कैथरीन और नागा साधुओं की रहस्यमयी दुनिया / भाग - 16 / संतोष श्रीवास्तव

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बिछोह नरोत्तम गिरी से कैथरीन का, कैथरीन से नरोत्तम गिरी का। दोनों अपनी-अपनी धुन में अकेले होते चले गए। घाटियाँ वीरान होती रहीं। फिर-फिर फूलों से भरती रहीं। मौसम बदलते रहे। काल का चक्र कहाँ ठहर पाता है। लंबे-लंबे 10 वर्ष गुजर गए। इन 10 वर्षों में नरोत्तम गिरी ने कठोर साधना की। हिमालय की चोटियों, घाटियों से लेकर अमरकंटक की चण्डिका गुफा जिसे साधक एक शक्तिपीठ के रूप में पूजते हैं में भी साधना और तप किया। दुर्गम चंडिका गुफा। साधारण मनुष्यों का तो वहाँ जाना लगभग नहीं के बराबर है। खड़ी चट्टानों के बीच से बिल्कुल पथरीला रास्ता गुफा की ओर जाता है। चलते हुए पैरों के नीचे के छोटे-छोटे पत्थर खिसकते रहते हैं। लगता है जैसे अब गए सैकड़ों फीट गहरी घाटी में। साधना के लिए जो ठिकाना खोजा नरोत्तम गिरी ने वह कीट-पतंगों, बिच्छू, सर्प से सुरक्षित न था पर नरोत्तम गिरी कोई साधारण साधु तो था नहीं। उसके शरीर पर विभूषित भस्म सुरक्षा चक्र की तरह उसकी रक्षा करती रही। कई दिन भूखे रह जाना पड़ता। कई दिन कंदमूल भूनकर खाते हुए गुजर जाते। एक दिन कुछ चरवाहे उस ओर निकल आए। नरोत्तम गिरी को देख उन्होंने साष्टांग दंडवत किया।

"आप सिद्ध महापुरुष, इस दुर्गम, पत्थर, कंटक भरे स्थान पर तप कर रहे हैं। आपको हमारा प्रणाम।" और शाम ढलते ही उन्होंने लकड़ियाँ बटोर कर आग जलाई और नरोत्तम गिरी को खिचड़ी बनाकर खिलाई। फिर तो यह सिलसिला महीनों चला। चरवाहे भेड़ बकरी चराने ऐसे पर्वतीय हरे, भरे क्षेत्रों की तलाश में रहते हैं। फिर उस पर नरोत्तम गिरी का साथ। वे सुबह-सुबह आ जाते। घर से लाए भोजन में नरोत्तम गिरी का भी हिस्सा होता। उसकी चिलम के लिए तम्बाकू होती। 2 वर्ष तक नरोत्तम गिरी ने चंडिका गुफा में तप किया। वर्ष पर वर्ष बीतते गए। उसकी साधना और कठोर तपस्या के इन वर्षों में कैथरीन ने बिल्कुल भी व्यवधान नहीं डाला।

नरोत्तम गिरी पर लिखी किताब बेहद चर्चित हुई। कैथरीन ने उसका भारत में ही विमोचन कराया था लेकिन चर्चा ऑस्ट्रेलिया तथा भारत के कई शहरों में कराई। किताब का दूसरा संस्करण भी हाथों हाथ बिक गया। कैथरीन बेचैन थी, यह किताब कैसे नरोत्तम गिरी तक पहुँचे। वह हरिद्वार लौटे तभी यह संभव है।

नरोत्तम गिरी कमजोर और बूढ़ा दिखने लगा था। हरिद्वार लौटने पर एक हृदय विदारक खबर उसका इंतजार कर रही थी। कैथरीन ने फोन पर सूचना दी आद्या अब इस दुनिया में नहीं है। डेंगू से वह 5 वर्ष पहले उसे छोड़ कर चली गई। अब कैथरीन सिडनी लौट आई है, रॉबर्ट उसके साथ ही रहता है।

"तुम कैसे हो नरोत्तम? इतने वर्षों की तप साधना से कैसा महसूस कर रहे हो?"

