कैथरीन और नागा साधुओं की रहस्यमयी दुनिया / भाग - 4 / संतोष श्रीवास्तव

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अगली संध्या कुटिया का फिर वही माहौल। चाय पीते हुए नरोत्तम से रहा नहीं गया। पूछ बैठा-"माता जिज्ञासा बनी हुई है। आप इस वीरान, दुर्गम स्थान में अकेली क्यों और कैसे?"

जानकी देवी कंबल में दुबकी चाय के घूंट भर रही थीं। उनकी आँखों में एक लौ-सी दिपदिपाई, क्षणांश में बुझ भी गई। लेकिन उन सूनी, सपाट आँखों में अतीत का एक झरोखा-सा खुला। झरोखे में प्रवेश करने की नरोत्तम ने कोशिश की।

"भोले भंडारी की कृपा ...बड़ा साम्राज्य है हमारा हल्द्वानी में। नाती, पोते, बंगला, गाड़ी, खेत, गाय, बैल सब कुछ। रुद्रपुर में फॉर्म हाउस है पर हमने सब त्याग दिया।"

"संन्यास ले लिया माता?"

"ईश्वर की शायद यही आशा थी कि हम मोह माया बंधन त्याग दें, तभी तो ..."

नरोत्तम गिरी को जानकी देवी के शब्द घनी झाड़ियों में उलझते से लगे। उनके मन की बदली से एक बूंद जैसे काँटों में गिरकर बिखर गई।

"हम दोनों को एक दूसरे के लिए ही जैसे ईश्वर ने गढ़ा था। वे मेरा जीवन, मेरी आशा, आकांक्षा, मेरी हर इच्छा, हर स्वप्न का साकार रूप, मेरे स्वामी, सखा, जीवन साथी दीपक पंत थे। जानते हो नरोत्तम हमारा प्यार, एक दूसरे के प्रति समर्पण चर्चा का विषय था। वे बहुत अच्छे फुटबॉल प्लेयर थे। फुटबॉल उनका जुनून... कहते थे जानकी, तुम्हारे बाद अगर कोई प्यारा है तो वह फुटबॉल है। मैं योगा केंद्र में प्रशिक्षण अधिकारी थी। धीरे-धीरे मैंने प्राणायाम, ध्यान आदि क्रियाओं में दक्षता हासिल कर ली। वे विदेशों में फुटबॉल मैच खेलने जाते और मैं उनके साथ विदेश में रहते हुए विदेशियों को योगा सिखाती। दो बेटे एक बेटी। आदर्श परिवार हमारा। बरसों बीत गए। सब अपने घर द्वार के हो गए। तब दीपक पंत और मैंने तय किया अब तीर्थ यात्राएँ करेंगे। पहले सारे ज्योतिर्लिंग देखे, चारों धाम देखे, सारे प्रयाग। शक्ति पीठ सब नहीं देख पाए। कराची और बांग्लादेश के छूट गए। चार साल में हमने इन सभी स्थलों को देख लिया। फिर योजना बनी। गढ़वाल के चारों धाम बदरीनाथ, केदारनाथ, यमुनोत्री, गंगोत्री देखने की। पन्द्रह दिन इन जगहों पर बिताकर हम गोमुख देखते हुए सीधे तपोवन आए। बड़ा कठिन था उन दिनों इन मार्गों पर यात्रा करना। रास्ता इतना सँकरा था कि सिर्फ एक आदमी ही उस पर चल सकता था। पहले पिट्टू हमारा सामान लिए आगे चलता। फिर दीपक पंत, फिर मैं... पहाड़ों पर से भेड़ों के झुंड के चलने से पत्थर लुढ़कते रहते। सावधानी से चलना पड़ता। भोजबासा से जब हम गोमुख ग्लेशियर आए, कहीं कोई पहाड़ टूटा था। भागीरथी मटमैली बह रही थी। गोमुख का विहंगम दृश्य देख लग ही नहीं रहा था कि हम इस धरती पर हैं। प्रकृति की ऐसी खूबसूरती पहली बार देखी। ग्लेशियर के रूप में जैसे सफेद विशाल गाय खड़ी थी जिसके मुख से भागीरथी की पतली धारा निकलती हुई आगे कैसा विशाल रूप धारण कर लेती है। हम काफी देर बर्फीली चट्टानों पर बैठे रहे। दीपक पंत की इच्छा तपोवन, नंदनवन देखने की थी। वैसे भी गोमुख में रुकने की जगह न थी। या तो गंगोत्री लौटो या तपोवन जाओ। पिट्ठू साथ में था ही। खाने पीने का सामान भी काफी था। वैसे भी गोमुख से तपोवन 4 किलोमीटर ही है। पर वे 4 किलोमीटर बेहद खतरनाक रास्तों से भरे। चढ़ना, उतरना मार्ग कुछ ऐसा ही। नुकीले पत्थरों पर जमा कर पैर रखना था। सँकरी खाईयाँ बर्फ से ढंकी होतीं। असावधानीवश पैर बर्फ ढंकी खाई पर पड़ा कि गए अँदर। 4 किलोमीटर का रास्ता मानो 40 किलोमीटर का लग रहा था। हाइकिंग पोल्स हम लेकर चले थे इसलिए 300 मीटर की बजरी रेत और पत्थर की चढ़ाई हम पार कर सके। दिक्कत चढ़ाई से नहीं थी। खिसकती रेत पर पाँव जमाने से थी। हाईकिंग पोल्स से ग्रिप बनाने में मदद मिली। कहीं थककर बैठने की जगह न थी। 100 मीटर ऊपर हम चढ़ चुके थे और अमरगंगा दिखने लगी थी। मतलब शिवलिंग पर्वत पास ही था क्योंकि अमर गंगा वहीं से निकली है। दीपक पंत में नौजवानों जैसी फुर्ती थी। मेरे चेहरे पर थकान देख एक जगह तो उन्होंने मुझे गोद में ही उठा लिया। वह ह्रष्टपुष्ट शरीर वाले खिलाड़ी। मैं छरहरे बदन की। कहते भी थे-" "बूटा-सा है तुम्हारा बदन। अमर गंगा पार करनी होगी। चिकनाई वाले पत्थरों पर पांव जमा पाओगी?"

मैंने देखा कि नदी का बहाव भी बहुत वेगवान था। पिट्ठूओं को तो आदत होती है। सर-सर निकल जाते हैं। हमारे साथ आया पिट्ठू नदी पार कर उस पार पहुँच गया। हमें समय लगा। फिसलन वाले पत्थरों पर जैसे तैसे पाँव जमा पा रहे थे। आखिर नदी पार कर हम उस पार पहुँच ही गए। दोपहर हो गई थी। कुछ खाया न था। नदी किनारे ही हमने जलपान किया और किनारे-किनारे चलते हुए हम तपोवन पहुँच गए। सामने शिवलिंग पर्वत। मेरी जिद थी कि मैं ब्रह्मकमल देखूंगी सुनकर दीपक पंत हँसे जा रहे थे-

"माय डियर प्रोफेसर साहिबा, यह मई का महीना है और ब्रह्मकमल और नीलकमल अगस्त में खिलते हैं।"

यहाँ एक मौनी बाबा का निवास था। 26 साल के बाबा ने 13 वर्ष की उम्र में मौन व्रत धारण किया था। उन्होंने अपनी कुटिया की बगल में टेंट लगाने की अनुमति दे-दे दी। पिट्ठू ने टेंट लगाकर बिस्तर बिछा दिया जहाँ पहले तो मैंने आराम किया फिर दीपक पंत की बनाई चाय और मौनी बाबा के दिये उबले चने खाकर हम घूमने निकले। मौनी बाबा ने स्लेट पर लिखा, आधे घंटे में लौट आइए और भोजन हमारी कुटिया में करिए।

मुझे एहसास हुआ कि हम चाहे जितना संसार से भागें खुशियाँ हमें संसार में रहकर ही मिलती हैं।

मौनी बाबा ने आलू की रसेदार सब्जी और बाजरे के मोटे-मोटे टिक्कड़ जिन पर खूब सारा घी चुपड़ा गया था, खिलाए। हमने पिट्ठू से अचार की बोतल टैंट से मंगवाई। पर मौनी बाबा ने अचार नहीं लिया। खाने के बाद उन्होंने भेड़ का गर्म दूध गुड़ डालकर हमें दिया और स्लेट पर लिखा-"हम तामसी चीजों का प्रयोग भोजन में नहीं करते इसलिए अचार नहीं लिया। आप मन में दुख को स्थान न दें। दुख मनुष्य के विनाश का मूल है।"

जब हम टैंट में लौटे तो पिट्टू ने बताया-"कहते हैं जब मौनी बाबा मौन तोड़ेंगे तो पूरी धरती रुक जाएगी।" इस विषय पर मैं और दीपक पंत काफी देर चर्चा करते रहे। रात के किसी प्रहर मेरी नींद लगी। सुबह देर से खुली। उसी दिन हमें लौट जाना था लेकिन अगर देर से नीचे उतरे तो रास्ते में ही रात होने का डर था। इसलिए हम एक दिन और तपोवन में रुक गए। वैसे भी रात करीब 2 घंटे तक बर्फबारी होती रही। टैंट पर बर्फ ही बर्फ थी जिसे सूरज की किरनों ने सुनहली आभा से ढक दिया था। मौनी बाबा सफेद कपड़ों में खुद भी बर्फ में एकाकार होते साधना कर रहे थे। हम मुलायम बर्फ पर इधर-उधर टहलते हुए प्रकृति का आनंद ले रहे थे। चमकीले नीले आसमान को मानो स्पर्श करता शिवलिंग पर्वत उसके पीछे मेरु पर्वत जिससे सटकर बहती भागीरथी नदी। विहंगम दृश्य था। टहलते हुए एक और सन्यासी बाबा से मुलाकात हुई। मौनी बाबा की ही उम्र के बाबा प्रेम फकीरा ने इंजीनियरिंग की पढ़ाई पूरी कर

सन्यास ले लिया था। अभी तो वे घूम घूमकर दुनिया देख रहे थे। हिमालय के किसी पर्वत पर जाकर तपस्या करेंगे। मौनी बाबा ने बाबा प्रेम फकीरा और हम सब के लिए चाय बनाई। यहाँ जो भी पर्यटक आते हैं मौनी बाबा सब को खिलाते पिलाते हैं और किसी से कोई दान दक्षिणा नहीं लेते। न जाने इस जगह का क्या प्रताप है।

रात्रि भोजन के पश्चात जब हम अपने टेंट लौटे तो हल्की-हल्की बर्फ गिरनी शुरू हो गई थी। पारा भी तेजी से गिर रहा था। लेकिन सुबह हमें गंगोत्री की ओर उतर ही जाना था।

