कोई तो सुनेगा / अशोक गुप्ता
बुरे से बुरा आदमी भी अपनी मौत मरता है
किसी
अच्छे भले संत स्वभाव आदमी की तरह,
प्रश्न यह है
कि क्या वह आदमी अपनी मौत से
कोई
नया पाठ खोलता है
उन जिन्दा लोगों के लिए
जिन्हें
मरने से पहले
काफी रास्ता तय करना है।
नये पाठ की संभावना
अक्सर
बुरे आदमी में पलती है...
मैं लोहे की इस ठंढी मेज पर लिटा दिया गया हूँ। अँधेरा धीरे धीरे रास आता जा रहा है। मॉर्चरी के इस कमरे में तेज बदबू धीरे धीरे गायब होने लगी है। मेरे आगे वह पूरा घटनाक्रम अपनी शुरुआत के पल से ले कर उस मिनट तक, जब मैने अपने प्राण हाथ में कबूतर की तरह लेकर आसमान में उड़ा दिये थे, अभी भी अपनी पूरी हलचल मचाए हुए है। यहाँ मेरा पोस्टमॉर्टम होना है। एक गोरा सा मंझोले कद का अटेंन्डेन्ट छोकरा बगल वाली मेज पर आरी, हथौड़े और नश्तर, सब सजा गया है। एक जंग लगी मेज पर गंदा सा कपड़ा बिछा है जिस पर यह सब नुमायश लगी है। मुर्दे के ऑपरेशन में किसी इन्फेक्शन का खतरा नहीं होता इसलिये मैं किसी भी जोखिम से बाहर हूँ। यहाँ भिनकती हुई मख्खियाँ भी मेरा कुछ नहीं बिगाड़ सकतीं।
डाक्टर भसीन आकर कुछ पल इस कमरे में खड़े हुए हैं। उन्हें ही मेरा पोस्टमॉर्टम करना है। वह ठहर कर कुछ सूँघते हैं... उनके गहरी साँस खींच कर छोड़ने में एक अजीब सी आवाज निकली है। इस बदबू भरी हवा में डाक्टर भसीन ने क्या सूँघना चाहा यह कोई नहीं समझ पाया लेकिन मैं उनकी इस सयानी कोशिश को समझ गया...।
'कोई का मतलब?'
अरे हाँ, इस कमरे में कोई है कहाँ... लेकिन हैं भी... वह सब लोग तो हैं जो मेरे मुर्दा जिस्म के भीतर अभी भी हलचल मचाते नजारे में अपना वजूद बनाए हुए हैं। उनकी भीड़ कम है क्या...? वह लोग अकल और सयानेपन में सबसे इक्कीस ही हैं, लेकिन वह भी नहीं समझ पाये कि डाक्टर भसीन की नाक क्या सूँघना चाह रही है। मॉर्चरी के बाहर डाक्टर दरबारी और वह अटेंडेन्ट डाक्टर भसीन के लौटने का इंतजार कर रहे हैं। इन लोगों को पोस्टमॉर्टम में डाक्टर भसीन की मदद के लिये उनके साथ मौजूद रहना है। वैसे भी पोस्टमॉर्टम में दो डाक्टरों का होना एक रस्म है। अकेला डाक्टर अक्सर पूरी जिम्मेदारी लेने से कतराता है, इसमें सौ झमेले होते हैं...।
डाक्टर भसीन पलट कर वापस चले गये हैं... 'हम आधे घंटे बाद मिलेंगे।'
डाक्टर भसीन कुछ परेशान हैं। उन्होने सूँघ लिया है कि मेरे मुर्दा शरीर के भीतर मेरे आखिरी दिनों के नजारे-वाकये अभी तक ठहरे हुए हैं... उन्हें डर है कि इस हाल में किया गया पोस्टमॉर्टम उन नतीजों को सामने लाने में गडबड़ी खड़ी करेगा जो उन्हें अपनी रिपोर्ट में दिखाने हैं। उससे कोई फर्क ही कहानी सामने आ सकती है... डाक्टर भसीन यह रिस्क नहीं ले सकते।
