कैमीभूड़ मर रहा है! हाथी नहीं मरा है महाराज!! / देवेंद्र
इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता कि ’कैमीभूड़’ कहाँ है? देश के मानचित्र पर काली बिन्दियों से दर्शाए गए असंख्य गांवों की शक्ल इससे किसी भी तरह अलग नहीं है। हर पगडंडी जहां जाकर खत्म हो जाती है वहीं आपको कैमीभूड़ मिल जाएगा। कैमीभूड़, यानी कर्ज और यातना के अंधेरे मंे छटपटाता गांव, जहां किसान एक-एक कर आत्महत्याएं कर रहे हैं। लोकतंत्र के नाच घर में थोड़ी देर के लिए बत्ती गुल होती है। शोक संवेदनाएं पढ़ी जाती हैं। पालतू अर्थशास्त्रियों की भीड़ संेसेक्स के तापमान को देखकर आश्वस्त हैं कि विकास की दर बेहतर है जबकि यहाँ रात-दिन आजादी के सपनों का संहार हो रहा है। लखीमपुर-खीरी जनपद मुख्यालय से 37 किलोमीटर दूर कैमीभूड़ का सीमान्त, जहां से एक साथ सिर्फ दो ही रास्ते अलग-अलग दिशाओं की ओर जाते हैं। एक नक्सलबाड़ी की ओर और दूसरा राजधानी के सुरक्षित और संरक्षित राजमार्ग पर, जहाँ संसद है, न्यायपालिकाएं हैं, अमीन का दफ्तर है। 15 अगस्त 1947 की आधी रात को कैमीभूड़ के लैम्पपोस्ट पर उम्मीद की जो लालटेन लटका दी गई थी, उसमें कालिख और धुआं भर चुका है।
लाश होने से पहले थरथराती कांपती देह की जान में जितनी सांस होती है उतनी ही सांस कैमीभूड़ के हिस्से मयस्सर है। यहां एक वीभत्स तबाही का खौफनाक मंजर है। शकों, हूणों या मंगोलों ने नहीं, विशुद्ध आर्य नस्ल के भारतीय प्रशासनिक ढाँचे ने कैमीभूड़ को उजाड़ा है और बर्बाद किया है। आर्थिक उदारीकरण और मनमोहनी विकास की परिकल्पना में कैमीभूड़ एक ऐसे वोट बैंक की तरह है जो नए अर्थतंत्र में असुविधा पैदा करते हुए बेवजह सताता रहता है जबकि वे कैमीभूड़ के जनतंत्र का मतलब जानते हैं। एक ऐसा जनतंत्र, जहाँ आपको अपने विरोध में काम करने वाली तमाम सरकारों मंे से किसी एक को चुनना होता है।
सरकार कहती है कि तीन एकड़ तक खेत वाले किसान को लगान नहीं देनी है, लेकिन यहाँ दो बीघे खेत वाले से भी लगान ली जाती है। दुनिया के सबसे बड़े गणतंत्र का संविधान कैमीभूड़ की गलियों में मृतप्राय कराह रहा है। अमीन और तहसीलदार ने उसके पीछे एक खंूटा ठोंक दिया है। अब यहाँ अमीन की मर्जी ही संसद है और संविधान भी। लेखपाल जब चाहे यहाँ किसी की वल्दियत बदल सकता है। न्यायपालिकाएं न तो इसे अपनी अवमानना मानती हैं न संसद अवज्ञा। यहाँ अमीन का मतलब सरकार होता है। अमीन की बेजा हरकतों में हस्तक्षेप, सरकारी काम में बाधा माना जाता है। अमीन को पीटना दरअसल सरकार को पीटना है। अमीन है तो सरकार है। न्यायपालिका है, प्रशासन है, संसद है, प्रजातंत्र है।
हफ्ता भर पहले। कैमीभूड़ में अमीन ने न तो ग्राम प्रधान को सूचना दी, न तो डुगडुगी बजवाई, न खेतों में झंडा ही गाड़ा, जबकि न्यायिक प्रक्रिया में ऐसा करना जरूरी है, उसने तहसील दफ्तर में बैठ कर ही एक किसान की सारी जमीन बैंक की उस मामूली रकम के एवज मंे नीलाम कर दी जिस जमीन में खड़ी फसल ही बैंक कर्ज का भुगतान करने के लिए काफी होती। एक बुरी सूचना यह थी कि उसी किसान का पैसा अजवापुर चीनी मिल पर पहले से बाकी पड़ा था। अमीन या तहसील ने यह भी मुनासिब नहीं समझा कि जमीन नीलाम होने की सूचना किसान को दे दी जाए। उस सुबह वह खेत पर अपनी फसल काटने गया था। उसे वहीं सूचना मिली कि अब वह खेत और वह फसल उसकी नहीं रह गई है, तो उसने बगल में खड़े पेड़ से लटक कर आत्महत्या कर ली। थोड़ी देर बाद जब यह खबर उसके भाई को लगी तो उसने भी दूसरे पेड़ से लटककर आत्महत्या कर ली। यह कोई आत्मघाती कदम नहीं है, बल्कि उस समूची न्यायिक प्रक्रिया पर थूकना है जहाँ उसी अमीन के बड़े-छोटे भाइयों का दुष्चक्र फैला हुआ है। देखा जाए तो भारत