहिए। मंदिर में हनुमान की माँ अंजनी रहती हैं, जिसमें युवा हनुमान जी उनकी गोद में बैठे हैं।

जब लंकापति रावण पर विजय प्राप्त करने के बाद भगवान राम अयोध्या लौटे, तो हनुमानजी यहीं निवास करने लगे। इसीलिए इसका नाम हनुमानगढ़ या हनुमान कोट रखा गया। यहीं से हनुमानजी रामकोट की रक्षा करते थे। यह विशाल मंदिर और इसका आवासीय परिसर 52 बीघा जमीन पर फैला हुआ है। वृंदावन, नासिक, उज्जैन, जगन्नाथपुरी सहित देश के कई मंदिरों में इस मंदिर की संपत्ति, अखाड़े और बैठकें हैं। हनुमान गढ़ी मंदिर राम जन्मभूमि के पास स्थित है। 1855 में, अवध के नवाब ने मंदिर को मुसलमानों द्वारा विनाश से बचाया। मुसलमानों को लगा कि हनुमानगढ़ी एक मस्जिद के ऊपर बनाई गई है। इतिहासकार कहते है कि 1855 का विवाद बाबरी मस्जिद-राम मंदिर स्थल के लिए नहीं बल्कि हनुमान गढ़ी मंदिर के लिए था। "

"बहुत बढ़िया जानकारी दी आपने पंडित जी। आपका बहुत-बहुत आभार।" कैथरीन ने हाथ जोड़े। "यह तो हमारा सौभाग्य है कि हम आपको कुछ बता सके। आप हमारे देश की मेहमान हैं, हमारी अतिथि हैं। अतिथि देवो भव हमारी संस्कृति है।"

पंडित ने बहुत विनम्रता से कहा कैथरीन जिस जानकारी के लिए आई थी वह अभी अधूरी थी। उसने पंडित से पूछा-"यहाँ नागा साधु भी तप साधना करते हैं। उनसे कैसे मिला जाए?"

"माता जी मैं ले चलता हूँ उनके पास। यहाँ तो 500 नागा साधु रहते हैं।"

"वाह किस अखाड़े के हैं वे?"

"कोई एक नहीं।" पंडित ने कैथरीन की जानकारी पर गौर किया-"आप जानती हैं नागा अखाड़ों को?"

"जी हाँ और अधिक जानकारी के लिए यहाँ आई हूँ।"

"चलिए हम आपको गिरिराज गिरि महंत जी के पास ले चलते हैं।" पंडित उन्हें जिस स्थान पर लाया वहाँ जलती हुई धूनी के आसपास कुछ नागा साधु बैठे थे। उन्हीं में से एक वयोवृद्ध नागा साधु से पंडित ने कहा-"महंत जी आपसे मिलने ये विदेश से आई हैं, माताजी यही गिरिराज गिरि महंत हैं।"

कैथरीन प्रणाम करके एक ओर बैठ गई। लॉयेना प्रोफेसर शांडिल्य के साथ मंदिर के परिसर में घूमने चली गई। गिरिराज गिरि महंत ने पूछा-

"आने का उद्देश्य बताएँ माता।"

"मैं नागा साधुओं पर किताब लिख रही हूँ। उसी के लिए जानकारी इकट्ठा करने आई हूँ।"

"सही समय आई हैं माता। कल हम तप, साधना के लिए अमरकंटक चले जाएंगे। आइए मेरे साथ इधर बैठते हैं।"

गिरिराज गिरी के संग कैथरीन एक छोटे से कक्ष में आ गई। दोनों भूमि पर बिछी चटाई पर बैठ गए। एक नागा साधु कैथरीन के लिए पानी ले आया।

"पूर्व जानकारी तो होगी माता, नागा अखाड़ों की।"

"जी इस परिसर, हनुमानगढ़ी और आपके यहाँ निवास की जानकारी चाहती हूँ।"

"माता आप बहुत जिज्ञासु लगती हैं और बहुत अच्छी हिन्दी बोल रही हैं। काफी विदुषी लगती हैं।" कैथरीन मुस्कुराने लगी।

माता, जिस जगह हनुमानगढ़ी किला है ठीक उसी जगह पहले एक इमली का पेड़ हुआ करता था। उसके नीचे बाबा अभय रामदास वहीं से निकली हनुमान जी की मूर्ति की पूजा अर्चना किया करते थे। उस समय अयोध्या नवाब शुजाउद्दौला के राज का हिस्सा था। नवाब कुष्ठ रोग से पीड़ित था। बाबा अभय रामदास की ख्याति उन्होंने सुनी थी। वे उनके पास गये। बाबा के आशीर्वाद से नवाब ठीक हो गए। नवाब ने बाबा से कहा कि

"बाबा मैं अवध का नवाब हूँ। आपको कोई समस्या हो तो बताएँ। बाबा ने कहा-" हम तो साधु हैं, साधु की न कोई समस्या और न कोई इच्छा। आप अगर हनुमान जी के लिए एक मंदिर बनवा सकें तो हनुमान जी की कृपा भी आपको प्राप्त हो जाएगी। "

और शैव सन्यासी आक्रमण न कर पाए इसका भी इंतजाम देख लीजिए। "

शुजाउद्दोला ने बाबा की इच्छा को सम्मान देते हुए 52 एकड़ भूमि पर हनुमानगढ़ी किला बनवाया। इसकी बनावट बेहद खूबसूरत थी बिल्कुल किले तरह। हनुमान जी का मंदिर भी बेहद खूबसूरत स्थापत्य का नमूना है।

कुछ लोग कहते हैं कि नवाब शुजाउद्दौला को कुष्ठ रोग नहीं हुआ था बल्कि वे बाबा अभय रामदास को घायल पड़े मिले थे। वे उन्हें अपने डेरे में ले गए जहाँ एक खोह में हनुमान जी का मंदिर था। वहाँ उन्होंने शुजाउद्दौला का उपचार करके उन्हें स्वस्थ कर दिया।

इस हनुमानगढ़ी से साधु संतों को दिए जाने वाले राशन का एक हिस्सा किसी मुस्लिम संत फकीर को मिलता रहा है। क्योंकि उसी जगह पर एक फकीर का भी डेरा था। उन्हें हटाने की शर्त यही रखी गई कि हनुमानगढ़ी को मिलने वाले राशन का एक हिस्सा रोज एक मुस्लिम फकीर को भी मिलेगा। इस किले से नागा साधु भी अंग्रेजों के खिलाफ युद्ध में उतरे थे।

हनुमानगढ़ी का संविधान 1937 का बना हुआ है। उस समय से ही यहाँ के शिलालेख पर लिखा गया था कि बीड़ी, सिगरेट, हुक्का, चिलम या किसी भी तरह का नशा पूरी तरह वर्जित है यहाँ के संविधान में। यह भी लिखा है कि कोई भी साधु, नागा साधु, महंत, या किसी पद पर कार्यरत गैर मज़हबी कार्य नहीं कर सकता। अगर वह ऐसा करता है तो पंचों को अधिकार होगा कि उसे पद और अखाड़े से हटा दें। आज भी हनुमानगढ़ी में स्थित गर्भ गृह की ओर उसी जमाने का एक पत्थर लगा है। उस पर लिखा है कि यहाँ हिंदुओं के अलावा दूसरे धर्म के लोगों का प्रवेश वर्जित है।

माता, नागा साधु कभी प्रवचन नहीं करते। अखाड़े के नागा साधुओं का काम है अधर्मियों से लड़ना और अपनी धार्मिक परंपराओं और अनुष्ठानों का 12 महीने पालन करना। प्रतिदिन यहाँ मौजूद सभी नागाओं की हाजिरी ली जाती है। नागाओं के मुख्तार या कोठारी का काम है कि बाकायदा हाज़िरी को रजिस्टर में नोट करें। जो गैर हाजिर होता है उसके लिए कोई न कोई सजा मुकर्रर की जाती है।

सन्यासियों, शैवों और वैष्णव में नागा बनने की प्रक्रिया में काफी अंतर है। सन्यासियों में जो नागा बनते हैं वे शाही स्नान के लिए नग्न रूप में जाते हैं। बैरागी यानी वैष्णव नागा इसके विरोधी हैं। वे गंगा को अपनी माँ मानते हैं इसलिए वे गंगा में नग्न होकर स्नान करने को उचित नहीं मानते। वैष्णव नागाओं के पास हथियार भी होते थे। प्राचीन समय में सवारी का साधन नहीं होने के कारण हाथी, ऊंट को सवारी के रूप में इस्तेमाल किया जाता था। इसे हम नागा जमात कहते हैं।

"लेकिन यह जमात बनी कैसे?"

एक वह समय था जब शैव संप्रदाय का अत्याचार वैष्णव संप्रदाय पर बढ़ता जा रहा था।

अयोध्या और वृंदावन बैरागियों का गढ़ कहा जाता है। शैव संप्रदाय में लच्छोगिरी और भैरव गिरी नाम के दो सन्यासी थे जो प्रतिदिन पाँच वैष्णव हत्या करके ही जल ग्रहण करते थे। जब वैष्णव नहीं मिलते थे तो आटे का वैष्णव बनाकर उसे काटते थे। उसके बाद ही जल ग्रहण करते थे। उस समय जब वैष्णव संप्रदाय के लोग कुंभ में जाते थे तो उन्हें मारपीट कर अपमानित किया जाता था।

उन्हें कुंभ में प्रवेश करने भी नहीं दिया जाता था उसी समय जयपुर राजघराने से बाल आनंद जी ने वैष्णव धर्म स्वीकार किया और बाल आनंद आचार्य हुए। बाल आनंद आचार्य ने 18 वैष्णव अखाड़ों का निर्माण किया। जैसे निर्वाणी अखाड़ा, निर्मोही अखाड़ा। इसकी बैठक यानी केंद्र वृंदावन में बनाया गया और वहाँ देश भर के सभी वैष्णव संप्रदाय के आश्रमों से अखाड़े में एक शिष्य देना अनिवार्य था।

जब कोई साधु बनने के लिए जाता तो दीक्षा दे कर उसे 12 साल के लिए देश काल के भ्रमण के लिए भेजा जाता था। जब 12 साल में वह पूरी तरह से निपुण हो जाता और वापस अपने गुरु के पास आता तब उसे अखाड़े में भेजा जाता। वहाँ उन्हें साधक शिष्य बनाया जाता। भगवान शालिग्राम, तुलसी दल और गंगाजल हाथ में लेकर वह अखाड़े के किसी संत महात्मा को गुरु मानने की कसम खाता था।

आजकल तो मंत्र देने की परंपरा है। पहले नागा की उपाधि दी जाती है। फिर युद्धकला में प्रवीण किया जाता है। महंत जी के अनुसार नागा होने का अर्थ नग्न होना नहीं है। नागा का काम धर्म की स्थापना करना है। उसका भोजन सात्विक होना चाहिए। सात्विक विचारधारा होनी चाहिए। बाल आनंद आचार्य जी का उद्देश्य धर्म की स्थापना करना था। उनकी बनाई नागा सेना सन्यासियों के अत्याचार के खिलाफ लड़ती या फिर जो वैष्णव संप्रदाय आश्रम के रास्ते से भटक गये हैं उन्हें समझा-बुझाकर रास्ते पर लाना था। यह सेना लाठी, बल्लम, तलवार, फरसा आदि से लैस रहती। उसी दौरान जब हरिद्वार का कुंभ नजदीक आया तो देशभर के वैष्णवों का आव्हान किया गया। सब लोग इकट्ठा हुए और साजो सामान के साथ हथियारों से लैस होकर हरिद्वार पहुँचे। वहाँ हमारे पूर्वजों का शैव सन्यासियों से बहुत बड़ा युद्ध हुआ। गंगा खून से लाल हो गई। उस युद्ध के बाद ही हमें वहाँ स्नान करने की जगह मिली।

महंत गौरी शंकर दास के मुताबिक आज भी हरिद्वार में उस युद्ध में मारे गए नागाओं की समाधियाँ हैं।

गुजरात में धोलका, धंधुका, वीरमगांव और मेहसाणा जिले में भी समाधियाँ हैं। वैष्णव और शैव सन्यासियों के बीच इतने युद्ध हुए कि शैव संयासी आज भी वहाँ का पानी नहीं पीते। देशभर में जिन चार जगह पर कुंभ लगते हैं उन सभी जगहों पर वैष्णवों का सन्यासियों से भयंकर युद्ध हुआ। वैष्णवों ने कुंभ स्नान का अधिकार इन युद्धों में जीत कर हासिल किया। नागाओं पर ऐसेटिक गेम्स किताब लिखने वाले धीरेंद्र झा का कहना है कि हरिद्वार कुंभ में लड़ाई होने वाली बात सही है। वहाँ दशनामी और बैरागियों में बहुत लड़ाई हुई थी। दशनामी अखाड़ा सिखों का है। बाकी जगहों के बहुत सारे ऐसे युद्ध अधिकतर सुनी सुनाई कथाओं से लिए गए हैं। उन्होंने बताया कि यह सच है कि सन्यासियों और बैरागिओं में कुंभ के बहुत पहले से ही भिड़ंत होती रही है।

वैष्णव संप्रदाय से सम्बंधित जो भी फैसले लिए जाते हैं वह या तो वृंदावन या फिर कुंभ में लिए जाते हैं। इनके अखाड़े की बैठकें यानी कि केंद्र हर तीर्थ स्थान में है। जैसे नासिक, हरिद्वार, चित्रकूट, उज्जैन, वृंदावन। यहाँ से वे देशभर के वैष्णव आश्रमों का संचालन करते हैं। वैष्णव नागाओं के यहाँ मल्लयुद्ध की पुरानी परंपरा है। आज सन्यासियों और वैष्णव संतो में पहले जैसी दुश्मनी नहीं रही। अखाड़ा परिषद बना और सब साथ उठने बैठने लगे। लेकिन एक समय था जब वैष्णव साधु सन्यासियों के हाथ का छुआ पानी तक नहीं पीते थे। "

"ओह, लेकिन अब तो स्थिति ऐसी नहीं है न।"

"नहीं माता समय के साथ परिवर्तन आ ही जाता है।"

"तो आज्ञा दे महंत जी। आपका बहुमूल्य समय लेने के लिए क्षमा प्रार्थी हूँ। इतनी विस्तृत जानकारी के लिए आभार।"

"क्षमा कैसी? आपसे मिलकर तो मुझे प्रसन्नता ही हुई। आप हमारे देश के महत्त्वपूर्ण नागा पँथ पर किताब लिख रही हैं। आगे भी हमारी आवश्यकता हो तो याद करिएगा। हमारा मोबाइल नंबर नोट कर लीजिए।"

"जी अवश्य।" कैथरीन ने नंबर नोट किया और गिरिराज गिरी को प्रणाम कर कक्ष से बाहर निकल आई।

हनुमानगढ़ी का काम समाप्त हो चुका था और वे होटल जाकर वहाँ की औपचारिकताएँ निपटा कर सीधे लखनऊ की ओर रवाना हो गए।

काफी रात को वे सब लखनऊ पहुँचे। कार सीधी प्रवीण के घर आकर रुकी।

"अब इतनी रात को आप अपने घर न लौट कर यहीं रुक जाईए। सुबह नाश्ता करके चले जाइएगा।"

कैथरीन ने प्रोफेसर शांडिल्य से कहा।

"अरे यह तो अपना लखनऊ है। यहाँ रात कैसी और दिन कैसा। आराम से अभी 15 मिनट में घर पहुँच जाऊँगा। आप लोग आराम करिए।"

" कल मैं दिल्ली चली जाऊँगी।

ईश्वर ने चाहा तो जल्दी ही दोबारा मुलाकात होगी। "

"आपका तहे दिल से शुक्रगुजार हूँ। आपने मेरे विद्यार्थियों की जिज्ञासा शांत की, अपना कीमती वक्त दिया और मेरे एकाकी जीवन में थोड़ा-सा रस घोल दिया मुझे हनुमानगढ़ी ले जाकर।"

"आप के लिए मैं हमेशा उपस्थित हूँ प्रोफेसर। गुड बाय शुभरात्रि।"


इस बार लॉयेना से विदा लेते हुए कैथरीन का मन भारी था। लॉयेना भी उदास थी। कैथरीन जानती है लॉयेना में बर्दाश्त का जज्बा उससे कम है। वह हर बात मन पर ले लेती है और फिर अवसाद से घिर जाती है। जिंदगी की हर बात हर घटना बर्दाश्त कर लेना नामुमकिन है। लेकिन अगर बर्दाश्त कर लिया तो रूह में फकीरी नजर आती है। जैसे नरोत्तम फकीर हो गया है। सूफी संत हो गया है। उसने ईश्वर में लौ लगा ली है। बाकी सब कुछ उसके लिए बेमानी है। कैथरीन थोड़ी व्यथित हो जाती है खासकर उन बातों से जो उससे जुड़ी हैं। उसके कारण हुई हैं। लॉयेना को लेकर वह इसीलिए परेशान होती है।

एयरपोर्ट पर लॉयेना से विदा ले वह तेजी से वेटिंग लाउंज में आ गई। दूसरी फ्लाइट अनाउंस हो रही थी। उसने कुर्सी पर बैठकर आँखें मूँद लीं और चिंतन के सागर में गोते लगाने लगी। उसे लगा वह डूब रही है लॉयेना को साथ लेकर। वह तलहटी में उस कोने को तलाश रही है जहाँ वह लॉयेना के साथ बैठकर कुछ पल इत्मीनान से गुजार सके। जाने किन रंगों की बड़ी, छोटी जादुई मछलियाँ उन्हें छू-छू कर तैर रही हैं। उस छुअन में जैसे एक प्रश्न है "तुम हमारी दुनिया में क्यों आईं?" उसने आँखें मिचमिचा कर देखा। मछलियों के झुंड में लॉयेना भी है और प्रश्न उसी के मुख से शब्द-शब्द उच्चरित हो जल में प्रवाहमान है।

हाँ उसे नहीं आना चाहिए लॉयेना से मिलने। उसे प्रवीण और लॉयेना से दूर चले जाना चाहिए। वरना दर्द और कचोट के समंदर उमड़ते रहेंगे जिनका कोई किनारा नहीं होगा। "दिल्ली जाने वाली फ्लाइट उड़ान के लिए तैयार है मिस कैथरीन बिलिंग, जहाँ कहीं भी हों तुरंत गेट नंबर 2 पर आ जाएँ।"

वह हड़बड़ा कर उठ खड़ी हुई और गेट नंबर 2 की ओर भागी। फ्लाइट में बस उसी का इंतजार था।


दिल्ली के हवाई अड्डे से टैक्सी ले कैथरीन सीधे गेस्ट हाउस पहुँची। आज शाम को ही वह मालवीय नगर जाएगी दीपा से मिलने। नरोत्तम की जिंदगी का यह विशेष अध्याय उसके लिए महत्त्वपूर्ण है। इसके बिना किताब अधूरी है। मालवीय नगर में घर मिलने में परेशानी नहीं हुई। गेट पर कीरत सिंह के नाम की पीतल की चमकती हुई नेम प्लेट लगी थी जिस पर काले अक्षरों में लिखा था "डीएसपी कीरत सिंह"। गेट के खुलते ही छोटी-सी फूलों की बगिया थी। बरामदे में कैक्टस के पौधों के गमले रखे थे। उसने घंटी का बटन दबाया। घंटी ने मंजीरे बजाए जिसे सुनते ही कुत्ते के भौंकने की आवाज आई।

"नो रॉकी नो"

किसी स्त्री ने दरवाजा खोला-"दीदी कोई आई हैं।"

कहते हुए उसने कैथरीन को ड्राइंग रूम का रास्ता बता दिया।

"बैठिए दीदी आएंगी अभी।" कहते हुए वह अंदर चली गई। कैथरीन ने बेहद सुरुचिपूर्ण ढंग से सजाए भव्य ड्रॉइंग रूम का मुआयना किया। दीवारों पर कुछ कलाकृतियाँ लगी थीं। साथ ही कीरतसिंह की पुलिस वर्दी पहने बड़ी-सी तस्वीर, कंधे पर तीन स्टार का बैच था। फोटो पर माला तो नहीं थी पर सामने अगरबत्ती दान था जिसमें कुछ अधजली अगरबत्तियाँ लगी थीं। कोने में मेज पर महात्मा बुद्ध की संगमरमर की मूर्ति रखी थी और उसके सामने फ्रेम में जड़ी नरोत्तम गिरी और घनश्याम गिरी की तस्वीरें थीं। नरोत्तम नीली बुश्शर्ट में बेहद खूबसूरत दिख रहा था।

पर्दे पर लगी घंटियाँ टुनटुनाईं- "नमस्कार" की आवाज के साथ एक खूबसूरत महिला ने प्रवेश किया। कैथरीन उठ कर खड़ी हो गई। हाथ जोड़कर नमस्ते करते हुए कहा-"मैं कैथरीन बिलिंग फ्रॉम वियना जर्मनी।"

"बैठिए मैं दीपा, कीरत सिंह की पत्नी।"

" मैं यहाँ ...