"यहाँ से जाने का तो मन ही नहीं कर रहा।"

"तुम संन्यास ले लो दीपक। यहीं कुटिया रमाते हैं।"

"आईडिया बुरा नहीं है प्रोफेसर साहिबा। इस विषय में सोचा जा सकता है। दुनियावी कार्यों से हम फुरसत हो ही चुके हैं। अब बेटों को संभालने दो अपना साम्राज्य।"

"अभी तो हल्द्वानी वापस लौटना होगा। संन्यास को समझना होगा। हर काम के नियम होते हैं।"

दीपक पंत ने अंधकार में नज़रें टिका दीं।

"देखते हैं लौट पाएंगे या यहीं रह जाएंगे। ईश्वर की मर्जी।"

जानकी देवी पल भर को रुकीं-"नरोत्तम मेरा गला सूख रहा है। थोड़ी चाय बनाते हैं फिर आगे की कथा।"

नरोत्तम गिरी अधलेटा जानकी देवी की कथा में मानो ढल रही रात को भूल चुका था। उसने उन्हें कंबल से बाहर नहीं निकलने दिया। स्वयं उठकर चाय बनाई और गिलासों में छानकर उनके सामने बैठ गया। चाय के घूंट ने जानकी देवी को ऊर्जा से भर दिया।

बहुत अच्छी कथा वाचक हैं आप माता... कथा को उस बिंदु पर लाकर छोड़ा है जहाँ से और अधिक जानने की इच्छा बलवती होती है। "

जानकी देवी अनन्त में उतरने लगीं।

" हम सोचते कुछ हैं पर ईश्वर हमारे लिए रचता कुछ और है।

सुबह मौसम साफ था। अच्छी धूप खिल आई थी। प्रेम फकीर बाबा वहीं धूनी रमाएंगे कुछ दिन। हम जब मौनी बाबा से विदा लेने पहुँचे तो उन्होंने स्लेट पर लिखा-"माता खतरे में प्रवेश कर रही हो। ध्यान रखना अपना।"

हमने बात हल्के में ली। पहाड़ी रास्तों में खतरे तो होते ही हैं। जान जोखिम में रहती है इसीलिए तो परंपरा है कि तीर्थ पर जाने से पहले गाँव वाले ऐसी विदाई देते हैं जैसे अब लौट कर नहीं आएंगे और जब लौटकर सही सलामत घर पहुँचते हैं तो सब पैर छूकर आशीर्वाद लेते हैं मानो पुनर्जन्म हुआ हो।

पिट्ठू सामान पीठ पर लादे आगे-आगे चल पड़ा। दीपक पन्त ने कैमरा गले में लटका लिया था और जगह-जगह रुककर फोटो ले रहे थे।

"सीरियसली सोचो जानकी, अगर हम अपने संचित धन की एक चेरिटेबल ट्रस्ट बना दें और इन वादियों में रह कर कल्याण के कार्य करें तो कैसा रहे?"

"बहुत अच्छा विचार है यह, हम पारिवारिक कार्यों से तो फुर्सत हो ही चुके हैं। बेटे बहू भी स्वतंत्रता पूर्वक जिएंगे। हमारी दखलंदाजी नहीं रहेगी।"

सामने के पर्वत धूप में नहाए सोने की खान लग रहे थे।

"तुम इस एंगल पर खड़ी हो। गजब... इतनी खूबसूरत फोटो कि देखकर तुम दंग रह जाओगी।" कहते हुए दीपक पंत पीछे कदम दो कदम चले... फिर भी एंगिल ठीक नहीं लगा तो और दो कदम कि अचानक मैंने देखा बर्फ की परतों में उनके पैरों को धँसते... वे धँसते चले गए बर्फ की पर्त्त से ढंकी उस खाई में... मैं दौड़ी... चीखी-"अरे बचाओ।" मगर मेरे हाथ उन्हें पकड़ न पाए। मैं कुछ न कर सकी। संकरी खाई पर जमी बर्फ की मोटी पर्त्त जैसे कांच चिटकी हो। नुकीली बर्फ के नश्तर से दीपक लहूलुहान होते हुए खाई में धँसते चले गए। पिट्ठू दौड़ा। वहाँ जा रहा हर मुसाफिर उनकी ओर दौड़ा, पर दीपक पंत...पिट्ठू उनके बालों को पकड़ पाया। बाल नुच कर उसकी मुट्ठी में आ गए। वे उस खाई में ऐसे समा गए जैसे खाई ने उन्हें अपने भीतर समा लेने के लिए ही मुँह खोला था।

मैं ठगी-सी खड़ी रह गई। मैं आज भी वहीं खड़ी हूँ जहाँ वे मुझे छोड़ गए। पिट्ठू अपनी मुट्ठी में आए बालों को मुझे देते हुए बर्फ पर लोट-लोट कर रोने लगा। बर्फीली वादियों में हमारे आँसू भी बर्फ होते चले गए। फिर हफ्तों हमने रक्षक दल की मदद से उन्हें खोजा पर वह खाई हजारों फीट गहरी थी। जहाँ से उन्हें ढूँढना असंभव था। नहीं जानती कैसे उनके प्राण निकले होंगे। दम घुटा होगा। छटपटाए होंगे। क्या मुझे पुकारा होगा? "

जानकी देवी की आँखों से अश्रु धारा बह निकली। नरोत्तम ने उनके आँसू स्वयं पोछे। पानी पिलाया।

"धैर्य रखें माता, विधि का विधान कौन टाल सकता है।"

"टल जाता नरोत्तम, खतरा टल जाता। मौनी बाबा ने चेताया था पर हम ही न माने। दीपक की मौत उन्हें खींच रही थी। वरना रुक जाते।"

काफी देर सन्नाटा रहा कुटिया में। बाहर तेज हवाओं के साथ बर्फबारी भी हो रही थी। हवा की साँय-साँय जानकी देवी की सिसकियों को अपने सँग लिए जा रही थी। जानकी देवी की आहत पीड़ित आवाज क्या हिमालय की वादियाँ सुन रहीं थीं। कहाँ गए दीपक पंत! जमी निगल गई या आसमाँ खा गया! जानकी देवी कैसे यकीन करें कि वे मर चुके हैं। उन्होंने तो दीपक पंत को खाई में जीवित धँसते देखा था। वे उसी जगह तब से जमी बैठी हैं। बहाना है तीर्थ यात्रियों को भोजन, बिस्तर विश्राम देने का। वह भी बिना किसी

किराए के।

"दीपक पंत के निधन के बाद दो साल लगे मुझे सम्हलने में।"

जानकी देवी कंबल से ढंकी मुंदी बैठी थीं। चेहरे पर से कंबल हटाया उन्होंने। लम्बी आह भरकर बोलीं-"बेटों ने मेरी इच्छा का मान रखा। जानकी देवी चैरिटेबल ट्रस्ट की स्थापना की। जो कुछ मेरा और दीपक का था। वह ट्रस्ट में जमा किया। मेरा काम, समर्पण और त्याग देखकर कई अमीरों ने ट्रस्ट में दान दिया। ट्रस्ट का कार्यालय बद्रीनाथ में है और बद्रीनाथ क्या गढ़वाल के चारों धामों में यह ट्रस्ट तीर्थयात्रियों के लिए आवास, भोजन की व्यवस्था करती है। पहाड़ी बच्चों के लिए स्कूल भी है, योगा प्रशिक्षण केंद्र भी। अब तो दोनों बेटे भी इस काम में लग गए हैं। जड़ी बूटियों के फॉर्म हाउस में आयुर्वेद की दवाएँ बनाई जाती हैं। दवा के पैकेट, बोतलों पर दीपक आयुर्वेद नाम लिखा जाता है।"

"क्या आप बारहों महीने यहाँ रहती हैं माता?"

"नहीं नरोत्तम, भयंकर जाड़ों और बर्फबारी के दिनों में बेटे मुझे हल्द्वानी पहुँचा देते हैं। यह कुटिया भी तो उन दिनों बर्फ में समा जाती है।" कहते-कहते अचानक उनकी आँखें बंद हो गईं। रात आधी से अधिक बीत चुकी थी। बर्फबारी थम चुकी थी और हवाओं का अंधड़ भी।


नवंबर से गंगोत्री गोमुख तपोवन पूरा का पूरा बर्फ से ढँक जाता है। इस दुर्गम स्थल पर रहना तो क्या आना भी दूभर है। धीरे-धीरे तपोवन बर्फ की परतों में समाने लगा। नरोत्तम को भोजबासा जाना था। उसने जानकी देवी से आज्ञा माँगी-"माता आज्ञा दें। भोजबासा के लिए प्रस्थान करेंगे।"

"हम भी चलते हैं तुम्हारे साथ। बद्रीनाथ होते हुए हल्द्वानी चले जाएंगे। ट्रस्ट का कामकाज देखना है बद्रीनाथ में।" कहते हुए जानकी देवी ने चाय बनाई। सूरज की किरणों से नहाया हुआ पूरा इलाका स्वर्णमय हो उठा था। चाय पीकर दोनों गोमुख की उतराई उतरने लगे। रास्ते में कुछ नागा साधु मिले। वे निरंजनी अखाड़े के थे।

थोड़ी देर रुके आपस में बातचीत की और फिर वे चले गए।

रास्ता आसानी से कट जाए इसलिए नरोत्तम ने पूछा-"माता आप नागा अखाड़ों के विषय में जानती हैं?"

"हाँ जानती हूँ लेकिन बहुत सारे ऐसे अखाड़े हैं जिनके बारे में ज्यादा जानकारी नहीं है। जैसे अभी निरंजनी अखाड़े के नागा मिले थे। मैं निरंजनी अखाड़े के बारे में नहीं जानती। तुम बताओगे तो ज्ञान बढ़ेगा हमारा।"

" माता श्री निरंजनी अखाड़ा 826 ईसवी में गुजरात के मांडवी में स्थापित हुआ था। इनके इष्ट देव कार्तिकेय हैं। इनमें दिगंबर, साधु, महंत वा महामंडलेश्वर होते हैं। इलाहाबाद, उज्जैन, हरिद्वार, त्र्यंबकेश्वर, उदयपुर में इनकी शाखाएँ हैं।

माता हम जूना अखाड़े के हैं। जूना अखाड़ा 1145 में उत्तराखंड के कर्णप्रयाग में स्थापित हुआ। इसे भैरव अखाड़ा भी कहते हैं। वैसे तो माता, भगवान शंकर सभी नागाओं के इष्टदेव हैं। उन्हीं का रूद्रस्वरूप है भगवान दत्तात्रेय। वही जूना अखाड़ा के इष्टदेव हैं। ईश्वर की कृपा होती है तभी कोई नागा बनने का व्रत लेता है। हरिद्वार में माया देवी मंदिर के पास हमारा आश्रम है। थोड़ी ही दूरी पर जड़ी बूटियों से भरा घना जंगल। अहा आनंद ही आनंद है। माता कुंभ तो गई होंगी आप। "

जानकी देवी ने मुस्कुराते हुए नरोत्तम की ओर देखा।

"सारे कुंभ देख चुकी हूँ। अर्धकुंभ सिंहस्थ जिसे पूर्ण कुंभ भी कहते हैं।"

"तब तो आपने जूना अखाड़े के नागा साधुओं का शाही स्नान भी देखा होगा। पूरे कुंभ मेले में यह शाही स्नान आकर्षण का केंद्र रहता है। मेले में आए श्रद्धालुओं समेत पूरी दुनिया की साँसें उस अद्भुत दृश्य को देखकर थम जाती हैं।"

"यह तुम कैसे कह सकते हो?"

