कैथरीन और नागा साधुओं की रहस्यमयी दुनिया / भाग - 1 / संतोष श्रीवास्तव

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चारों ओर से बर्फीली हवाएँ उसके पत्थर हुए बदन को हिलाने चीरने की कोशिश में लगी थीं। पर नरोत्तम गिरी ध्यान में मग्न अलौकिक आनंद में डूबा था। शून्य से भी नीचे के तापमान में उस के किसी भी अंग पर कोई प्रभाव नजर नहीं आ रहा था। हिमालय की दुर्गम बर्फीली पर्वत श्रंखलाओं पर वह डेढ़ साल से साधना में लीन था।

कई दिनों बाद धूप खिली थी। नरोत्तम गिरी पर्वत से नीचे उतर गया। बहती हुई बर्फीली जलधारा में उसने देर तक स्नान किया। धूप में उसका संगमरमरी बदन स्फटिक-सा चमक उठा। फिर संपूर्ण शृंगार रुद्राक्ष, भस्म, तिलक धारण कर उसने अपने आराध्य देव का स्मरण करते हुए मंत्र का जाप किया।

एवरेस्ट पर विजय पताका फहरा कर लौट रहे पर्वतारोहियों के दल ने नरोत्तम गिरी को देखा। उसके व्यक्तित्व और नागाओं के स्वरूप को देख वे उसके नजदीक आए-"बाबा जी प्रणाम, हम अभी-अभी एवरेस्ट की चोटी पर भारत का झंडा फहरा कर लौटे पर्वतारोही हैं। इस शून्य से भी कम तापमान में आप को निर्वस्त्र देख चकित हैं। कैसे संभव है बाबा..."

पर्वतारोहियों में से एक ने पूछा।

बर्फीली हवाओं में सिर से पैर तक गर्म कपड़ों से लदे होने के बावजूद भी ठंड से बचने की कोशिश में वे अपने चमड़े के दस्तानों वाले हाथ ओवरकोट की जेब में ठूंसे थे। नरोत्तम का डेढ़ साल बाद मौन टूटा था-"हम सन्यासी हैं। संसार में रहते हुए भी संसार से दूर..."

"अमेजिंग, विश्वास करना असंभव लग रहा है फिर भी हम तो आपको साक्षात देख रहे हैं। अविश्वास का कारण ही नहीं। हम आपसे अपनी जिज्ञासा शांत करने के लिए कुछ प्रश्न पूछना चाहते हैं लेकिन पहले थोड़ा भोजन। आप भी हमारे साथ खाइए यह सब डिब्बाबंद चीजें और गर्म कॉफी।"

"हम तो एक समय यानी संध्या वंदन के बाद भोजन करते हैं। आप लोग खाइए।"

"नहीं, हम भी शाम होने पर आपके साथ ही खाएंगे। हमारा कोई ऐसा बंधन नहीं है। चलते फिरते खाते रहते हैं। अभी कॉफी बिस्किट ले लेते हैं।"

वे कॉफी पीते हुए बिस्किट खाते रहे। नरोत्तम गिरी ने ही बात आगे बढ़ाई-

"आप जानना चाहेंगे कि हम नागा क्यों बने?"

"जी बाबा जी, आपकी इतनी शुद्ध अंग्रेजी, हिंदी, भव्य व्यक्तित्व जैसे आप किसी यूनिवर्सिटी के चांसलर हों। बताइए, आप नागा क्यों बने? क्या प्रेम में धोखा या करियर में असफलता?"

नरोत्तम गिरी गंभीर हो गया। अपनी डेढ़ वर्ष की कठोर साधना तपस्या में वह इस प्रकरण को भूल चुका था। मान लिया था कि नागा के रूप में उसका पुनर्जन्म हुआ है। उसी की आज पुनरावृत्ति!

कितना सघन अँधेरा था। जैसे सदियों की रातें, अमावस्याएँ, तमाम रोशनी सूरज, जुगनू, दीपक की लौ को परे ढकेल आच्छादित कर रही थी मंगल को। जिसने दीपा से डूब कर प्रेम किया लेकिन कभी उससे कह नहीं पाया। जिसने दीपा को सोचते हुए, महसूस करते हुए न जाने कितनी रातें, कितने दिन, कितने बरस स्वाहा कर दिए। वह उन एहसासों में दीपा की हथेलियों को महसूस कर लिखता रहा उन पर। हाँ मुझे तुमसे प्यार है ... पर न जाने कौन-सी स्याही से लिखी वह प्यार की इबारत थी कि लफ़्ज़ मिटे भी नहीं और कभी दिखे भी नहीं।