"रुकिए, पहले कुछ लीजिए चाय, कॉफी। निश्चय ही आप किसी उद्देश्य से आई होंगी। कॉफी मंगवाती हूँ।"

"जी आई डोंट माइंड।"

दीपा ने आवाज दी-"रानी, कॉफ़ी साथ में ढोकले भी ले आना।"

वह कैथरीन से मुखातिब हुई-"ताज़े ही हैं। अभी बनाए। बिट्टू को बहुत पसंद हैं।"

धीरे-धीरे ड्राइंग रूम में और भी लोग आ गए। दीपा परिचय कराने लगी।

"माताजी हैं, यह बिट्टू रोली की सबसे छोटी बेटी और यह रोली मेरी ननद।"

परिचय कराने के ढंग से लगा कि दीपा का इस घर में काफी दबदबा है। कैथरीन ने विस्तार पूर्वक अपना परिचय दिया और जब नरोत्तम गिरी के बारे में बताया तो माताजी की आँखें छलक आईं-"कैसा है? कहाँ है मेरा मंगल? अरे, आप तो खूब मिलकर आई हो उससे। बताइए सब।"

रोली ने कैथरीन के दोनों हाथ पकड़ लिए-"प्लीज बताइए मंगल भैया के बारे में।"

"अब वे मंगल नहीं है। न ही आपका बेटा माताजी। पुनर्जन्म हुआ है उनका। अब वे जूना अखाड़े के आचार्य महामंडलेश्वर नरोत्तम गिरी हैं।"

सुनकर माताजी रुआंसी हो गईं-"बेटा कैसे नहीं है हमारा। हमने जिस मंगल को पाल पोस कर बड़ा किया वही नरोत्तम हो गया। इसका मतलब यह तो नहीं कि वह हमारा बेटा नहीं है। मुझे ले चलो उसके पास।"

"आप वहाँ नहीं जा सकतीं माताजी। बहुत कठोर नियम है उनके।"

"अरे, हमारी जिंदगी से कठोर तो नहीं होंगे न। मंगल के नागा बनने की सूचना मिलते ही उसके बाबू जी इतने शॉक्ड हुए कि जी न सके। स्वर्ग सिधार गए। मैं ही पत्थर बनी जिंदा रही। उनके जाते ही हम बिखर गए। जैसे-तैसे जिंदगी कट रही थी कि कीरत डाकुओं को पकड़ने के पुलिस ऑपरेशन में मारा गया। हमारी बहू दीपा कोई सुख न देख पाई जीवन का। एक बेटा हुआ वह भी साधु बन गया।"

"जी मैं मिली हूँ विशाल सिंह से। उसी ने यहाँ का पता दिया। अब वह घनश्याम गिरी हो गया है। नरोत्तम ही उसके गुरुजी हैं मगर एक दूसरे से अपने रिश्ते को लेकर अपरिचित हैं।"

सुनकर माताजी अजनबी लेकिन बहुत अपनी-सी लगती कैथरीन से लिपट कर रो पड़ीं। देर तक कोई कुछ न बोला। बिट्टू ने ही मौन तोड़ा। जिद करने लगी-"आंटी खाना खा कर जाना। ढेर सारी बातें करनी है आपसे। ममा आपको गाड़ी से गेस्ट हाउस छोड़ देंगी।" कैथरीन इतने प्यार भरे परिवार के बीच खुद को पाकर अभिभूत थी। नरोत्तम का इतना स्नेहिल परिवार और नरोत्तम का नागा होना विरोधाभास की पराकाष्ठा। एक ओर कोमल सुरभित फूलों जैसा प्यारा संसार दूसरी ओर नागा पँथ के दुर्गम रास्ते। उस रात वह दीपा से कुछ न पूछ पाई। पर उसका मोबाइल नंबर ले लिया था ताकि आगे मिलने की योजना बना सके। कैथरीन को गेस्ट हाउस छोड़कर रोली और बिट्टू कनॉट प्लेस स्थित अपने घर चली गईं।

कैथरीन ने स्नान करके नाइट गाउन पहना और सिगरेट सुलगा कर आराम से बैठकर नरोत्तम गिरी को फोन लगाने लगी। कितनी सारी बातें उसे गोपनीय रखनी पड़ रही हैं नरोत्तम गिरी से। वह हरगिज नहीं बताएगी कि वह उसके घर में उसकी माताजी और दीपा से मिल चुकी है। उनकी बातें बता कर वह नरोत्तम गिरी को डिस्टर्ब नहीं करना चाहती। इसलिए फोन पर केवल यही बताया कि आज का दिन कैसा गुजरा और दिल्ली पहुँचकर कहाँ रुकी है?


दीपा से फोन पर अपॉइंटमेंट तय हो गया। वह कल सारा दिन कैथरीन के साथ गेस्ट हाउस में गुजारने को तैयार हो गई।

दीपा अपनी बाइक से समय पर आ गई। हल्की नीली साड़ी में वह बहुत खूबसूरत लग रही थी। लंबे खुले बाल, माथे पर छोटी-सी बिंदी और कोई मेकअप नहीं।

"बैठिए कॉफी मंगवाती हूँ। साथ में पनीर पकौड़े। गेस्ट हाउस का बावर्ची बहुत बढ़िया बनाता है। आज उसने लंच में बैंगन का भर्ता, लच्छा पराठा, मलाई कोफ्ते, रायता और पायस बनाया है। लंच हम 2 बजे लेंगे।"

"अरे वाह, आपको भारतीय भोजन के नाम भी याद हो गए और आपकी हिंदी! मुझे लग रहा है कहीं मैं ही बोलने में कोई गलती न कर बैठूँ।"

"मुझे हिंदू माइथोलॉजी से लगाव है। मैंने लगभग सारे हिन्दू आध्यात्मिक ग्रंथ पढ़ लिए हैं। कुछ के लिए तो मैंने संस्कृत भी सीखी है।"

"ओहो गजब, आप जैसी विदुषी महिला के संग मुझे सचमुच आनंद आएगा। कब तक हैं आप यहाँ?"

"मैं जो किताब लिख रही हूँ उसके पूरे होने तक यही रहुँगी। अंतिम अध्याय लिखना शेष है।"

"कैसी किताब?"

मैं नरोत्तम गिरी पर किताब लिख रही हूँ। किताब तो नागाओं पर केंद्रित है। लेकिन उसके हीरो नरोत्तम है। इसी सिलसिले में आपसे मिलना था। "

दीपा खामोश हो गई। वेटर कॉफी और पकौड़े ले आया था। कॉफी सर्व करते हुए उसने पूछा-

"लंच कितने बजे तैयार करना है मैडम।"

"2 बजे।"

"ओके"

उसके जाने के बाद कैथरीन ने कहा-"लीजिए कॉफी और खुलकर बताइए। अपने और नरोत्तम आई मीन मंगल के बारे में।"

"जरूर बताऊँगी, ताज्जुब नहीं हो रहा है मुझे क्योंकि आप मंगल जी से मिलकर आ रही हैं तो उन्हीं से सब पता किया होगा। सब कुछ बताऊँगी आपको लेकिन उसके पहले यह भी बता देना चाहती हूँ कि मैं उन्हें प्यार नहीं करती थी। उनके प्रति मेरा आकर्षण सिर्फ देह का था।"

चौक पड़ी कैथरीन, इतना कड़वा सच! या नरोत्तम के प्रति एक छलावा जिसकी वजह से उसे घर त्याग कर कठोर जीवन अपनाना पड़ा वही ...वही दीपा! ओह।

"हम बचपन में साथ-साथ गुल्ली डंडा, कंचे खेलते थे। बड़े हुए तो मेरी शादी कीरत से हो गई। वह तो मुझे बहुत बाद में पता चला कि मंगल जी मुझे प्यार करते थे। उनका प्यार सच्चा था। उन्होंने कभी मुझे पाने की कोशिश नहीं की। क्योंकि मैं पराई हो चुकी थी। उनके जैसा चरित्रवान व्यक्ति दुनिया में होना मुश्किल है। शायद उनकी इसी शालीनता ने मुझे उनकी ओर आकर्षित किया। जबकि कीरत बिल्कुल इसके विपरीत थे। दिन-रात पुलिस की ड्यूटी में खुद को खपा देते। घर लौटते तो खामोशी और आराम। उनके लिए मेरा कोई अस्तित्व नहीं था जबकि कहा ये जाता था कि वे मुझे प्यार करते हैं। पर यह कैसा प्यार? जिसमें मैं सिरे से नदारद। शायद यही वजह थी कि मैं मंगल जी की तरफ आकर्षित हुई। देह का जो सुख कीरत नहीं दे पाए वह मंगल जी से मिले सोच कर मैं आगे बढ़ी थी। उनका बहुत ख्याल रखती थी। मेरा इतना ख्याल रखना आगे बढ़ कर निवेदन करना ही वजह बन गया जो वह घर त्याग कर चले गए। उन्होंने सोचा होगा वह क्यों अपने भाई की गृहस्थी की तबाही का कारण बने। पर गृहस्थी तो तबाह हो ही गई। मेरे प्रति कीरत की उदासीनता बनी रही। जिसे मैं उनके काम की अधिकता समझती रही। शायद यही वजह है कि हमारे एक ही औलाद हुई विशाल। वह भी मंगल जी के चरण चिन्हों पर चल दिया। नागा शब्द हमारे परिवार के लिए अभिशाप बन गया।"

कहते हुए दीपा ने एक आह भरी और ठंडी हो चुकी कॉफी को एक ही साँस में पी गई।

"ऐसा मत कहिए। नागा होना तो ईश्वरीय वरदान है। जो हम साधारण गृहस्थ हो कर नहीं पा सकते वह और उससे कहीं अधिक नागा होने पर मिलता है।"

"बहुत समय लगा मंगल जी को भुलाने में। या ये कहूँ कि मंगल जी के शून्य को अपनी जिंदगी का हिस्सा बनाने में। आज तक पछतावा है। काश उस दिन मुझसे वह गलती नहीं होती तो हमारा आबाद परिवार यूँ न उजड़ता। पिताजी के स्वर्ग सिधारते ही कीरत का जैसे जिंदगी के प्रति रहा सहा लगाव भी खत्म हो गया। ड्यूटी से लौटकर वे शराब पीते और पिताजी के लिए रोते और मंगल को गालियाँ देते-" भाग गया बुजदिल, अरे असल मर्द वह है जो जिंदगी का सामना करे। न कि पलायन। बहुत कमजोर दिल का निकला तू मंगल। "

रात दो-दो बजे तक यही सिलसिला चलता। माताजी बहुत हौसले वाली हैं। अगर वह भी टूट जातीं तो न जाने क्या होता।

"हाँ, कल की बातों से मैं समझ गई थी उनकी दृढ़ता।"

दीपा ने घड़ी देखी डेढ़ बज गया था-"लंच ऑर्डर कर दीजिए कैथरीन जी। मेरी दवाई का वक्त हो चला है।"

कैथरीन ने तुरंत इंटरकॉम पर लंच ऑर्डर किया।

"दवा लेती हैं आप?"

"जी हाँ, कीरत के बाद से हाई ब्लड प्रेशर बना रहता है। समय पर दवा लेनी पड़ती है। नहीं तो हॉस्पिटल में एडमिट होने की नौबत आ जाती है। शुगर की पिछले 15 सालों से मरीज हूँ।" "ओह, जिंदगी के तनाव से उपजी बीमारियाँ आसानी से पीछा नहीं छोड़तीं। आप खुश रहा करिए।"

" कैसे खुश रहूँ। मेरे कारण मंगल जी को वनवास मिला। इतने शौकीन थे वे खाने-पीने, कपड़ों के। विशाल को भी कपड़ों का बहुत शौक था। हमेशा मॉल से ही अपने कपड़े खरीदने की जिद्द करता। दिन भर कुछ न कुछ खाते रहता। फरमाइशें इतनी।

"ममा आज पिज़्ज़ा बना दो, नूडल्स बना दो, चाऊमीन, कस्टर्ड, समोसे और अब निर्वस्त्र। एक टाइम भोजन।" कहते-कहते दीपा का गला भर आया।

"लेकिन वह इतनी छोटी उम्र में नागा बना कैसे? किसने उसे नागाओं के बारे में बताया?"

लंच आ चुका था। दीपा बाथरूम जाकर फ्रेश हुई।

"आइए आप तो शाम तक हैं मेरे साथ। हम पहले खाना खाएंगे।" वेटर ने प्लेटें सर्व कीं। खाने में से भाफ़ उठ रही थी जिसकी खुशबू भूख को उत्तेजित कर रही थी। "सोचा था आइसक्रीम लेंगे खाने के बाद, पर आप तो शुगर..."

पानी का जग रख खाली जग उठाते हुए वेटर ने तुरंत कहा-"शुगर फ्री आइसक्रीम है मैम। केसर पिस्ता की।"

" ठीक है, ले आना।

वेटर के जाते ही कैथरीन ने दीपा से कहा-"बहुत ट्रेंड होते हैं ये वेटर, कस्टमर को हैंडल करना जानते हैं।"

दीपा ने खाने की प्रशंसा की-"खाना सच में स्वादिष्ट है।"

लंच के बाद दीपा ने दवाइयाँ लीं।

"आप थोड़ा आराम कर लीजिए। मैं तब तक सिगरेट पी लूँ। धुँए से परहेज तो नहीं आपको।"

"नहीं कीरत पीते थे सिगरेट। लेकिन मंगल जी किसी भी प्रकार का नशा नहीं करते थे।"

"अब तो चिलम उनकी दिनचर्या में शामिल है।"

दीपा बिस्तर पर करवटें बदलती रही, दस मिनट बाद ही वह सोफे पर आकर बैठ गई-

"आदत नहीं है आराम की और फिर विशाल की चर्चा ने डिस्टर्ब कर दिया है। न पवन की मौसी जानकी देवी आकर मंगल जी के हाल-चाल बतातीं, न विशाल नागा प्रशिक्षण केंद्र जाने की जिद्द ठानता।"

"पवन कौन?"