के दूर-दूर तक फैले भूगोल में कैमीभूड़ कितनी जगह घेरता है? गाँव स्तर की इस मामूली खबर का प्रचार करना, हो सकता है कुछ लोगों को अरुचिकर लगे। उन कुछ लोगों में शेयर बाजार के दलाल, मल्टीनेशनल के पालतू अर्थशास्त्री, राज्य सरकार, जिले का कलक्टर या वे भद्र नागरिक भी हो सकते हैं, जिनके रामरथ का टूटा हुआ पहिया गुजरात से होता हुआ सेतु समुद्र पर तमाशबीनों की भीड़ के लिए डुगडुगी बजा रहा है। लेकिन मेरे लिए कैमीभूड़ महज एक सूचना नहीं, एक सवाल है जिसका उत्तर तय करेगा कि 15 अगस्त 1947 को कैमीभूड़ के बारे में चुपचाप क्या कुछ तय किया गया था। आजादी, लोकतंत्र, संविधान और संसद सबका चरित्र इस बेहद मामूली से दिखने वाले प्रश्न के उत्तर पर टिका है।
औपनिवेशिक गुलामी के दौर में भी किसानों की दुर्दशा कम न थी। गाँवों के सामन्ती ढाँचे और साहूकारों की सूदखोरी व्यवस्था में फँसे किसानों का दयनीय चित्रण करते हुए प्रेमचन्द ने उपन्यासों और कहानियों की लम्बी श्रृंखला रची है। लेकिन वहाँ स्थितियां इतनी जटिल और भयावह नहीं है कि किसान आत्महत्या करें। तब किसान लड़ता था। माना जाता था कि वह आजादी के लिए लड़ रहा है। आज यह मानने में हमें कोई गुरेज नहीं कि आजादी के बाद विकसित नए तंत्र की वजह से ही किसान आत्महत्या कर रहे हैं। कैमीभूड़ धीरे-धीरे मर रहा है। कस्बों में फैले भूमि विकास बैंक को गाँंव के लोग भूमि विनाश बैंक कहते हैं। इन बैंकों में दलालों की भीड़ है, जिनके पास किसानों के अंगूठा निशान गिरवी रखे हैं। वे जब चाहें किसी की जमीन पर किसी दूसरे को कर्ज दिला सकते हैं। लेखपाल जब चाहे किसी की वल्दियत बदल सकता है। प्रशासनिक तंत्र का यह एक ऐसा समृद्ध और अय्यास वर्ग है जिसकी अंतड़ियों की लम्बाई समूचे देश के इतिहास और भूगोल से बहुत ज्यादा लम्बी है। एक कैमीभूड़ को डकार जाना उसके लेखे बेहद मामूली तजुर्बा है।
इतिहास की किताबों में हमने पढ़ा था कि भारत को आजादी शांतिपूर्ण ढंग से कांग्रेस के नेतृत्व में अहिंसा के रास्ते मिली थी। एक बूँद खून नहीं बहा था आजादी की लड़ाई में। और हमने पाया कि नेहरू युग के प्रथम दशक में ही बगैर एक बूँद खून बहाए एकदम शांतिपूर्ण ढंग से उसी अहिंसा के रास्ते प्रजातांत्रिक भारत की एक-एक संस्थाएं निर्जीव और निष्प्राण कर डाली गईं। श्रीलाल शुक्ल का उपन्यास ‘रागदरबारी’ इन्हीं मरी संस्थाओं और भ्रष्ट राजनीति का महाकाव्यात्मक वृत्तांत है। कैमीभू़़ड़ ने पाया कि आजाद भारत में उसके हिस्से एक मरा हुआ संविधान, रक्त पीती न्यायपालिका, दलाल पथ पर टिकी संसद और भ्रष्ट अधिकारियों का कभी न खत्म होने वाला अटूट सिलसिला है। कैमीभूड़ के लिए वोट की शक्ति दरअसल, ऊसर में उगे उस नागफनी की तरह है, जिससे वह अपनी फसलों को रूंधता है ताकि कोई रौंद न सके। और एक दिन उसका भविष्य नागफनी की उन्हीं कंटीली झाड़ियों में उलझकर रह जाता है। प्रजातंत्र के जिन निर्जीव स्तनों पर वह दूध की उम्मीद में पिछले 60 वर्षाें से चिपका हुआ है, वहाँ सिर्फ मवाद और बीमारी के सिवा कुछ भी शेष नहीं है।
यथार्थ की परतें इस सबसे भी बहुत गहरी हैं। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता भी है। लेकिन मैंने बचपन से उस राजा की कहानी पढ़ रखी है, जिसने कह रखा था कि हर उस नागरिक को सूली चढ़ा दिया जाएगा, जो कहेगा कि हाथी मर चुका है। डरे हुए मंत्रियों की तरह मैं सिर्फ इतना ही कह सकता हूँ कि महाराज, आपका हाथी न हिलता-डुलता है। न चलता है। कुछ भी नहीं बोलता है, आपका हाथी। आपका हाथी साँस भी नहीं लेता है महाराज। चारों ओर दुर्गन्ध और बदबू फैला रहा है आपका हाथी। पता नहीं कब से कैमीभूड़ में सरकारी संस्थाओं को सफेद हाथी कहने का चलन शुरू हो गया है।