वह फर्क सी कहानी क्या है, यह सिर्फ मै जानता हूँ। असली कहानी क्या है यह डाक्टर भसीन भी नहीं जानते... कोई असली कहानी भी है, यह भी डाक्टर भसीन को नहीं मालूम... वह ऐसे पचड़े में नहीं पड़ते, उन्हें तो बस इस बात की फिक्र है कि पोस्टमार्टम में कोई ऐसी मुखबरी-निशानदेही न मिले जो उनकी तयशुदा रिपोर्ट झूठी पड़ने लगे। उन्हें अपने तजुर्बे के दम पर यह पता है कि पोस्टमॉर्टम के नतीजों पर मुर्दे के भीतर जज्ब नजारों, शोर-शराबों, असमंजस, पछतावों और छटपटाहट का असर इस हद तक पड़ता है कि पूछो मत, इसलिये डाक्टर भसीन इस हलचल के ठहर जाने तक इंतजार करना चाहते हैं। लेकिन परेशानी यह है कि किसी तोप से बड़ी बब्बरतोप को यह रिपोर्ट शाम तक हर हालत में चाहिये और वही रिपोर्ट चाहिये जो उन्होंने डाक्टर भसीन को बताई है।
डाक्टर भसीन के साथ सब लोग चले गये हैं। इस मॉर्चरी में फिर सन्नाटा है। मख्खियाँ कुछ कम हो गईं हैं। बदबू भी कुछ उतार पर है। मैं जानता हूँ डाक्टर ऐसा कुछ जरूर करवाएँगे जिस से यह हलचल जल्द से जल्द खत्म हो जाय। उन्होंने मेरी नाक में लगे रूई के फाहे बदलवाए हैं और एक डोम मेरे चेहरे पर कुछ स्प्रे कर गया है। इस बीच मेरे पास कम से कम बीस पच्चीस मिनट हैं जो मैं अपने भीतर कैद सच्ची कहानी इस हवा को सौंप दूँ। फिर पोस्टमॉर्टम रिपोर्ट डाक्टर भसीन चाहे जैसी दें। कभी तो वह इस हलचल, हाहाकार का सामना करेंगे... कम से कम उन तक यह जरूर पहुँचे, यह मेरी कोशिश भी है और मेरा तजुर्बे भरा फर्ज भी...।
मैं शुरू करता हूँ।
मैं धंधे का आदमी था... मतलब, जो भी करता था उसमें धंधे की राह होती थी। मेरे नाम के आगे डाक्टर लिखा जाता था और डाक्टरी के पेशे में मेरा नाम जम चुका था। शहर में बँगला था जिसके लोन की किस्त चुकाने के बाद भी मेरी प्रैक्टिस की आमदनी मुझे आराम की जिन्दगी दे रही थी। बीबी खुश थी, बेटी को हम अपनी पसंद के स्कूल में पढ़ा पा रहे थे। बेटी अपनी पसंद के खिलौने कपड़े ले पाए इसमें कोई बाधा नहीं थी। हमारे साथ एक भरोसेमंद नौकर था जो बरसों के साथ परिवार का ही हिस्सा बन गया था। उमर में वह मुझसे हद से हद तीन साल छोटा होगा लेकिन समझदारी में वह मेरे साथ अक्सर बुजुर्ग की तरह पेश आता था। जब मैं किसी मरीज के सुख-दुख में हलकान हो रहा होता था, या जब कोई मरीज मुझे फीस के मामले में दगा दे जाता था, वह मुझे बैठा कर ढाँढ़स बँधाता था। नाम से भी बहादुर, वह एक बहादुर इंसान था, लेकिन मेरी बेटी के आगे वह भीगी बिल्ली बन जाता था। वह जब उसे शेर का मुखौटा लगा कर डराती थी तो वह थरथर काँपने लगता था। मेरी रोती हुई बेटी को हँसाने की कला सबसे ज्यादा उसी को आती थी।
मेरी बीबी पल्लवी भी धंधे वाले परिवार से आई थी, लेकिन उसका सोच जरा फर्क था। वह धंधे की चाल पर चल रही मेरी डाक्टरी से खुश नहीं थी लेकिन मेरे काम में ज्यादा दखलंदाजी भी नहीं करती थी। कभी मेरा कोई काम उसे बेहद नागवार गुजरता था तो वह मुझसे न कह कर बहादुर से कहती थी और मन हल्का कर लेती थी... फिर लौट आती थी अपनी दुनिया में, जिसमें म्यूजिक था, किताब या टीवी... किटी पार्टी में भी उसका मन लगता था। यह सब मेरे लिये ठीक ही था।