"मंगल जी का दोस्त। उसकी मौसी जानकी देवी गोमुख से आगे तपोवन नंदनवन में मंगल से मिली थीं। जब वे दिल्ली आईं तो उन्होंने सारी बातें बताईं। मुझे क्या पता था मेरे जिगर का टुकड़ा सन्यासी हो जाएगा और मैं माया मोह में फँसी रहूँगी। मुझे प्यार करने वाले मंगल जी निर्वस्त्र, सन्यासी हो जाएंगे। ठंड के दिनों में उनके हाथ पैर ठिठुर जाते। माताजी उनके कमरे में अंगारों से भरी गुरसी रख आतीं। हाथ-पैर सेकते हुए ही पढ़ते। अब बर्फीली चोटियों पर कैसे नंगे बदन तप करते होंगे। मैं तो सोचकर ही काँप जाती हूँ। एक बात है कैथरीन जी, जीवन में हमसे प्यार करने वाले की हमें कद्र करनी चाहिए। प्यार से बढ़कर मूल्यवान संसार में कुछ भी नहीं है।" कहते हुए उसने बैग उठा लिया।

"चलती हूँ। अँधेरा होने से पहले घर पहुँच जाऊँ नहीं तो माता जी घबरा जाती हैं। कल फिर आऊँगी लेकिन लंच के बाद। शायद आपको और कुछ पूछना हो मुझ खलनायिका से।"

कैथरीन ने हँसते हुए उसके दोनों हाथ पकड़ लिए।

"अच्छा समय बीता। आपको कल नहीं 2 दिन बाद फोन करके बुलाऊँगी। 2 दिन एंबेसी में व्यस्तता रहेगी।"

"ओके गुड नाइट।"

कैथरीन बाइक के ओझल होते तक दीपा को देखती रही। लगा जैसे कहीं कुछ पिघलता हुआ मन में उतर गया है और वह उस पिघले हुए को ग्रहण नहीं कर पा रही है।


व्यस्तता सोच विचार की थी। कैथरीन ने बहुत गहरे आब्जर्ब किया दीपा को। वह साधारण औरत नहीं है। कबूल करती है कि उसे नरोत्तम से प्यार नहीं है। वह जीवन में प्यार को नहीं शरीर को महत्त्व देती है। जब कीरतसिंह से उसे तृप्ति नहीं मिली। तो वह नरोत्तम की ओर झुकी। यह कैसा दैहिक आकर्षण जिसमें कहीं कोई मोह या लगाव नहीं। देह तृप्ति के लिए वह पति से भी छल करने को तैयार है। ओह नरोत्तम, तुमने कैसी औरत से प्यार किया। अच्छा हुआ तुम उसके चंगुल से निकल भागे। चंगुल से निकलना ही तुम्हारे चरित्र की महानता सिद्ध करता है। प्रथम प्यार, प्रथम छुअन, प्यार का प्रथम एहसास जीवन भर पीछा नहीं छोड़ता है। वह बना रहता है हमारी दिनचर्या में। भले ही हम उसके विषय में नहीं सोचते पर वह मौजूद रहता है हमारे क्रिया कलापों में। पलकों की झपकन में। बरसों बरस... शायद जीवन के अंत तक। कितनी बहारें आकर गुजर जाती हैं, कितने ही मौसम अपने सौंदर्य या अधिकता की मार से जीवन अस्त-व्यस्त करते हैं। कितनी ही सभ्यताएँ विश्व के नक्शे पर बनती मिटती हैं। लेकिन वह प्रथम प्यार के एहसास की चाँदनी सूरज के प्रकाश में, अमावस के अँधेरे में भी खिली रहती है।

सोचते हुए कैथरीन ने खुद को सवालों से घिरा पाया। अंतरआत्मा से आवाज आई-' फिर तुमने क्यों किया ऐसा? क्यों प्रवीण को शादी के लिए मजबूर किया? क्यों नहीं तुम उसकी जीवनसंगिनी बनीं। भले ही तुम अपने मन को कितना ही समझाओ पर वह प्रवीण का प्रथम स्पर्श, वो प्रथम चुम्बन, वो प्रथम मिलन कैसे भूल सकती हो तुम? भले ही तुम्हें नरोत्तम के आकर्षण ने अपनी ओर खींचा पर... शायद यही वजह है कि प्रवीण लॉयेना को खुलकर नहीं अपना सका। कैथरीन ने आँखें मूंद लीं। लगा जैसे लॉयेना सामने खड़ी हो। जैसे उसके उदास चेहरे पर आँसुओं की गीली लड़ियाँ हैं।

'मुझे मोहरा बनाया कैथ ताकि तुम अपने ढंग से अपनी जिंदगी जी सको और प्रवीण को करीब भी पा सको। निश्चय ही तुम समझ गई थीं कि मेरी जगह कोई दूसरी औरत प्रवीण से शादी करती तो तुमको प्रवीण से दूर जाना होता। भूलना होता उसे। जो तुम्हारे लिए संभव न था और तुम्हारे लिए संभव न था इसलिए मैं हर गुजरते रोज के साथ प्रवीण को अपने से दूर जाता देखती रही।'

कैथरीन का मन व्याकुल हो उठा। तो क्या वह स्वार्थी है? उसने सिर्फ अपने लिए सोचा और उसकी सोच की अग्नि की आहुति बने प्रवीण और लॉयेना।

दो रातें उसकी खुद को समझने में गुजरीं। दो रातें उसने व्याकुलता के चरम को पार किया... डूबकर भी लहरों के थपेड़ों में तट की रेत पर आ गिरी। यह कैसी बेचैनी। ईश्वर मुक्ति दो।

बड़ी मुश्किल से मन एकाग्र हुआ। वह किताब की आखिरी पायदान पर थी। यह तो तय था कि अब वह दीपा से नहीं मिलेगी। जानने को कुछ शेष न था, समझने को बहुत कुछ था। वैसे भी आद्या हवाई टिकट भेजने को उतारू थी-"ममा आ जाइए। मन नहीं लग रहा आपके बिना।"

लेकिन वह अँतिम अध्याय पूरा किए बिना जा नहीं सकती। कैथरीन को दो महीने दिल्ली में रुकना पड़ा। अँतिम अध्याय पूरा कर उसने दिल्ली के प्रकाशक से बात कर पांडुलिपि उसे सौंप दी। कवर पेज पर नरोत्तम के साथ उसकी तस्वीर छपेगी। बैक कवर में भोजबासा की गुफा के इंप्रेशन में उसका परिचय। अंदर के पृष्ठों में आद्या के बनाए चित्र होंगे। किस पृष्ठ पर कौन-सा चित्र होगा यह भी उसने तय किया। प्रकाशक उससे बहुत अधिक प्रभावित हुआ। नागा साधुओं पर लिखी यह पहली पुस्तक थी जिसे प्रकाशित कर रहा था, वह भी एक विदेशी लेखिका के द्वारा लिखी पुस्तक।

रात उसने नरोत्तम को फोन लगाया-" आना चाहती हूँ तुम्हारे पास। फोटो लेनी है तुम्हारी। किताब का काम पूरा हो गया है। प्रकाशक को पांडुलिपि दे दी है।

एक ही साँस में कितना कुछ बता दिया कैथरीन ने, लेकिन दीपा से मिलने उसके घर जाने की बात वह छुपा गई।

"अच्छी खबर सुनाई। हम काशी के प्रशिक्षण केंद्र में हैं। यहीं आ जाओ।"

"काशी मतलब वाराणसी यानी बनारस? घूमना था मुझे। बहाना मिल गया। परसों पहुँच जाऊँगी।"

"बहाना नहीं बुलावा। बाबा विश्वनाथ जब जिसको दर्शन देना चाहते हैं, बुला लेते हैं।"

"मैं भाग्यवान हूँ जो उनके दर्शन करूँगी। साथ में तुम्हारे भी।"

"ईश्वर हमारे साथ है कैथरीन। आ जाओ जल्दी।" कहते हुए नरोत्तम ने फोन रख दिया।


ज्योतिर्लिंग बाबा विश्वनाथ और भैरव बाबा की नगरी वाराणसी जहाँ के कण-कण में शिवजी बसे हैं। पतित पावनी गंगा के 88 घाट, हर घाट का अपना महत्त्व। स्नान, पूजा समारोह हर घाट पर संपन्न होते हैं। केवल 2 घाट श्मशान घाट के रूप में उपयोग किए जाते हैं। जहाँ नदी किनारे चिताएँ जलती हैं और जले, अधजले शव गंगा में बहा दिए जाते हैं।

आद्या ने गूगल पर सर्च करके बताया है-"ममा आप सूर्योदय के समय नाव से सभी घाट घूम लेना। उस समय बहुत सुंदर माहौल रहता है।"

लेकिन मैं रात का सौंदर्य भी नाव से घूमते हुए देखना चाहती हूँ। गंगा आरती भी देखनी है मुझे। "

फोन पर बात करते हुए ही कैथरीन टैक्सी से जूना अखाड़ा प्रशिक्षण केंद्र जा रही थी।

सब कुछ नया-नया एक भी पहचाना चेहरा नहीं। उसे केंद्र के गेट पर रुक जाने को कहा गया। नरोत्तम गिरी के पास उसने अपना विजिटिंग कार्ड भिजवाया। थोड़ी देर में नरोत्तम गिरी स्वयं उसे लेने आया।

"वेलकम, स्वागत है कैथरीन। ढूँढने में दिक्कत तो नहीं हुई?"

कैथरीन मुस्कुराई-"कैसे हो नरोत्तम?"

एक युवा नागा झट से उसकी अटैची लेकर चला गया। नरोत्तम गिरी के साथ कैथरीन गेट से केंद्र तक का हरा भरा रास्ता पार करने लगी। दोनों तरफ गुलाब ही गुलाब। हर रंग के गुलाब। बड़े-बड़े तीन से पाँच फीट तक के गुलाब के पौधे। "वाह, इतना खूबसूरत उद्यान।"

"इस केंद्र में उद्यान ज्यादा हैं। केंद्र के पीछे सरोवर है। जिसमें सफेद गुलाबी कमलिनी खिलती है। पत्र देखो उसके खूब चौड़े चौड़े। पानी की बूँदे मोती-सी दिखती थमी रहती हैं उसपे। रात होते ही बैंगनी रंग की नलिनी खिल जाती है। कमलिनी और नलिनी दोनों बहनें, लेकिन शापित। दोनों एक दूसरे को खिला नहीं देख पातीं।"

कहते हुए नरोत्तम गिरी कैथरीन को एक विशाल कमरे में ले आया। फर्श पर चटाइयाँ बिछी थीं। पश्चिम दिशा में धूनी जल रही थी। बाजू वाले कक्ष में ओम नमः शिवाय का जाप हो रहा था थोड़ी ही देर में चाय नाश्ता लेकर वह युवा आया जो अटैची लेकर आया था।

"यह महेश गिरी है। केंद्र का सबसे तेज बुद्धि वाला युवा।"

महेश गिरी ने हाथ जोड़े।

"प्रणाम माता।"

नरोत्तम गिरी ने महेश गिरी से कहा "यह हमारे अखाड़े की पुरानी सदस्य हैं। इनके रहने का प्रबंध पूर्वी कक्ष में कर दो। अटैची वहीं ले जाकर रख दो और महाराज को इनके दोपहर के भोजन के लिए कह दो।"

"जी गुरु जी।"

महेश गिरी के जाते ही कैथरीन धीरे-धीरे चाय के घूँट भरते हुए सिगरेट पीने लगी।

" मेरे आने से तुम्हारे धर्म कर्म विधियाँ रुक जाती होंगी न?

"नहीं, हम सब संभाल लेते हैं। नागा की एक भी दिन धर्म कर्म और विधियाँ नहीं रुकतीं। मेरे प्रशिक्षण स्थल पर जाने का समय हो गया है। इस बार 400 युवा नागा प्रशिक्षित करने हैं हम 20 प्रशिक्षकों को। वही हमेशा की गिनती यानी मेरे मार्गदर्शन में 20 नागा। तुम भी विश्राम करो आज कहीं मत जाओ। शाम को मिलेंगे। चलो, तुम्हारे कक्ष तक तुम्हें छोड़ दें।"

छोटा-सा कक्ष। महेश गिरी अटैची रखकर कैथरीन के भोजन की व्यवस्था देखने चला गया।

"नरोत्तम इस कक्ष में तीन दिन मेरा निवास रहेगा। तुम अब शाम को मिलोगे। इसलिए किताब के लिए फोटो सेशन शाम को ही करेंगे। कल और परसों वाराणसी घूम कर मैं परसो शाम चली जाऊंगी।"

"ठीक है कैथरीन। शाम को मिलेंगे। तुम चाहो तो विश्राम के बाद उद्यान और सरोवर घूम सकती हो।"

नरोत्तम गिरी के जाते ही कैथरीन ने सिगरेट सुलगाई और आद्या को फोन लगाया।

"काफी दिन तुम्हें अकेले रहना पड़ा। अब शुक्रवार को हम साथ होंगे। रॉबर्ट कैसा है?"

"सब ठीक है ममा। बस अब तो आपका बेसब्री से इंतजार है।"

क्या, आद्या के पास पहुँचकर कैथरीन चैन से रह पाएगी? जबकि हिमालय की चोटियों पर नरोत्तम, कन्दराओं, गुफाओं में नरोत्तम, धूनी रमाए नरोत्तम, जंगलों के प्रशिक्षण केंद्रों में नरोत्तम, गंगा के उगते सूरज के सुनहरे तट पर नरोत्तम, बहती संगीत धारा में नरोत्तम, पौष मास की चंद्रिका में झिलमिलाता नरोत्तम, ध्यान मुद्रा में नरोत्तम, संपूर्ण धरती में नरोत्तम, आसमान में नरोत्तम, उसकी आँखों, साँसों और अब तो वियना की सड़कों पर भी नरोत्तम। उसके बाहर अंदर था ही क्या, सिवा नरोत्तम के। वह सरोवर के किनारे बैठी इन्हीं एहसासों में खोई हुई थी कि महेश गिरी ने सूचना दी-

"माता गुरु जी आपको बुला रहे हैं।"

उसने देखा संध्या घिर आई थी और चहचहाते परिंदे घोंसलों में दुबक जाने को आतुर थे। उसने सरोवर के जल में ऊँगलियाँ डुबोईं। एक लहर सिहरकर अन्य लहरों को आमंत्रित करती आगे बढ़ ली। नरोत्तम गिरी के भोजन का वक्त था-"आओ कैथरीन पहले भोजन कर लें फिर फोटो आदि।"

"ओके।" कैथरीन ने भूमि पर बिछे आसन पर बैठते हुए देखा नरोत्तम थका थका-सा दिख रहा था।

"आज प्रशिक्षण केंद्र में ज्यादा काम था क्या?"

"रोज जैसा ही। अभ्यस्त हैं हम इसके। भोजन आरंभ करें।" कैथरीन ने गर्म परांठे का निवाला सब्जी में डुबोकर मुँह में रखा

"वाह, बहुत टेस्टी। बहुत स्वादिष्ट।"

खाने के बाद दोनों मीटिंग कक्ष के बाहर बरामदे में आ गए। रोशनी मध्यम थी पर कैथरीन का कैमरा पावरफुल। उसने नरोत्तम गिरी की कई तस्वीरें लीं। नरोत्तम गिरी ने भी उसकी तस्वीरें खींची। फिर महेश गिरी ने दोनों की एक साथ कई तस्वीरें खीचीं। फोटो सभी बेहतरीन आई थीं।

"किताब प्रकाशित होने के बाद प्रकाशक तुम्हें पार्सल से भिजवा देगा।"

हमारा एक जगह कहाँ ठिकाना रहता है। हम तो रमता जोगी। किताब तुम खुद देना हमें। फिर हम चाहे जहाँ हों। "

नरोत्तम गिरी की चमकीली आँखें कैथरीन को आरपार बेंध गईं। उन आँखों में जाने क्या था कि कैथरीन न तो डूब पा रही थी न उबर।

"कल तुम दिन भर की टैक्सी ले लेना और बाबा विश्वनाथ, भैरव बाबा, बनारस हिंदू यूनिवर्सिटी देख लेना। परसों सुबह-सुबह गंगा के घाटों की सैर कर लेना।"

"काश, तुम चलते साथ में। मैं गंगा का सौंदर्य रात में भी देखना चाहती हूँ।"

"कल रात मणिकर्णिका घाट की सैर कर लेना, बाकी के घाट परसों सुबह।"

"नरोत्तम, जाने कितने ख्वाब दिखा देते हो तुम। ज़िन्दगी उन ख्वाबों में सिमट कर रह जाती है।"

"जिंदगी ख्वाब नहीं हकीकत है। जिस तरह यह पूरी प्रकृति हकीकत है। हम भी तो प्रकृति का हिस्सा ही हैं न।"

"पर मैंने उस हकीकत से परे हटकर तुम्हें किताब में बाँध लिया है। हर पन्ने, हर पैराग्राफ, हर वाक्य, हर शब्द में तुम।"

नरोत्तम गिरी के चेहरे पर मुस्कुराहट तैरने लगी।

"अब हम नागा जीवन की शपथ ले चुके हैं। अब हटेंगे तो पथभ्रष्ट कहलाएंगे।"

"मैं तुम्हें पथभ्रष्ट नहीं होने दूँगी नरोत्तम। प्यार कीमत नहीं माँगता, इतना तय मानो।"

"परसों तुम चली जाओगी। कुछ दिन जरूर विचलित रहूँगा फिर वही साधना, जाप, तप। अब जीवन तो इसी को दे दिया न कैथरीन।"

"काश इन सब बातों में मैं सशरीर तुम्हारे साथ होती। मन से तो हूँ ही हमेशा।"

"तुम मेरे साथ ही हो हमेशा।" कहते हुए नरोत्तम गिरी ने आँखें मूँद लीं। कैथरीन उस तिलिस्म में आकंठ डूबी खुद को भूलने लगी। नरोत्तम गिरी फरिश्ते के रूप में आई कैथरीन को देखता रह गया। जिसने कभी यह नहीं कहा कि तुम मेरे साथ आ जाओ। हमेशा यही कहा कि काश मैं तुम्हारे साथ होती। प्रेम की इस ऊँचाई की तो नरोत्तम गिरी ने कभी कल्पना भी नहीं की थी।

कैथरीन का कथन प्रवीण के आने से रुक गया।

"किताब पूरी हुई कि नहीं?"

कहते हुए प्रवीण ने कॉफी का प्याला अपने करीब खींचा और एल्बम कैथरीन की ओर बढ़ाया

"लो देखो शरारतियों को।"

अल्बम के पन्ने एक के बाद एक स्वयं लॉयेना खोलती गई-

"यह उनकी स्कूल यूनिफार्म है। यह कैप, यह कत्थई स्वेटर, कोट। दूसरे रंग का नहीं पहन सकते। यह स्कूल की बिल्डिंग है। यह शांतनु का क्लास रूम है। यह दुष्यंत का। यह मैस है। यह प्लेग्राउंड और यह वार्षिकोत्सव का फोटो है। पहचानो इसमें, कहाँ हैं दोनों।"

कैथरीन कई साल के बाद बच्चों को देख रही थी। लंबाई बढ़ गई है पर चेहरे नहीं बदले। उसने तुरंत पहचान लिया दोनों को।

"पहचानेंगी कैसे नहीं। माँ हैं उनकी।" कहते हुए प्रवीण ने दोनों के चेहरों की कैफियत पढ़ी। फिर संभल कर कहा-"माँ और मौसी में अंतर नहीं होता।"

कैथरीन ने बात बदलते हुए कहा-"तुम किताब के बारे में जानना चाह रहे थे प्रवीण। पूरी हो गई है किताब। अंतिम अध्याय के लिए ही हरिद्वार गई थी। नरोत्तम गिरी बीमार हैं प्रवीण।"

"अरे, क्या हुआ?"

"इंसान को पता हो कि वह घुल रहा है। संसार त्याग कर भी संसार अपनी ओर खींचे, कहाँ तक सहेगा शरीर। साधु हो, तपस्वी हो, साधारण इंसान हो, देह तो उन्हीं पंचतत्वों से बनी है न।"

"लेकिन इंसान समझ कहाँ पाता है। उसी में लिप्त रहता है और उम्र फिसलती जाती है।"

"तुम जरा जल्दी-जल्दी उम्र जी रहे हो प्रवीण।"

कैथरीन ने मुस्कुराते हुए कहा-"देखो चेहरे की झुर्रियाँ, सारे बाल सफेद।"

"मगर सफेद बाल में भी हैंडसम लगते हैं मेरे दूल्हा।"

तीनों खिलखिला कर हँसे।

"अरे दूल्हा शब्द तुमने लखनऊ आकर ही जाना न?"

