कैफियत / ज्ञान चतुर्वेदी
पिछले दिनों मैंने खूब लिखा। और बढ़िया ही लिखा (मुझे तो कह लेने दें।) बीच के वर्षों में उपन्यास लिखते हुए तथा व्यंग्य कालमों के लिए निरन्तर सिकुड़ती जा रही जगह-और उस सँकरी-सी जगह में भी निरन्तर ट्रेश लिखा जाता देखने के कारण, व्यंग्य कथाएँ या लेख लिखने की तरफ से मन उचट-सा गया था। ऐसे में, प्रभाकर श्रोत्रिय जी ने ‘ज्ञानोदय’ में नियमित कालम लिखने को दिया। मैं यह मानकर चला था कि मेरे आलस्य तथा अनियमित लेखन की आदत के कारण पांच-छः माह में ही यह बन्द करना पड़ेगा। परन्तु स्वयं मेरे लिए आश्चर्य की बात यह रही कि अचानक मैं बेहद नियमित होकर लिखने लग गया और वो सब बातें करने लग गया जो मेरे चरित्र तथा जन्मपत्री के खिलाफ जाती थीं। जैसे कि मैं खूब लिखने लग गया। इसी बीच ‘इण्डिया टुडे’ में भी नियमित लिखने का प्रस्ताव मिला। यहां दिक्कत निश्चित लम्बाई की रचना लिखने की थी-जबकि यहाँ आदत वर्षों से लम्बी रचनाएँ लिखने की थी और यह पता ही नहीं था कि छोटी रचना में कोई ढंग की बात कर भी पाऊँगा अथवा नहीं। मैंने यह भी करके देखा। ठीक ही रहा। कर गया। इस तरह खुद के बारे में बहुत सी बातें पता चलीं जो मैं जानता ही नहीं था। सो इस तरह पिछले दिनों में जो लिखा, उसमें से कुछ रचनाएँ यहाँ जा रही हैं। इन रचनाओं में मैंने विषयगत तथा शैलीगत निर्वाह के स्तर पर बहुत नया करने की कोशिश की है। पाठकों को यह कोशिश पसन्द आ जाये तो प्रयास सफल कहाएगा। वैसे, स्वयं मुझे लगता है कि इन रचनाओं में मैं अपने पुराने रचना समय से काफी अलग हूँ। पता नहीं कि आप क्या कहते हैं !
इन नयी रचनाओं के साथ, सात-आठ पुरानी रचनाएँ भी देने का लोभ संवरण नहीं कर सका हूँ। जिन्होंने इन्हें पहले अन्यत्र पढ़ा हो, वे गाली देने को स्वतन्त्र हैं।
-ज्ञान चतुर्वेदी