मेरी डाक्टरी में धीरे धीरे धंधे ने ज्यादा जगह घेरनी शुरू कर दी और वह सिर्फ मरीज़ों से मक्कार से फरेब तक सीमित नहीं रह गया, खासतौर पर मेरा 'उन लोगों' से जुड़ाव हो जाने के बाद...।
'उन लोगों' में नकाब पहने कई चेहरे हैं जिनकी जेबों में रुपये और डॉलर खुद-ब-खुद आकर गिरते है। जिनके पास हुकुम और बंदूक दोनो चलवाने की ताकत है... और जिनकी जेब से मेरी झोली में भी दौलत का बहाव है। हाथ और चित्त तो मेरा पहले से ही मैला था, 'उन लोगों' के संग-साथ के धंधे में मेरे हाथ लाल भी होने लगे। उसमें बदबू सिर्फ सफेद झूठ की नहीं रही बल्कि उस से कहीं ज्यादा गहरी हो गई। मैं दस्ताने पहनने लगा। 'उन लोगों' के साथ काम करने के लिये मुझे ऐसे लोगों की जरूरत पड़ने लगी जो न सिर्फ हमपेशा हों बल्कि हम-नियत भी हों। अपने नर्सिंगहोम और स्टॉफ को मैं इस धंधे से अलग ही रखता था। इस जरूरत ने मुझसे डॉक्टर मिसेज चौहान की खोज कराई। उनके साथ पहले मेरे दस्ताने उतरे फिर और भी बहुत कुछ उतर जाने लगा। इस से मेरे लिये घर समाज में अपना चेहरा सहज बनाए रखना आसान हो गया। मै घर आता तो पल्लवी से, अपनी बेटी से और बहादुर से जुड़ता और अपने नर्सिंग होम जाता तो अपने स्टॉफ और मरीजों से, लेकिन एक पारदर्शी मोमजामा मेरे ऊपर हमेशा चढ़ा रहता।
एक दिन मेरे पास पाँच बजे सुबह 'उन लोगों' का एक फोन तुरंत बुलाहट के साथ आया। मैं पहुँचा। सब के सब एक साथ हॉल में बैठे हुए थे। सामने कॉफी के कप और सिगार-सिगरेट के टुकड़े फैले पड़े थे। सबके चेहरों पर कुछ परेशानी के निशान थे। बात सीधे इस वाक्य से शुरू हुई कि मैं अपने नौकर बहादुर को रास्ते से हटा दूँ। इसका मतलब सिर्फ एक था, कि उसे मरना है और यह काम मेरे जिम्मे है। कारण पता चला कि डॉक्टर नारंग के बँगले पर बहादुर का भतीजा काम करता है। उस तक कुछ खतरनाक मामला लीक हो कर पहुँच गया है... बौखलाहट में मौका मिलते ही उसने अपने चाचा से अपना मन हलका किया है। उसमें हम सब और मुझ समेत कइयों का नाम है। इसलिये...।
'यह कब की बात है?'
'शनिवार की। आज तीन दिन हुए...।'
'... और बहादुर का भतीजा?'
'वह आपकी प्रॉब्लम नहीं है... उसे...। आप बस बहादुर को क्लियर करें। ज्यादा समय हमारे पास नहीं है, इसी हफ्ते...।'
मीटिंग खत्म हुई। मै घर आ गया। दो दिन बहादुर पर नजर रखता रहा। वह मुझे वैसे ही हमेशा की तरह मिला। हँसता मुस्काता और मेरी बेटी के लिये सामने के मार्केट से सीडी, कॉमिक्स लाता। मेरी बेटी अब उसे घोड़ा बनाने के लिये बड़ी हो चुकी थी। तीसरे दिन वह मेरी पत्नी के पास रोता बिलखता पहुँचा। मैं भी वहीं था। पता चला कि उसका नौजवान भतीजा जो डॉक्टर नारंग के बँगले पर काम करता था, और उनके बड़े भाई के साथ दूसरे शहर गया हुआ था, वहाँ वह छत पर कपड़े फैलाने गया और पता नहीं कैसे कपड़े फैलाने वाले स्टैण्ड में करन्ट आ जाने से बिजली का शॉक खा कर मर गया।