" हाँ, अब अम्मा मुझे तापसी नाम लेकर नहीं बुलातीं। प्रवीण की दुल्हन कहती हैं।

"हैं कहाँ अम्मा? जब से आई हूँ मिली ही नहीं उनसे।"

"अब सुबह मुलाकात होगी। अभी सो रही हैं। सोते से जगाएंगे तो रात भर फिर सो न पाएंगी।" प्रवीण ने कहा।

"उनका सोना जागना प्रवीण जानते हैं। अम्मा की नब्ज़ इनके हाथ।"

लॉयेना ने बहुत धीरे से कैथरीन से कहा। पता नहीं प्रवीण ने सुना या नहीं पर लॉयेना ने मान लिया कि नहीं सुना होगा।

"अब तुम भी सो जाओ कैथरीन सफ़र से थक गई होगी। शुभरात्रि।" कहते हुए प्रवीण तुरंत कमरे से चला गया। कैथरीन को सिगरेट की तलब लगी थी। लॉयेना ड्रॉइंग रूम से ऐश ट्रे ले आई। पानी का जग, ग्लास टेबल पर रखते हुए कहा

"मैं भी चलती हूँ। नहीं तो बात ही करते रहेंगे और रतजगा हो जाएगा।"

"ओके डियर, शुभरात्रि।"

लॉयेना के जाते ही कैथरीन ने सिगरेट सुलगाई और नरोत्तम गिरी को फोन लगाया। लेकिन तुरंत काट भी दिया। मैसेज कर दिया पहुँचने का। तुरंत जवाब भी आया "हम प्रतीक्षा ही कर रहे थे, कल बात करेंगे।"


प्रोफेसर शांडिल्य समय के पाबंद... ठीक 10 बजे हाजिर हो गए। कैथरीन ड्राइंग रूम में ही थी।

लॉयेना ने कहा-"देखो कैथ कौन आया है।"

"हेलो मिस बिलिंग।"

"आइए प्रोफेसर, कितने सालों बाद मिल रहे हैं। पर आप जरा भी नहीं बदले।"

अब क्या करें, बेगम जिस हाल में छोड़ गई हैं, उसी हाल में तो उनके पास जाएंगे। नहीं तो कहेंगी बदल गया प्रोफेसर " और ठहाका लगाते हुए सोफे पर आ बैठे।

"लॉयेना मेरी बहन और प्रोफेसर से तो तुम मेरी बातों की वजह से परिचित हो ही।"

"स्वागत है आपका प्रोफेसर। मैं प्रवीण को खबर करती हूँ।"

कहते हुए लॉयेना चली गई।

"किस सिलसिले में आना हुआ? आप तो आजकल वियना में है न।" "हाँ, आद्या का जॉब है वहाँ। मुझे भी सिडनी से बुला लिया। किताब के सिलसिले में आई हूँ भारत।"

"नागाओं वाली? बहुत कठिन प्रोजेक्ट है तुम्हारा। पिछली बार आपने चर्चा की थी मिस बिलिंग। मेरे शोध छात्र आपसे मिलना चाहते हैं, जानना चाहते हैं नागाओं के बारे में।"

"किताब जल्दी ही प्रकाशित हो जाएगी। मैं भिजवा दूंगी कुछ किताबें आपके छात्रों के लिए।"

"यह तो बढ़िया सोचा आपने।"

लॉयेना कॉफी की ट्रे लिए प्रवीण के साथ आई। परिचय कैथरीन ने कराया फिर लॉयेना से बोली-"पहले नाश्ता कर लेते हैं। फिर कॉफी, क्यों प्रोफेसर?"

"हाँ बिल्कुल, हमें तो कसकर भूख लगी है। यह मिठाई का डिब्बा आपके लिए लॉयेना जी"

प्रोफेसर ने मिठाई का डिब्बा लॉयेना की ओर बढ़ाया।

सभी डाइनिंग रूम में आ गए। नाश्ते की प्लेट में पावभाजी देखकर प्रोफेसर खुश होकर बोले-"वाह मजा आ गया, घर का नाश्ता किए बरसों हो गए। बेगम थीं तो बहुत बढ़िया मूंग के चीले बनाती थीं।"

"आपको पसंद है? पता होता तो गर्म सिकवा देती। अम्मा उसी का नाश्ता करती हैं।"

"थोड़ा मसाला बचा हो तो बनवा दो प्रोफेसर के लिए।" प्रवीण ने कहा।

"अगली बार के लिए कुछ न छोड़ेंगे मिस्टर प्रवीण? अब तो आना जाना होता रहेगा। क्यों मिस बिलिंग।"

"जी, प्रवीण और लॉयेना को भी अच्छा लगेगा।"

"आज ही चलेंगी क्या यूनिवर्सिटी?"

प्रोफेसर ने कॉफी का घूँट भरते हुए पूछा।

"मुझे लगता है कल ही ठीक रहेगा। लॉयेना को भी आना है यूनिवर्सिटी। आज उसके काम बिखरे हुए हैं।" कैथरीन के कहने पर प्रोफेसर घड़ी देखते हुए उठ खड़े हुए।

"ठीक है, तो मैं चलता हूँ। सुबह का वक्त है। आपका अधिक समय नहीं लूँगा। यूनिवर्सिटी भी जाना है। मिस्टर प्रवीण को भी ऑफिस जाना होगा।"

"मैं भी साथ ही निकल रहा हूँ आपके।"

"चलिए आपको ऑफिस ड्रॉप कर दूँ। इसी बहाने ऑफिस भी देख लूँगा आपका।"

"फिर गाड़ी।" प्रवीण ने असमंजस में कैथरीन की ओर देखा।

"प्रोफेसर की गाड़ी में चले जाओ। तुम्हारी गाड़ी लेकर हम आ जाएंगे शाम को।"

दोनों के जाते ही कैथरीन अम्मा से मिलने उनके कमरे में चली गई। लॉयेना आपने काम जल्दी-जल्दी निपटाने लगी।


शाम को 5 बजे लॉयेना ने अपने को बिजी बताते हुए कैथरीन से आग्रह किया-"तुम चली जाओ न प्रवीण के ऑफिस। मैं तुम्हारी पसंद का डिनर तैयार करने में कुक की मदद करूँगी। अम्मा की दवाई, डिनर आदि भी देखना पड़ेगा।" समझ गई कैथरीन। प्रवीण के साथ वह उसे अकेला छोड़ना चाहती है। लेकिन इससे क्या फर्क पड़ता है। अब ऐसा कुछ दोनों के बीच रहा नहीं।

ऑफिस में कैथरीन को अकेले आया देख प्रवीण ने पूछा-"लॉयेना नहीं आई? सोचा था गोमती के किनारे थोड़ा वक्त गुजारेंगे। तुम चलना चाहोगी?"

"चलो ताजी हवा में हम भी ताजादम हो जाएंगे।"

रास्ते में प्रवीण ने मानो गाइड की भूमिका अदा की-

" जानती हो कैथरीन, लखनऊ अपनी अदा, इतिहास और मीठी जुबां के लिए जाना जाता है। गोमती के किनारे अब काफी बदल गए हैं। पर अंदाज वही पुराना है। लखनऊ के बादशाहों ने अपने धर्म के साथ-साथ हिंदू धर्म के लिए भी कई धार्मिक इमारतों का निर्माण किया।

"यानी हिंदू मुस्लिम एकता का प्रतीक है लखनऊ।"

"लेकिन तब भी विवाद तो होते ही रहते थे।"

दोनों नदी किनारे सीढ़ियों पर आ बैठे। घने दरख़्तों की हरियाली मन मोह रही थी। सूरज अभी-अभी डूबा था। शाम सुरमई थी।

"उम्मीद करती हूँ तुम दोनों की जिंदगी सुकून भरी होगी।"

"हमने एक दूसरे के स्वभाव, रहन-सहन, खान-पान, धर्म, त्यौहार से समझौता कर लिया है। इन बातों को लेकर हमारे बीच कभी मनमुटाव नहीं होता लेकिन..." "लेकिन क्या प्रवीण। बताओ मुझे। कैथरीन की आँखों में जिज्ञासा थी।" प्यार को लेकर में समझौता नहीं कर पाया। तुम अब भी मेरे दिल के करीब हो। "

प्रवीण ने बहुत मुलामियत से कहा। " प्यार पर हमारा बस कहाँ रहता है प्रवीण। कभी-कभी जिंदगी में एक के होते हुए भी दूसरा कब प्रवेश कर जाता है पता ही नहीं चलता। प्रवीण कैथरीन के मन की गहराई नहीं समझ पाया।

"चलो चलते हैं लॉयेना इंतजार कर रही होगी।"

लौटते हुए प्रवीण ड्राइव करते हुए गुनगुनाता रहा।

" होशवालों को खबर क्या बेखुदी क्या चीज है

इश्क कीजिए फिर समझिए जिंदगी क्या चीज है"

कैथरीन आँखें मूंदे सुनती रही। एक तरन्नुम में रास्ता कट रहा था। सिग्नल पर गाड़ी रुकते ही प्रवीण ने कहा-"निदा फ़ाज़ली की गजल है। जगजीत सिंह ने गाई है। जगजीत सिंह के गीतों की सीडी घर चल कर सुनेंगे। तुम्हें पसंद आएगा उनका गायन।"

"श्योर"

सिग्नल के उस पार पान की दुकान थी-"पान लगवा लो न प्रवीण। पिछली बार जब लखनऊ आए थे तो प्रोफ़ेसर ने खिलाए थे।" पान की दुकान के पास कार रोकते हुए प्रवीण ने कहा-"तो मोहतरमा पान से परिचित हैं। अभी खाएंगी या पैक करवा लें?"

"पैक करवा लो मोहतरम।"

दोनों हँस पड़े।


लॉयेना के साथ गपशप, डिनर और जगजीत सिंह की गाई गजलों पर देर तक चर्चा करके जब कैथरीन सोने के लिए कमरे में आई तो फोन पर नरोत्तम गिरी का मैसेज था-"क्या बहुत बिजी हो? पहुँच कर फोन ही नहीं किया।"

उसने तुरंत फोन लगाया।

"हाँ थोड़ी व्यस्त रही। अब तुम्हारी तबीयत कैसी है?"

" बिल्कुल ठीक हूँ कैथरीन। कल से तप, साधना आरंभ करेंगे।

"मैं भी कल प्रोफेसर शांडिल्य की यूनिवर्सिटी में शोधछात्रों से महिला नागा साधुओं पर चर्चा करूँगी। बड़ा रोमांचक और रहस्यमय है यह।"

"तुम सच में बहुत मेहनत कर रही हो कैथरीन... एक व्यापक कथानक को लेकर सर्जन रचने का हिमालयी कार्य। मैं अभिभूत हूँ।" "बहुत धन्यवाद नरोत्तम, किताब पूरी होने में समय बहुत ले रही है।" "उत्कृष्ट सर्जना समय साध्य होती है कैथरीन। काल की अग्नि में तपकर ही शिखर मिलता है।"

"तुम ऐसा कहते हो तो मुझे हौसला मिलता है नरोत्तम। तुम ही तो इस किताब के प्रेरक हो।"

सृजन की विराट साधना में निमग्न तुम मेरे लिए अकल्पनीय, अभिनंदनीय कैथरीन। "

" नरोत्तम ...चाहती हूँ तुम सदा स्वस्थ रहो। वरना मैं विचलित हो जाती हूँ।

"नहीं कैथरीन, लिप्त मत हो मोह में। ईश्वर तुमसे विराट कार्य करा रहा है। शरीर के संग तो व्याधि लगी ही रहती है।"

"अब सो जाओ कैथरीन, कल लैक्चर भी तो देना है तुम्हें। शुभरात्रि।"

"शुभरात्रि नरोत्तम।"


कैथरीन और लॉयेना नियत समय पर यूनिवर्सिटी पहुँच गईं। प्रोफेसर शांडिल्य के केबिन में दाखिल होते ही दोनों ने प्रोफेसर को खुद का इंतजार करते पाया।

"आईए मिस बिलिंग, वेलकम मिसेज़ लॉयेना। पंक्चुअल हैं आप दोनों। चलिए सीधे चलते हैं कॉन्फ्रेंस रूम।"

कॉन्फ्रेंस रूम में शोध छात्र उनका इंतजार कर रहे थे। प्रोफेसर शांडिल्य ने मिस बिलिंग का सबसे परिचय कराया। फिर छात्रों को सम्बोधित करते हुए कहा-"जैसा कि मैंने आपसे बताया था मिस बिलिंग नागा साधुओं पर बेहद गहन पड़ताल करके किताब लिख रही हैं। आज इसी विषय पर आपके प्रश्नों, जिज्ञासाओं का समाधान करेंगी।"

छात्रों ने ताली बजाकर कैथरीन का स्वागत किया। प्रश्न के लिए कुछ हाथ उठे। कैथरीन ने शुरुआत छात्रा से की-

"जी, पूछिए। नाम भी बताएँ अपना।"

"आशालता, मैं समाजशास्त्र में रिसर्च कर रही हूँ। जानना चाहती हूँ, क्या महिलाएँ भी नागा साधु हैं?"

" लॉयेना और प्रोफेसर शांडिल्य सामने ही बैठे थे।

"जी हाँ आशालता जी, अब महिलाएँ भी नागा साधु की दीक्षा लेकर सनातन धर्म के लिए समर्पित हैं।"

"मैडम नागा साधु बनने के लिए तो कई साल लग जाते हैं। कठिन प्रक्रिया से गुजरना होता है। क्या उस प्रक्रिया से महिलाएँ भी गुजरती हैं?"

" बिल्कुल उन्हें भी 6 से 12 साल तक कठिन ब्रह्मचर्य का पालन करना होता है। इसके बाद गुरु यदि इस बात से संतुष्ट हो जाते हैंं कि महिला ब्रह्मचर्य का पालन कर सकती है तो उसे दीक्षा देते हैंं।

महिला नागा सन्यासिन बनाने से पहले अखाड़े के साधु-संत महिला के घर परिवार और पिछले जीवन की जांच-पड़ताल करते हैंं।

महिला को भी नागा सन्यासिन बनने से पहले स्वयंं का पिंडदान और तर्पण करना पड़ता है। "

"मैडम क्या उन्हें अपना अखाड़ा, अपना गुरु निर्धारित करने की स्वतंत्रता रहती है?"

"हाँ, जिस अखाड़े से महिला संन्यास की दीक्षा लेना चाहती है, उसके आचार्य महामंडलेश्वर ही उसे दीक्षा देते हैंं।"

"मैडम विस्तार से संपूर्ण प्रक्रिया पर प्रकाश डालें हम सब उनकी रहस्यमयी, रोचक दुनिया को जानने के इच्छुक हैं।"

" अच्छी लगी कैथरीन को छात्रों की जिज्ञासा। वह भी तो इस जिज्ञासा से गुजर चुकी है।

उसने सम्बोधित किया-

" प्रिय छात्रों,

महिला को नागा साधु बनाने से पहले उसका मुंडन किया जाता है और नदी में स्नान करवाते हैंं।

महिला नागा साधु पूरा दिन भगवान का जप करती है। सुबह ब्रह्म मुहूर्त में उठना होता है। इसके बाद नित्य कर्मो से निवृत्त होकर शिवजी का जाप करना होता है। दोपहर में वे भोजन करती हैंं और फिर से शिवजी का जाप करती हैंं। शाम को दत्तात्रेय भगवान की पूजा करती हैंं और इसके बाद शयन।

सिंहस्थ और कुम्भ में नागा साधुओं के साथ ही महिला साधु जो सन्यासिन कहलाती हैं शाही स्नान करती हैंं। अखाड़े में सन्यासिन को भी पूरा सम्मान दिया जाता है।

जब महिला नागा सन्यासिन बन जाती हैंं तो अखाड़े के सभी साधु-संत उन्हें माता कहकर सम्बोधित करते हैंं।

सन्यासिन बनने से पहले महिला को ये साबित करना होता है कि उसका परिवार और समाज से कोई मोह नहीं है। वह सिर्फ भगवान की भक्ति करना चाहती है और सनातन धर्म के लिए समर्पित है। इस बात की संतुष्टि होने के बाद ही दीक्षा दी जाती हैं। "

कैथरीन कुछ पल रुकी। दो तीन हाथ प्रश्न पूछने के लिए उठे। उसने एक छात्र से कहा-"हाँ पूछिए।"

"मैम, पुरुष नागा साधु और महिला नागा साधु में क्या फर्क है?"

"केवल इतना ही है कि महिला नागा साधु को एक पीला वस्त्र अपने शरीर से लपेटकर रखना पड़ता है और यही वस्त्र पहनकर स्नान भी करना पड़ता है। नग्न स्नान की अनुमति नहीं है। यहाँ तक कि कुम्भ मेले में भी नहीं।"

"मेम कुछ नागा अखाड़ों के बारे में भी बतलाएँ। क्या समय के साथ उन अखाड़ों में कुछ परिवर्तन दिखाई देता है?"

" बहुत बढ़िया सवाल है आपका। परिवर्तन सृष्टि का नियम। समय बीतता जाता है, स्थितियाँ भी बदलती जाती हैं।

समय के साथ अखाड़ों में साधना के लिए साधनों में बदलाव हुआ है। प्रयागराज यानी इलाहाबाद में 1989 में लगे कुंभ के बाद हाथी-घोड़ा, ऊंट, बैलगाड़ी से पेशवाई पर प्रतिबंध लगने के बाद अब वाहनों का प्रयोग भी होने लगा है। जहाँ एक ओर भगवाधारी साधु बाइक चलाते नजर आएंगे वहीं नागा साधु भी अखाड़े की कार चलाते दिखेंगे।

"मैंने कभी किसी नागा साधु को कार चलाते नहीं देखा। मैंने तो उन्हें कभी अस्पतालों में भी नहीं देखा।"

हाँ कार से यात्रा करने और कार चलाने की परंपरा नागा साधुओं में अभी कम ही है। अस्पताल वे कभी नहीं जाते। जड़ी बूटियों से ही अपना इलाज करते हैं। "

"मेम कुछ नागा अखाड़ों के बारे में भी बतलाएँ। क्या समय के साथ उन अखाड़ों में कुछ परिवर्तन दिखाई देता है?"