अब उस इबारत वाली हथेलियों पर कीरत भैया के नाम की मेहंदी लग चुकी है। दीपा मंगल के परिवार में दुल्हन बनकर तो आई पर उसकी नहीं। दीपा के आते ही स्थितियाँ बदल गईं। भूमिकाएँ बदल गईं। लेकिन मंगल दीपा से प्यार करने के लिए खुद को गुनहगार नहीं मानता। न ही दीपा को दोषी मानता है। दीपा को तो मंगल के प्रेम की जानकारी ही नहीं थी। प्यार एक अंतहीन क्षमा और उदार सोच है और यही क्षमा यही उदारता आदत बन जाती है। भले ही वह प्यार करके नाकाम रहा पर प्यार न करने से नाकाम रहना बेहतर है। दीपा को कीरत भैया की दुल्हन बनी देखकर न जाने कितनी बार मंगल की इच्छा हुई थी कि काश उसकी हथेलियों पर प्यार की इबारत के साथ वह एक लकीर अपने नाम की डाल पाता।

"बताइए बाबा जी, आपकी चुप्पी हमारी जिज्ञासा बढ़ा रही है।" पर्वतारोहियों में से एक ने इसरार किया।

"हम सन्यासी हैं और सन्यासी का न कोई अतीत होता है न भविष्य। हिमालय की श्रृंखलाएँ, जंगल, कन्दराएँ हमारा निवास और कंदमूल, फल भोजन। अब शरीर की कोई भी भूख, इच्छा हमें नहीं सताती। हम सनातन धर्म की रक्षा के लिए हैं। जरूरत पड़ने पर देश की रक्षा के लिए युद्ध भूमि में भी जाने का अवसर नहीं गंवाते।" नरोत्तम गिरी ने आँखें मूंदकर शिवजी का स्मरण किया। 'हे भोले भंडारी! मत भटकाओ हमें अतीत में। मुश्किल से मंगल का तर्पण कर हमने नागा पंथ अपनाया है।'

उनके पास और भी प्रश्न थे लेकिन नरोत्तम गिरी के पास उत्तर एक ही था।

"यह जीवन भूल भुलैया है। कितना भी चाहें पर इसके उलझाव से बच नहीं सकते। इसीलिए हमने यह मार्ग चुना।"

"मतलब बिना किसी दबाव या असफलता के?"

"बिल्कुल हम ने स्वेच्छा से इस मार्ग का चयन किया। जैसे आप सबका लक्ष्य एवरेस्ट विजय रहा।"

संध्या हो चुकी थी पर्वतारोहियों ने डिब्बाबंद भोजन प्लेटों में परोसा। तब तक नरोत्तम गिरी ने संध्या वंदन कर लिया। भोजन और गर्म कॉफी के दौर के बाद नरोत्तम गिरी ने चिलम सुलगाकर सबको पिलाई। सूरज ने हिमालय पर्वत श्रृंखलाओं को सोने से मढ़ दिया था। उस सुनहरी आभा में पर्वतारोहियों से विदा ले नरोत्तम गिरी वादियों में उतर गया।

कितनी ऋतुएँ आती रहीं, जाती रहीं, चलती रहीं, बहती रहीं, खिलती रहीं अपने-अपने अंदाज में और वह ...आग उगलता चैत, बैसाख, घनघोर बरसता सावन, भादो, ठिठुरता पूस, माघ। वह साबुत बचा कहाँ? टुकड़ों-टुकड़ों में बंट गया। उन टुकड़ों में एक भी टुकड़ा उसका अपना नहीं। सब दूसरों का, दूसरों के लिए। कीरत भैया की शादी के बाद वह घर में कम ही दिखता। अम्मा को चिंता सताती। जाने किस संगत में पड़ गया है। बाबूजी पुलिस की नौकरी में भेजना चाहते थे जैसे कीरत भैया सब इंस्पेक्टर हैं। रुआब की नौकरी है। ऊपरी कमाई भी।

वह भड़क गया था।

"मुफ्त की खाएंगे हम। यह हमारे जमीर के खिलाफ है।"

बाबू जी खिसिया कर अम्मा से मुखातिब हुए।

"तुम ही निपटो अपनी हरिश्चंद्र की औलाद से।"

घर में दीपा और उसका ताल्लुक बस इतना था, दीपा को बाज़ार से कुछ मंगवाना हो तो मंगल को बता देती या खाना बन जाने पर दरवाजे पर हौले से आकर कहती "खाना बन गया आइए।"

मंगल के उत्तर के इंतजार में वह थोड़ी देर दरवाजे पर खड़ी रहती। जब जाने लगती तो मंगल कहता थाली यहीं भिजवा दो, काम में लगा हूँ। "

थाली दीपा खुद ही ले आती। जाते-जाते हिदायत भी देती जाती "खा लेना नहीं तो खाना ठंडा हो जाएगा।"

कई बार थाली ढकी रह जाती और मंगल जाने किन विचारों में खोया रहता। सुबह थाली वापस ले जाते हुए रोली आँखें तरेरती-

"फिर नहीं खाया? हुआ क्या है भैया तुम्हें? आज से रोली का हुकुम है। सबके साथ बैठकर खाओगे। समझे?"