नरोत्तम गिरी ने बहुत ही कमजोर-सी आवाज में कहा-"मुझे आद्या की सूचना ने हिला कर रख दिया है। मैं तुम्हारे बारे में सोच कर परेशान हो उठा हूँ।"

"परेशान मत हो नरोत्तम, सुख-दुख ईश्वर का दिया हमें भोगना ही पड़ता है।"

"तुमसे मिलने की तीव्र इच्छा है"

"मैं, शीघ्र आ रही हूँ। मुझे भी तुमसे मिलने की बेहद उतावली है।"

नरोत्तम गिरी रात भर सो न पाया। सुबह उसे तेज ज्वर ने जकड़ लिया। क्या आद्या की सूचना से? या ...यह कैसा रिश्ता कैथरीन से? साधु जीवन में मानो एक खोह-सा जिसमें वह समाता चला जा रहा है। न निकलने का मार्ग है, न पूरी तरह समा जाने का। बिल्कुल त्रिशंकु-सी अवस्था। इस बीच नरोत्तम गिरी के गुरु आचार्य घनानंद महामंडलेश्वर ने भी संसार से विदा ले ली। आघात पर आघात। क्या हुआ जो वह कठोर पत्थर बना नागा है। है तो इंसान। अब उसका हरिद्वार के जूना अखाड़े से मन उखड़ने लगा था। ज्वर भी पीछा नहीं छोड़ रहा था। उसके साथी नागा महेश गिरी और घनानंद गिरी को छोड़कर बाकी सब तितर-बितर हो जाने कहाँ-कहाँ साधना, तप में तल्लीन थे। हे शिवशंकर कैसा कठिन समय आ गया है। क्यों लग रहा है कि ऐसे में कोई अपना होता, कोई जाना पहचाना चेहरा। कहीं से अपनी-सी आहट होती। कोई उसका अपना दिल में उतर आता। यह कैसी अनबुझ प्यास है। यह कैसा समय है जो कट ही नहीं रहा है। वह अमावस की रात थी। घनघोर अंधकार में अखाड़े में कुछ दीपक टिमटिमा रहे थे। शायद कोई नागा बनने की प्रक्रिया से गुजर रहा है। शायद किसी का दंडी संस्कार किया जा रहा है। ओम नमः शिवाय का जाप उसके कक्ष तक सुनाई दे रहा है।

कहीं यह वही तो नहीं? दीपा के अविश्वसनीय कारनामे से पलायन करने वाला मंगल, मंगल जो खगोल शास्त्र का विशेषज्ञ बन एक वैज्ञानिक बनना चाहता था। जो दुनिया को उन रहस्यों से परिचित कराना चाहता था जो अंतरिक्ष में विद्यमान हैं। वह इसरो का बड़ा वैज्ञानिक बनकर अंतरिक्ष के ग्रहों में उतरना चाहता था।

तेज बुखार में वह पूरे 15 दिन पड़ा रहा। बीच-बीच में उसके शिष्य उसे काढ़ा पिलाते रहे, औषधी चटाते रहे। पैर दबाते रहे। तलुओं में घी की मालिश करते रहे पर बुखार उतरने का नाम ही नहीं ले रहा था। सोलहवें दिन एक साया नजदीक आया। "नरोत्तम मैं कैथरीन, आँखें खोलो।"

नरोत्तम की आँखों से अश्रुधार बह चली। कैथरीन भी रो पड़ी। दोनों की आँसुओं में बिछोह के 10 वर्ष बह चले। दुर्गम स्थलों पर तप के दौरान न तो संपर्क का साधन था और न ही नरोत्तम गिरी के मन में तप के अलावा कुछ था। वह स्वयं को भूलकर तप में निमग्न था। कैथरीन ने भी कभी उसके इस साधना और तप में बाधा पहुँचाने की कोशिश नहीं की। वह स्वयं अपार दुख से जूझ रही थी। आद्या की असमय मृत्यु के दुख ने उसे झंझोड़ कर रख दिया था। प्रवीण को संभालना मुश्किल हो रहा था। आद्या के आघात से प्रवीण ने भी लगभग 1 साल बीमारी में बिस्तर भोगा। इसी बीच अम्मा भी स्वर्ग सिधार गईं। प्रवीण के लिए यह दूसरा आघात था। तब कैथरीन ने ही उसे संभाला। वह भारत आ गई थी और उसने प्रवीण की जो सेवा की उसे देखकर लॉयेना भी दंग रह गई। न जाने किस मिट्टी की बनी है कैथरीन। अपने लिए कभी कुछ सोचती ही नहीं। जब भी सोचा दूसरों के लिए सोचा उनके हित का सोचा।