" बहुत बढ़िया सवाल है आपका। परिवर्तन सृष्टि का नियम। समय बीतता जाता है, स्थितियाँ भी बदलती जाती हैं।

समय के साथ अखाड़ों में साधना के लिए साधनों में बदलाव हुआ है। प्रयागराज यानी इलाहाबाद में 1989 में लगे कुंभ के बाद हाथी-घोड़ा, ऊंट, बैलगाड़ी से पेशवाई पर प्रतिबंध लगने के बाद अब वाहनों का प्रयोग भी होने लगा है। जहाँ एक ओर भगवाधारी साधु बाइक चलाते नजर आएंगे वहीं नागा साधु भी अखाड़े की कार चलाते दिखेंगे।

"मैंने कभी किसी नागा साधु को कार चलाते नहीं देखा। मैंने तो उन्हें कभी अस्पतालों में भी नहीं देखा।"

"हाँ कार से यात्रा करने और कार चलाने की परंपरा नागा साधुओं में अभी कम ही है। अस्पताल वे कभी नहीं जाते। जड़ी बूटियों से ही अपना इलाज करते हैं।"

"मैम उनका अंतिम संस्कार कैसे होता है?"

कैथरीन के लिए यह प्रश्न अप्रत्याशित था। लेकिन वह उत्तर के लिए तैयार थी। उसकी अपनी जिज्ञासा ने नरोत्तम से इस बात की जानकारी भी पहले ही ले ली थी।

"आप सब यह तो जानते ही होंगे कि हिन्दू धर्म में अग्नि से ही अंतिम संस्कार होता है। लेकिन नागाओं का अंतिम संस्कार अग्नि से नहीं होता। उनके शव को पहले जल समाधि दी जाती थी। लेकिन नदियों का जल प्रदूषित होने के नाते अब पृथ्वी पर समाधि दी जाती है। शव को सिद्ध योग में बैठाकर भू-समाधि दी जाती है। धरती के अंदर उन्हें तप करने जैसी अवस्था में बैठाया जाता है और ढक दिया जाता है मिट्टी से।"

"यह तो कैथलिक परंपरा हुई, है न मैम?" एक छात्र ने आश्चर्य प्रगट करते हुए कहा।

"इस्लाम में भी इसी तरह से शव का अंतिम संस्कार किया जाता है।"

"परंपरा तो धर्म के अनुसार ही बनती है, बनी भी हैं। हम केवल उसका निर्वाह करते हैं।" कैथरीन ने कहा।

"मैम नागा साधुओं के समुदाय को अखाड़ा क्यों कहते हैं? अखाड़ा तो वह होता है जहाँ कुश्ती लड़ी जाती है।"

" आप ठीक कह रहे हैं लेकिन जहाँ भी दांवपेंच की गुंजाइश होती है वहाँ इस शब्द का प्रयोग होता है। पहले आश्रमों के अखाड़े को बेड़ा अर्थात साधुओं का जत्था कहा जाता था। तब अखाड़ा शब्द का चलन नहीं था। साधुओं के जत्थे में पीर होते थे। अखाड़ा शब्द का चलन मुगल काल से शुरु हुआ था। हालाँकि कुछ ग्रंथों के मुताबिक अलख शब्द से ही अखाड़ा शब्द की उत्पत्ति हुई है जबकि कुछ धर्म के जानकारों के अनुसार साधुओं के अक्खड़ स्वभाव के कारण उनके समुदाय को अखाड़ा कहा जाता है।

"मैम क्या नियम भंग करने वालों के लिए सजा का भी प्रावधान है?"

" प्रत्येक अखाड़े के अपने-अपने नियम और कानून है। अपराध करने वाले साधुओं को अखाड़ा परिषद सजा देता है। छोटी चूक के दोषी साधु को अखाड़े के कोतवाल के साथ गंगा में 5 से लेकर 108 डुबकियाँ लगाने के लिए भेजा जाता है। डुबकी के बाद वह भीगे कपड़ों में ही देवस्थान पर आकर अपनी गलती के लिए क्षमा माँगता है। फिर पुजारी पूजा स्थल पर रखा प्रसाद उसे देकर दोष मुक्त करते हैं। विवाह, हत्या या दुष्कर्म जैसे मामलों में उसे अखाड़े से निष्कासित कर दिया जाता है। अखाड़े से निकल जाने के बाद ही

उन पर भारतीय संविधान में वर्णित कानून लागू होता है। अगर अखाड़े के दो सदस्य आपस में लड़ाई करें, कोई नागा साधु विवाह कर ले या दुष्कर्म का दोषी हो, छावनी के भीतर से किसी का सामान चोरी करते हुए पकड़े जाया, देवस्थान को अपवित्र करे या वर्जित स्थान पर प्रवेश करे। कोई साधु किसी यात्री यजमान से अभद्र व्यवहार करे, अखाड़े के मंच पर कोई अपात्र चढ़ जाए तो उसे अखाड़े की अदालत सजा देती है। अखाड़ों के कानून मानने की शपथ उन्हें नागा प्रक्रिया के दौरान दिलाई जाती है। जो नागा इस कानून का पालन नहीं करता उसे अखाड़े से निष्कासित कर दिया जाता है। "

"मैम क्या अखाड़ों में भी लोकतांत्रिक प्रक्रिया से चुनाव होते हैं।" सवाल एक जिज्ञासु छात्र का था।

" अब शुरू हो गए हैं अखाड़ों में लोकतांत्रिक प्रक्रिया से चुनाव।

निर्मोही अखाड़ा हो या जूना अखाड़ा, इनके अलावा कई अन्य अखाड़ों में भी लोकतांत्रिक व्यवस्था की एक खास प्रणाली है। यह अखाड़ा एक पूरा समाज है जहाँ अखाड़ों के सभी बड़े सदस्यों की एक कमेटी बनती है। ये सभी लोग अखाड़े के लिए सभापति का चुनाव करते हैं। एक बार चुनाव होने के बाद यह पद जीवन भर के लिए चुने हुए व्यक्तियों का हो जाता है।

"अर्थात अखाड़ों में लोकतंत्र का बहुत महत्त्व है मैम।"

" अखाड़े लोकतंत्र से ही चलते हैं। जूना अखाड़े में 6 साल में चुनाव होते हैं। कमेटी बदल दी जाती है। हर बार नए को चुनते हैं। यह इसलिए ताकि सभी को नेतृत्व का मौका मिले। सभी संतो में भी अच्छी नेतृत्व क्षमता आए। कुछ अखाड़ों में बाकायदा चुनाव प्रक्रिया होती है। आवश्यकता पड़ने पर वोटिंग भी होती है। अच्छा काम करने वाले को दोबारा चुना जाता है। नहीं करने पर बदल दिया जाता है। कुछ अखाड़े ऐसे भी हैं जहाँ चुनाव नहीं होता। इसी तरह अखाड़ा परिषद में अध्यक्ष, उपाध्यक्ष, सचिव सहित 16 लोगों की कमेटी चुनी जाती है। इसे कैबिनेट कहते हैं। कमेटी यानी कैबिनेट की समय-समय पर बैठक होती है। आपात बैठक का भी प्रावधान है। सिंहस्थ या कुंभ में जब भी धर्म ध्वज की स्थापना होती है कमेटी स्वतः भंग हो जाती है। सारे अधिकार दो प्रधान के पास आ जाते हैं। ये मिलकर पूरे सिंहस्थ या कुंभ की व्यवस्था संभालते हैं। कुंभ सिंहस्थ के बाद कमेटी वापस अस्तित्व में आ जाती है।

" ओह, विस्तृत विषय है यह और हमारे पास समय कम है। मैम आपने जितना बताया उसके लिए हम आपके शुक्रगुजार हैं। आप

दो घंटे तक हमारे साथ रहीं और हमारी जिज्ञासाओं को शांत करती रहीं। आपका बहुत-बहुत आभार। "

छात्र खुश थे। उन्होंने कैथरीन और प्रोफ़ेसर शांडिल्य का बार-बार शुक्रिया अदा किया।

कॉन्फ्रेंस रूम से बाहर आकर प्रोफेसर शांडिल्य ने कैथरीन और लॉयेना को पूरी यूनिवर्सिटी घुमाई। पुस्तकालय में किताबों के बीच थोड़ा वक्त गुजारा और उन्हें किसी रेस्त्रां में चलकर कॉफी पीने की दावत दी।

"मिस्टर प्रवीण को भी बुला लीजिए। गपशप में शाम गुजरेगी।"

लॉयेना ने प्रवीण को फोन लगाकर प्रोफेसर शांडिल्य को फोन दिया-"लीजिए आप ही बात कर लीजिए।"

"यस मिस्टर प्रवीण, आइए हम रेस्त्रां में मिलते हैं। कुछ देर गर्म कॉफी के साथ चर्चा करेंगे। बौद्धिक शाम गुजारेंगे।"

कहते हुए उन्होंने रेस्तरां का नाम बताया और फोन लॉयेना की ओर बढ़ाया।

"चलिए।"

रेस्तरां काफी खूबसूरत जगह पर था। जिस टेबिल का प्रोफेसर शांडिल्य ने चयन किया वहाँ की खिड़की से बाहर का नजारा हरे भरे पेड़ों और उन पर चहचहाते पक्षियों वाला था।

"जब तक मिस्टर प्रवीण आते हैं एक राउंड कॉफी हो जाए?"

लॉयेना ने फिर फोन लगाया-

"नहीं आ सकूंगा लॉयेना प्रोफेसर से माफी मांग लो। काम में इतना उलझा हूँ कि रात के 10 बज सकते हैं।"

प्रवीण के नहीं आ सकने की खबर सुनकर प्रोफ़ेसर ने तुरंत कहा-

"कोई बात नहीं, व्यापार में इसी तरह अचानक काम आ जाते हैं। तो बताइए आप लोग, क्या खाना पसंद करेंगे?"

"मैं तो कुछ नहीं लूंगी।" लॉयेना ने कहा।

कैथरीन ने भी उसकी हाँ में हाँ मिलाई-"बिल्कुल भी खाने की इच्छा नहीं है। आप चाहे तो अपने लिए आर्डर कर दें।"

"कॉफी चलेगी दोबारा?"

"हाँ बिल्कुल।"

प्रवीण की इंकारी से लॉयेना डिस्टर्ब हो गई थी, माहौल भी गंभीर हो गया था। रेस्त्रां में एक घंटा तीनों के बीच खामोशी से गुजरा। रेस्त्रां से बाहर आकर पार्किंग की ओर बढ़ते हुए कैथरीन ने कहा-

"सुबह समय पर आ जाईएगा जिससे हम अयोध्या समय पर पहुँच जाएँ। वैसे भी 9: 00 बजे निकलेंगे तो अयोध्या पहुँचते रात हो जाएगी।"

"चिंता न करें। समय का बहुत पाबंद हूँ। ठीक 8: 00 बजे आपके यहाँ की डोर बेल बजाऊँगा।"

"हम भी एकदम तैयार रहेंगे। तो मिलते हैं सुबह, शुभ रात्रि।"


गाड़ी चलाती लॉयेना अब भी खामोश थी।

"बहुत डिस्टर्ब हो गई तुम।"

"हाँ कैथ, प्रवीण को मैं समझ नहीं पाती। हमेशा दूसरों के सामने सीन क्रिएट कर देते हैं। उन्हें मेरी तौहीन करने में मजा आता है।"

"यह सब सोचना बंद कर दो लॉयेना। जीवन का कोई उद्देश्य ढूँढो। दुष्यंत, शांतनु को लायकवर बनाओ। अपने ढंग से जिंदगी जियो। सच कहती हूँ बहुत आनंदित रहोगी तुम।"

"मैं भी ऐसा ही सोचती हूँ कैथ, पर मुझसे हो नहीं पाता। अपने देश, अपने लोग, अपना परिवेश छोड़ने का दुख पीछा नहीं छोड़ता।" कैथरीन को लॉयेना के चेहरे पर एक अदृश्य डर की परछाई भी नजर आई। लॉयेना के इस दुख की, डर की जिम्मेवार वह ही है। एकमात्र वह वरना लॉयेना की जिंदगी कुछ और होती।

रात के किसी वक्त प्रवीण लौटा। तब तक लॉयेना और कैथरीन अयोध्या जाने की तैयारी करती रहीं।

"कहाँ रह गए थे प्रवीण? डिनर तक भी नहीं लौटे।"

कैथरीन ने प्रवीण को थका हुआ देख पूछा।

"तुम दोनों ने डिनर ले लिया न? मैंने अपने एक मित्र के साथ खा लिया था। फिर मैं तुम्हारे लिए जगजीत सिंह की सीडी तलाशता रहा। कल तुम दिल्ली जा रही हो न। लखनऊ फिर पता नहीं कब आओगी।"

"भूल गए प्रवीण। कल तो हम लोग हनुमानगढ़ी जा रहे हैं।" लॉयेना ने टोका।

"अरे हाँ। हो गई तुम लोगों की तैयारी? सुबह ही तो निकल रही हो।"

"हाँ प्रवीण, काश तुम भी साथ चलते।"

प्रवीण ने कैथरीन को भर नजर देखा।

"अब तुम लोग आराम करो। मैं भी थक गया हूँ। शुभरात्रि।"

कहते हुए वह अपने कमरे में चला गया।

पलंग पर लेटे हुए कैथरीन ने नरोत्तम को फोन लगाया वह उसके फोन की प्रतीक्षा कर रहा था।

"कैसा रहा तुम्हारा लेक्चर?"

"बहुत अच्छा, छात्रों में नागाओं को लेकर, बहुत जिज्ञासा है। मेरी जितनी जानकारी थी वह सब मैंने उन्हें दी। बहुत खुश हुए वे।"

"तुम्हारी जानकारी तो संपूर्ण है। अब बाकी क्या रह गया है?"

ज्ञान तो हमेशा अधूरा रहता है। बहुत जानने को शेष रहता है अब देखो न प्रोफ़ेसर ने अयोध्या स्थित हनुमानगढ़ी की बात बताई। वहाँ भी नागा साधु निवास करते हैं। हम जा रहे हैं कल प्रोफ़ेसर शांडिल्य के साथ हनुमानगढ़ी। "

"सदियों पुराना है हनुमानगढ़ी का हनुमान मंदिर। वहाँ कई नागा निवास करते हैं। सचमुच में और भी अधिक जानकारी मिलेगी तुम्हें। बहुत अच्छा निर्णय लिया तुमने।" "सुबह-सुबह ही निकलना है। आज दिन भर लेक्चर से थक भी बहुत गई। अब तुम भी सो जाओ। तुम्हें भी तीन बजे उठना होता है। शुभ रात्रि"

शुभरात्रि कैथरीन, हनुमानगढ़ी से लौटकर फोन करना। "


सुबह 8: 00 बजे प्रोफेसर शांडिल्य प्रवीण के घर पहुँच गए। खाने पीने के सामान की डलिया, छोटा-सा सूटकेस ड्राइंग रूम में रखा देख प्रोफेसर शांडिल्य ने कहा-"काफी तैयारी कर ली लॉयेना जी ने।"

"13 घंटे का सफर है प्रोफेसर। वहाँ 2 दिन रुकना भी तो पड़ेगा।" ड्राइवर समय पर पहुँच गया था। कार ने लखनऊ 9: 00 बजे तक पार कर लिया था। कहीं रास्ता समतल मिलता तो कहीं उबड़ खाबड़। रास्ते भर अधिकतर बातें प्रोफेसर और कैथरीन में ही हुईं। लॉयेना खामोश रही। अपने में सिमटी सी। हमेशा चहकने वाली लॉयेना अपनी जिंदगी के रूखेपन से एकदम बदल गई है। कैथरीन ढूँढ रही है उस चुलबुली लड़की को ...खिड़की के बाहर खेतों में, लहलहाती फसलों में, ठंडी चंचल हवाओं में, आसमान पर धुँए के गुबार से लगते बादलों में, पर...