वह खुद को टटोलने लगता उसकी उदासीनता का कारण क्या दीपा भर है? दीपा से तो मन हटाना पड़ेगा। अब एक और वजह उसे नजर आती है। वह वैज्ञानिक बनना चाहता था। खगोल शास्त्र में उसकी बेहद रूचि थी। अहमदाबाद स्थित अंतरिक्ष केंद्र इसरो का वैज्ञानिक होने के सपने देख रहा था। पढ़ाई में अव्वल दर्जे का मंगल न जाने किन स्थितियों में उलझ कर रह गया। अपने भविष्य को अपने मनमाफिक बना पाने की विचलित अवस्था में वह खुद को घिरा पाता।

उस शाम वह अपनी ट्यूटोरियल क्लास से लौट रहा था कि रास्ते में पवन मिल गया।

"कैसे हो मंगल? क्या बात है बहुत दुबले होते जा रहे हो।"

"बस ऐसे ही।"

उसने टालना चाहा।

"बहुत पढ़ाई कर रहे हो या नई भाभी में ..."

प्लीज पवन, तुम भी न यार। चलो मान लेता हूँ मैं नहीं मिल पाया तुमसे पर तुम भी तो..."

"मैं यहाँ था कहाँ। रीवा गया था। ताऊ जी बीमार थे।"

दोनों सड़क पर यूं ही भटकते रहे। इधर-उधर की ढेरों बातें। शामें साथ-साथ गुजारने की यादें दोहराते हुए मंगल को लगा कीरत भैया की शादी के बाद से वह तमाम दुनिया से कितना कटता जा रहा था। न किसी से मिलना जुलना, न यार दोस्तों के साथ समय गुजारना। वह जैसे खुद में ही सिमटता जा रहा था। एक अदृश्य कवच में खुद को मढ़ते हुए लग रहा था कठिन है मनुष्य जन्म, कठिन है जिंदगी के रास्ते। जबकि मनुष्य जन्म को पिछले पुण्यों का संचित फल मान कर ख़ुश हो लें लेकिन जिंदगी की व्यस्तता ढोते हुए केवल जिंदा रहना ही कितना दूभर है।

"मंगल क्या तुमने हिप्पियों के बारे में सुना है?"

"वह दम मारो दम वाली दुनिया?"

मंगल ने बड़ी देर की खामोशी के बाद मौन तोड़ा-"हाँ जानता हूँ कि वह स्वच्छंद विचरण करने वाले विदेशी घुमंतू है जिनकी अपनी हिप्पी कल्चर है।"

"चलो आज उनकी दुनिया देखें नजदीक से।"

दोनों कैंप कॉफी हाउस की ओर चल पड़े। सड़कों पर रात का शबाब बिखरा पड़ा था। कैंप कॉफी हाउस में हिप्पियों के दल ने सारे टेबल घेर रखे थे। कोई साधु की वेशभूषा में था तो कोई जटाजूट धारी। चहल पहल काफी थी। पवन और मंगल को कहीं बैठने की जगह नहीं मिली। पवन एक हिप्पी के नजदीक गया जो कानों में बड़ी-बड़ी बालियाँ पहने, त्रिपुंड लगाए सिगरेट के गहरे-गहरे कश ले रहा था। वह अपने दाहिने कूल्हे और पैर को एक खास लय में हिला भी रहा था। सामने एक डच जो बिल्कुल निर्वस्त्र था और जिसे पुलिस पकड़ कर ले जा रही थी चिल्ला रहा था "छोड़ दो मुझे, ईश्वर ने जब नंगा पैदा किया तो यह अपराध कैसे हुआ हमारा।"

उसे घेरे दो युवा हिप्पी भी पुलिस से उसे छोड़ देने का अनुरोध कर रहे थे। उनके जाते ही कुछ देर खामोशी छाई रही। पवन ने त्रिपुंड लगाए हिप्पी से पूछा-

"तुम लोग घर द्वार छोड़कर हिप्पी जीवन अपना कर क्या पाते हो?" "ईश्वर का प्रेम और दकियानूसी रिवाजों से मुक्ति।"

"यानी कि युद्ध, पुराने रिवाजों से मुक्ति?"

मंगल ने उसकी हिलती बालियों के गोलाकार में उसे उलझे पा पूछा। वह निर्विकार सिगरेट के धुएँ से गोल-गोल छल्ले बनाता रहा... छोटी-छोटी गोलाईयाँ जैसे एक जाल-सा रच रही थीं जिसमें वह फंसता जा रहा था।

"युद्ध नहीं संघर्ष, हम संघर्ष कर रहे हैं।"

"इस तरह के खानाबदोश जीवन के लिए?"

