कैम्पस लव / आकांक्षा पारे

Gadya Kosh से
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मैंने अपने दोनों हाथों की बीच की उंगलियां तर्जनी उंगली पर चढ़ाई और इस 'क्रॉस द फिंगर' के टोटके के साथ उसका मोबाइल नंबर डायल कर दिया। इससे पहले भी कई बार उससे बात कर चुकी हूँ, लेकिन उस दिन कुछ खास था। कई बार होता है कि उसे फोन नहीं लगता, नेटवर्क बिज़ी आता है। धड़कते दिल के साथ मन कह रहा था, फोन न लगे तो ही अच्छा। पर मन का हमेशा हो जाए ऐसा कहीं संभव है क्या। मेरे कान से ज़्यादा दिल उसके फोन पर बज रही घंटी सुन रहा था। घंटी जाते ही मन किया फोन काट दूं। पसोपेश में पड़ी काटूं या चालू रखूं कि खुद से बहस में पड़ी कोई फैसला लेती उससे पहले 'हां बोल' की उसकी आवाज कानों में पड़ गई. सेकंड भर के लिए मेरे हाथ कांप गए. मैंने बहुत संभलते हुए कहा, 'तुमसे कुछ बात करनी है।'

'हां बोल।'

'नहीं वह क्या है न कि बात थोड़ी लंबी है। जब समय हो तब कहना।' मैं किसी भी सूरत में फोन रख देना चाहती थी।

'टाइम है मेरे पास। तू बोल।'

'मैं कह रही थी कि... कि मैं जो भी पूछूंगी, बस हां या न में ही जवाब देना और कुछ मत बोलना।'

'ओए सुबह भांग पी है क्या। हां या न में बोलना। पुलिस भी ऐसे नहीं बोलती। चल छोड़ बोल, क्या हुआ।'

'नहीं बस मेरी यही छोटी-सी शर्त है। सिर्फ़ हां या न। दोनों में से जिसे चुनो मुझे कोई तफसील नहीं चाहिए.'

'अब बोल भी दे रे बाबा। सुबह-सुबह पका मत।' यह उसका स्टाइल है। धैर्य नाम की चिड़िया से तो उसका कोई संपर्क ही नहीं है।

'क्या हम... मेरा मतलब है क्या मैं तुम्हारे साथ हमेशा रह सकती हूँ'

'सुन तू...'

'मैंने कहा न हां या न'

'देखो तू जास्ती होशियार मत बन...'

'हां या न'

'...'

लगभग आठ-नौ मिनट ऐसी ही खामोशी छाई रही और जब कोई और हलचल नहीं हुई तो मैंने फोन काट दिया। यह मेरी उससे आखिरी बातचीत थी लेकिन यही मेरी प्रेमकथा का आखिरी चैप्टर भी था। कॉलेज के पूरे साल भर जो खुमारी मुझ पर तारी रही थी उसका अंत हो गया था। इसके बाद होना तो यह चाहिए था कि मुझे बिसूरना था, टसुए बहाने थे, ये मोटे-मोटे। अंधेरे कमरे में बंद हो कर दर्दभरी गजलें सुननी चाहिए थी या आत्महत्या की एक तरकीब तो सोचनी ही चाहिए थी। पर मैंने ऐसा कुछ नहीं किया। मैंने मिताली को फोन लगाया और बस इतना ही कहा, 'मेरे को भी मना कर दिया।' हां यह बोलते हुए मेरी आवाज ज़रा उदास थी। फिर भी मिताली हंसी और जब मैंने ऐतराज जताया तो उसने आवाज थोड़ी संजीदा करते हुए बस इतना ही कहा, 'तेरे को भी।' उसकी आवाज में दुख कम और अचरज ज़्यादा था। मुझे दुख हुआ कि वह मेरे दुख में अच्छी तरह शामिल नहीं हो रही है, पर ठीक है जब उसने मिताली को मना किया था तब मैंने कौन-सा किलो-दो-किलो दुख जता दिया था। सो मिताली ने 'टिट फॉर टैड' यानी जैसे को तैसा टाइप व्यवहार मुझ से कर दिया था। उसके बाद मैंने और मिताली ने थोड़ी गमभरी बातें की, अपने भाग्य को कोसा और दुख जताया कि आखिर हम में क्या कमी है जो उसने मना कर दिया। अगर रविवार का दिन होता तो हम इस रिजेक्शन पर लंबा तफसरा कर सकते थे। पर हम दोनों को ही दफ्तर पहुंचना था सो हमने बातचीत की दूसरी किस्त के लिए रात का समय तय किया और मैंने अपने ताजे रिजेक्शन को बासी ब्रेड के दो पीस के बीच दबाया और गम चबाते हुए चल दी।