"मिस बिलिंग, कोई गीत सुनाइए न आप अपनी भाषा में।"

"गीत? गीत तो लॉयेना गाती है।"

"अब कहाँ? वैसा गला ही नहीं रहा।" लॉयेना ने उदास स्वरों में कहा।

"कोई बात नहीं, सुनाइए न।" प्रोफ़ेसर के आग्रह पर लॉयेना ने धीमे स्वरों में गीत के सूत्र को पकड़ा और फिर ऊँचाई तक ले गई। गीत के बोल थे-"मेरे पास एक अधूरा इंद्रधनुष है। जिसके खोए हुए रंगों को मैं जीवन भर खोजती रही।" गीत मार्मिक था। समाप्ति पर थोड़ी देर कार में सन्नाटा रहा। कैथरीन के हृदय में लॉयेना के लिए पीड़ा उमड़ आई। उसने उसे गले से लगा लिया

"आई एम सॉरी।"

लॉयेना की आँखें भीग गईं।

रात 10 बजे वे अयोध्या स्थित पहले से ही बुक किये होटल पहुँचे। "हम फ्रेश होकर अपने-अपने कमरों में ही डिनर मंगवा लेते हैं। सुबह मिलेंगे। शुभरात्रि।"

कैथरीन और लॉयेना एक ही कमरे में रुकीं। कमरे की बालकनी की ओर खुलती खिड़की से शहर की जगमगाती बत्तियाँ दिख रही थीं।


सुबह तीनों मंदिर की ओर रवाना हुए। मौसम खुशगवार था। हमेशा ही मौसम ने कैथरीन का साथ दिया है। हनुमानगढ़ी के परिसर में प्रवेश करते ही कैथरीन की नजरें चमक उठीं। इमली के छतनारे दरख़्तों के बीच लाल सफेद कँगूरे दार और दीपस्तंभों वाला हनुमान जी का भव्य मंदिर सामने था। दसवीं शताब्दी में निर्मित मंदिर का सौंदर्य देखते ही बनता था। मंदिर ऊँचाई पर था। कैथरीन और लॉयेना तेजी से सीढ़ियाँ चढ़ रही थीं। प्रोफेसर पीछे रह गए। वे एक-एक सीढ़ी संभालकर चढ़ रहे थे। 76 सीढ़ियाँ चढ़कर मंदिर का द्वार आ गया।

विदेशी महिलाओं को देख मंदिर का पुजारी उनके पास आया-"वहाँ से पूजा की थाली ले लीजिए माता जी, हम पूजा संपन्न करा देंगे।"

"हम दर्शन करने आए हैं पंडित जी। आप हमें इस मंदिर के इतिहास की जानकारी देंगे तो बेहतर है।"

कहते हुए कैथरीन ने सिर पर स्कार्फ बाँध लिया। ताकि बाल बिखरे न। लॉयेना ने तो बाल बढ़ा रखे हैं। चोटी करती है वह लंबी-सी और चोटी में खूब प्यारी लगती है।

"हाँ, हाँ हम बताते हैं। कम से कम ये पत्र पुष्प चढ़ाकर संकट मोचन का स्मरण कर लीजिए। आपके सब कार्य सफल होंगे।"

कैथरीन समझ गई पंडित पहले दक्षिणा चाहता है। उसने सौ-सौ के दो नोट पंडित की ओर बढ़ाए। "चलिए वहाँ बैठते हैं।"

"अवश्य।"

खुश होकर पंडित ने बैठने के लिए मंदिर का कोना चुना। प्रोफ़ेसर शांडिल्य भी मंदिर की परिक्रमा कर आ चुके थे। पंडित आसन जमा चुका था-" माताजी पवनपुत्र हनुमान को समर्पित इस मंदिर का निर्माण राजा विक्रमादिय द्वारा दसवीं शताब्दी में करवाया गया था जो आज हनुमान गढ़ी के नाम से प्रसिद्ध है। ऐसी मान्यता है कि पवनपुत्र हनुमान यहाँ रहते हुए कोतवाल के रूप में अयोध्या की रक्षा करते हैं। मंदिर के प्रांगण में हनुमान जी की माता अंजनी के गोद में बैठे बाल हनुमान को दर्शाया गया है।

हनुमान गढ़ी भारत के उत्तर प्रदेश में है। अयोध्या में स्थित, यह शहर के सबसे महत्त्वपूर्ण मंदिरों के साथ-साथ अन्य मंदिरों जैसे नागेश्वर नाथ और निर्माणाधीन राम मंदिर में से एक हैं। उत्तर भारत में हनुमान जी का यह मंदिर सबसे लोकप्रिय मंदिर परिसरों में से एक हैं। यह एक प्रथा है कि राम मंदिर जाने से पहले सबसे पहले भगवान हनुमान मंदिर के दर्शन करने चाहिए। मंदिर में हनुमान की माँ अंजनी रहती हैं, जिसमें युवा हनुमान जी उनकी गोद में बैठे हैं।

जब लंकापति रावण पर विजय प्राप्त करने के बाद भगवान राम अयोध्या लौटे, तो हनुमानजी यहीं निवास करने लगे। इसीलिए इसका नाम हनुमानगढ़ या हनुमान कोट रखा गया। यहीं से हनुमानजी रामकोट की रक्षा करते थे। यह विशाल मंदिर और इसका आवासीय परिसर 52 बीघा जमीन पर फैला हुआ है। वृंदावन, नासिक, उज्जैन, जगन्नाथपुरी सहित देश के कई मंदिरों में इस मंदिर की संपत्ति, अखाड़े और बैठकें हैं। हनुमान गढ़ी मंदिर राम जन्मभूमि के पास स्थित है। 1855 में, अवध के नवाब ने मंदिर को मुसलमानों द्वारा विनाश से बचाया। मुसलमानों को लगा कि हनुमानगढ़ी एक मस्जिद के ऊपर बनाई गई है। इतिहासकार कहते है कि 1855 का विवाद बाबरी मस्जिद-राम मंदिर स्थल के लिए नहीं बल्कि हनुमान गढ़ी मंदिर के लिए था। "

"बहुत बढ़िया जानकारी दी आपने पंडित जी। आपका बहुत-बहुत आभार।" कैथरीन ने हाथ जोड़े। "यह तो हमारा सौभाग्य है कि हम आपको कुछ बता सके। आप हमारे देश की मेहमान हैं, हमारी अतिथि हैं। अतिथि देवो भव हमारी संस्कृति है।"

पंडित ने बहुत विनम्रता से कहा कैथरीन जिस जानकारी के लिए आई थी वह अभी अधूरी थी। उसने पंडित से पूछा-"यहाँ नागा साधु भी तप साधना करते हैं। उनसे कैसे मिला जाए?"

"माता जी मैं ले चलता हूँ उनके पास। यहाँ तो 500 नागा साधु रहते हैं।"

"वाह किस अखाड़े के हैं वे?"

"कोई एक नहीं।" पंडित ने कैथरीन की जानकारी पर गौर किया-"आप जानती हैं नागा अखाड़ों को?"

"जी हाँ और अधिक जानकारी के लिए यहाँ आई हूँ।"

"चलिए हम आपको गिरिराज गिरि महंत जी के पास ले चलते हैं।" पंडित उन्हें जिस स्थान पर लाया वहाँ जलती हुई धूनी के आसपास कुछ नागा साधु बैठे थे। उन्हीं में से एक वयोवृद्ध नागा साधु से पंडित ने कहा-"महंत जी आपसे मिलने ये विदेश से आई हैं, माताजी यही गिरिराज गिरि महंत हैं।"

कैथरीन प्रणाम करके एक ओर बैठ गई। लॉयेना प्रोफेसर शांडिल्य के साथ मंदिर के परिसर में घूमने चली गई। गिरिराज गिरि महंत ने पूछा-

"आने का उद्देश्य बताएँ माता।"

"मैं नागा साधुओं पर किताब लिख रही हूँ। उसी के लिए जानकारी इकट्ठा करने आई हूँ।"

"सही समय आई हैं माता। कल हम तप, साधना के लिए अमरकंटक चले जाएंगे। आइए मेरे साथ इधर बैठते हैं।"

गिरिराज गिरी के संग कैथरीन एक छोटे से कक्ष में आ गई। दोनों भूमि पर बिछी चटाई पर बैठ गए। एक नागा साधु कैथरीन के लिए पानी ले आया।

"पूर्व जानकारी तो होगी माता, नागा अखाड़ों की।"

"जी इस परिसर, हनुमानगढ़ी और आपके यहाँ निवास की जानकारी चाहती हूँ।"

"माता आप बहुत जिज्ञासु लगती हैं और बहुत अच्छी हिन्दी बोल रही हैं। काफी विदुषी लगती हैं।" कैथरीन मुस्कुराने लगी।

माता, जिस जगह हनुमानगढ़ी किला है ठीक उसी जगह पहले एक इमली का पेड़ हुआ करता था। उसके नीचे बाबा अभय रामदास वहीं से निकली हनुमान जी की मूर्ति की पूजा अर्चना किया करते थे। उस समय अयोध्या नवाब शुजाउद्दौला के राज का हिस्सा था। नवाब कुष्ठ रोग से पीड़ित था। बाबा अभय रामदास की ख्याति उन्होंने सुनी थी। वे उनके पास गये। बाबा के आशीर्वाद से नवाब ठीक हो गए। नवाब ने बाबा से कहा कि

"बाबा मैं अवध का नवाब हूँ। आपको कोई समस्या हो तो बताएँ। बाबा ने कहा-" हम तो साधु हैं, साधु की न कोई समस्या और न कोई इच्छा। आप अगर हनुमान जी के लिए एक मंदिर बनवा सकें तो हनुमान जी की कृपा भी आपको प्राप्त हो जाएगी। "

और शैव सन्यासी आक्रमण न कर पाए इसका भी इंतजाम देख लीजिए। "

शुजाउद्दोला ने बाबा की इच्छा को सम्मान देते हुए 52 एकड़ भूमि पर हनुमानगढ़ी किला बनवाया। इसकी बनावट बेहद खूबसूरत थी बिल्कुल किले तरह। हनुमान जी का मंदिर भी बेहद खूबसूरत स्थापत्य का नमूना है।

कुछ लोग कहते हैं कि नवाब शुजाउद्दौला को कुष्ठ रोग नहीं हुआ था बल्कि वे बाबा अभय रामदास को घायल पड़े मिले थे। वे उन्हें अपने डेरे में ले गए जहाँ एक खोह में हनुमान जी का मंदिर था। वहाँ उन्होंने शुजाउद्दौला का उपचार करके उन्हें स्वस्थ कर दिया।

इस हनुमानगढ़ी से साधु संतों को दिए जाने वाले राशन का एक हिस्सा किसी मुस्लिम संत फकीर को मिलता रहा है। क्योंकि उसी जगह पर एक फकीर का भी डेरा था। उन्हें हटाने की शर्त यही रखी गई कि हनुमानगढ़ी को मिलने वाले राशन का एक हिस्सा रोज एक मुस्लिम फकीर को भी मिलेगा। इस किले से नागा साधु भी अंग्रेजों के खिलाफ युद्ध में उतरे थे।

हनुमानगढ़ी का संविधान 1937 का बना हुआ है। उस समय से ही यहाँ के शिलालेख पर लिखा गया था कि बीड़ी, सिगरेट, हुक्का, चिलम या किसी भी तरह का नशा पूरी तरह वर्जित है यहाँ के संविधान में। यह भी लिखा है कि कोई भी साधु, नागा साधु, महंत, या किसी पद पर कार्यरत गैर मज़हबी कार्य नहीं कर सकता। अगर वह ऐसा करता है तो पंचों को अधिकार होगा कि उसे पद और अखाड़े से हटा दें। आज भी हनुमानगढ़ी में स्थित गर्भ गृह की ओर उसी जमाने का एक पत्थर लगा है। उस पर लिखा है कि यहाँ हिंदुओं के अलावा दूसरे धर्म के लोगों का प्रवेश वर्जित है।

माता, नागा साधु कभी प्रवचन नहीं करते। अखाड़े के नागा साधुओं का काम है अधर्मियों से लड़ना और अपनी धार्मिक परंपराओं और अनुष्ठानों का 12 महीने पालन करना। प्रतिदिन यहाँ मौजूद सभी नागाओं की हाजिरी ली जाती है। नागाओं के मुख्तार या कोठारी का काम है कि बाकायदा हाज़िरी को रजिस्टर में नोट करें। जो गैर हाजिर होता है उसके लिए कोई न कोई सजा मुकर्रर की जाती है।

सन्यासियों, शैवों और वैष्णव में नागा बनने की प्रक्रिया में काफी अंतर है। सन्यासियों में जो नागा बनते हैं वे शाही स्नान के लिए नग्न रूप में जाते हैं। बैरागी यानी वैष्णव नागा इसके विरोधी हैं। वे गंगा को अपनी माँ मानते हैं इसलिए वे गंगा में नग्न होकर स्नान करने को उचित नहीं मानते। वैष्णव नागाओं के पास हथियार भी होते थे। प्राचीन समय में सवारी का साधन नहीं होने के कारण हाथी, ऊंट को सवारी के रूप में इस्तेमाल किया जाता था। इसे हम नागा जमात कहते हैं।

"लेकिन यह जमात बनी कैसे?"

एक वह समय था जब शैव संप्रदाय का अत्याचार वैष्णव संप्रदाय पर बढ़ता जा रहा था।

अयोध्या और वृंदावन बैरागियों का गढ़ कहा जाता है। शैव संप्रदाय में लच्छोगिरी और भैरव गिरी नाम के दो सन्यासी थे जो प्रतिदिन पाँच वैष्णव हत्या करके ही जल ग्रहण करते थे। जब वैष्णव नहीं मिलते थे तो आटे का वैष्णव बनाकर उसे काटते थे। उसके बाद ही जल ग्रहण करते थे। उस समय जब वैष्णव संप्रदाय के लोग कुंभ में जाते थे तो उन्हें मारपीट कर अपमानित किया जाता था।

उन्हें कुंभ में प्रवेश करने भी नहीं दिया जाता था उसी समय जयपुर राजघराने से बाल आनंद जी ने वैष्णव धर्म स्वीकार किया और बाल आनंद आचार्य हुए। बाल आनंद आचार्य ने 18 वैष्णव अखाड़ों का निर्माण किया। जैसे निर्वाणी अखाड़ा, निर्मोही अखाड़ा। इसकी बैठक यानी केंद्र वृंदावन में बनाया गया और वहाँ देश भर के सभी वैष्णव संप्रदाय के आश्रमों से अखाड़े में एक शिष्य देना अनिवार्य था।

जब कोई साधु बनने के लिए जाता तो दीक्षा दे कर उसे 12 साल के लिए देश काल के भ्रमण के लिए भेजा जाता था। जब 12 साल में वह पूरी तरह से निपुण हो जाता और वापस अपने गुरु के पास आता तब उसे अखाड़े में भेजा जाता। वहाँ उन्हें साधक शिष्य बनाया जाता। भगवान शालिग्राम, तुलसी दल और गंगाजल हाथ में लेकर वह अखाड़े के किसी संत महात्मा को गुरु मानने की कसम खाता था।

आजकल तो मंत्र देने की परंपरा है। पहले नागा की उपाधि दी जाती है। फिर युद्धकला में प्रवीण किया जाता है। महंत जी के अनुसार नागा होने का अर्थ नग्न होना नहीं है। नागा का काम धर्म की स्थापना करना है। उसका भोजन सात्विक होना चाहिए। सात्विक विचारधारा होनी चाहिए। बाल आनंद आचार्य जी का उद्देश्य धर्म की स्थापना करना था। उनकी बनाई नागा सेना सन्यासियों के अत्याचार के खिलाफ लड़ती या फिर जो वैष्णव संप्रदाय आश्रम के रास्ते से भटक गये हैं उन्हें समझा-बुझाकर रास्ते पर लाना था। यह सेना लाठी, बल्लम, तलवार, फरसा आदि से लैस रहती। उसी दौरान जब हरिद्वार का कुंभ नजदीक आया तो देशभर के वैष्णवों का आव्हान किया गया। सब लोग इकट्ठा हुए और साजो सामान के साथ हथियारों से लैस होकर हरिद्वार पहुँचे। वहाँ हमारे पूर्वजों का शैव सन्यासियों से बहुत बड़ा युद्ध हुआ। गंगा खून से लाल हो गई। उस युद्ध के बाद ही हमें वहाँ स्नान करने की जगह मिली।

महंत गौरी शंकर दास के मुताबिक आज भी हरिद्वार में उस युद्ध में मारे गए नागाओं की समाधियाँ हैं।

गुजरात में धोलका, धंधुका, वीरमगांव और मेहसाणा जिले में भी समाधियाँ हैं। वैष्णव और शैव सन्यासियों के बीच इतने युद्ध हुए कि शैव संयासी आज भी वहाँ का पानी नहीं पीते। देशभर में जिन चार जगह पर कुंभ लगते हैं उन सभी जगहों पर वैष्णवों का सन्यासियों से भयंकर युद्ध हुआ। वैष्णवों ने कुंभ स्नान का अधिकार इन युद्धों में जीत कर हासिल किया। नागाओं पर ऐसेटिक गेम्स किताब लिखने वाले धीरेंद्र झा का कहना है कि हरिद्वार कुंभ में लड़ाई होने वाली बात सही है। वहाँ दशनामी और बैरागियों में बहुत लड़ाई हुई थी। दशनामी अखाड़ा सिखों का है। बाकी जगहों के बहुत सारे ऐसे युद्ध अधिकतर सुनी सुनाई कथाओं से लिए गए हैं। उन्होंने बताया कि यह सच है कि सन्यासियों और बैरागिओं में कुंभ के बहुत पहले से ही भिड़ंत होती रही है।

वैष्णव संप्रदाय से सम्बंधित जो भी फैसले लिए जाते हैं वह या तो वृंदावन या फिर कुंभ में लिए जाते हैं। इनके अखाड़े की बैठकें यानी कि केंद्र हर तीर्थ स्थान में है। जैसे नासिक, हरिद्वार, चित्रकूट, उज्जैन, वृंदावन। यहाँ से वे देशभर के वैष्णव आश्रमों का संचालन करते हैं। वैष्णव नागाओं के यहाँ मल्लयुद्ध की पुरानी परंपरा है। आज सन्यासियों और वैष्णव संतो में पहले जैसी दुश्मनी नहीं रही। अखाड़ा परिषद बना और सब साथ उठने बैठने लगे। लेकिन एक समय था जब वैष्णव साधु सन्यासियों के हाथ का छुआ पानी तक नहीं पीते थे। "

"ओह, लेकिन अब तो स्थिति ऐसी नहीं है न।"

"नहीं माता समय के साथ परिवर्तन आ ही जाता है।"

"तो आज्ञा दे महंत जी। आपका बहुमूल्य समय लेने के लिए क्षमा प्रार्थी हूँ। इतनी विस्तृत जानकारी के लिए आभार।"

"क्षमा कैसी? आपसे मिलकर तो मुझे प्रसन्नता ही हुई। आप हमारे देश के महत्त्वपूर्ण नागा पँथ पर किताब लिख रही हैं। आगे भी हमारी आवश्यकता हो तो याद करिएगा। हमारा मोबाइल नंबर नोट कर लीजिए।"

"जी अवश्य।" कैथरीन ने नंबर नोट किया और गिरिराज गिरी को प्रणाम कर कक्ष से बाहर निकल आई।

हनुमानगढ़ी का काम समाप्त हो चुका था और वे होटल जाकर वहाँ की औपचारिकताएँ निपटा कर सीधे लखनऊ की ओर रवाना हो गए।

काफी रात को वे सब लखनऊ पहुँचे। कार सीधी प्रवीण के घर आकर रुकी।

"अब इतनी रात को आप अपने घर न लौट कर यहीं रुक जाईए। सुबह नाश्ता करके चले जाइएगा।"

कैथरीन ने प्रोफेसर शांडिल्य से कहा।

"अरे यह तो अपना लखनऊ है। यहाँ रात कैसी और दिन कैसा। आराम से अभी 15 मिनट में घर पहुँच जाऊँगा। आप लोग आराम करिए।"

" कल मैं दिल्ली चली जाऊँगी।

ईश्वर ने चाहा तो जल्दी ही दोबारा मुलाकात होगी। "

"आपका तहे दिल से शुक्रगुजार हूँ। आपने मेरे विद्यार्थियों की जिज्ञासा शांत की, अपना कीमती वक्त दिया और मेरे एकाकी जीवन में थोड़ा-सा रस घोल दिया मुझे हनुमानगढ़ी ले जाकर।"

"आप के लिए मैं हमेशा उपस्थित हूँ प्रोफेसर। गुड बाय शुभरात्रि।"