त्रिपुंडधारी हिप्पी ने मंगल को गौर से देखा-"नहीं प्रेम करने के लिए। ईश्वर के बनाए मानव मात्र से प्रेम करने के लिए।"

मंगल सर्वांग प्रेम से भीग उठा था। एस्प्रेसो कॉफी के संग उबली मूंगफली खाते हुए वह बहुत गहरी आँखों से हिप्पी दल को देखते हुए उन्हें समझने, उनकी संस्कृति को समझने की कोशिश कर रहा था। कहीं अट्टहास था तो कहीं आँसू भरी आँखें, कहीं शून्य में कुछ खोजना था, तो कहीं रोमांस। मंगल खुद भी तो ऐसी ही अनुभूतियों से गुजर रहा था। तो क्या पूरा ब्रम्हांड मात्र प्रेम से उपजी गहनता ही है... बस, प्रेम और ईश्वर।

बाइक से मंगल को उसके घर छोड़ते हुए पवन ने पूछा था-

"मंगल सच-सच बताना। क्या तुम्हें किसी से प्रेम हो गया है?"

मंगल हँसकर रह गया। वह कुछ कह पाने की स्थिति में भी नहीं था। टालते हुए बोला "हाँ हो गया न। मैं तो प्रेममय हूँ ...प्यार बांटते चलो वाली तर्ज पर।"

"ओहो, संत मंगलदास, साष्टांग दंडवत करता हूँ।"

कहते हुए पवन ने मंगल के साथ गेट पर खड़े-खड़े ही सिगरेट पी। दूर आकाश के छोर पर तारों की मद्धिम रोशनी में रात का भीगा आंचल सरसरा रहा था। वहाँ हवाओं का शोर था और गिरती शबनम की मखमली सेज। उसने पवन के कंधे थपथपाए-

"हो जाता है यार, कभी-कभी मन उदास हो जाता है बिला वजह।" पवन बाइक स्टार्ट करते हुए मुस्कुराया-

"वजह जान लो तब बताना। शुभ रात्रि।"

उसकी थाली टेबल पर रखी थी। पास में पानी का जग, दूध का गिलास। फ्रेश होने के लिए वह कीरत भैया के कमरे के सामने से गुजरा। कीरत भैया ड्यूटी से नहीं लौटे थे। दरवाजा खुला था। दीपा पलंग से टिकी किताब पढ़ रही थी। उसकी मैक्सी घुटने तक सरक आई थी। जिसमें से उसकी गोरी मांसल पिंडलियाँ दिखाई दे रही थीं। दीपा को लेकर काम भाव तो कभी जागा नहीं उसमें। वह तो उसे लेकर प्रेम सागर में आकंठ निमग्न है। अब जबकि रिश्ता बदल गया है। फिर भी वह अपने मन को समझा नहीं पा रहा है। प्रेम करके भूल जाने के लिए तो होता नहीं। प्रेम बस अंकुरित होता है। जिसकी जड़ें पाताल तक भी पहुँचे तो कम है।

अगली शाम बिना पवन के ही कदम यकायक कैंप कॉफी हाउस की ओर मुड़ गए। लेकिन पवन वहाँ पहले से मौजूद था और त्रिपुंड धारी के साथ वह भी सिगरेट पी रहा था-' आओ मंगल, कुछ हिप्पी अफगानिस्तान से आए हैं इसीलिए भीड़ ज्यादा है। "

"बाहर चलें लॉन पर?"

तीनों घास के गुदगुदे लॉन पर आ गए। पार्किंग प्लेस में आठ दस कारें सामान से लदी खड़ी थीं। लॉन पर कुछ अधलेटे हिप्पियों के जोड़े बतिया रहे थे। एक हिप्पी युगल के नजदीक की खाली जगह पर वे तीनों बैठ गए-"हाय जैक" हिप्पी युगल ने त्रिपुंड धारी से हाथ मिलाया। लड़की कानों में सपेरों जैसे बड़े-बड़े कुंडल पहने थी और गले में रुद्राक्ष की पांच छै मालाएँ लटक रही थीं। उसकी अधखुली पीठ पर ढेर सारे तिल थे। एक तिल तो दीपा की गर्दन पर भी है। जब वह आंगन में भीगे बालों को सुखा रही थी, उसकी गर्दन का तिल उसे भीतर तक कुरेद गया था। उसे लगा वह तिल को दबोचे हुए आकाशगंगा में उतरता जा रहा है। मीलों मील प्रेम का विस्तार और वह... लड़की ने गहरी नजरों से मंगल को देखा। मंगल का ह्रष्टपुष्ट संगमरमर की तराशी हुई मूर्तियों जैसा शरीर... चेहरे पर जिज्ञासा के स्थाई भाव... उसने हाथ बढ़ाया-"हाय आई एम यामा।"

हाथ बेहद कोमल जैसे पीपल का पत्ता।

"मैं आपकी तस्वीरें लूं?"