"जब हम नागा नहीं हुए थे तब की बात है माता। कुंभ मेले में हमने खुद महसूस किया। बड़ा आकर्षित करता था नागाओं का इतिहास... वर्षों पहले उनकी सैन्य भूमिका... जब-जब देश ने उन्हें पुकारा, यहाँ तक कि विदेशी आक्रमणकारियों से भी युद्ध लड़ने में वे पीछे नहीं हटे। 1260 ईस्वी में श्री महानिर्वाण अखाड़े के महंत भगवानन्दगिरी के नेतृत्व में 22 हज़ार नागा साधुओं ने कनखल स्थित मंदिर को आक्रमणकारी सेना के कब्जे से छुड़ाया था।"

भोजपत्र के पेड़ दिखने शुरू हो गए। नरोत्तम ने आँखें मूंदकर उन पेड़ों की खुशबू भर साँस खींचते हुए हाथ जोड़े-

"माता यहीं तक साथ था हमारा।"

"साथ तो कितना पुराना है और आगे तक कितना जाएगा ईश्वर ही जानता है।" कहते हुए जानकी देवी ने नरोत्तम के सिर पर हाथ रखा-"तुम मेरे पुत्र जैसे हो। पवन उनियाल के दोस्त हो न तुम। मंगल, मंगल सिंह?"

चौंक पड़ा नरोत्तम।

"मैं तो पहली बार में ही तुम्हें पहचान गई थी। बस एक बार दिल्ली में तुम्हें उमा जीजी के घर देखा था। उनकी बिटिया नेहा की शादी में।"

नरोत्तम तो सभी नाते रिश्ते को त्याग कर संन्यास की राह पर है। यह कैसा व्यवधान! यह कैसी स्नेह की झीनी-सी कड़ी प्रगट हुई कि जिस के कठोर बंधनों को वह त्याग आया था।

"मैं पवन की मौसी हूँ।"

नरोत्तम निःशब्द। जानकी देवी के प्रति बहुत करीब से भावनाओं की लहर-सी उठी। जिसे निर्ममता से झटक वह भोजबासा के पथरीले मुहाने पर खड़ा हो जानकी देवी से विदा ले रहा था-

"मंगल सिंह का श्राद्ध हो चुका माता, तर्पण हो चुका। यह तो नरोत्तम गिरी है। मंगल सिंह की राख से उपजा। फीनिक्स पक्षी के समान, नया-नया कलेवर, नया नाम, नई पहचान।" अचानक सामने पुरोहित जी आ गए। जानकी देवी की ओर देखकर उन्होंने दोनों हाथ जोड़े-"माता जी प्रणाम, रुकेंगी कुछ दिन यहाँ?"

"बस आज की रात, सुबह गंगोत्री के लिए प्रस्थान करूंगी। आज निर्मल बाबा के आश्रम में विश्राम।" "चलिए पहुँचा देते हैं आपको।" निर्मल बाबा का आश्रम नजदीक ही था। वैसे गढ़वाल मंडल का गेस्ट हाउस भी है पर जानकी देवी निर्मल बाबा के आश्रम में ही रुकती हैं। सफेद रंग का आश्रम दूर से ही लुभाता है। आश्रम के पीछे बर्फीले पर्वत ... जब दीपक पंत के साथ यहाँ आई थीं तो इन पर्वतों की ढलान पर रंग बिरंगे फूल खिले थे। लाल रंग की घास उगी हुई थी।

"नरोत्तम मिलते हैं फिर।" कहती हुई जानकी देवी पुरोहित जी के साथ आश्रम की ओर जाने वाली उतराई में उतरने लगीं। नरोत्तम गिरी उन्हें उतरता देखता रहा।

चेहरे पर आई उदासी उसने झटकनी चाही पर झटक न सका। उनके पति खाई में समा गए हैं। मंगल सिंह भी दफन है हजारों फीट गहरे समंदर भर जल की तलहटी में।


नरोत्तम गिरी थोड़ी ही देर में प्रकृतिस्थ हो गया। भोजबासा की जो गुफा उसने तप के लिए चुनी थी उसमें दो नागा साधु और थे। इत्तफाक से दोनों ही जूना अखाड़े के। अष्ट कौशल गिरि महंत और श्री महाकाल गिरि महंत।

"कहाँ से आ रहे हैं।" उसने दोनों नागा साधुओं से पूछा।

"सतपुड़ा के जंगलों से, रहे वहाँ साल भर। अब यहाँ तप करेंगे।" नरोत्तम गिरी ने दोनों साधुओं के साथ भोजबासा की गुफा में प्रवेश किया। गुफा के प्रवेश द्वार के निकट चबूतरे पर शिवलिंग था जिसके ऊपर भोजपत्र की छानी थी। श्रद्धालुओं द्वारा कुछ फूल, चना, चिरौंजी का भोग चढ़ाया गया था। गुफा में उनकी मुलाकात एक विदेशी महिला से हुई जो वहाँ पहले से डेरा जमाए थी।

जींस, पुलोवर कोट, कंधे तक सुनहरे बाल, कानों में हीरे के टॉप्स। कुल मिलाकर सौम्य व्यक्तित्व। सादगी भरा और प्रभावशाली। वह गुफा की दीवार से टिकी आराम से सिगरेट पी रही थी।

"आप यहाँ?"

नरोत्तम ने सवालिया नजरों से अंग्रेजी में पूछा। जवाब उसने शुद्ध धारा प्रवाह हिन्दी में दिया- "" ऑस्ट्रेलिया के सिडनी शहर से आई हूँ। मैं कैथरीन, कैथरीन बिलिंग नाम से लिखती हूँ। "

"आप राइटर हैं?" नरोत्तम ने पूछा। "...जी, भारत के नागाओं पर उपन्यास लिखना चाहती हूँ। आंकड़े जुटाने आई हूँ। इस विषय के।"

थोड़ी देर की खामोशी के बाद वह बोली-"मुझे पुरोहित जी ने बताया कि आप यहाँ आकर तपस्या के लिए निवास करने वाले हैं। इसलिए यहाँ रुकी। वैसे मैं गोमुख जाना चाहती हूँ और वेट कर रही हूँ फुल मून का ताकि पूर्णिमा की चाँदनी में वहाँ की खूबसूरती देख सकूँ।"

"अब तो माता बर्फ गिरनी शुरू हो जाएगी। रास्ते बंद हो जाएंगे। पूरनमासी तो चार दिन बाद है।" अष्ट कौशल गिरी महंत ने कहा।

तब तक श्री महाकाल गिरी और नरोत्तम गिरी ने लकड़ियाँ इकट्ठी कर धूनी जला ली थी। लकड़ियों की लपट से गुफा प्रकाशित हो स्पष्ट नजर आ रही थी।

"पर हम जाएंगे। हमें आदत है बर्फीले रास्तों पर चलने की। वही तो जिंदगी का थ्रिल है, चैलेंज है।"

कैथरीन ने दूसरी सिगरेट सुलगाई। उनकी ओर सिगरेट का पैकेट बढ़ाया-"आप पिएंगे?"

"हम चिलम पिएंगे। आपको भी पिलाएंगे, सिगरेट से चौगुना आनंद है चिलम में।" श्री महाकाल गिरी ने चिलम सुलगाई। तीनों ने बारी-बारी से सुट्टा लगाकर चिलम कैथरीन की ओर बढ़ा दी-"नहीं, धन्यवाद... मैं सिगरेट पी रही हूँ।"

थोड़ी देर में कैथरीन नागा साधुओं के बारे में उनसे पूछने लगी। वे भी सहजता से बताते रहे। तभी पुरोहित जी आए। वे शिवजी के मंदिर के पुजारी हैं और यात्रियों को भोजन आदि कराते हैं। नागा साधु जब यहाँ तपस्या करने आते हैं तो उनके भोजन की व्यवस्था वे ही करते हैं। यहाँ का सारा खर्च धर्मादा (चैरिटेबल ट्रस्ट) संस्थाएँ उठाती हैं। पुरोहित जी की कैथरीन से पहले ही बात हो गई थी कि वे उसके साथ जाएंगे। उन्हें रास्ते की जानकारी है। कैथरीन पूर्णिमा की रात अपना सफर शुरू करना चाहती है। ताकि चंद्रप्रकाश में शुभ्र ज्योत्सना की भव्य रोमांचकारी सुंदरता का दर्शन बर्फ के अद्भुत संसार में कर सके।

"चलिए आप सबके लिए खिचड़ी तैयार है। शिवजी का प्रसाद ग्रहण कर आप विश्राम करें।"

"और कैथरीन माता?"