इस बार लॉयेना से विदा लेते हुए कैथरीन का मन भारी था। लॉयेना भी उदास थी। कैथरीन जानती है लॉयेना में बर्दाश्त का जज्बा उससे कम है। वह हर बात मन पर ले लेती है और फिर अवसाद से घिर जाती है। जिंदगी की हर बात हर घटना बर्दाश्त कर लेना नामुमकिन है। लेकिन अगर बर्दाश्त कर लिया तो रूह में फकीरी नजर आती है। जैसे नरोत्तम फकीर हो गया है। सूफी संत हो गया है। उसने ईश्वर में लौ लगा ली है। बाकी सब कुछ उसके लिए बेमानी है। कैथरीन थोड़ी व्यथित हो जाती है खासकर उन बातों से जो उससे जुड़ी हैं। उसके कारण हुई हैं। लॉयेना को लेकर वह इसीलिए परेशान होती है।

एयरपोर्ट पर लॉयेना से विदा ले वह तेजी से वेटिंग लाउंज में आ गई। दूसरी फ्लाइट अनाउंस हो रही थी। उसने कुर्सी पर बैठकर आँखें मूँद लीं और चिंतन के सागर में गोते लगाने लगी। उसे लगा वह डूब रही है लॉयेना को साथ लेकर। वह तलहटी में उस कोने को तलाश रही है जहाँ वह लॉयेना के साथ बैठकर कुछ पल इत्मीनान से गुजार सके। जाने किन रंगों की बड़ी, छोटी जादुई मछलियाँ उन्हें छू-छू कर तैर रही हैं। उस छुअन में जैसे एक प्रश्न है "तुम हमारी दुनिया में क्यों आईं?" उसने आँखें मिचमिचा कर देखा। मछलियों के झुंड में लॉयेना भी है और प्रश्न उसी के मुख से शब्द-शब्द उच्चरित हो जल में प्रवाहमान है।

हाँ उसे नहीं आना चाहिए लॉयेना से मिलने। उसे प्रवीण और लॉयेना से दूर चले जाना चाहिए। वरना दर्द और कचोट के समंदर उमड़ते रहेंगे जिनका कोई किनारा नहीं होगा। "दिल्ली जाने वाली फ्लाइट उड़ान के लिए तैयार है मिस कैथरीन बिलिंग, जहाँ कहीं भी हों तुरंत गेट नंबर 2 पर आ जाएँ।"

वह हड़बड़ा कर उठ खड़ी हुई और गेट नंबर 2 की ओर भागी। फ्लाइट में बस उसी का इंतजार था।


दिल्ली के हवाई अड्डे से टैक्सी ले कैथरीन सीधे गेस्ट हाउस पहुँची। आज शाम को ही वह मालवीय नगर जाएगी दीपा से मिलने। नरोत्तम की जिंदगी का यह विशेष अध्याय उसके लिए महत्त्वपूर्ण है। इसके बिना किताब अधूरी है। मालवीय नगर में घर मिलने में परेशानी नहीं हुई। गेट पर कीरत सिंह के नाम की पीतल की चमकती हुई नेम प्लेट लगी थी जिस पर काले अक्षरों में लिखा था "डीएसपी कीरत सिंह"। गेट के खुलते ही छोटी-सी फूलों की बगिया थी। बरामदे में कैक्टस के पौधों के गमले रखे थे। उसने घंटी का बटन दबाया। घंटी ने मंजीरे बजाए जिसे सुनते ही कुत्ते के भौंकने की आवाज आई।

"नो रॉकी नो"

किसी स्त्री ने दरवाजा खोला-"दीदी कोई आई हैं।"

कहते हुए उसने कैथरीन को ड्राइंग रूम का रास्ता बता दिया।

"बैठिए दीदी आएंगी अभी।" कहते हुए वह अंदर चली गई। कैथरीन ने बेहद सुरुचिपूर्ण ढंग से सजाए भव्य ड्रॉइंग रूम का मुआयना किया। दीवारों पर कुछ कलाकृतियाँ लगी थीं। साथ ही कीरतसिंह की पुलिस वर्दी पहने बड़ी-सी तस्वीर, कंधे पर तीन स्टार का बैच था। फोटो पर माला तो नहीं थी पर सामने अगरबत्ती दान था जिसमें कुछ अधजली अगरबत्तियाँ लगी थीं। कोने में मेज पर महात्मा बुद्ध की संगमरमर की मूर्ति रखी थी और उसके सामने फ्रेम में जड़ी नरोत्तम गिरी और घनश्याम गिरी की तस्वीरें थीं। नरोत्तम नीली बुश्शर्ट में बेहद खूबसूरत दिख रहा था।

पर्दे पर लगी घंटियाँ टुनटुनाईं- "नमस्कार" की आवाज के साथ एक खूबसूरत महिला ने प्रवेश किया। कैथरीन उठ कर खड़ी हो गई। हाथ जोड़कर नमस्ते करते हुए कहा-"मैं कैथरीन बिलिंग फ्रॉम वियना जर्मनी।"

"बैठिए मैं दीपा, कीरत सिंह की पत्नी।"

" मैं यहाँ ...

"रुकिए, पहले कुछ लीजिए चाय, कॉफी। निश्चय ही आप किसी उद्देश्य से आई होंगी। कॉफी मंगवाती हूँ।"

"जी आई डोंट माइंड।"

दीपा ने आवाज दी-"रानी, कॉफ़ी साथ में ढोकले भी ले आना।"

वह कैथरीन से मुखातिब हुई-"ताज़े ही हैं। अभी बनाए। बिट्टू को बहुत पसंद हैं।"

धीरे-धीरे ड्राइंग रूम में और भी लोग आ गए। दीपा परिचय कराने लगी।

"माताजी हैं, यह बिट्टू रोली की सबसे छोटी बेटी और यह रोली मेरी ननद।"

परिचय कराने के ढंग से लगा कि दीपा का इस घर में काफी दबदबा है। कैथरीन ने विस्तार पूर्वक अपना परिचय दिया और जब नरोत्तम गिरी के बारे में बताया तो माताजी की आँखें छलक आईं-"कैसा है? कहाँ है मेरा मंगल? अरे, आप तो खूब मिलकर आई हो उससे। बताइए सब।"

रोली ने कैथरीन के दोनों हाथ पकड़ लिए-"प्लीज बताइए मंगल भैया के बारे में।"

"अब वे मंगल नहीं है। न ही आपका बेटा माताजी। पुनर्जन्म हुआ है उनका। अब वे जूना अखाड़े के आचार्य महामंडलेश्वर नरोत्तम गिरी हैं।"

सुनकर माताजी रुआंसी हो गईं-"बेटा कैसे नहीं है हमारा। हमने जिस मंगल को पाल पोस कर बड़ा किया वही नरोत्तम हो गया। इसका मतलब यह तो नहीं कि वह हमारा बेटा नहीं है। मुझे ले चलो उसके पास।"

"आप वहाँ नहीं जा सकतीं माताजी। बहुत कठोर नियम है उनके।"

"अरे, हमारी जिंदगी से कठोर तो नहीं होंगे न। मंगल के नागा बनने की सूचना मिलते ही उसके बाबू जी इतने शॉक्ड हुए कि जी न सके। स्वर्ग सिधार गए। मैं ही पत्थर बनी जिंदा रही। उनके जाते ही हम बिखर गए। जैसे-तैसे जिंदगी कट रही थी कि कीरत डाकुओं को पकड़ने के पुलिस ऑपरेशन में मारा गया। हमारी बहू दीपा कोई सुख न देख पाई जीवन का। एक बेटा हुआ वह भी साधु बन गया।"

"जी मैं मिली हूँ विशाल सिंह से। उसी ने यहाँ का पता दिया। अब वह घनश्याम गिरी हो गया है। नरोत्तम ही उसके गुरुजी हैं मगर एक दूसरे से अपने रिश्ते को लेकर अपरिचित हैं।"

सुनकर माताजी अजनबी लेकिन बहुत अपनी-सी लगती कैथरीन से लिपट कर रो पड़ीं। देर तक कोई कुछ न बोला। बिट्टू ने ही मौन तोड़ा। जिद करने लगी-"आंटी खाना खा कर जाना। ढेर सारी बातें करनी है आपसे। ममा आपको गाड़ी से गेस्ट हाउस छोड़ देंगी।" कैथरीन इतने प्यार भरे परिवार के बीच खुद को पाकर अभिभूत थी। नरोत्तम का इतना स्नेहिल परिवार और नरोत्तम का नागा होना विरोधाभास की पराकाष्ठा। एक ओर कोमल सुरभित फूलों जैसा प्यारा संसार दूसरी ओर नागा पँथ के दुर्गम रास्ते। उस रात वह दीपा से कुछ न पूछ पाई। पर उसका मोबाइल नंबर ले लिया था ताकि आगे मिलने की योजना बना सके। कैथरीन को गेस्ट हाउस छोड़कर रोली और बिट्टू कनॉट प्लेस स्थित अपने घर चली गईं।

कैथरीन ने स्नान करके नाइट गाउन पहना और सिगरेट सुलगा कर आराम से बैठकर नरोत्तम गिरी को फोन लगाने लगी। कितनी सारी बातें उसे गोपनीय रखनी पड़ रही हैं नरोत्तम गिरी से। वह हरगिज नहीं बताएगी कि वह उसके घर में उसकी माताजी और दीपा से मिल चुकी है। उनकी बातें बता कर वह नरोत्तम गिरी को डिस्टर्ब नहीं करना चाहती। इसलिए फोन पर केवल यही बताया कि आज का दिन कैसा गुजरा और दिल्ली पहुँचकर कहाँ रुकी है?


दीपा से फोन पर अपॉइंटमेंट तय हो गया। वह कल सारा दिन कैथरीन के साथ गेस्ट हाउस में गुजारने को तैयार हो गई।

दीपा अपनी बाइक से समय पर आ गई। हल्की नीली साड़ी में वह बहुत खूबसूरत लग रही थी। लंबे खुले बाल, माथे पर छोटी-सी बिंदी और कोई मेकअप नहीं।

"बैठिए कॉफी मंगवाती हूँ। साथ में पनीर पकौड़े। गेस्ट हाउस का बावर्ची बहुत बढ़िया बनाता है। आज उसने लंच में बैंगन का भर्ता, लच्छा पराठा, मलाई कोफ्ते, रायता और पायस बनाया है। लंच हम 2 बजे लेंगे।"

"अरे वाह, आपको भारतीय भोजन के नाम भी याद हो गए और आपकी हिंदी! मुझे लग रहा है कहीं मैं ही बोलने में कोई गलती न कर बैठूँ।"

"मुझे हिंदू माइथोलॉजी से लगाव है। मैंने लगभग सारे हिन्दू आध्यात्मिक ग्रंथ पढ़ लिए हैं। कुछ के लिए तो मैंने संस्कृत भी सीखी है।"

"ओहो गजब, आप जैसी विदुषी महिला के संग मुझे सचमुच आनंद आएगा। कब तक हैं आप यहाँ?"

"मैं जो किताब लिख रही हूँ उसके पूरे होने तक यही रहुँगी। अंतिम अध्याय लिखना शेष है।"

"कैसी किताब?"

मैं नरोत्तम गिरी पर किताब लिख रही हूँ। किताब तो नागाओं पर केंद्रित है। लेकिन उसके हीरो नरोत्तम है। इसी सिलसिले में आपसे मिलना था। "

दीपा खामोश हो गई। वेटर कॉफी और पकौड़े ले आया था। कॉफी सर्व करते हुए उसने पूछा-

"लंच कितने बजे तैयार करना है मैडम।"

"2 बजे।"

"ओके"

उसके जाने के बाद कैथरीन ने कहा-"लीजिए कॉफी और खुलकर बताइए। अपने और नरोत्तम आई मीन मंगल के बारे में।"

"जरूर बताऊँगी, ताज्जुब नहीं हो रहा है मुझे क्योंकि आप मंगल जी से मिलकर आ रही हैं तो उन्हीं से सब पता किया होगा। सब कुछ बताऊँगी आपको लेकिन उसके पहले यह भी बता देना चाहती हूँ कि मैं उन्हें प्यार नहीं करती थी। उनके प्रति मेरा आकर्षण सिर्फ देह का था।"

चौक पड़ी कैथरीन, इतना कड़वा सच! या नरोत्तम के प्रति एक छलावा जिसकी वजह से उसे घर त्याग कर कठोर जीवन अपनाना पड़ा वही ...वही दीपा! ओह।

"हम बचपन में साथ-साथ गुल्ली डंडा, कंचे खेलते थे। बड़े हुए तो मेरी शादी कीरत से हो गई। वह तो मुझे बहुत बाद में पता चला कि मंगल जी मुझे प्यार करते थे। उनका प्यार सच्चा था। उन्होंने कभी मुझे पाने की कोशिश नहीं की। क्योंकि मैं पराई हो चुकी थी। उनके जैसा चरित्रवान व्यक्ति दुनिया में होना मुश्किल है। शायद उनकी इसी शालीनता ने मुझे उनकी ओर आकर्षित किया। जबकि कीरत बिल्कुल इसके विपरीत थे। दिन-रात पुलिस की ड्यूटी में खुद को खपा देते। घर लौटते तो खामोशी और आराम। उनके लिए मेरा कोई अस्तित्व नहीं था जबकि कहा ये जाता था कि वे मुझे प्यार करते हैं। पर यह कैसा प्यार? जिसमें मैं सिरे से नदारद। शायद यही वजह थी कि मैं मंगल जी की तरफ आकर्षित हुई। देह का जो सुख कीरत नहीं दे पाए वह मंगल जी से मिले सोच कर मैं आगे बढ़ी थी। उनका बहुत ख्याल रखती थी। मेरा इतना ख्याल रखना आगे बढ़ कर निवेदन करना ही वजह बन गया जो वह घर त्याग कर चले गए। उन्होंने सोचा होगा वह क्यों अपने भाई की गृहस्थी की तबाही का कारण बने। पर गृहस्थी तो तबाह हो ही गई। मेरे प्रति कीरत की उदासीनता बनी रही। जिसे मैं उनके काम की अधिकता समझती रही। शायद यही वजह है कि हमारे एक ही औलाद हुई विशाल। वह भी मंगल जी के चरण चिन्हों पर चल दिया। नागा शब्द हमारे परिवार के लिए अभिशाप बन गया।"

कहते हुए दीपा ने एक आह भरी और ठंडी हो चुकी कॉफी को एक ही साँस में पी गई।

"ऐसा मत कहिए। नागा होना तो ईश्वरीय वरदान है। जो हम साधारण गृहस्थ हो कर नहीं पा सकते वह और उससे कहीं अधिक नागा होने पर मिलता है।"

"बहुत समय लगा मंगल जी को भुलाने में। या ये कहूँ कि मंगल जी के शून्य को अपनी जिंदगी का हिस्सा बनाने में। आज तक पछतावा है। काश उस दिन मुझसे वह गलती नहीं होती तो हमारा आबाद परिवार यूँ न उजड़ता। पिताजी के स्वर्ग सिधारते ही कीरत का जैसे जिंदगी के प्रति रहा सहा लगाव भी खत्म हो गया। ड्यूटी से लौटकर वे शराब पीते और पिताजी के लिए रोते और मंगल को गालियाँ देते-" भाग गया बुजदिल, अरे असल मर्द वह है जो जिंदगी का सामना करे। न कि पलायन। बहुत कमजोर दिल का निकला तू मंगल। "

रात दो-दो बजे तक यही सिलसिला चलता। माताजी बहुत हौसले वाली हैं। अगर वह भी टूट जातीं तो न जाने क्या होता।

"हाँ, कल की बातों से मैं समझ गई थी उनकी दृढ़ता।"

दीपा ने घड़ी देखी डेढ़ बज गया था-"लंच ऑर्डर कर दीजिए कैथरीन जी। मेरी दवाई का वक्त हो चला है।"

कैथरीन ने तुरंत इंटरकॉम पर लंच ऑर्डर किया।

"दवा लेती हैं आप?"

"जी हाँ, कीरत के बाद से हाई ब्लड प्रेशर बना रहता है। समय पर दवा लेनी पड़ती है। नहीं तो हॉस्पिटल में एडमिट होने की नौबत आ जाती है। शुगर की पिछले 15 सालों से मरीज हूँ।" "ओह, जिंदगी के तनाव से उपजी बीमारियाँ आसानी से पीछा नहीं छोड़तीं। आप खुश रहा करिए।"

" कैसे खुश रहूँ। मेरे कारण मंगल जी को वनवास मिला। इतने शौकीन थे वे खाने-पीने, कपड़ों के। विशाल को भी कपड़ों का बहुत शौक था। हमेशा मॉल से ही अपने कपड़े खरीदने की जिद्द करता। दिन भर कुछ न कुछ खाते रहता। फरमाइशें इतनी।

"ममा आज पिज़्ज़ा बना दो, नूडल्स बना दो, चाऊमीन, कस्टर्ड, समोसे और अब निर्वस्त्र। एक टाइम भोजन।" कहते-कहते दीपा का गला भर आया।

"लेकिन वह इतनी छोटी उम्र में नागा बना कैसे? किसने उसे नागाओं के बारे में बताया?"

लंच आ चुका था। दीपा बाथरूम जाकर फ्रेश हुई।

"आइए आप तो शाम तक हैं मेरे साथ। हम पहले खाना खाएंगे।" वेटर ने प्लेटें सर्व कीं। खाने में से भाफ़ उठ रही थी जिसकी खुशबू भूख को उत्तेजित कर रही थी। "सोचा था आइसक्रीम लेंगे खाने के बाद, पर आप तो शुगर..."

पानी का जग रख खाली जग उठाते हुए वेटर ने तुरंत कहा-"शुगर फ्री आइसक्रीम है मैम। केसर पिस्ता की।"

" ठीक है, ले आना।

वेटर के जाते ही कैथरीन ने दीपा से कहा-"बहुत ट्रेंड होते हैं ये वेटर, कस्टमर को हैंडल करना जानते हैं।"

दीपा ने खाने की प्रशंसा की-"खाना सच में स्वादिष्ट है।"

लंच के बाद दीपा ने दवाइयाँ लीं।

"आप थोड़ा आराम कर लीजिए। मैं तब तक सिगरेट पी लूँ। धुँए से परहेज तो नहीं आपको।"

"नहीं कीरत पीते थे सिगरेट। लेकिन मंगल जी किसी भी प्रकार का नशा नहीं करते थे।"

"अब तो चिलम उनकी दिनचर्या में शामिल है।"

दीपा बिस्तर पर करवटें बदलती रही, दस मिनट बाद ही वह सोफे पर आकर बैठ गई-

"आदत नहीं है आराम की और फिर विशाल की चर्चा ने डिस्टर्ब कर दिया है। न पवन की मौसी जानकी देवी आकर मंगल जी के हाल-चाल बतातीं, न विशाल नागा प्रशिक्षण केंद्र जाने की जिद्द ठानता।"

"पवन कौन?"