पवन हँसा-"लो अब भुगतो, भा गए तुम सपेरन को।"

मंगल की कुछ तस्वीरें लेकर यामा ने कैमरा लॉन में एक ओर रख दिया और बैग में से सिगरेट निकालकर सुलगाने लगी। जैक ने भी अपनी चिलम निकाली और उसमें भरी तंबाकू हथेली पर उलट ली। फिर एक बड़ी प्लास्टिक की डिब्बी में से चरस निकालकर तंबाकू के साथ मिलाकर चिलम में भरी-

"वहाँ से ज्यादा खरीद नहीं पाए। थोड़ी ही मिली थी। इतनी मैं तुम्हें दे सकता हूँ।"

पवन ने चरस से भरी डिब्बी लेकर जैक को रुपये दिए।

पवन मंगल के साथ नदी के किनारे आ गया। सुनसान तट पर इक्का-दुक्का लोग सीढ़ियों पर बैठे थे। कुछ नावें शायद प्रतीक्षा कर रही हों मुसाफिरों की।

"चलो नदी की सैर करते हैं। मल्लाह जी आप हमें दो घंटे तक नाव में घुमाते रहिए। पैसे की परवाह मत करिए।"

मल्लाह ने खुश होकर बड़ा-सा सलाम ठोका और चप्पू उठा लिए। डगमगाती नाव थोड़ी देर में स्थिर हो गई। आसमान सितारों से भरा था। पूरब में फीका-फीका चाँद उगने, चमकने की तैयारी में था। नदी का जल काला दिख रहा था। नाव के चप्पुओं के संग बीच-बीच में चाँदी-सा चमक उठता। पवन ने जेब से सिगरेट निकाल खाली की और उसमें चरस भर कर सुलगाने लगा।

"यूँ सरेआम इसे पीना अपराध है। पकड़े जाओगे।"

पवन हंसा-"हर आनन्द अपराध क्यों? पर कभी-कभी अपराधी होने का मन करता है। कमाल की चीज़ है ये, स्वर्गिक आनंद देती है। पल भर को हम भूल जाते हैं कि हम इस दुखी जहान के बाशिंदे हैं।"

उसने मुंह से लगाकर जोर से कश लगाकर धुँआ अंदर तक उतार लिया। सिगरेट का सुलगता सिरा नन्हें अंगारे-सा चमक उठा। पवन ने सिगरेट मंगल की ओर बढ़ाई। थोड़े न नुकुर के बाद मंगल ने भी कश खींचा। उसका अंग-अंग झनझना उठा। एक हिलोर-सी दिल के पार हो गई। फिर देर तक दोनों चरस पीते रहे। चाँद चमक उठा था। उसका प्रतिबिंब नाव के संग-संग चल रहा था।

मल्लाह ने धुन छेड़ दी-" ओह रे ताल मिले नदी के जल से ...मंगल को लगा जैसे वह उड़ रहा है, जैसे तारों भरा आकाश उसकी बाहों में है, वह विशालकाय होता जा रहा है, पूरे ब्रह्मांड पर छाता जा रहा है, उसमें दीपा कहाँ दुबकी है।

"पवन सालों से वह मेरे दिल में बसी है। उसके अलावा कोई अच्छा लगा ही नहीं। लेकिन वह सब इक तरफा था। मैं तो कभी उसके सामने इजहार कर ही न सका और वह कीरत भैया की हो गई।"

"तो अब चैप्टर क्लोज करो।"

"नहीं यह इतना आसान नहीं है। लेकिन अब घर में उसकी मौजूदगी मेरे लिए अड़चन पैदा कर रही है।" "कुछ तो सोचना होगा मंगल। अब तो उसके लिए सोचना पाप है।" पवन ने मल्लाह को वापस चलने का इशारा किया।

"क्यों पाप है। मैं उसे रिश्ते में आने से पहले से प्यार करता हूँ। प्यार खत्म तो नहीं होता न।"

किनारा आ गया था। पवन ने मल्लाह को किराए से दुगने रुपए दिए। डिनर का ऑफर भी-"चलो मेवाराम की दुकान में हमारे साथ आलू पूड़ी खा लो।"

" दया है आपकी। पर घर में बच्चे राह देख रहे होंगे। सौदा सुलुफ़ खरीदने में भी देर लगेगी।