मेरे लिये यह मामूली झटका था। बड़ा झटका यह था कि यह हादसा, जब मैं सुबह सुबह मीटिंग के लिये बुलाया गया था, उसके पिछले दिन हो चुका था। इस बीच मेरी बात डॉक्टर नारंग से दो बार हुई थी लेकिन उनकी तरफ से मेरे पास ऐसा कोई जिक्र नहीं हुआ था, और मीटिंग में 'उन लोगों' की तरफ से भी नहीं...।
उस दिन मैं बहादुर को अपने सामने बैठा कर देर तक समझाता रहा था। गीता, रामायण का सार उसे बताता रहा था और दरअसल खुफिया तौर पर यह जानने की कोशिश करता रहा था कि उसके भतीजे ने उसे क्या कुछ बताया है। मैं यह भी टटोलने की कोशिश में था कि क्या वह अपने भतीजे के हादसे को किसी साजिश से जोड़ पा रहा है... लेकिन बहादुर, सिवाय भतीजे की मौत के गम के, पूरी तरह नॉर्मल था।
लेकिन मैं नॉर्मल नहीं था। मेरे ऊपर 'उन लोगों' का सीधा दबाव बढ़ता जा रहा था। फोन, ई-मेल सब रास्तों से मेरे लिये एक ही बात आ रही थी। यह तो मेरे सामने भी साफ था कि बहादुर अगर कुछ भी जानता है तो हमारे लिये खतरनाक हो सकता है, लेकिन मै इस काम के लिये खुद को तैयार नहीं कर पा रहा था कि मैं खुद या किसी के जरिये बहादुर का काम तमाम करवा दूँ, हालाँकि यह मेरे लिये बहुत मुश्किल काम नहीं था।
मैं इस काम की ओर पीठ किये जैसे तैसे दिन घंटे पार कर रहा था।
एक दिन बहादुर मेरी बेटी की किताब कॉपियों पर नये कवर चढ़ा रहा था, मेरी बेटी वहीं पास में बैठी ड्रॉइंग कर रही थी, पल्लवी भी वहीं एक किताब लिये बैठी हुई थी, कि बहादुर ने कवर चढ़ाते चढ़ाते एक अजीब सी बात बहुत ठंडे ढंग से कही -
'एक दिन मैं भी ऐसे ही चला जाऊँगा...!'
'कहाँ?' मेरी बेटी का मासूमियत भरा सवाल था।
'वहीं, जहाँ जगत सिंह चला गया झटके से।'
जगत सिंह बहादुर के भतीजे का नाम था। इस पर मेरी पत्नी ने उसे झिड़का था...।
'चुप कर, जो मुँह मे आता है शुभ अशुभ, बोलता रहता है बिना मतलब...।'
'नहीं बीबी जी... जगत को भी पता था कि वह जाएगा एक दिन, लेकिन यह नहीं पता था कि इतनी जल्दी, बस एक झटके में... ऐसे ही मुझे भी पता है।'
मेरी पत्नी सकते में आ गई थी लेकिन चुप लगा गई थी। मेरी बेटी बहादुर के पीछे पड़ गई थी कि इतनी गंदी बात उसने क्यों कही... मेरी बेटी का सरोकार बात के गंदे होने से था। सच या झूठ वह कहाँ समझती भला? अभी बच्ची ही थी मेरी बेटी...।
अगले ही दिन मेरी पत्नी ने मुझसे कहीं लांग ड्राइव पर चलने की फरमाइश की। मैं खुश हुआ और भौचक भी। अब तो हमारी उस नई लक्जरी कार को आये भी महीनों बीत चुके थे जो मुझे 'उन लोगों' की तरफ से नजराना हुई थी। हम लोग निकले थे और हाई-वे पर एक मॉटल में आ गये थे... तब तक मेरी पत्नी अधीर हो गई थी और उसने पहुँचते ही मुझे बहादुर की वह बात बताई थी... उसी रौ में उसका एक सवाल मुझसे था... मुझसे सीधे आँख मिला कर उसने पूछा था, 'क्या, जो बहादुर ने कहा है वह सच है...?'