कैथरीन ने नरोत्तम के हाथों को अपने हाथों में लेते हुए कहा-

"देखो दिल से दिल का मिलान। घनश्याम ने तो बाद में तुम्हारी बीमारी की सूचना दी। मैंने पहले ही भारत आने के लिए टिकट बुक करा ली थी। तुम्हें पता है नरोत्तम, हमारी किताब को यूके में पुरस्कृत किया गया है।"

उसने किताब बैग में से निकाल कर उसे दी। नरोत्तम की आँखें किताब देखकर चमक उठीं पर वह हाथों में किताब संभाल नहीं पाया। कैथरीन ने किताब संभालते हुए उसके कमजोर दुर्बल हाथों को डबडबाई आँखों से देखा।

"कैथरीन तुम कितनी अच्छी हो...मगर मुझे उस साये से क्यों नहीं बचा पा रही हो?"

"कौन-सा साया नरोत्तम? क्या कह रहे हो तुम?"

देखो ...वह... दीपा ...दीपा का साया। दरवाजे से होते हुए मेरे पांयते खड़ा है। बेरहम, धोखेबाज, प्रेम को शर्मिंदा करता कुटिल साया। कैथरीन, देखो उसके चेहरे की छल भरी मुस्कान। "

तभी घनश्याम चाय और गर्म दूध ले आया-

"माता यह इसी तरह सन्निपात में बोलते रहते हैं। मेरे गुरु जी को कुछ नहीं होगा न माता?"

"नहीं गुरु जी हमेशा हमारे साथ होंगे घनश्याम।"

घनश्याम ने नरोत्तम गिरी के होठों से दूध का गिलास लगाया।

"नहीं, नहीं पी सकता। कल कुंभ है। शाही स्नान में डुबकी लगाने के बाद दूध पिऊँगा। कैथरीन गंगा माँ मुझे बुला रही हैं। शिवजी का डमरू बज रहा है। चलो, चलो, हम जूना अखाड़े वाले पहले स्नान करेंगे। मुझे आचार्य घनानंद गुरु जी के चरणों में बैठकर ओम नमः शिवाय का जाप करना है। धूनी रमानी है। ध्यान रखना कैथरीन कोई आने न पाए। किसी का साया तक नहीं। भगवान शिवजी के चरणों में मुझे एकांत चाहिए। वहीं से मैं उनके धाम के लिए प्रस्थान करूँगा। सप्तलोक में विलीन हो जाऊँगा।" कहते-कहते नरोत्तम की साँस उखड़ने लगी। महेश गिरी और घनश्याम गिरि जल्दी-जल्दी उनके तलवे मलने लगे। कैथरीन समझ गई अब महाप्रयाण है। उसने थरथराते हाथों से नरोत्तम के दोनों हाथ पकड़े ..."ईश्वर तुम्हें शांति दे नरोत्तम। संसार के मायाजाल की बातें यहीं छोड़ दो। मुक्त मन हो जाओ। देखो मैं हूँ न तुम्हारे साथ।"

"तुम्हारे प्यार का मूल्य नहीं चुका पाया कैथरीन। कर्ज ले कर जा रहा हूँ। अगले जन्म के लिए।"

"प्यार का कोई मूल्य नहीं होता नरोत्तम। मैं सदा से तुम्हारी हूँ।" कैथरीन की गर्म हथेलियों ने नरोत्तम के बर्फ से ठंडे हाथों को रक्षा कवच-सा ढँक लिया और आँसू पोंछते हुए नरोत्तम के लिए प्रार्थना की।

नरोत्तम के निर्वस्त्र शरीर को सफेद वस्त्र उढ़ाया गया। आश्रम में सन्नाटा छा गया। सभी स्तब्ध थे।