नाव तट पर बाँधते हुए उसने कहा और तेजी से सीढ़ियाँ चढ़ गली में मुड़ गया।


पवन और मंगल की हर शाम हिप्पियों के साथ गुजरने लगी। पहचान के दायरे बढ़ते गए और चरस की सेवन मात्रा भी। मंगल अब दूसरी ही दुनिया की सैर पर था। हिप्पियों के जीवन में उन्मुक्तता और निश्चिंतता थी। नफरत, द्वेष के लिए कोई जगह नहीं थी। वे पुरुष हो या स्त्री हफ्तों नहाते नहीं थे। कपड़े नहीं बदलते थे। कौड़ी, शंख, सीपी, रुद्राक्ष, मोती उनके तन की शोभा बढ़ाते। उनके कंधे से लटकता कैमरा होता। जिस में मनोरम दृश्यों को कैद करते रहते और उन्हें लगता उन्होंने दुनिया मुठ्ठी में कर ली है। उनके कंधे से लटकते सफारी थैले में चरस, गांजा, अफीम, सिगरेट होती। ये बैग जींस के कपड़े के होते या शांतिनिकेतन के। मंगल को बहुत लुभाती ये दुनिया। माता पिता के प्यार के भूखे ये विभिन्न देशों से यहाँ भारत आकर पता नहीं कौन-सी संतुष्टि पा रहे हैं। लेकिन फिर भी आकर्षण का केंद्र हैं।

मंगल को लेकर अम्मा हमेशा चिंतित रहती हैं। वह कीरत जैसा नहीं है कि नियम से अपनी जिंदगी जिए। सुबह उठकर योगा, जॉगिंग, प्रातः वंदन, नाश्ता फिर ड्यूटी पर चले जाना। दोपहर को लंच का डिब्बा लेने सिपाही घर पर आता। ड्यूटी से लौटकर घंटों कीरत अम्मा बाबूजी से बतियाता। चौके में दीपा की मदद करता। त्यौहार में उत्साह दिखाता लेकिन मंगल खगोल शास्त्री बनने की धुन में जीना ही भूल गया है। रात दिन बस यही सोच कि कैसे पहुँचे इसरो केंद्र के दरवाजे। उसे लगता है वह जैसे-जैसे आगे बढ़ रहा है इसरो केंद्र भी पीछे की ओर सरकता जा रहा है यानी उसकी पहुँच से बहुत ज्यादा दूर। कोई इतना कठिन भी नहीं है लेकिन रुपयों की वजह से वह मात खा जाता है।

इसरो के द्वारा हर साल वैज्ञानिक के पद के लिए देश के टॉप कॉलेजों आईआईटी और एनआईटी में पढ़ने वाले छात्रों का इंटरव्यू लिया जाता है और सिलेक्शन होते ही उन्हें इसरो बुला लिया जाता है। मंगल के लिए यह इतना आसान नहीं था हालांकि 12वीं क्लास में उसके फिजिक्स, केमिस्ट्री और मैथ्स में बहुत अच्छे नंबर आए थे लेकिन रुपयों की वजह से वह इंजीनियरिंग में यूजी और पीजी लेवल की डिग्री नहीं ले पाया।

वह अम्मा से अक्सर कहता-"तुम्हें पता है अम्मा इसरो यानी कि इंडियन स्पेस रिसर्च ऑर्गेनाइजेशन आजकल अपने अंतरिक्ष कार्यक्रमों को लेकर सुर्खियों में बना रहता है। इसरो का काम है हमारे देश को अंतरिक्ष और विज्ञान के क्षेत्र में आगे बढ़ाना और इसके लिए इसरो आए दिन स्पेस मिशंस लॉन्च करता रहता है। अगर मैं वहाँ काम करूं तो इन मिशंस के पीछे मेरा भी हाथ होगा क्योंकि इसरो में काम करने वाले वैज्ञानिक दिन रात अपने देश को आगे बढ़ाने के लिए इस तरह के काम करते रहते हैं।"

अम्मा निरूपाय-सी मंगल को देखती रहतीं। उसका सपना सच करने की बाबूजी में हिम्मत नहीं है और भी बहुत सारी जिम्मेदारियाँ हैं जिन्हें उठाना है और उनके पास इतना पैसा भी नहीं है। वरना वे पीछे नहीं हटते।

अब वह कैसे बताए कि अगर शुरुआत में बाबूजी पैसा लगा दें और वह किसी तरह इसरो में पदार्पण कर ले तो उनकी जिम्मेदारियाँ वह आसानी से उठा लेगा। वहाँ तो शुरुआत में ही हजारों रुपए की सैलरी मिलती है।

जैसे-जैसे आगे बढ़ते हैं तो सैलरी में बढ़ोतरी होती जाती है और फिर यदि इसरो में किसी बड़े पद पर पहुँच गए तो लाखों रुपए सैलरी हो जाती है।

" अम्मा बहुत गर्व की बात होती है इसरो में काम करना।

इसरो में काम कर रहे वैज्ञानिको को बहुत ही ज्यादा सम्मान मिलता है। वहाँ काम करना मतलब अपने देश के लिये काम करना है। एक इसरो के वैज्ञानिक को किसी IAS officer से भी ज्यादा सम्मान मिलता है। इसरो में कई ऐसे वैज्ञानिक हैं जिनके हुनर को आज पूरी दुनिया सलाम करती है। "