हां तो आज उस गमनुमा रिजेक्शन की याद इसलिए कि कुछ नहीं तो कम से कम तेरह साल बाद आज मैंने उसकी आवाज सुनी। आवाज उतनी बेपरवाह लग रही थी, पर कुछ जिम्मेदार भी नहीं लगी मुझे तो। अब इसे कोई मेरी जलनखोरी कहे तो कहे। भई जो सच्चाई है वह तो वही रहेगी। इस बार भी मैंने वही किया जो तेरह साल पहले किया था। पर उतनी उतावली में नहीं। मैंने मिताली को फोन किया और पहले दो-चार यहां-वहां की बातें करने के बाद बताया कि 'उसका' फोन आया था। मैंने उसका पर कुछ अतिरिक्त दबाव बनाया मगर यह मिताली काहिल ने कोई उत्सुकता नहीं दिखाई. मैं फोन पर भी महसूस कर सकती थी कि वह निकम्मी उछल कर बिस्तर पर नहीं बैठी और न ही उसने अपनी आंखें चौड़ी कर कहा, 'हें। क्यों। बता न। पूरी बात बता न प्लीज।' उसने उतने ही रूखेपन से कहा, 'अच्छा है चल दोबारा दोस्ती हो गई.' 'दोस्ती नहीं हुई उसे मुझ से काम है। इसलिए उसने फोन किया।' 'हां तो ठीक है न काम के बहाने ही सही बात तो की।' 'अरे चोर तुझे बिलकुल गुस्सा नहीं आ रहा है। तेरह साल बाद उसने मुझे फोन किया है। तेरह साल बाद। तू भूल गई उसने हमें अपनी शादी में भी नहीं बुलाया था।' 'तो हमने कौन-सा उसे बुला लिया।' 'पर शुरुआत उसने की न। पहले उसने नहीं बुलाया तो हमने नहीं बुलाया।' 'अच्छा चल छोड़। तू तो ये बता उसे काम क्या आ गया उससे।' 'जब तेरे को कोई मन ही नहीं सुनने का तो मैं क्यों बताऊं।' 'अब ये नखरे तू अपने मियां को ही दिखाया कर। बात बतानी है तो बता वरना मैं फोन रख रही हूँ। कल माही की पिकनिक है, उसे सुबह जल्दी स्कूल भेजना है।' मैंने फिर भी नखरे का एक कतरा रख दिया तो मिताली ने मुझे बहुत प्यार से गुड नाइट बोला और फोन काट दिया। ये मिताली को कोई मन ही नहीं है जानने का कि उसका फोन क्यों आया था। हुंह। मैं कल फिर मिताली को फोन करूंगी और याद दिलाऊंगी कि एक वक्त था कि कैसे तुम उसके पीछे भोपाल तक चली गई थीं और आज उसके बारे में सुनना भी नहीं चाह रही हो। आज भले मिताली उसके बारे में बात नहीं कर रही पर जब भी उसकी बात निकलती मैं और मिताली खूब हंसते। उस हंसी के बीच भी मिताली और मेरे मन में एक जैसी हूक उठती थी। कुछ अनकही सी. हमें उसका प्रेम न मिलने से ज़्यादा इस बाद का दुख था कि हम नकारे गए थे। यानी हमें रिजेक्ट कर दिया गया था। हम यानी मैं और मिताली।