कैथरीन ने डबडबाई आँखों को हथेलियों से दबाकर प्रवीण को फोन लगाया

"प्रवीण नरोत्तम नहीं रहे।"

"ईश्वर उनकी आत्मा को शांति दे।" कैथरीन ने फोन कट कर दिया और आँखें मूँदकर ईश्वर का स्मरण करने लगी। फोन फिर बजा स्क्रीन पर प्रवीण का नाम चमका "तुम्हें लखनऊ आना होगा मेरे पास। मैं लॉयेना को भेज रहा हूँ। खुद आ जाता पर अशक्त और बीमारी से लाचार हूँ। देखो मना मत करना।"

"तुम्हारे पास आकर क्या करूँगी प्रवीण। ये सँसार किसी का भी स्थाई मुकाम नहीं है। हमें, तुम्हें सबको जाना ही होगा एक दिन। आद्या चली गई, ममा चली गईं, नरोत्तम चले गए, शेफालिका, अम्मा ...छूटते ही गए न एक-एक कर हमसे। मुझे पता है तुम तनहाई झेल रहे हो। एकाकी हो। लॉयेना दुष्यंत के पास कन्याकुमारी में और शांतनु के पास ऊटी में अधिकतर समय गुजारती है। तुम्हारे पास कम ही रह पाती है। दादी हो गई न।"

"अभी तुम दुख में हो इसलिए कोई भी फैसला मत करो कैथ।"

"नहीं प्रवीण, दुख मुझे कभी नहीं डिगाता। मेरे फैसले अटल रहते हैं और फिर घबराते क्यों हो प्रवीण। मैं आती जाती रहूँगी न तुम्हारे पास। सोचो नरोत्तम चले गए, उनकी आत्मा ईश्वर की ओर रवाना हो चुकी है। और हम गफलत की रुई से अपने कान बंद किए बैठे हैं। इसलिए हम अभी भी प्यार, मोहब्बत के अंधेरों में भटक रहे हैं और आने वाले कल से बेखबर हैं। इसलिए अब हमें चेतना होगा, यह जीवन क्षणभंगुर है। यह मान लेना होगा।"

प्रवीण निःशब्द था। हमेशा उसके विचारों पर कैथरीन भारी पड़ जाती है।

दृढ़ संकल्प से उसने फोन रखते हुए नरोत्तम के शव को देखा। फूल मालाओं से ढक गया था उसका शरीर। एक जीवन का अंत हुआ एक ऐसे जीवन का जिसने कोई सांसारिक सुख नहीं देखा। सदा अपने को इन सब से निर्लिप्त मानते हुए। जो बेहद कठोर जीवन जीकर इस दुनिया से विदा हुआ। दोनों घुटनों में मुँह छुपाए भूमि पर बैठी कैथरीन खामोशी से आँसू बहाती रही।

कई घंटे गुजर गए। सूर्य अस्ताचल गामी होने को उतावला था। अंतिम संस्कार के पहले की समस्त पूजन विधियाँ आश्रम में संपन्न कर नरोत्तम अंतिम यात्रा पर था। वह भी जाना चाहती थी शमशान पर नागा साधुओं ने यह उचित नहीं समझा। शायद विधान न हो।

न जाने कैथरीन के मन में कैसी आँधी चली कि उसने उठकर नरोत्तम के चरणों पर अपना माथा टिका दिया। फिर घनश्याम गिरि से कहा-"तुम्हारे गुरुजी तुम्हारे अंकल थे, तुम्हारे मंगल चाचा थे। इनके चरणों पर अपना मस्तक रखकर इन के महाप्रयाण को सम्मान दो विशाल।"

घनश्याम गिरि ने चौक कर कैथरीन की ओर देखा-"आप कौन हैं माता?"

कैथरीन ने कहना चाहा नरोत्तम के आकाश का अभी-अभी टूटा तारा। लेकिन बस इतना कहा-" जूना अखाड़े की नई नागा सदस्य। अखाड़े में नागा दीक्षा लेने का संकल्प ले चुकी हूँ। तुम्हारे गुरुजी के छूट गए पलों को पूर्ण करना है, जिसके प्रकाश धर्म को वर्षों तक देखेगा ज़माना।