अम्मा सुनतीं और अपनी असहायता पर मन मसोसतीं। कीरत तो अपनी पसंद के जॉब पर है, पता नहीं मंगल कैसी किस्मत लेकर आया है, कि वे चाहकर भी कुछ नहीं कर पा रही हैं।

अब मंगल अपने में गुम रहने लगा था। कचोटती पीड़ा की वजह से चरस गांजे की लत ने मंगल को स्वाभाविक नहीं रहने दिया। 2 साल का ही तो अंतर है मंगल और कीरत में। अब तो कीरत की शादी को भी साल भर होने आया। पर मंगल की शादी तो दूर नौकरी तक नहीं।

धीरे-धीरे अम्मा झुंझलाने लगीं।

ताना मारने लगीं-"कब तक बाप के सहारे जिएगा। अरे कुछ अपनी सोच। इसरो जाने का सपना छोड़ दे। हमारे बस की बात नहीं है इतना खर्च उठाना।"

उस दिन मंगल ने खाना नहीं खाया। थाली वैसी की वैसी ढंकी रखी रही। सुबह थाली उठाने दीपा आई

"खाना क्यों नहीं खाया?"

"भूख नहीं थी।" उसने दीपा की ओर देखे बिना कहा।

" अरे हद है। भूख कैसे नहीं थी। अम्मा जी की बात का बुरा मान गए। वह माँ है। वह नहीं सोचेगी तो

कौन सोचेगा? फिर आप भी तो जिद किए बैठे हैं कि नौकरी करेंगे तो इसरो में नहीं तो नहीं करेंगे। "

मंगल ने चकित हो दीपा की ओर देखा। आज दीपा को क्या हुआ! पुरखिन जैसी उपदेश झाड़े जा रही है। तभी कीरत ने आवाज दी-"दीपा मेरा बेल्ट नहीं मिल रहा।"

दीपा धीरे-धीरे पायल छनकाती कीरत भैया के कमरे में चली गई शाम को बाबूजी के कमरे में उसकी पेशी हुई।

"कीरत बता रहा था तुम हिप्पियों के साथ घूमते हो।"

वह दृढ़ता से खड़ा रहा। मतलब कीरत भैया उस की जासूसी करते हैं? यानी वह घर से बाहर भी अपने ढंग से नहीं जी सकता?

"क्यों बर्बाद कर रहे हो खुद को?"

"तो इसमें हर्ज ही क्या है। वे भी तो इंसान हैं।"

"हाँ, लेकिन भटके हुए। घर द्वार छोड़े हुए। जहाँ ठिकाना मिला रात बिता ली। चरस, गांजा उनका शगल। ऐसा जीवन जियोगे?"

"मैंने ऐसा कब कहा। नौकरी मिलते ही करने लगूंगा। आप पर डिपेंड थोड़ी हूँ।"

बाबूजी ने लंबी साँस भरी-"फिलहाल तो आप तैयारी कर लीजिए। इतवार को लड़की वाले आ रहे हैं आपको देखने।"

वह व्याकुल हो उठा-"मना कर दीजिए। मैं अभी शादी के योग्य अपने को नहीं पाता। पहले नौकरी, मेरा करियर। फिर सोचूंगा इस बारे में।"

घर में वह कम ही टिकता। नौकरी की तलाश, हिप्पियों के साथ अफीम, चरस, गांजा... इहलोक से परलोक की सैर। वहाँ बाग बगीचे, सुंदर झरने, पर्वत और दीपा का साथ होता। प्रेम के झूले में बैठे पींगें भरते हुए दुनिया जहान की सैर कर लेता। दीपा कितनी सुंदर है। झरने-सी बहती उसकी आवाज उसके हृदय की कलियाँ चिटका देती है। पीठ पर छिटके घुंघराले बाल उसे अपने घूंघर में फंसा लेते। नाक में पहनी हीरे की लौंग का लश्कारा ...उफ, सहसा वह संभल जाता। दीपा के लिए ऐसा सोचना भी अब गुनाह है।

कितना कठिन है जिससे प्यार है वह किसी और की है लेकिन उसके साथ एक ही घर में रहने की कैसी मजबूरी है? हालांकि कीरत के कमरे से आती दोनों की हँसी, बिजली का जला होना, फिर रात के अंधेरे में चूड़ियों की खनखनाहट, रुनझुन पायलों का बार-बार छनक उठना। कभी भी इन बातों से वह डिस्टर्ब नहीं हुआ। कभी भी उसके मन में हल्का-सा भी विचार नहीं आया कि काश कीरत की जगह वह होता। वह भाग्य पर बहुत विश्वास करता है। जो कुछ उसे मिलना है मिलकर ही रहेगा। जो नहीं उसके लिए बिसूरना उसकी फितरत नहीं। जैसे अब इसरो के लिए नहीं सोचता। समझ गया है उसके भाग्य में नहीं है वैज्ञानिक बनना।