मैं इस सवाल से भीतर तक काँप गया था। मेरी पत्नी की आवाज में इस बात का पूरा विश्वास भरा था कि इस सवाल का जबाब मेरे पास जरूर है। तब मुझे कुछ नहीं सूझा। मैं डाक्टरी के पेशे से धंधे में उतरा था लेकिन धंधे से जुर्म में कदम बढ़ा लेने के बाद का दबाव सह पाना मेरे लिये मुश्किल हो रहा था। मेरे लिये इसे झेल पाना तो कठिन था ही, इस से वापस लौटना नामुमकिन था।
बेबसी में मैने अपनी पत्नी को सारा कुछ कह सुनाया। उस सारे कुछ में मैने सिर्फ 'उन लोगों' से जुडे कारनामे ही नहीं बताये बल्कि वह सब भी बता दिया जिसके चलते 'उन लोगों' का मुझ तक यह चेहरा लिये आ पाना संभव हो पाया था।
मेरी बीबी पल्लवी की आँख में यह सब सुन कर मेरे प्रति एक गहरी नफरत का भाव आया लेकिन मेरे चेहरे की बेबसी देख कर वह सहम भी गई... जब हम वापस लौट रहे थे तो पहले के मुकाबले ज्यादा डरे घबराए हुए थे।,
'क्या मुझे सचमुच हत्या भी करनी पड़ेगी?'
घर के फाटक के भीतर गाड़ी लाने के पहले हमने आपस में यह तय किया कि हम अपनी बेटी या बहादुर से इस बारे में कोई जिक्र नहीं करेंगे। न ही उनके सामने आपस में कोई इस तरह की बात करेंगे। पल्लवी ने इसे मान लिया था लेकिन वह उसी दिन से भीतर ही भीतर जड़ होने लगी थी... मरने लगी थी।
मै बहादुर पर बराबर नजर रखे हुए था। मुझे उसके हाव-भाव और व्यवहार मे कोई बदलाव नहीं पता चल रहा था। उस दिन जो उसने बोला था उस वाक्य की भी कोई झलक उसमें नहीं दिखती थी।
मैं बेहद परेशान था। 'उन लोगों' की बात को अंजाम दे पाने के लिये मैं खुद को तैयार नहीं कर पा रहा था। दूसरी तरफ, जब मैं जरा भी सोचता था तो मेरा सिर चकरा जाता था। 'उन लोगों' का साथी बन कर जो कारनामे हमने किये थे वह सचमुच खतरनाक थे और उनके आगे हत्या कोई बड़ी बात नहीं थी। 'उन लोगों' की गिनती बहुत बड़ी थी। उनके कद बहुत ऊँचे थे, और उनकी जमात में देश के सभी खंभों की ईंट शामिल थी। राजनेता, नौकरशाह और मीडिया इस सब की हस्तियां धंधे के रास्ते 'उन लोगों' से जुड़ी हुईं थीं। ऐसे में मेरा बहादुर की तरफ से लापरवाही बरतना सचमुच सरासर गलत था। 'उन लोगों' ने जगत सिंह को इतनी सफाई से ठिकाने लगा कर मेरे सामने मॉडल भी रख दिया था। 'उन लोगों' का मुझ पर दबाव बढ़ाते जाना मेरी समझ में आ रहा था फिर भी मैं खुद को इस लाइन पर तैयार नहीं कर पा रहा था कि मैं जरा सा सोचूँ भी... कोई प्लान बनाना तो दूर की बात है।
बहादुर की उस दिन कही बात ने पता नहीं मेरी बेटी को कैसे, कहाँ छुआ कि वह परेशान हो गई। उसके पहले जगत सिंह की मौत की खबर पा कर बहादुर को जैसे रोता बिलखता मेरी बेटी ने देखा था, वह भी उसे हिला गया था... उसके बाद उस दिन वाली बात... इस सब से मेरी बेटी के व्यवहार में एक बदलाव आया था। उस दिन के लाँग ड्राइव से लौटने के बाद मैं और पल्लवी भी एक दूसरे से सहज नहीं थे। हम एक दूसरे से खुल कर बात नहीं करते थे... हमारे बीच या तो चुप सन्नाटा रहता था या हम सिर जोड़ कर खुसपुस करते थे और किसी को आते देख कर यकायक चुप हो जाते थे। मैं बहुत चौकन्ना रहने लगा था कि मोबाइल पर एक के बाद दूसरी घंटी न बजने दूँ और झट उठा लूँ। अक्सर मोबाइल बजने पर मैं कमरा बंद हो जाता और पल्लवी चौकन्नी सी मेरे पास घिर आती। अक्सर मेरा मोबाइल रात को बजता और उसके बाद नींद का सवाल नहीं बचता।
इस सब ने मुझे और पल्लवी को एक पाले में खड़ा कर दिया और बहादुर के साथ मेरी बेटी को दूसरे पाले में और इन दोनो पालों के बीच एक चौड़ा पाट बन गया। अब जब भी बहादुर बाहर जाता, मेरी बेटी उसके साथ जाने की जिद करती...।
'मैं सीडी अपनी पसंद की लाऊँगी...।'
'ये क्या मेरे पढ़े हुए कॉमिक्स उठा लाए...। चलो बदल कर लाएँ...।'
जाते जाते रास्ते में वह बहादुर का चेहरा देखती। देखती कि उस पर उस दिन के उसके रोने के निशान तो नहीं है...। उसे उस दिन की बात की वजह बताने की जिद करती। चलते चलते कहती कि मैं थक गई हूँ और कहीं किनारे बैठ जाती और बहादुर के आगे वही सवाल खड़ा कर देती, 'बताओ न बहादुर अंकल, प्लीज... ऐसे क्यों बोला तुमने?'