श्री महाकाल गिरी उस गुफा में एक नारी के साथ रात बिताने की कल्पना से ही सकपका गए। "निश्चिंत रहें, वैसे तो यहाँ रुकने के लिए गढ़वाल मंडल का गेस्ट हाउस है। निर्मल बाबा का आश्रम है लेकिन इन्होंने गुफा के बगल में अपना तंबू लगवाया है। इतने दिनों उसी तम्बू में तो रह रही हैं माता।" कैथरीन खिल खिलाकर हंसी।

"ओsss सन्यासी बाबा हम से घबराते हैं। मतलब आपका सन्यासी होना डाउटफुल है।"

सभी हँसने लगे। झेंप मिटाने को श्री महाकाल गिरी ने सफाई दी-"नियम है न माता। यही नियम है हमारा।"

खिचड़ी खा कर, कैथरीन अपने तंबू में चली गई। पुरोहित जी भी पता नहीं कहाँ गायब हो गए। दोनों नागाओं के साथ धूनी की गर्माहट में चिलम पीते हुए कुछ देर बिताकर नरोत्तम गिरी गुफा के कोने में जाकर सो गया।


सुबह 4: 00 बजे वह अपने दैनिक नियमों से फुरसत हो बर्फीले एकाकी पर्वत पर बैठकर जाप करने लगा। श्री महाकाल गिरि महंत और अष्टकौशल गिरि महंत भी भस्म लगाकर, शृंगार करके अन्य दो पर्वतों की ओर चले गए। दिनभर नरोत्तम गिरी ध्यानमग्न बैठा रहा। पूरे दिन बर्फ नहीं गिरी और हवाएँ मंथर गति से चलती रहीं।

लेकिन आज नरोत्तम ठीक से ध्यान नहीं लगा पाया। बीच-बीच में दुनियावी स्मृतियाँ उसके आगे बिजली-सी कौंधती रहीं। जानकी देवी की जीवन गाथा ने उसे कहीं तो विह्वल किया ही। जानकी देवी का स्मरण आते ही पवन याद आया, अम्मा, बाबूजी, रोली कीरत भैया और दीपा। दीपा की स्मृति को निर्ममता से झटक वह उठ बैठा। 14 वर्ष हो गए। जब वह सर्वांग बदल गया तो वहाँ भी तो सब कुछ बदल गया होगा। उसने फिर ध्यान लगाने की कोशिश की। आज के दिन का अंतिम ध्यान... सूरज पल भर को झलका मानो विदा बेला का समागम कर रहा है। पर्वतों पर हल्की-सी किरणें बिखरीं। फिर सब कुछ स्लेटी झुटपुटे में परिवर्तित हो गया। संध्या वंदन कर वह गुफा में लौटा तो कैथरीन को उसी वक्त तंबू से निकलते देखा। वह उसे देख कर मुस्कुराई।

"नहीं गिरी न बर्फ? गिरेगी भी नहीं।" पूर्णिमा के बाद ही गिरेगी। मेरा कैलकुलेशन कहता है। "

"आप ज्योतिषी हैं?"

"नहीं, लेकिन मौसम की जानकारी रखती हूँ।"

कहते हुए वह सिगरेट सुलगाकर धूनी के निकट बैठ गई-"आज मेरा एक सवाल है आपसे, बाबा नरोत्तम गिरि महंत जी से।"

"हाँ पूछिए।"

वैसे भी आज का दिन व्यर्थ जा रहा है, मन ही मन सोचा नरोत्तम ने।

"आप निर्वस्त्र क्यों रहते हैं? इस आदिम रूप में आपको मौसम की परवाह नहीं। खाने पीने की इच्छा नहीं। यह कैसे संभव है?"

नरोत्तम कैथरीन के चेहरे को गौर से देखते हुए उसके सवालों को गुनने लगा।

"क्या करिएगा जानकर। इसके लिए संन्यास जीवन का मंथन करना होगा। हमारे शरीर को नागा बनने की प्रक्रिया और कठोर अनुशासन से जो दृढ़ता मिली है उस पर मौसम का क्या असर होगा। इस शरीर को न ठंड सताती है, न गर्मी, न बर्फबारी, न बारिश, न ओले। यह सब तब सताता है जब मनुष्य को अपने शरीर की अनुभूति हो। जब अनुभूति नहीं तो वेदना कैसी? आप शरीर की सुरक्षा के लिए कपड़े पहनती हैं। इस जमा देने वाली ठंड में अपने शरीर को भारी गर्म ऊनी कपड़ों से ढँक रखा है फिर भी आप काँप रही हैं। हमें शरीर का ही एहसास नहीं तो शरीर की सुरक्षा के उपाय क्यों?" "लेकिन आप अपनी इंद्री को भी खुला रखते हैं। मैं विपरीत सैक्स, क्या आपको मुझे देखकर कोई अनुभूति नहीं हो रही?"

नरोत्तम की आँखों में धर्म और आस्था के शोले सुलग उठे।

"यह इंद्री भी शरीर का ही एक अंग है। अब मृत है। कामेच्छा से परे।" कैथरीन विस्मित आँखों से उसे देखती रही।

"मृत? मृत कैसे?"

"लिंग भंग संस्कार हर नागा का होता है। कोई भी नागा इससे अछूता नहीं है। यह ईश्वर की ओर बढ़ने की प्रथम सीढ़ी है। स्वयं का त्याग करो। त्याग से तप और तप से ईश्वर प्राप्ति।"

"बड़ा दर्दनाक होता है माता यह संस्कार।" पुरोहित जी के कहने पर कैथरीन पहले चकित फिर रोष में आ गई।

"यह कैसा संस्कार? यह तो अमानवीय ही नहीं बल्कि ईश्वर का अपमान भी है। ईश्वर ने जिसे पुरुष बनाया उसे नपुंसक बनाना क्या प्रकृति और ईश्वर का अपमान नहीं है? आप एक अच्छे खासे व्यक्ति के पूर्णत्व को अपूर्णता में बदल देते हैं। लाचार कर देते हैं उसे। क्या आप सब तप से अपनी इंद्री को वश में नहीं रख सकते? क्या ऐसा करके आपके तप की ओर बढ़े कदम लड़खड़ा नहीं जाते? यह कैसा तप?"

गुफा में सन्नाटा छा गया। कैथरीन ने नागा प्रक्रिया को ललकारा है। मगर कथन उसका ध्यान देने योग्य है। इस बात पर कभी विचार क्यों नहीं किया उन्होंने।

तीनों साधु कुछ कह सकने की स्थिति में स्वयं को नहीं पा रहे थे। कैथरीन ने ही उन्हें उबारा।

"खैर... यह नागा संस्कार से जुड़ा कर्म है। इस पर अधिक प्रश्न, अधिक संदेह ठीक नहीं है। धर्म से जुड़ी हर अमानवीय घटना पर अपने आप ताला लग जाता है। मुस्लिम धर्म में सुन्नत, अफ्रीकी देशों में स्त्रियों की अमानवीय तरीके से की गई सुन्नत सभी को धर्म में शामिल कर लिया गया है। मैं इन सभी अमानवीय स्थितियों का विरोध करती हूँ। विरोध मेरा अपना है। जरूरी नहीं कि वह किसी संप्रदाय पर आरोपित हो। चलिए एक छोटा-सा सवाल, भूख, प्यास जो नैसर्गिक जरूरत है वह क्यों नहीं सताती आप को?"

"नियम है माता, 24 घंटे में बस रात्रि भोजन ही। जब हम तप करते हैं तो इस आवश्यकता को भी महसूस नहीं करते।" महाकाल गिरी ने शंका का समाधान किया।

"बहुत खूब।" कैथरीन ने देखा

नरोत्तम गिरी का चेहरा थोड़ा बुझ-सा गया था।

"आप मेरे सवालों से थके तो नहीं? मैं और भी ज्यादा जानना चाहती हूँ।"

"पूछिये न।"

क्या महिलाएँ भी नागा साधु होती हैं? फिर वे परंपरानुसार बिना कपड़ों के कैसे रहती होंगी? "

"होती हैं न। महिलाएँ भी नागा साधु होती हैं। लेकिन वे पूर्णतया नग्न न होकर गेरुआ वस्त्र लपेटे रहती हैं। उन्हें बिना वस्त्रों के शाही स्नान करना भी वर्जित है। हमारे पंच दशनाम जूना अखाड़ा ने प्रयागराज कुंभ में 60 महिलाओं को नागा बनने की दीक्षा दी।"

"उनके घरवाले विरोध नहीं करते?"

कैथरीन की जिज्ञासा प्रबल थी। "इस बात का पता दीक्षा देने के पहले लगा लिया जाता है। उनकी सारी जानकारी जांच पड़ताल करके ही दीक्षा दी जाती है लेकिन उसके पहले उन्हें सन्यासी जीवन 12 वर्ष तक बिताना पड़ता है, विभिन्न प्रक्रियाओं से गुजरना पड़ता है। पूर्णतया नागा साधु बनने में 12 वर्ष लगते हैं। फिर चाहे वह स्त्री हो या पुरुष। महिलाएँ अपनी इच्छा अनुसार अखाड़े का चयन करती हैं। चुने गए अखाड़े के महामंडलेश्वर उन्हें दीक्षा देते हैं। उन्हें अखाड़े की परंपरानुसार पूरे विधि-विधान से मुंडन करा के गोमूत्र, दही, भस्म, गोबर, चंदन और हल्दी से दशविधि स्नान कराया जाता है। फिर गंगा में डुबकी लगाकर पाप मुक्त हो वे पवित्र हो जाती हैं। एक समय भोजन, भूमि शयन का उम्र भर का व्रत लेना पड़ता है। विजया हवन संस्कार के बाद तीन चरण की प्रक्रिया से गुजरने के बाद मौनी अमावस्या को उनका पहला शाही स्नान होता है। समझ में आ रहा है न कैथरीन देवी जी?"

"जी सब कुछ समझ गई।"

"कहीं आप नागा बनने का तो नहीं सोच रहीं?"

कैथरीन ठहाका मारकर हंसी।

"श्री नरोत्तम गिरि महंत जी, संसार से भागेंगे तो ईश्वर को कैसे पाएंगे।"

कैथरीन की यह बात गहरे चुभ गई नरोत्तम गिरी को।

"फिर तो तप ही करते रह जाएंगे और तप करके भी ईश्वर न मिले तो कहाँ जाएंगे।"

तभी पुरोहित जी खिचड़ी लेकर आ गए। महाकाल गिरी और अष्ट कौशल गिरी भी आ गए थे। पत्तलों में खिचड़ी परोसी गई। खिचड़ी के साथ चार-चार पूड़ी और आलू मटर की सब्जी भी थी। कुल्हड़ों में मेवे मिश्रीवाला गरमा गरम दूध और दोने में सूजी का हलवा।

"आज भोजन की इतनी व्यवस्था?"