"मंगल जी का दोस्त। उसकी मौसी जानकी देवी गोमुख से आगे तपोवन नंदनवन में मंगल से मिली थीं। जब वे दिल्ली आईं तो उन्होंने सारी बातें बताईं। मुझे क्या पता था मेरे जिगर का टुकड़ा सन्यासी हो जाएगा और मैं माया मोह में फँसी रहूँगी। मुझे प्यार करने वाले मंगल जी निर्वस्त्र, सन्यासी हो जाएंगे। ठंड के दिनों में उनके हाथ पैर ठिठुर जाते। माताजी उनके कमरे में अंगारों से भरी गुरसी रख आतीं। हाथ-पैर सेकते हुए ही पढ़ते। अब बर्फीली चोटियों पर कैसे नंगे बदन तप करते होंगे। मैं तो सोचकर ही काँप जाती हूँ। एक बात है कैथरीन जी, जीवन में हमसे प्यार करने वाले की हमें कद्र करनी चाहिए। प्यार से बढ़कर मूल्यवान संसार में कुछ भी नहीं है।" कहते हुए उसने बैग उठा लिया।

"चलती हूँ। अँधेरा होने से पहले घर पहुँच जाऊँ नहीं तो माता जी घबरा जाती हैं। कल फिर आऊँगी लेकिन लंच के बाद। शायद आपको और कुछ पूछना हो मुझ खलनायिका से।"

कैथरीन ने हँसते हुए उसके दोनों हाथ पकड़ लिए।

"अच्छा समय बीता। आपको कल नहीं 2 दिन बाद फोन करके बुलाऊँगी। 2 दिन एंबेसी में व्यस्तता रहेगी।"

"ओके गुड नाइट।"

कैथरीन बाइक के ओझल होते तक दीपा को देखती रही। लगा जैसे कहीं कुछ पिघलता हुआ मन में उतर गया है और वह उस पिघले हुए को ग्रहण नहीं कर पा रही है।


व्यस्तता सोच विचार की थी। कैथरीन ने बहुत गहरे आब्जर्ब किया दीपा को। वह साधारण औरत नहीं है। कबूल करती है कि उसे नरोत्तम से प्यार नहीं है। वह जीवन में प्यार को नहीं शरीर को महत्त्व देती है। जब कीरतसिंह से उसे तृप्ति नहीं मिली। तो वह नरोत्तम की ओर झुकी। यह कैसा दैहिक आकर्षण जिसमें कहीं कोई मोह या लगाव नहीं। देह तृप्ति के लिए वह पति से भी छल करने को तैयार है। ओह नरोत्तम, तुमने कैसी औरत से प्यार किया। अच्छा हुआ तुम उसके चंगुल से निकल भागे। चंगुल से निकलना ही तुम्हारे चरित्र की महानता सिद्ध करता है। प्रथम प्यार, प्रथम छुअन, प्यार का प्रथम एहसास जीवन भर पीछा नहीं छोड़ता है। वह बना रहता है हमारी दिनचर्या में। भले ही हम उसके विषय में नहीं सोचते पर वह मौजूद रहता है हमारे क्रिया कलापों में। पलकों की झपकन में। बरसों बरस... शायद जीवन के अंत तक। कितनी बहारें आकर गुजर जाती हैं, कितने ही मौसम अपने सौंदर्य या अधिकता की मार से जीवन अस्त-व्यस्त करते हैं। कितनी ही सभ्यताएँ विश्व के नक्शे पर बनती मिटती हैं। लेकिन वह प्रथम प्यार के एहसास की चाँदनी सूरज के प्रकाश में, अमावस के अँधेरे में भी खिली रहती है।

सोचते हुए कैथरीन ने खुद को सवालों से घिरा पाया। अंतरआत्मा से आवाज आई-' फिर तुमने क्यों किया ऐसा? क्यों प्रवीण को शादी के लिए मजबूर किया? क्यों नहीं तुम उसकी जीवनसंगिनी बनीं। भले ही तुम अपने मन को कितना ही समझाओ पर वह प्रवीण का प्रथम स्पर्श, वो प्रथम चुम्बन, वो प्रथम मिलन कैसे भूल सकती हो तुम? भले ही तुम्हें नरोत्तम के आकर्षण ने अपनी ओर खींचा पर... शायद यही वजह है कि प्रवीण लॉयेना को खुलकर नहीं अपना सका। कैथरीन ने आँखें मूंद लीं। लगा जैसे लॉयेना सामने खड़ी हो। जैसे उसके उदास चेहरे पर आँसुओं की गीली लड़ियाँ हैं।

'मुझे मोहरा बनाया कैथ ताकि तुम अपने ढंग से अपनी जिंदगी जी सको और प्रवीण को करीब भी पा सको। निश्चय ही तुम समझ गई थीं कि मेरी जगह कोई दूसरी औरत प्रवीण से शादी करती तो तुमको प्रवीण से दूर जाना होता। भूलना होता उसे। जो तुम्हारे लिए संभव न था और तुम्हारे लिए संभव न था इसलिए मैं हर गुजरते रोज के साथ प्रवीण को अपने से दूर जाता देखती रही।'

कैथरीन का मन व्याकुल हो उठा। तो क्या वह स्वार्थी है? उसने सिर्फ अपने लिए सोचा और उसकी सोच की अग्नि की आहुति बने प्रवीण और लॉयेना।

दो रातें उसकी खुद को समझने में गुजरीं। दो रातें उसने व्याकुलता के चरम को पार किया... डूबकर भी लहरों के थपेड़ों में तट की रेत पर आ गिरी। यह कैसी बेचैनी। ईश्वर मुक्ति दो।

बड़ी मुश्किल से मन एकाग्र हुआ। वह किताब की आखिरी पायदान पर थी। यह तो तय था कि अब वह दीपा से नहीं मिलेगी। जानने को कुछ शेष न था, समझने को बहुत कुछ था। वैसे भी आद्या हवाई टिकट भेजने को उतारू थी-"ममा आ जाइए। मन नहीं लग रहा आपके बिना।"

लेकिन वह अँतिम अध्याय पूरा किए बिना जा नहीं सकती। कैथरीन को दो महीने दिल्ली में रुकना पड़ा। अँतिम अध्याय पूरा कर उसने दिल्ली के प्रकाशक से बात कर पांडुलिपि उसे सौंप दी। कवर पेज पर नरोत्तम के साथ उसकी तस्वीर छपेगी। बैक कवर में भोजबासा की गुफा के इंप्रेशन में उसका परिचय। अंदर के पृष्ठों में आद्या के बनाए चित्र होंगे। किस पृष्ठ पर कौन-सा चित्र होगा यह भी उसने तय किया। प्रकाशक उससे बहुत अधिक प्रभावित हुआ। नागा साधुओं पर लिखी यह पहली पुस्तक थी जिसे प्रकाशित कर रहा था, वह भी एक विदेशी लेखिका के द्वारा लिखी पुस्तक।

रात उसने नरोत्तम को फोन लगाया-" आना चाहती हूँ तुम्हारे पास। फोटो लेनी है तुम्हारी। किताब का काम पूरा हो गया है। प्रकाशक को पांडुलिपि दे दी है।

एक ही साँस में कितना कुछ बता दिया कैथरीन ने, लेकिन दीपा से मिलने उसके घर जाने की बात वह छुपा गई।

"अच्छी खबर सुनाई। हम काशी के प्रशिक्षण केंद्र में हैं। यहीं आ जाओ।"

"काशी मतलब वाराणसी यानी बनारस? घूमना था मुझे। बहाना मिल गया। परसों पहुँच जाऊँगी।"

"बहाना नहीं बुलावा। बाबा विश्वनाथ जब जिसको दर्शन देना चाहते हैं, बुला लेते हैं।"

"मैं भाग्यवान हूँ जो उनके दर्शन करूँगी। साथ में तुम्हारे भी।"

"ईश्वर हमारे साथ है कैथरीन। आ जाओ जल्दी।" कहते हुए नरोत्तम ने फोन रख दिया।


ज्योतिर्लिंग बाबा विश्वनाथ और भैरव बाबा की नगरी वाराणसी जहाँ के कण-कण में शिवजी बसे हैं। पतित पावनी गंगा के 88 घाट, हर घाट का अपना महत्त्व। स्नान, पूजा समारोह हर घाट पर संपन्न होते हैं। केवल 2 घाट श्मशान घाट के रूप में उपयोग किए जाते हैं। जहाँ नदी किनारे चिताएँ जलती हैं और जले, अधजले शव गंगा में बहा दिए जाते हैं।

आद्या ने गूगल पर सर्च करके बताया है-"ममा आप सूर्योदय के समय नाव से सभी घाट घूम लेना। उस समय बहुत सुंदर माहौल रहता है।"

लेकिन मैं रात का सौंदर्य भी नाव से घूमते हुए देखना चाहती हूँ। गंगा आरती भी देखनी है मुझे। "

फोन पर बात करते हुए ही कैथरीन टैक्सी से जूना अखाड़ा प्रशिक्षण केंद्र जा रही थी।

सब कुछ नया-नया एक भी पहचाना चेहरा नहीं। उसे केंद्र के गेट पर रुक जाने को कहा गया। नरोत्तम गिरी के पास उसने अपना विजिटिंग कार्ड भिजवाया। थोड़ी देर में नरोत्तम गिरी स्वयं उसे लेने आया।

"वेलकम, स्वागत है कैथरीन। ढूँढने में दिक्कत तो नहीं हुई?"

कैथरीन मुस्कुराई-"कैसे हो नरोत्तम?"

एक युवा नागा झट से उसकी अटैची लेकर चला गया। नरोत्तम गिरी के साथ कैथरीन गेट से केंद्र तक का हरा भरा रास्ता पार करने लगी। दोनों तरफ गुलाब ही गुलाब। हर रंग के गुलाब। बड़े-बड़े तीन से पाँच फीट तक के गुलाब के पौधे। "वाह, इतना खूबसूरत उद्यान।"

"इस केंद्र में उद्यान ज्यादा हैं। केंद्र के पीछे सरोवर है। जिसमें सफेद गुलाबी कमलिनी खिलती है। पत्र देखो उसके खूब चौड़े चौड़े। पानी की बूँदे मोती-सी दिखती थमी रहती हैं उसपे। रात होते ही बैंगनी रंग की नलिनी खिल जाती है। कमलिनी और नलिनी दोनों बहनें, लेकिन शापित। दोनों एक दूसरे को खिला नहीं देख पातीं।"

कहते हुए नरोत्तम गिरी कैथरीन को एक विशाल कमरे में ले आया। फर्श पर चटाइयाँ बिछी थीं। पश्चिम दिशा में धूनी जल रही थी। बाजू वाले कक्ष में ओम नमः शिवाय का जाप हो रहा था थोड़ी ही देर में चाय नाश्ता लेकर वह युवा आया जो अटैची लेकर आया था।

"यह महेश गिरी है। केंद्र का सबसे तेज बुद्धि वाला युवा।"

महेश गिरी ने हाथ जोड़े।

"प्रणाम माता।"

नरोत्तम गिरी ने महेश गिरी से कहा "यह हमारे अखाड़े की पुरानी सदस्य हैं। इनके रहने का प्रबंध पूर्वी कक्ष में कर दो। अटैची वहीं ले जाकर रख दो और महाराज को इनके दोपहर के भोजन के लिए कह दो।"

"जी गुरु जी।"

महेश गिरी के जाते ही कैथरीन धीरे-धीरे चाय के घूँट भरते हुए सिगरेट पीने लगी।

" मेरे आने से तुम्हारे धर्म कर्म विधियाँ रुक जाती होंगी न?

"नहीं, हम सब संभाल लेते हैं। नागा की एक भी दिन धर्म कर्म और विधियाँ नहीं रुकतीं। मेरे प्रशिक्षण स्थल पर जाने का समय हो गया है। इस बार 400 युवा नागा प्रशिक्षित करने हैं हम 20 प्रशिक्षकों को। वही हमेशा की गिनती यानी मेरे मार्गदर्शन में 20 नागा। तुम भी विश्राम करो आज कहीं मत जाओ। शाम को मिलेंगे। चलो, तुम्हारे कक्ष तक तुम्हें छोड़ दें।"

छोटा-सा कक्ष। महेश गिरी अटैची रखकर कैथरीन के भोजन की व्यवस्था देखने चला गया।

"नरोत्तम इस कक्ष में तीन दिन मेरा निवास रहेगा। तुम अब शाम को मिलोगे। इसलिए किताब के लिए फोटो सेशन शाम को ही करेंगे। कल और परसों वाराणसी घूम कर मैं परसो शाम चली जाऊंगी।"

"ठीक है कैथरीन। शाम को मिलेंगे। तुम चाहो तो विश्राम के बाद उद्यान और सरोवर घूम सकती हो।"

नरोत्तम गिरी के जाते ही कैथरीन ने सिगरेट सुलगाई और आद्या को फोन लगाया।

"काफी दिन तुम्हें अकेले रहना पड़ा। अब शुक्रवार को हम साथ होंगे। रॉबर्ट कैसा है?"

"सब ठीक है ममा। बस अब तो आपका बेसब्री से इंतजार है।"

क्या, आद्या के पास पहुँचकर कैथरीन चैन से रह पाएगी? जबकि हिमालय की चोटियों पर नरोत्तम, कन्दराओं, गुफाओं में नरोत्तम, धूनी रमाए नरोत्तम, जंगलों के प्रशिक्षण केंद्रों में नरोत्तम, गंगा के उगते सूरज के सुनहरे तट पर नरोत्तम, बहती संगीत धारा में नरोत्तम, पौष मास की चंद्रिका में झिलमिलाता नरोत्तम, ध्यान मुद्रा में नरोत्तम, संपूर्ण धरती में नरोत्तम, आसमान में नरोत्तम, उसकी आँखों, साँसों और अब तो वियना की सड़कों पर भी नरोत्तम। उसके बाहर अंदर था ही क्या, सिवा नरोत्तम के। वह सरोवर के किनारे बैठी इन्हीं एहसासों में खोई हुई थी कि महेश गिरी ने सूचना दी-

"माता गुरु जी आपको बुला रहे हैं।"

उसने देखा संध्या घिर आई थी और चहचहाते परिंदे घोंसलों में दुबक जाने को आतुर थे। उसने सरोवर के जल में ऊँगलियाँ डुबोईं। एक लहर सिहरकर अन्य लहरों को आमंत्रित करती आगे बढ़ ली। नरोत्तम गिरी के भोजन का वक्त था-"आओ कैथरीन पहले भोजन कर लें फिर फोटो आदि।"

"ओके।" कैथरीन ने भूमि पर बिछे आसन पर बैठते हुए देखा नरोत्तम थका थका-सा दिख रहा था।

"आज प्रशिक्षण केंद्र में ज्यादा काम था क्या?"

"रोज जैसा ही। अभ्यस्त हैं हम इसके। भोजन आरंभ करें।" कैथरीन ने गर्म परांठे का निवाला सब्जी में डुबोकर मुँह में रखा

"वाह, बहुत टेस्टी। बहुत स्वादिष्ट।"

खाने के बाद दोनों मीटिंग कक्ष के बाहर बरामदे में आ गए। रोशनी मध्यम थी पर कैथरीन का कैमरा पावरफुल। उसने नरोत्तम गिरी की कई तस्वीरें लीं। नरोत्तम गिरी ने भी उसकी तस्वीरें खींची। फिर महेश गिरी ने दोनों की एक साथ कई तस्वीरें खीचीं। फोटो सभी बेहतरीन आई थीं।

"किताब प्रकाशित होने के बाद प्रकाशक तुम्हें पार्सल से भिजवा देगा।"

हमारा एक जगह कहाँ ठिकाना रहता है। हम तो रमता जोगी। किताब तुम खुद देना हमें। फिर हम चाहे जहाँ हों। "

नरोत्तम गिरी की चमकीली आँखें कैथरीन को आरपार बेंध गईं। उन आँखों में जाने क्या था कि कैथरीन न तो डूब पा रही थी न उबर।

"कल तुम दिन भर की टैक्सी ले लेना और बाबा विश्वनाथ, भैरव बाबा, बनारस हिंदू यूनिवर्सिटी देख लेना। परसों सुबह-सुबह गंगा के घाटों की सैर कर लेना।"

"काश, तुम चलते साथ में। मैं गंगा का सौंदर्य रात में भी देखना चाहती हूँ।"

"कल रात मणिकर्णिका घाट की सैर कर लेना, बाकी के घाट परसों सुबह।"

"नरोत्तम, जाने कितने ख्वाब दिखा देते हो तुम। ज़िन्दगी उन ख्वाबों में सिमट कर रह जाती है।"

"जिंदगी ख्वाब नहीं हकीकत है। जिस तरह यह पूरी प्रकृति हकीकत है। हम भी तो प्रकृति का हिस्सा ही हैं न।"

"पर मैंने उस हकीकत से परे हटकर तुम्हें किताब में बाँध लिया है। हर पन्ने, हर पैराग्राफ, हर वाक्य, हर शब्द में तुम।"

नरोत्तम गिरी के चेहरे पर मुस्कुराहट तैरने लगी।

"अब हम नागा जीवन की शपथ ले चुके हैं। अब हटेंगे तो पथभ्रष्ट कहलाएंगे।"

"मैं तुम्हें पथभ्रष्ट नहीं होने दूँगी नरोत्तम। प्यार कीमत नहीं माँगता, इतना तय मानो।"

"परसों तुम चली जाओगी। कुछ दिन जरूर विचलित रहूँगा फिर वही साधना, जाप, तप। अब जीवन तो इसी को दे दिया न कैथरीन।"

"काश इन सब बातों में मैं सशरीर तुम्हारे साथ होती। मन से तो हूँ ही हमेशा।"

"तुम मेरे साथ ही हो हमेशा।" कहते हुए नरोत्तम गिरी ने आँखें मूँद लीं। कैथरीन उस तिलिस्म में आकंठ डूबी खुद को भूलने लगी। नरोत्तम गिरी फरिश्ते के रूप में आई कैथरीन को देखता रह गया। जिसने कभी यह नहीं कहा कि तुम मेरे साथ आ जाओ। हमेशा यही कहा कि काश मैं तुम्हारे साथ होती। प्रेम की इस ऊँचाई की तो नरोत्तम गिरी ने कभी कल्पना भी नहीं की थी।