उम्र के चालीसवें साल में यह हरकत भले ही बचकानी लगती है कि मुझे और मिताली को एक ही लड़का पसंद था, न सिर्फ़ पसंद बल्कि हम दोनों ही उस पर जान दिया करते थे। पर उस वक्त यही जीने का सहारा हुआ करती थी। पक्की सहेलियों का तमगा मिला होने के बावजूद जो एक बात हम दोनों ने एक-दूसरे से राज रखी थी वह बस यही बात थी और जब हमने एक-दूसरे को नहीं बताई थी और जब बताई तो बहुत देर हो चुकी थी। पर आश्चर्य कि जब हम दोनों ने उसके इश्क में गले-गले डूबे हुए एक-दूसरे पर अपने राज जाहिर किए तब भी हम झगड़े नहीं। अब हम दोनों के सामने एक प्रश्न आ खड़ा हुआ कि क्या किया जाए. पुरानी हिन्दी फ़िल्मों की नायिका निम्मी की तरह हम दोनों में से कोई भी 'त्याग देवी' बनने को तैयार नहीं था। 'और बनना भी नहीं चाहिए. आखिर हम दोनों को ही अपने प्यार को परखना चाहिए.' नितांत घटिया फ़िल्मी किस्म का संवाद था पर मिताली ने बहुत संजीदगी के साथ कहा था। तो हम दोनों ने तय किया कि पहले मिताली अपने दिल की बात कहेगी उसके बाद मैं। पर परेशानी यह थी कि कॉलेज खत्म हो चुका था और हम सब अपने काम-धंधे पर लग चुके थे। मैं और मिताली अभी भी अपने शहर में ही थे जबकि वह अपने शहर भोपाल चला गया था। प्रेम का ऐसा ताप चढ़ा था हम पर कि हमने उससे पूछने के लिए भोपाल जाना तय किया। एक अखबार में इंटरव्यू का झूठ बोला और सुबह की बस पकड़ कर लो जी उसके शहर में। पर तब तक हमें पता नहीं था कि 'बड़े बेआबरू हो कर तेरे कूचे से हम निकले' टाइप का कुछ हमें शाम को दोहराना पड़ेगा। एक और दोस्त को मैंने सारी बात बताई और उसने कहा कि वह उसे अपने कमरे पर बुला लेगा और हम सीधे उसके कमरे पर पहुंच जाएं। पूछते-पाछते जब हम वहाँ पहुंचे तो वह बगल में अपना हेलमेट दबाए धूप में खड़ा बतिया रहा था। हाय उसे देख कर मन फिर डोल गया। लगा कि मिताली को कहूँ, डील कैंसल पहले मैं इसे अपने दिल का हाल बताऊंगी। पर ये शिवानी के उपन्यास पढ़-पढ़ कर दिमाग इतना बौरा गया था कि लगता था सच्चा प्रेम कहीं से भी ढूंढ निकालता है तो मिताली जैसे ही उसे अपने दिल की बात बताएगी वह फौरन कहेगा, मुझे तुमसे नहीं प्रियंका से प्यार है। वह दौड़ कर मेरे पास आएगा और मेरा हाथ पकड़ लेगा। मैं मिताली से कहूँगी कि देख यह होता है सच्चा प्यार और फिर मैं घर जाकर पापा को सब बता दूंगी और बस एक-दूसरे के साथ जीवन भर।

मेरी सोच को झटका लगाते हुए कपिल ने कहा कि हम दोनों बाहर बैठते हैं और मिताली को उसके साथ कमरे में रहने देते हैं। मैं बाहर दालान में रखे स्टूल पर बैठ गई और मिताली अंदर चली गई. अंदर पता नहीं क्या हुआ पर जब वह बाहर निकली तो उसके चेहरे पर बारह बज रहे थे और हम फौरन ही वहाँ से निकल गए. उसके बाद बस वह हमारे किस्सों तक सिमट गया। हम जब भी उसके बारे में बात करते, एक-दूसरे को दोष देते, 'तू वक्त पर बता देती तो कम से कम एक को तो मिल जाता।' पर हम दोनों ही जानते हैं वह किसी को नहीं मिलता। हम उसकी गिनती में कहीं नहीं थे। न पहले न अब।

मिताली के उसे प्रपोज करने के कोई दो साल बाद जब मेरे घर मेरी शादी की बातचीत शुरू हुई तो मुझे भी इश्क के उस कीड़े की याद आई जो अब तक मेरे दिमाग में कुलबुला रहा था। मैंने मिताली को कहा कि वह आज भी मुझसे बात तो करता ही है न। तो मुझे लगता कि मुझे भी एक बार उससे पूछ लेना चाहिए. मिताली ने समझाया भी कि यदि ऐसा कुछ होता तो वह अब तक कह चुका होता। पर मैं उसकी याद में ऐसी लैला बनी थी कि मैंने भी फोन पर उससे पूछ ही लिया। होना तो क्या था, कद्दू की जड़ उसके बाद मेरी भी उससे बाद बंद हो गई. यहाँ तक रहता तो ठीक था, पर उसने यह बात अपने परम मित्र को बताई और उस परम मित्र ने हमारे पूरे ग्रुप को। उसके बाद मैं और मिताली एक तरफ बाकी सब दूसरी तरफ। सुना उसकी शादी हो रही है। हमें उम्मीद थी कि व हमें ज़रूर बुलाएगा। हमारे सभी दोस्त गए पर उसने हमें शादी में नहीं बुलाया। उस पूरे ग्रुप में मैं तो फिर भी कई दोस्तों से बात करती रही पर मिताली की दोस्ती बस मुझ तक सिमट गई.

पहले हमें भी लगता था कि वह कैंपस लव था। पर जब कॉलेज छोड़ देने के बाद भी, नौकरी में आ जाने के बाद भी वह बदस्तूर वैसे ही याद आता रहा, उतनी ही शिद्दत महसूस होती रही तो लगा नहीं कुछ तो था उस रिश्ते में। कोई कशिश तो थी कि आज भी यदि वह फोन करे तो लगता है, कॉलेज का वहीं गलियारा है और उसे अकेला खड़ा देख कर मैं उसके पास जाकर अपना परिचय दे रही हूँ। वह झिझकते हुए से मुस्कराते हुए अपना हाथ आगे बढ़ा कर कह रहा है, 'हाय आय एम परितोष। परितोष कुलकर्णी।'