"आज द्वारिका से एक भक्त निर्मल बाबा के आश्रम में मन्नत पूरी होने के उपलक्ष्य में भंडारा करा रहे हैं। वहीं से आया है यह सब।" कैथरीन तो पूड़ी सब्जी पर टूट पड़ी। वह बहुत आश्चर्य से दोना पत्तल देख रही थी। वृक्ष के पत्तों को बारीक टूथपिक से जोड़ा गया था। जिस पर परोसा हुआ भोजन बहुत स्वादिष्ट था।

"आप लोग यही खाते हैं।"

"वैसे तो प्रत्येक नागा शाकाहारी नहीं होता लेकिन हम पूर्ण शाकाहारी हैं। जो हमें दान या भिक्षा में मिल जाता है खा लेते हैं। हमारे लिए भोजन की व्यवस्था करने में कभी कोई पीछे नहीं हटता। हमें ईश्वर का भेजा दूत मान हमारा ध्यान रखा जाता है और फिर हम से किसी को कोई व्यवधान भी तो नहीं होता। हम तो कभी शहरों में गाँवों में रहते ही नहीं। हमारा निवास जंगल, पर्वत, गुफा में रहता है।"

अष्टकौशल गिरी भोजन समाप्त कर गरमा गरम दूध की घूँट लेते हुए कैथरीन को बतला रहे थे।

"जिंदगी का असली आनंद प्राकृतिक परिवेश में ही है, अष्ट कौशल गिरी जी। ऑस्ट्रेलिया में बड़े खूबसूरत जंगल हैं। जो हम जैसे साधारण मनुष्यों की सैर के लिए हैं।"

"आप साधारण नहीं हैं माता, भले आप हम जैसी साधु नहीं हैं पर लेखक तो हैं। लेखक की कलम में संपूर्ण ब्रह्मांड रहता है।"

कैथरीन खुश हो गई "आहा कितनी सुंदर बात कही आपने। चलिए इसी बात पर एक निवेदन तो कर ही सकती हूँ कि कभी हमारे देश भी आइए। देखिए वहाँ के जंगल, प्राकृतिक छटा। देखिए ऑस्ट्रेलियन सरकार के पर्यटन विभाग ने किस तरह उन जंगलों को पर्यटन के लायक बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ी है। पूरा जंगल लकड़ी की रेलिंग लगे पुल नुमा रास्ते से आप पार कर सकते हैं। ऊपर घने दरख़्तों की डालियाँ पुल पर चंदोवे-सी तनी हैं। जंगली फूल झड़ते रहते हैं पुल पर। बड़ा रोमांटिक माहौल रहता है।"

' वाह अद्भुत दृश्य खींचा आपने मानो हम स्वयं वहाँ विचरण कर रहे हों। " पुरोहित जी की आँखें चमकने लगीं। लेकिन तीनों साधु निर्विकार बैठे रहे। ठीक भी तो है वे जंगलों में तप करने जाते हैं। जंगली सौंदर्य देखने नहीं।

लेकिन पुरोहित जी आनंद के अतिरेक में थे। क्या कैथरीन उन्हें बताए कि मीलों फैले उस जंगल की सैर केबल कार से की जा सकती है जो घाटी, झरने और पहाड़ों की सैर कराती है। वहाँ एक विशाल झरना कई स्टेज से नीचे उतरता है। कोटनबा रेल है जो ऊँचाई से घाटी में उतरती है जैसे पहाड़ी झरना। यह रेल उस अँधेरी गुफा से भी गुजरती है जिसकी छत से निरन्तर पानी टपकता है। क्या इस रोमांचक सफर का वर्णन सुनना साधुओं के लिए वर्जित है? अभी-अभी जिस स्वादिष्ट भोजन के स्वाद को उसने जिंदगी में पहली बार चखा है वैसा भोजन तो नहीं पर यह जंगल के बीचोंबीच बने ब्लू माउंटेन रेस्त्रां में गोल-गोल घूमते हुए, जंगल के चारों ओर के खूबसूरत नजारों को देखते हुए उसने बीस पच्चीस किस्म के भोजन को जरूर ग्रहण किया है, स्वाद लिया है। समुद्र सतह से हजारों फीट ऊपर बसे ब्लू माउंटेन रेस्त्रां तक भोजन सामग्री पहुँचती कैसे है, कई बार सोचा है कैथरीन ने। लगभग उतनी ही ऊँचाई पर है भारत में गढ़वाल के चारों धाम। पर वहाँ सिर्फ आलू के पराठे और गाजर का अचार ही उसे खाने मिला। उसे अपने देश पर गर्व है। लेकिन भारत के आध्यात्म का कोई सानी नहीं।

कैथरीन ने देखा अष्टकौशल गिरी महंत और महाकाल गिरि महंत विश्राम के लिए चले गए थे। पुरोहित जी भी अपना काम निपटाकर उसे शुभरात्रि कह कर चले गए थे।

नरोत्तम गिरी ने चिलम समाप्त की और कैथरीन की ओर देखते हुए कहा-"आप भी विश्राम करें देवी कैथरीन। सुबह आपको गोमुख के लिए प्रस्थान करना है।"

धूनी की लपटें तेज़ थीं जिनकी लपट का प्रतिबिंब नारंगी उजास सहित गुफा की दीवारों पर नर्तन कर रहा था। नरोत्तम नागा उस तरफ पीठ किए दिव्य आकृति-सा नजर आ रहा था।

"क्या मैं आपका स्कैच बना सकती हूँ नरोत्तम गिरी?"

कैथरीन ने झिझकते हुए कहा। समय काफी हो चला था और उसे और नरोत्तम गिरी को सुबह जल्दी उठ जाना था। लेकिन इस समय गुफा में लपटों के नर्तन के सँग वह जो नरोत्तम गिरी का इंद्रजाल में उभरा स्वरूप देख रही थी उसे मिस करना नहीं चाह रही थी।

"आप चित्रकार भी हैं?"

"नहीं बिल्कुल भी नहीं, लेकिन आद्या है। मैं उसे इस दृश्य को थोड़ा-सा स्केच बनाकर दिखाऊंगी तो वह बहुत सुंदर हूबहू चित्र बना लेगी। वह फैब्रिक पेंटिंग भी करती है। सिडनी में हमारे रेडीमेड कपड़ों का बिजनेस उसकी फैब्रिक पेंटिंग के कारण बहुत पसन्द किया जाता है।"

कहते हुए कैथरीन ने शोल्डर बैग से स्केचबुक निकाली। नरोत्तम गिरी के मन में आद्या को लेकर जिज्ञासा तो उठी थी पर वह शांत रहा।

"बस आप 15 मिनट इसी पोजीशन में बैठे रहे। हिलिएगा मत।"

नरोत्तम गिरी को तो आदत थी एक ही आसन पर बैठे रहने की। बल्कि वह पूरा-पूरा दिन तप करते हुए एक ही आसन, एक ही मुद्रा में बैठा रहता था। कैथरीन तन्मयता से स्कैच बनाने लगी। उसका हाथ सधा हुआ था और रेखाओं पर पकड़ भी मजबूत थी। स्कैच पूरा कर उसने स्कैचबुक नरोत्तम गिरी की ओर बढ़ाई-"लीजिए बन गई, देखिए।"

नरोत्तम ने उन रेखाओं में स्वयं को भी पाया। चित्र की रेखाओं में वह अपना व्यक्तित्व साकार पा रहा था। कैथरीन ने उसके दिव्य स्वरुप को रेखाओं में समेट दिया था-"लग रहे हैं न भव्य व्यक्तित्व के मालिक। जैसे कोई रोमन सम्राट हो जो राजपाट त्याग कर गुफा में तप कर रहा हो।"

"आपकी दृष्टि है देवी कैथरीन जो पत्थर को हीरा समझ रही हैं। अब हम तो भोले भंडारी को समर्पित हैं। स्वयं का त्याग करके।"

नरोत्तम गिरी ने कहा तो तपस्वी की भाषा में था लेकिन कैथरीन को लगा जैसे नरोत्तम गिरी के मन की कहीं दबी, छुपी पीड़ा ने अचानक उछाल मारी है, उस उछाल ने कैथरीन को भी डिस्टर्ब कर दिया है।

स्कैच बुक नरोत्तम गिरी से लेते हुए वह कोमल लता-सी काँप रही थी। उसकी आँखों में एक सूरज सरे रात्रि उग आया था जिसके उजास में वह अपनी जिंदगी के खुशरंग रंगों की परछाइयाँ देख रही थी। वहाँ त्याग था यहाँ ग्राह्य। दोनों के संघर्ष में न जाने किसकी विजय होगी। कैथरीन उठी, नरोत्तम गिरी भी उठा।

लपटों का नर्तन भी निढाल हो चुका था। गुफा के द्वार से तेज हवाएँ बिना रोक टोक अंदर आ रही थीं। कैथरीन ने कोट के कॉलर कान तक चढ़ाकर स्कार्फ बाँध लिया। नरोत्तम गिरी गुफा के द्वार तक आया-

"आपकी गोमुख यात्रा शुभ हो। शुभ रात्रि।"

"शुभरात्रि नरोत्तम गिरी मिलती हूँ गोमुख से लौटकर।"


कैथरीन की भविष्यवाणी के अनुसार चार दिन न बर्फ गिरी न हवाएँ चलीं। गुनगुनी धूप से दिन भर भोजबासा स्नान करता रहा।

गोमुख जाने के लिए कैथरीन का सामान नन्दू ने पीठ पर लादा। पुरोहित जी साथ चलना चाहते थे। पर कैथरीन ने मना किया-"नन्दू है न रास्ता दिखाने को। फिर आपको साधुओं के लिए भोजन भी पकाना पड़ता है। मैं दो दिन रुकुँगी वहाँ। पूर्ण चंद्र का आनंद लेकर परसों लौट आऊँगी। अभी तो बहुत सारे प्रश्न नरोत्तम गिरि महंत जी से पूछने हैं। प्रणाम पुरोहित जी, चलती हूँ।"

वह गोमुख के रास्ते में थोड़ी देर में अदृश्य हो गई। रात्रि को तीनों नागा साधु उसी के विषय में बात करते रहे। महाकाल गिरी ने कहा-"कैथरीन माता एकदम संस्कृत निष्ठ धाराप्रवाह हिन्दी बोलती हैं।"

"हाँ, जिज्ञासु भी बहुत हैं।"

"ज्ञानी भी हैं। मौसम विशेषज्ञ हैं, उन्होंने कहा था पूर्णमासी के बाद बर्फ गिरेगी। देखो कैसी खिली है चाँदनी जैसे आकाश से चाँदी की वर्षा हो रही हो।"

तीनों गुफा से निकलकर थोड़ी देर चाँदनी का आनंद लेते रहे। फिर विश्राम के लिए गुफा में आ गए।


भोजबासा का मौसम वैसे तो कड़ाके वाली सर्दी का था लेकिन बर्फ न गिरने से तापमान में थोड़ी गिरावट थी। सफेद छाल के तने वाले भोजपत्र के पेड़ बर्फीले साम्राज्य में मानो चित्रकारी-सी कर रहे थे स्वयं के वजूद की। दूर-दूर तक हरियाली का नामोनिशान नहीं। पर्वतों पर भेड़ों का रेवड़ भी अब दिखाई नहीं देता। चरवाहे मैदानी इलाकों में उतर गए हैं। जब बर्फ पिघलेगी तब वे अपने ठिकानों पर लौट आएंगे। मौसम ने मनुष्य को अपना गुलाम बना लिया है। पर नागा साधु मौसम के गुलाम नहीं। एक अदद शरीर के मालिक अवश्य हैं लेकिन शरीर की आवश्यकताओं, अनुभूतियों से परे हैं वे।

लेकिन कैथरीन बिना संन्यास लिए ही मौसम की गुलामी से कोसों दूर कैसे है? सोच रहा था नरोत्तम ...धूनी की आँच बीच-बीच में धुँआ देने लगती। आँखें चिरमिराने लगतीं। जब धूनी में शोले भड़कते तो नरोत्तम की आँखों में भी शोले दिखाई देने लगते। न जाने कौन-सी सिद्धि उस ने पाली थी कि आग के तेवरों का हमसफर हो गया था।


