कॉमरेड का कहना है / राजकिशोर
बहुत दिनों से कॉमरेड से मुलाकात नहीं हुई थी। सो उन्हें अचानक घर आया देख मुझे अपार प्रसन्नता हुई। चाय-सिगरेट से उनका स्वागत किया। फिर ढेर सारे सामयिक विषयों पर बातचीत होने लगी। सिंगुर और नंदीग्राम के मामले को उठना ही था। वह उठा और कॉमरेड बैठ गए। सोफे पर पालथी मार कर। इसके बाद उनका जो भाषण हुआ, वह लंबा था। पाठकों को बोरियत से बचाने के लिए उसका सारांश पेश करता हूँ।
कॉमरेड का कहना था : हमारी किताबों में पहले से ही लिखा हुआ है कि किसान प्रतिक्रियावादी शक्ति हैं। उनके पास निजी संपत्ति होती है। सो वे कभी क्रांति नहीं कर सकते। वे जमीन से जुड़े नहीं, बँधे होते हैं। उनमें मोबिलिटी नहीं होती। इससे उनकी विचारधारा भी जड़ होती जाती है। आदमी जब तक अपनी जमीन से उखड़ न जाए, दूसरे शहरों में जाकर तरह-तरह की ठोकरें न खाए, वह पूँजीवाद की हकीकत को समझ नहीं सकता। फिर किसान उत्पादन के साधनों से पूरी तरह वंचित भी नहीं होते। वे अपना श्रम नहीं बेचते, बल्कि प्रकृति में उसका निवेश करते हैं। इससे जो फसल पैदा होती है, उसके बल पर वे काफी हद तक आत्मनिर्भर भी हो जाते हैं। इसलिए सभ्यता जब आगे बढ़ती है और परिवर्तन होने लगता है, तो वे घबराने लगते हैं। किसानों की सुनी गई होती, तो दुनिया में कल-कारखाने कहीं नजर ही नहीं आते।
बंदे में दम था। कॉमरेड राजनीतिक कार्यकर्ता होते हुए भी पढ़े-लिखे की तरह बोल रहा था। मेरी जिज्ञासा बढ़ने लगी। मैंने पूछा - लेकिन कॉमरेड, सत्ता में आने के बाद आप लोगों ने तो किसानों को ही मजबूत किया। बँटाईदारों के लिए नई व्यवस्था की। इससे भी खेती को ही फायदा पहुँचा। कॉमरेड मुसकराए, जैसे कोई विद्वान किसी मूर्ख की बात पर मुसकराता है। फिर शुरू हुए - माई डियर सर, आप किस दुनिया में रहते हैं! सत्ता में आने के बाद हम कम्युनिस्ट किसी को भी मजबूत नहीं करते, सिर्फ अपने आपको मजबूत करते हैं। अपने को मजबूत करने के लिए ही हमने किसानों को मजबूत किया। पश्चिम बंगाल में औद्योगिक सर्वहारा की संख्या कम है। सो हम किसानों के बल पर ही अपनी सत्ता को बनाए रख सकते थे। फिर सत्ता में आते ही हम पूँजीपतियों के साथ सहयोग करने लगते तो क्या बदनाम नहीं हो जाते? राजनीति में तो आप जानते हैं, बद अच्छा, बदनाम बुरा।
मेरी जिज्ञासा शांत होने की बजाय और बढ़ी - तो फिर अब आप किसानों को बेदखल क्यों कर रहे हैं? इस बार कॉमरेड मुसकराए नहीं, झुँझलाए - यही तो तुम बुर्ज्वा सोच वालों की कमजोरी है। तुम हमेशा नकारात्मक ढंग से सोचते हो। इतिहास को आगे ले जाने के बजाय पीछे की ओर धकेलना चाहते हो। हम किसानों को बेदखल नहीं कर रहे हैं, औद्योगिक संस्कृति को बढ़ाने का ऐतिहासिक काम कर रहे हैं। कायदे से यह काम कैपिटलिस्ट क्लास का है। सामंतवाद से संघर्ष की जिम्मेदारी उसी की है। लेकिन भारत के कैपिटलिस्टों में दम नहीं है। वे तो विदेशी पूँजी के बल पर फलने-फूलने की सोच रहे हैं। ऐसा कहीं होता है? इतिहास का यह नियम क्या वे भूल गए कि बड़ी मछली छोटी मछली को खा जाती है? इसीलिए हमने तय किया कि देशी पूँजीवाद को हम बढ़ावा देंगे। हम टाटा घराने के शुक्रगुजार हैं कि उन्होंने हमारे अनुरोध की रक्षा कर ली। नहीं तो हम कहीं के नहीं रहते। हम रूटीन कम्युनिस्टों की तरह काम करते, तो अंत में हमें रवीन्द्र संगीत की धुन पर यही गाना पड़ता कि उनसे आया न गया, हमसे बुलाया न गया।