बाबूजी की जिद के आगे उसे झुकना पड़ा। लड़की वालों के घर से लड़की के दोनों भाई-भाभियाँ और बहन-बहनोई आए। काफी देर बातचीत होती रही। चलने लगे तो बड़े भाई ने कहा-

"कुछ भी तय करने के पहले मंगल सिंह और उषा एक दूसरे को देख लें, परख लें। हम लोग तो केवल घर द्वार नौकरी ही देख सकेंगे न।" दीपा ने उसे उषा की फोटो पहले ही दिखा दी थी। बड़े भाई की बात उसे अच्छी लगी। पर फिर भी उसने विनय पूर्वक कहा-

"मुझे पहले जॉब मिल जाने दीजिए। बाकी बातें बाद में होती रहेंगी।"

रात को भोजन के दौरान बाबूजी अम्मा से कह रहे थे-"वैसे मंगल की बात हम सिरे से नहीं नकार सकते। शादी के बाद निखट्टू पति को कौन पसंद करेगा।"

मंगल को तसल्ली हुई। यानी कि वक्त है उसे अपनी जिंदगी के फैसले लेने का।

अखबारों में एक भी वैकेंसी उससे नहीं छूटी जहाँ उसने एप्लाई न किया हो। एक दो जगह इंटरव्यू भी दे आया पर हर बार निराशा हाथ लगी। अब चरस उसकी जेब में रहती। शाम के तीन चार घंटे हिप्पीयों के साथ गुजरते। घर लौटता तो ढकी थाली से मुँह जुठार सोने की कोशिश करता। इस बीच खबर मिली कि उषा ने भागकर अपने प्रेमी के साथ मंदिर में शादी कर ली। वह चैप्टर अपने आप बंद हो गया।

जनवरी की बेहद सर्द रात थी। अम्मा ने हर कमरे में गुरसी में अंगारे भर कर रखे थे ताकि कमरा गर्म रहे। उसके कमरे में गुरसी रखने दीपा आई। वह किताबों की अलमारी के पल्ले खोले खड़ा"बोधि वृक्ष की छाया" किताब ढूँढ रहा था। वह बुद्ध से सदा से प्रभावित रहा है। वह उन्हें और गहराई से जानना चाहता था। छोटी-सी आयु में ही उन्होंने जीवन और मृत्यु की सच्चाई को समझ लिया था। उन्होंने यह जान लिया कि जिस प्रकार मनुष्य का जन्म

लेना एक सच्चाई है उसी प्रकार बुढ़ापा और निधन भी जीवन की कभी न टलने वाली सच्चाई है। वे इस सच्चाई को आत्मसात कर सांसारिक खुशियों और विलासिता भरे जीवन से पूरी तरह विमुख हो गए। राज पाट के साथ, पत्नी और पुत्र को छोड़कर उन्होंने एक साधु का जीवन अपना लिया। मंगल उनके इस त्याग से बेहद प्रभावित था। इस तरह का त्याग आम इंसान के बस की बात नहीं।

अचानक पीछे से आकर दीपा ने उसे आलिंगन में भर लिया। वह हल्का-सा लड़खड़ाया और जैसे ही पलटा दीपा ने उसके गले में बाहें डाल जैसे जकड़-सा लिया। बाहें छुड़ाते हुए वह हकलाया-"यह क्या कर रही हैं आप?"

"औरत अपनी छठी इंद्रिय से जान लेती है कि कौन उसे प्यार करता है।" दीपा उसके धकेलने से दीवार से सट कर खड़ी हो गई-"तुम कहते कुछ नहीं पर तुमने हमें पागल कर दिया है।"

जिन शब्दों को सुनने के लिए वह तरस रहा था आज वही शब्द पिघले सीसे से उसके कान में समा रहे थे। दीपा के इस रूप से तो वह परिचित ही नहीं था। उसके दिल में बसी दीपा की मूर्ति टुकड़े-टुकड़े हो गई। यह किस दीपा को प्यार कर बैठा वह? जो कीरत भैया के रहते किसी और की होना चाहती है। जिसने रिश्ते नाते, मान मर्यादा की सभी सीमाएँ लांघ लीं। जिसके लिए बरसों से वह खुद को भूला रहा। उसके प्यार की पवित्रता को पल भर में दीपा ने अपवित्र कर दिया।

भूल हुई उससे... भूल करता रहा अब तक ...

"मंगल, हमें अपना बना लो। हम तुम्हारे बिना जी नहीं पाएंगे।"

दीपा ने फिर पास आने की कोशिश की। वह खुद को छुड़ाकर कमरे से बाहर निकल आया। कमरे से बाहर हुआ तो बैठक, पूजा घर, बरामदा और गेट से भी बाहर हो गया।