कैथरीन नन्दू के पीछे-पीछे शुभ्र चाँदनी में चली जा रही थी। दाहिनी ओर आकाश को छूते पर्वत और बाईं ओर हजारों फीट गहरी खाई। खाई में गहन अंधकार।

"मैडम जी खाई की तरफ मत देखिए। चक्कर आ जाएगा।" नन्दू ने सलाह दी।

"नंदू रुको, थोड़ी कॉफी पी लें।" दोनों पर्वतों के किनारे पर रुके। नंदू ने पीठ पर लदे बैग में से थर्मस निकाला। दो मगों में कॉफी डालते हुए बोला-"हमारे पुरोहित जी कॉफी अच्छी बना लेते हैं।"

कॉफी जल्दी-जल्दी पीने के बावजूद अँतिम घूँट ठंडी हो चुकी थी। लेकिन शरीर में गर्मी का संचार हो चुका था। रात ग्यारह बजे वे गोमुख पहुँचे। कैथरीन की आँखें उस अनुपम सौंदर्य को देखकर क्षण भर को स्तब्ध रह गईं। आकाश में एक भी बादल का टुकड़ा न था केवल चाँद था। इतना खूबसूरत, मनमोहक... चाँदी का बड़ा-सा थाल। चाँद से झरती चाँदनी ने गोमुख में तिलिस्म रच दिया था। गोमुख ग्लेशियर बिल्कुल गाय के मुख जैसा। मुख में भागीरथी की पतली धारा थोड़ा विस्तार पाकर छलक उठी है। चौड़ाई पाते ही कितने तेज़ बहाव में बह रही है।

नंदू और कैथरीन ने मिलकर तंबू लगाया। सामान अंदर रखा और वह बाहर चहलकदमी करने लगी। थोड़ी देर बाद तंबू के सामने बैठकर चाँद को निहारने लगी। निहारते हुए बुदबुदाई

" चाँद नीचे आओ न, इस स्वर्ग में। पर तुम बहुत अनुशासित हो। सत्ताइस पटरानियाँ हैं तुम्हारी। पर तुम तो केवल रोहिणी के प्रेम में आसक्त हो। ऋषि अत्रि और अनुसूया के पुत्र और राजा दक्ष की सत्ताइस पुत्रियों के पति। लेकिन डूबकर प्रेम किया तुमने रोहिणी से। तुम्हें पता है न तुम्हें देखकर प्रेमी युगल रोमांस में डूब जाते हैं। खलबली मचा देते हो तुम उनके हृदय में। न जाने कितनी बार तुम तिरस्कृत हुए, शापित हुए। अपनी पूर्णता को खोकर शुक्ल और कृष्ण पक्ष में बंट गए।

हिंदू माइथोलॉजी में इतिहास रच दिया चाँद ने। लेकिन प्रेम का क्या प्रतिदान मिला? सोलह कलाओं में बंटकर बस एक दिन की पूर्णता पाई। कैथरीन को भी अपने प्रेम में पूर्णता नहीं मिली। लेकिन इसके लिए वह प्रवीण को दोषी नहीं मानती क्योंकि उसने स्वयं अकेलेपन की राह चुनी।

कितना अद्भुत है चाँद। वह

देखना चाहती थी शिव की जटाओं में अटका चाँद। मगर कैसे? ग्रहण लगा चाँद तो कई बार देख चुकी है। कितना एकाकी है चाँद। सत्ताइस पत्नियों के बावजूद पूर्व से पश्चिम तक का सफर रोज रात को उसे अकेले ही तय करना पड़ता है। हिंदू माइथोलॉजी जिज्ञासा जगाती है। आकाश के हर ग्रह, नक्षत्र, चाँद, तारे, सूरज सब का मानवीकरण करके उन्हें मानव के और निकट लाती है। कितना विस्मयकारी है कि सूर्य का आव्हान किया कुंती ने। सूर्य जो नव ग्रहों का राजा है। पृथ्वी से 14 करोड़ 94 लाख किलोमीटर दूर की किरणों को धरती तक पहुँचने में 8 मिनट 17 सैकेंड लगते हैं। उनके आवाहन करते ही पल भर में उसके पास पहुँचा और इस मिलन से कर्ण जैसा तेजस्वी पुत्र उत्पन्न हुआ। कैसे संभव है यह! सूरज की दूरी का गणित नासा के वैज्ञानिकों ने आँका लेकिन हनुमान चालीसा में तो पहले ही लिख गए तुलसीदास

जुग सहस्र जोअन (योजन) पर भानु

लील्यो ताहि मधुर फल जानू

अर्थात हनुमान जी ने एक युग सहस्र योजन की दूरी पर स्थित भानु अर्थात सूरज को मीठा फल समझकर खा लिया था।

ओह अनंत है हिंदू माइथोलॉजी। विश्वास तो करना पड़ेगा। नरोत्तम गिरि महंत वेल एजुकेटेड, साधु बनकर निर्वस्त्र इन बर्फीले पर्वतों पर तप कर सकता है तो विश्वास तो करना पड़ेगा।

पूरी रात चाँद गोमुख को अपने आगोश में लिए रहा। गोमुख ग्लेशियर सौंदर्य का पर्याय बन गया। इसी रात की प्रतीक्षा में कैथरीन ने चाँद का 15 दिन इंतजार किया है गढ़वाल के चारों धाम में। आज उसका स्वप्न उसकी मनोकामना पूरी हुई।

रात के अंतिम प्रहर में वह तंबू में आ कर लेट गई। वह चाँद को अपने बाजू में महसूस करती रही। उसे लगा वह चाँद को सहला रही है। चुंबन के लिए उसने होठ खोले हैं पर चाँद आसमान में लुढ़क गया। वह हँसती रही, देर तक हँसती रही। उसकी खूबसूरत हँसी गोमुख पर बेला के फूल-सी बिखर गई।

पश्चिम में जब चाँद ने सूर्य को रास्ता दिया, सूर्य पूर्व की ओर चलने लगा। वादियाँ सुनहरी आभा में सराबोर हो गईं। तब कैथरीन ने नंदू के साथ भोजबासा के लिए प्रस्थान किया।

भोजबासा की गुफा में कोई न था। पुरोहित जी चूल्हे पर बड़ा-सा पतीला रखे खिचड़ी का बघार तैयार कर रहे थे।

तप, संध्या वंदन आदि करके नरोत्तम गिरी, महाकाल गिरी और अष्टकौशल गिरी ने गुफा में प्रवेश किया। कैथरीन लौट आई है इसका भान उन्हें तम्बू देखकर ही हो गया था।

धूनी को घेर कर सब बैठ गए।

"आपका अनुमान सही निकला माता। बर्फबारी नहीं हुई।"

कैथरीन ने नंदू को तम्बू से सिगरेट का डिब्बा लाने भेजा-"हाँ, प अभी दो दिन और नहीं होगी। वैसे भी इस बार अधिक स्नोफॉल नहीं होगा। पूरी पृथ्वी का मौसम बदल रहा है।"

कैथरीन धूनी के सामने पैर पसार कर बैठ गई।

उसने सिगरेट का टिन नन्दू से ही खुलवाया-"यह मेरे मित्र ने वर्जीनिया से भेजा है। इन सिगरेटों में भरी तम्बाखू की खुशबू मुझे बहुत पसंद है। आज आप भी ट्राई करिए।"

"वैसे तो हम चिलम गांजा सेवी हैं। पर आपका आग्रह है तो ले लेते हैं।"

महाकाल गिरी ने टिन में से तीन सिगरेट निकालीं और धूनी के अँगारे को चिमटे से पकड़ सिगरेट सुलगाने लगा। नरोत्तम गिरी ने नहीं सुलगाई। वह चिलम पीने में ही व्यस्त रहा।

"आपके देश में साधु सन्यासी नहीं हैं?"

"मुझे पता नहीं, शायद नहीं। आज मेरा सवाल इसी बात को लेकर है कि आप सन्यासी क्यों हैं? हर बात की कोई न कोई वजह होती है। कभी प्रेम में हार, कभी रिश्तो की बेकद्री, कभी सोची हुई मंजिल न पाना या कभी जिज्ञासा। केवल जिज्ञासा।"

जानना चाहती थी कैथरीन। जवाब ने तीनों को सोच में डाल दिया। दोनों नागाओं का तो उसे पता नहीं पर अपना जानता है नरोत्तम गिरी। पर बताना नहीं चाहता।

"ईश्वर की जिन पर कृपा होती है वही बनता है सन्यासी। सन्यासी साधना करता है।" अष्ट कौशल गिरी ने कहा।

"आप क्यों करते हैं साधना? क्या मिलता है उससे?"

"हम कुछ पाने के लिए साधना नहीं करते। इस सृष्टि के तंत्र को चलाने के लिए हम साधना करते हैं। हम साधना करते हैं कि सबका कल्याण हो। इसके लिए हम खुद को समाप्त कर देते हैं। सारी विषय वासना को लोभ, मोह को। विषय में पड़कर तो मनुष्य विषय भोगी हो जाता है।" अष्ट कौशल गिरी ने कैथरीन की बात का समाधान करना चाहा।

"आपको पता है इस संसार में कितने ही ऐसे लोग हैं जो बिना साधना तपस्या के भी तप में लीन हैं। उसके लिए सामाजिक जीवन का परित्याग क्यों?"

"आपकी बात सोलह आना सच है माता। पर एक बिंदु पर आकर वह भी अटक जाती है। क्या आप साधु सन्यासी जीवन बिना साधु सन्यासी हुए जी सकती हैं?"