हर उत्तर एक नए प्रश्न को आमंत्रित करता है। इसलिए मैंने पूछा - लेकिन इससे तुम लोगों के राजनीतिक आधार को नुकसान नहीं पहुँचेगा? कॉमरेड की मुसकराहट वापस आ गई - तुम कभी नहीं सुधरोगे। सचाई यह है कि इससे हमारा राजनीतिक आधार और बढ़ेगा। तुम तो जानते ही हो कि वाम मोर्चा के लंबे शासन में पश्चिम बंगाल में सर्वहारा वर्ग की संख्या घट गई थी। उद्योग-धंधे बंद हो रहे थे या अन्य राज्यों की ओर भाग रहे थे। ऐसी स्थिति में हम 'सर्वहारा की तानाशाही' की ओर कैसे बढ़ सकते थे? क्रांति कभी अचानक नहीं की जाती। उसकी ओर एक-एक कदम आगे बढ़ाना पड़ता है। कभी-कभी 'एक कदम आगे, एक कदम पीछे' की नीति भी अपनानी पड़ती है। जब किसानों में अपनी पैठ हमने मजबूत कर ली, तो हम मजदूरों की संख्या बढ़ाने पर विचार करने लगे। बिना सर्वहारा के, औद्योगिक मजदूरों के कम्युनिस्ट अकेले क्या कर सकते हैं? दीवार से सिर टकराने से तो विप्लव होगा नहीं। जो इस बात को नहीं समझते, वे ही सिंगुर और नंदीग्राम की आलोचना कर रहे हैं। हमें उनकी रत्ती भर भी परवाह नहीं है। सच्चा कम्युनिस्ट वही होता है, जो आलोचना की परवाह नहीं करता। मैंने कॉमरेड को याद दिलाने की कोशिश की - लेकिन तुम लोग तो नंदीग्राम में विदेशी पूँजी को जगह दे रहे हो?
अब कॉमरेड के झुँझलाने की बारी थी - देखो, पूँजी पूँजी होती है। वह न देशी होती है, न विदेशी होती है। इस बात को मार्क्स ने ही सबसे पहले समझा था। भूमंडलीकरण का कॉन्सेप्ट तो अब आया है। सबसे पहले कम्युनिस्टों ने ही अंतरराष्ट्रीयकरण की बात की थी। जैसे पूँजी का कोई देश नहीं होता, वैसे ही सर्वहारा का भी कोई देश नहीं होता। दोनों स्वभाव से ही अंतरराष्ट्रीय होते हैं। जब अंतरराष्ट्रीय पूँजी हमारे यहाँ आएगी, तो हमारे सर्वहारा का भी अंतरराष्ट्रीयकरण होगा। इसीलिए हमने सलेम ग्रुप को आमंत्रित किया है। शुक्र है कि उन्होंने भी हमारी इज्जत रख ली।
मैंने जानना चाहा - लेकिन केंद्र में तो तुम विदेशी पूँजी का विरोध करते हो?
कॉमरेड ने बताया - पश्चिम बंगाल हमारा है। हम वहाँ चाहे जो करें। लेकिन उसके बाहर तो हमें कम्युनिस्ट होने की भूमिका निभानी ही पड़ेगी। हम यह कैसे गवारा कर सकते हैं कि हमारी राष्ट्रीय प्रभुसत्ता पर आँच आए?
अब मेरे मुस्कराने की बारी थी - तो पश्चिम बंगाल में विदेशी पूँजी आने से हमारी प्रभुसत्ता को आँच नहीं आती?
कॉमरेड का कहना था - उलटा मत सोचो। हम नहीं चाहते कि पश्चिम बंगाल प्रगति की दौड़ में पीछे रह जाए। हम यहाँ मजबूत होंगे, तभी इस नव-उपनिवेशवाद से लड़ सकते हैं। सभी को उस पूँजीवाद का स्वागत करना चाहिए जो साम्यवादी सत्ताओं को मजबूत करे।
मैंने कहना चाहा, जैसे चीन में? लेकिन तभी चाय की दूसरी किस्त आ गई।