"जी सकती हूँ।" कैथरीन ने बड़ी सहजता से कहा-"अभ्यास करना पड़ेगा। अभ्यास से कुछ भी अ, सँभव नहीं।"

आज नरोत्तम गिरी को लग रहा है कोई उसे छिलका-छिलका छील रहा है। जैसे कोई परत दर परत एहसास करा रहा हो कि तुमने अपने जीवन के 14 वर्ष जिस तप साधना में बिताए, साँसारिक जीवन में उसका कोई मूल्य नहीं है। मूल्यवान वह है जिसे पाने की ललक दूसरों में जागे। सोना भी तो तपकर, पिघलकर, कुटकर, छिद कर पाए अपने आकार से लोगों को लुभाता है। नागा साधु किसे लुभाता है! कौन साँसारिक व्यक्ति नागा साधु होना चाहेगा! उनके लिए नागा साधु जिज्ञासा का और निर्वस्त्र रहने के कारण हँसी का पात्र भी है। नागा सिर्फ कुंभ में ही दिखाई देते हैं। फिर कहाँ विलुप्त हो जाते हैं किसी को ज्ञात नहीं। नरोत्तम गिरी को लगा जैसे जिंदगी का सूत्र उससे छूटा जा रहा है। जैसे वह अंधी खोह में गिरता जा रहा है। हे भोले भंडारी, रक्षा, इस कैथरीन रूपी छोटी-सी आँधी ने उसे झकझोर डाला है। हे मृत्युंजय, हे शिव अपने चरणों में स्थान दो। मेरी 14 वर्ष की साधना, तप...आह। आँधी छोटी-सी नहीं थी। आँधी बढ़ रही थी। इतने दिनों से सहेजे वृक्षों को उखाड़ने के लिए पुरजोर बढ़ रही थी।

"मेरा प्रश्न नरोत्तम गिरी से, नागा साधु बनने का उद्देश्य बताएँ।" नरोत्तम गिरी संभलता कि अष्ट कौशल गिरि महंत ने बीच में ही नागा साधुओं के उद्देश्यों को रेखांकित करना चाहा-"कई लोग हमसे यह सवाल करते हैं, कईयों को जिज्ञासा है कि नागा ऐसा क्या चमत्कार कर रहे हैं जिससे प्रभावित हुआ जाए? माता, आपने गुरु नानक का नाम सुना है?"

"सुना ही नहीं पढ़ा भी है। उन्होंने सिख पंथ की स्थापना की थी। एक बात और कहना चाहूँगी। आप मुझसे सवाल न करें। केवल मेरे सवालों का जवाब दें।"

अष्टकौशल गिरी समझ गया पाला किसी मामूली महिला से नहीं पड़ा है। यह उसके जवाबों में उसे कहीं भी पकड़ सकती है। वह सँभल कर कहने लगा-

" सिख पंथ की स्थापना का उद्देश्य था मुगल लुटेरों से भारतीय जनता को बचाना। उसके लिए गुरु नानक ने कुछ ऐसे वीरों को चुना जो दूसरों की रक्षा करते हुए अपने प्राणों की आहुति देने से पीछे न हटें। ठीक उसी समय आदि गुरु शंकराचार्य को भी सेना बनानी पड़ी। वह सेना नागा सेना कहलाई जिसने समय-समय पर विदेशी आक्रमणकारियों से देश की रक्षा करते हुए प्राणों की आहुति दी।

ईश्वर, धर्म और धर्म शास्त्रों को तर्क, शास्त्र और शस्त्र सम्मत सभी तरह की चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा था उन दिनों। ऐसे में आदि गुरु शंकराचार्य ने सनातन धर्म की स्थापना के लिए कई ऐसे कदम उठाए जिनमें से एक था देश के चार कोनों पर चार पीठों का निर्माण करना। गोवर्धन पीठ, शारदा पीठ, द्वारिका पीठ और ज्योतिरमठ पीठ। उन्होंने मठों और मंदिरों की संपत्ति को लूटने वालों और श्रद्धालुओं को सताने वालों का मुकाबला करने के लिए सनातन धर्म के विभिन्न सँप्रदायों की सशस्त्र शाखा के रूप में अखाड़ों की स्थापना की शुरुआत की। "

"वाह, बहुत बढ़िया जानकारी दी आपने। अब मैं नरोत्तम गिरि महंत से इन अखाड़ों के बारे में जानना चाहूँगी।" कैथरीन ने दूसरी सिगरेट सुलगा ली थी।

पुरोहित जी जड़ी बूटियों की बिना दूध की स्वादिष्ट चाय बना कर ले आए। चाय में से बहुत अच्छी खुशबू आ रही थी। पुरोहित जी भी अपनी चाय का कुल्लड़ लेकर वहीं बैठ गए।

"इस गुफा में सब अखाड़ों के नागा साधु आकर तप करते हैं।" पुरोहित जी ने चाय की घूँट भरते हुए कहा।

प्रश्न नरोत्तम गिरी महंत से किया गया था इसलिए उत्तर भी वही देने लगा।

"आदि गुरु शंकराचार्य को लगने लगा था कि सामाजिक उथल-पुथल के उस युग में केवल आध्यात्मिक शक्ति से ही इन चुनौतियों का मुकाबला करना काफी नहीं है। इसलिए उन्होंने वीर योद्धा तैयार किए। उनकी ट्रेनिंग के लिए जो मठ बने वही अखाड़े कहलाए। इन अखाड़ों में प्रशिक्षित वीर विदेशी आक्रमणकारियों से देश की जनता के लिए एक तरह का रक्षा कवच बन गए। कई बार राजा महाराजा भी विदेशी आक्रमण की स्थिति में उनसे सहयोग लेते थे। इतिहास में ऐसे कई गौरवपूर्ण युद्ध नागा योद्धाओं ने लड़े। भारत की आजादी के बाद इन अखाड़ों ने सैन्य चरित्र त्याग दिया और भारतीय संस्कृति और दर्शन के सनातनी मूल्यों का अध्ययन, अनुपालन करते हुए सँयमित जीवन बिताने का व्रत धारण किया।"

"बहुत महत्त्वपूर्ण जानकारी दी आपने। तो इस तरह अखाड़ों का जन्म हुआ हुआ। इस समय कितने अखाड़े हैं?"

"इस समय 13 अखाड़े हैं।"

" तेरह अखाड़े? आप किस अखाड़े के हैं?

"हम तीनों जूना अखाड़े के हैं। जूना अखाड़ा देश का सबसे बड़ा अखाड़ा है। इसमें चार लाख नागा हैं। यह अखाड़ा 1145 में उत्तराखंड के कर्णप्रयाग में स्थापित हुआ। हरिद्वार में माया देवी के मंदिर के पास हमारा आश्रम है।" "कर्ण प्रयाग? ओह ब्यूटीफुल प्लेस। मैं वहाँ दो दिन रही।"

"अरे बड़ी पुण्यभूमि है। आहा, अलकनंदा और पिंडर नदियों का सँगम। पिंडर को ही कर्ण गंगा कहते हैं।" पुरोहित जी गद्गद थे।

प्रयाग याने सँगम और कर्ण नदी, इसलिए वह स्थान कर्णप्रयाग कहलाया। "

इतनी देर से खामोश बैठे महाकाल गिरी ने कहा।

"पुरोहित जी आज के इस साक्षात्कार में बहुत आनंद आ रहा है। हमको चाय और पिलाइए... " " अभी लीजिए माता। पुरोहित जी के गुफा के बाहर जाते ही सर्द हवा की लहर आई। पल भर को धूनी की आँच ठंडी होती लगी। लेकिन फिर अँगारों के साहचर्य से सुलग उठी।

"आप तेरह अखाड़ों की बात कर रहे थे। मैं विस्तार से जानना चाहूँगी।"

नरोत्तम गिरि महंत से कहते हुए कैथरीन ने शोल्डर बैग में से डायरी निकाल ली।

"जी हाँ बताइए, मैं महत्त्वपूर्ण बातें नोट करती जाऊँगी।"

नरोत्तम गिरी ने पास रखे लोटे से जल पिया और कैथरीन की ओर देखते हुए बोले-

"पहला श्री निरंजनी अखाड़ा जो 826 ईसवी में गुजरात के मांडवी में स्थापित हुआ था। भगवान कार्तिकेय इन के स्वामी हैं। इनमें दिगंबर, साधु, महंत, महामंडलेश्वर होते हैं। इनकी शाखाएँ इलाहाबाद, उज्जैन, हरिद्वार, त्रंबकेश्वर, उदयपुर में हैं। दूसरा अखाड़ा..."

"आप नंबर मत बोलिए। मैं नंबर लिख कर ही अखाड़ों के बारे में लिख रही हूँ।" कैथरीन ने बीच में टोकते हुए कहा।

नरोत्तम गिरी मुस्कुराया-"अच्छा देवी।"

नरोत्तम गिरी को कैथरीन जैसी महिला पहले कभी नहीं मिली। जिज्ञासु, एकाग्रचित्त, कोमल किंतु कठोर भी। यह कोमलता और कठोरता उसके व्यक्तित्व को औरों से सर्वथा भिन्न बनाती है।

नरोत्तम गिरी विषय पर एकाग्र हुआ-"श्री महानिर्वाणी अखाड़े की स्थापना 671 ईसवी में हुई। लेकिन इस अखाड़े के स्थापना स्थल पर मतभेद हैं।"

"हाँ कुछ लोगों के अनुसार इसका जन्म झारखंड के बैजनाथ धाम में हुआ और कुछ के अनुसार हरिद्वार में नीलधारा के पास हुआ।" महाकाल गिरी ने बीच में अपनी जानकारी दी।

"और इस अखाड़े के आराध्य देव कौन है?" अभी तक मिली जानकारी के अनुसार कैथरीन इतना तो समझ गई थी कि हर एक अखाड़े के अलग-अलग आराध्य देव हैं।

"कपिल महामुनि हैं। इसकी शाखाएँ इलाहाबाद, हरिद्वार, उज्जैन, त्र्यंबकेश्वर, ओंकारेश्वर और कनखल में हैं। 1260 में महंत भगवानंद गिरी के नेतृत्व में बाइस हज़ार नागा साधुओं ने कनखल स्थित मंदिर को आक्रमणकारियों के कब्जे से छुड़ाया था।"

नरोत्तम गिरी जैसे सागर की लहरों में बहा जा रहा था। होठों से शब्द सहज प्रवाह में अपने आप निकल रहे थे जिन्हें कैथरीन कुशल खिलाड़ी की तरह कैच करती डायरी में सहेजती जा रही थी।

" 569 ईसवी में गोंडवाना में श्री अटल अखाड़े की स्थापना हुई। इनके इष्ट देव गणेश जी हैं। यह सबसे प्राचीन अखाड़ों में से एक माना जाता है। इसकी मुख्य पीठ पाटन में है लेकिन आश्रम कनखल, हरिद्वार, इलाहाबाद, उज्जैन और त्र्यंबकेश्वर में है।

श्री आव्हान अखाड़ा 646 में स्थापित हुआ और 1603 में उसका संगठन दोबारा हुआ। उनके इष्ट देव श्री दत्तात्रेय और श्री गजानन हैं। अखाड़े का केंद्र स्थान काशी है। आश्रम ऋषिकेश में भी है। "

"ओह, सैकड़ों वर्ष पुराने हैं ये अखाड़े तो।"

"हाँ माता और इन अखाड़ों में लाखों नागा साधु हैं।"

महाकाल गिरी ने कहा तो पुरोहित जी तपाक से बोले-"फिर भी दिखते नहीं कहीं।"

"चमत्कार है ये तो।" कैथरीन बेहद प्रभावित थी सारी बातों से। उसे लग रहा था जैसे वह कोई दूसरे लोक की सैर कर रही है।

अभी तक वह जिस चकाचौंध भरी दुनिया में रही है हालांकि निस्पृह होकर ही सही लेकिन वहाँ ऐसा कोई अनुभव उसे आज तक नहीं हुआ। आश्चर्य, ऐसी भी दुनिया होती है। मोह माया से मुक्त वह भी लाखों की संख्या में!

नरोत्तम गिरी आगे कहने लगा-

" श्री आनंद अखाड़े की स्थापना 855 ईस्वी में मध्यप्रदेश के बेरार में हुई। इसका केंद्र वाराणसी में और शाखाएँ इलाहाबाद हरिद्वार उज्जैन में हैं।

श्री पंचाग्नि अखाड़े की स्थापना 1136 ईसवी में काशी में हुई। इनकी इष्ट देवी गायत्री हैं। इन के सदस्यों में चारों पीठ के शंकराचार्य, ब्रम्हचारी, साधु और महामंडलेश्वर शामिल हैं। इनकी शाखाएँ इलाहाबाद, हरिद्वार, उज्जैन व त्र्यंबकेश्वर में हैं।

श्री नागपँथी गोरखनाथ अखाड़े की स्थापना 866 ईसवी में अहल्या गोदावरी संगम पर हुई। इनके संस्थापक पीर शिवनाथ जी हैं। इनके मुख्य देव गोरखनाथ हैं और इनमें बारह पँथ हैं। यह सँप्रदाय योगिनी कौल नाम से प्रसिद्ध है और इनकी त्र्यंबकेश्वर शाखा त्र्यंबकम मठिका नाम से प्रसिद्ध है।

श्री वैष्णव अखाड़ा 1515 में दारागंज में श्री मध्यमुरारी में स्थापित हुआ। समयानुसार इनमें निर्मोही, निर्वाणी, खाकी तीन सँप्रदाय बने। इनका अखाड़ा त्र्यंबकेश्वर में मारुति मंदिर के पास था। 1848 तक शाही स्नान त्र्यंबकेश्वर में गोदावरी नदी में हुआ करता था। फिर 1848 में शैव और वैष्णव साधुओं में झड़प हो गई कि पहले स्नान कौन करें। उस समय श्रीमंत पेशवा जी ने झगड़ा निपटाकर त्र्यंबकेश्वर के नजदीक चक्रतीर्था पर स्नान का परामर्श दिया। 1932 में ये नासिक में स्नान करने लगे। आज भी यह स्नान नासिक में होता है। "

"बहुत प्रधानता है आप लोगों में शाही स्नान की।"

" हाँ माता, शाही स्नान जो कुंभ में ही होता है। आप एक बार जरूर देखना। राजा महाराजाओं-सा ठाट बाट रहता है नागाओं का। उनके दर्शनों के लिए श्रद्धालुओं की भारी भीड़ उमड़ती है। कुंभ के अवसर पर नागा साधु व भक्तों का मिलन परमात्मा की ही देन है।

दो साल बाद प्रयागराज में होगा कुंभ। " महाकाल गिरि महंत ने बताया।

"प्रयागराज मतलब इलाहाबाद?" "हाँ, इलाहाबाद में ही है गंगा यमुना सरस्वती नदियों का संगम।"

"अच्छा, यहाँ गढ़वाल में भी तो कर्णप्रयाग जैसे और भी प्रयाग हैं। वहाँ भी नदियों का संगम होता होगा न?"

"हाँ माता, रूद्रप्रयाग, देवप्रयाग, कर्णप्रयाग, नंदप्रयाग, विष्णुप्रयाग। प्रयाग माने नदियों का संगम। अलकनंदा और भागीरथी के संगम पर है देवप्रयाग, मंदाकिनी और अलकनंदा के संगम पर रुद्रप्रयाग, अलकनंदा और भिंडर के संगम पर कर्णप्रयाग, मंदाकिनी और अलकनंदा के संगम पर नंदप्रयाग और अलकनंदा और धौलीगंगा के मिलन स्थल पर विष्णुप्रयाग है। नागा साधु क्या आम जनों के लिए भी इन प्रयाग तीर्थों में डुबकी लगाना पुण्य माना जाता है।"

"मैं तो इन आध्यात्मिक नामों को सुनकर ही पुण्य कमा रही हूँ।" "कितने अखाड़े मालूम कर लिए माता?"

कैथरीन से महाकाल गिरी ने मुस्कुराते हुए पूछा। उसके काले आबनूसी चेहरे पर सफेद दाँतों की पंक्ति झिलमिला उठी। नरोत्तम गिरी के उज्ज्वल रंग के साथ बैठा वह और भी अधिक काला दिख रहा था। मगर उसकी हंसी मोहक थी।

"हम श्री वैष्णव अखाड़े तक पहुँचे हैं। जो नौवाँ है। अब दसवाँ बताएंगे नरोत्तम गिरी।"

कैथरीन ने हल्की-सी अंगड़ाई ली और शॉल से कानों को ढक लिया। ठंड बढ़ रही थी। इस बीच कैथरीन ने एक बार भी सिगरेट नहीं पी।

नरोत्तम गिरी भी ध्यानमग्न था। इस बहाने वह अपनी याददाश्त को भी तरोताजा कर रहा था-

" दसवाँ अखाड़ा श्री उदासीन पँचायती बड़ा अखाड़ा है। 1710 में स्थापित हुए इस अखाड़े के संस्थापक श्री चंद्र आचार्य उदासीन हैं। मगर इनमें साँप्रदायिक भेद हैं। इनमें उदासीन साधु महंत व महामंडलेश्वरों की संख्या ज्यादा है। इनकी शाखाएँ प्रयाग, हरिद्वार, उज्जैन, त्र्यंबकेश्वर, भदैनी, कनखल, साहिबगंज, मुल्तान, नेपाल व मद्रास में हैं।

श्री उदासीन नया अखाड़ा 1710 में स्थापित हुआ। यह बड़ा उदासीन अखाड़ा के उस्तादों ने विभक्त होकर स्थापित किया। इसके प्रवर्तक महंत सुधीरदास थे। इनकी

शाखाएँ प्रयाग, हरिद्वार, उज्जैन, त्र्यंबकेश्वर में हैं। "

"यानी कि हर एक अखाड़े की एक शाखा स्वयंभू ज्योतिर्लिंग की नगरी में है?"

"जी हाँ माता। वही तो नागाओं के आराध्य देव हैं। विभिन्न अखाड़ों के नागा उन्हीं के विभिन्न रूपों की आराधना करते हैं।" महाकाल गिरी ने कहा। "

"आपने सुने हैं सभी ज्योतिर्लिंगों के नाम?"

"जी हाँ महाकाल गिरी जी। सुने ही नहीं बल्कि उनमें से कुछ देखे भी हैं। सोमनाथ, मल्लिकार्जुन, महाकाल, ओमकारेश्वर, केदारनाथ, भीमाशंकर, बाबा विश्वनाथ, त्र्यंबकेश्वर, वैद्यनाथ, नागेश्वर, रामेश्वरम, घृष्णेश्वर। इन बारह ज्योतिर्लिंगों में से मैंने सोमनाथ, , त्र्यंबकेश्वर, महाकाल, ओमकारेश्वर, घृष्णेश्वर और केदारनाथ देखे हैं। अपने देश जाने से पहले बाकी के देखने का भी मन है। पर इस बार समय कम है इसलिए अगली भारत यात्रा में देखूँगी।"

"वहाँ से तो माता बुलावा आता है तभी जाना होता है।"

कैथरीन हँस दी-"पुरोहित जी आप कितने क्यूट हैं।"

अगले दो अखाड़ों की जानकारी के लिए कैथरीन ने नरोत्तम गिरी की ओर देखा। नरोत्तम गिरी एक ही आसन मुद्रा में देर से बैठा था। इस बीच उसने जल भी नहीं पिया था। सचमुच महापुरुष है नरोत्तम गिरी। कैथरीन ने सोचा और कलम उठा ली।

नरोत्तम गिरी बारहवें अखाड़े के विषय में बताने लगा।

" 1784 में श्री निर्मल पंचायती अखाड़े की स्थापना हरिद्वार कुंभ मेले के समय एक बड़ी सभा में विचार विनिमय करके श्री दुर्गा जी महाराज ने की। इनका आराध्य ग्रंथ श्री गुरुग्रन्थ साहब है। इनमें सांप्रदायिक साधु, महंत व महामंडलेश्वरों की संख्या अधिक है। इनकी शाखाएँ प्रयाग, हरिद्वार, उज्जैन और त्र्यंबकेश्वर में हैं।

और तेरहवाँ अखाड़ा है निर्मोही अखाड़ा। इसकी स्थापना 1720 में रामानंदाचार्य ने की थी। इस अखाड़े के मठ और मंदिर उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, मध्यप्रदेश, राजस्थान, गुजरात और बिहार में है। प्राचीन समय में इसके अनुयायियों को तीरंदाजी और तलवारबाजी की शिक्षा भी दी जाती थी। "

भावविह्वल हो गई कैथरीन। इतनी विस्तृत और संपूर्ण जानकारी से।

"मन करता है आपके साथ यहीं रुक जाऊँ। परम ज्ञानी हैं आप। संपूर्ण ज्ञान सहित ही आपने संन्यास में प्रवेश लिया है। सोच लिया है मैंने, मैं जिस किताब के लिए आँकड़े जुटाने भारत आई हूँ वह उपन्यास होगा। उसमें एक कथा होगी और उस कथा के नायक आप होंगे। आप के जरिए मैं दुनिया को बताऊँगी कि भारतवर्ष में ऐसा भी एक पंथ है जिस पंथ के अनुयायी लाखों नागा है। अनुभूति, कामेच्छा और भोग ऐश्वर्य से परे। लेकिन फिर भी मानव।"

फिर भी मानव! कैथरीन के अंतिम शब्द ने नरोत्तम गिरी के हृदय में सीधे प्रवेश किया। मानव यह शब्द और इसकी कैथरीन द्वारा की परिभाषा ने विस्फोट का काम किया। तो क्या वह मानव नहीं है! क्या इस संसार में वह म्रत हो चुका है! क्या अपने दुर्निवार समय के साक्षी उसके अपने कर्म आज उसे मानवोचित गुणों से रहित कर रहे हैं! क्या ईश्वर को पाने की उसकी साधना अपने आप में प्रश्नचिन्ह बन गई है! वह कैथरीन के आगे नतमस्तक था-'आह देवी, तुम अद्भुत हो। बिरली हो।'

काफी देर तक खामोशी रही। ' किताब का नाम क्या देंगी माता? " पुरोहित जी ने धूनी की आंच तेज करते हुए पूछा।

"अभी सोचा नहीं पुरोहित जी। अभी तो ज्ञान संग्रह किया है।"