पता नहीं बहादुर ने यह नोट किया यह नहीं, लेकिन मेरी पत्नी ने मुझे बताया कि मेरी बेटी अक्सर बहादुर को अंकल कहने लगी है, जब कि शुरू से हम सब उसे बहादुर ही कहते आए हैं... हमें इस बात का एहसास बराबर हो रहा था कि हमारा अपनी बेटी से जुड़ाव उतना सहज नहीं रह गया है, लेकिन किया भी क्या जा सकता था? घर का माहौल ही एक आतंक से भर गया था, एक डर... मैं न उस कदम को खुद अंजाम दे पा रहा था न ही किसी और को यह काम सौंप पाया था।
उस दिन, दोपहर में मेरा मोबाइल तब बजा जब मैं डाक्टर मिसेज चौहान के साथ उनकी क्लीनिक के पीछे बने प्राइवेट रूम में उनके साथ अपने तनाव से मुक्त हो कर बैठा ही था और वह वॉश के लिये चली गईं थी। मोबाइल पर पल्लवी थी, मेरी पत्नी। उसके पास अभी अभी इन्हीं डाक्टर चौहान का फोन आया था और उसने पल्लवी से सीधे दो टूक बात की थी। उसने कहा था कि मेरी बेटी की बहादुर से नजदीकी बढ़ती जा रही है, इस लिये 'उन लोगों' का कहना है कि बहादुर के साथ उसे भी पैक करना जरूरी है... उसने यह भी कहा कि मैं इस काम को बस हफ्ते भर में निपटा दूँ। मेरी पत्नी थर्राई हुई थी। सुन कर मैं भी यकायक सकते में आ गया था। तभी डाक्टर चौहान हाथ में ट्रे ले कर लौटीं थीं। उसमे कॉफी के दो मग थे। ट्रे रख कर उन्होंने मुझसे कहा था -
'बहुत परेशान हो... हमेशा की तरह ठीक से मिल भी नहीं पाये। कॉफी चार्ज कर के लाई हूँ, ऐसे नहीं जाने दूँगी। एक बार ढंग से आ जाओ, तब जाना, और सीधे घर जाना।'
मैं उसका चेहरा ताकता रहा। उसके चेहरे पर मेरे पास आये फोन का संकेत खोजता रहा, लेकिन खोज भर भी एकाग्रता मैं कहाँ ला पा रहा था। बस, मैने कप उठाया और कॉफी सिप करने लगा।
कॉफी सचमुच जबरदस्त चार्ज थी। कप खाली होते होते तक मैं एक राक्षस हो गया था। मिनट भर में ही मैने अपने पहले के किये हुए को दोहराना शुरू कर दिया। वह एक बर्बर किस्म का, आक्रामक और अपनी तरह का पहला ही अनुभव मेरे लिये था, हालाँकि हम महीनों से मिल रहे थे।
अपने उबाल से मैं जैसे ही मुक्त हो कर परे हटा, उसने मुझे कस कर अपनी बाँहों में भर लिया और फफक कर रो पड़ी। उसके रोने में मेरे राक्षसी बहाव से कहीं ज्यादा वेग था। रोते रोते जब वह कुछ कहने की स्थिति में आई तब उसके बोल फूटे -
'... मुझे माफ कर दो अरविंद। मैं भी तुम्हारी तरह गर्दन तक दलदल में फँसी हूँ। हमारे पास अब कोई रास्ता नहीं है। हमे वही करना होगा जो 'उन लोगों' की मर्जी होगी। दलदल में तो वह लोग भी फँसे हुए हैं, तलवार उनके सिर पर भी लटक रही है। ...प्लीज, अब दोनों को ही पैक करना होगा, यह 'उन लोगों' का पक्का फैसला है।'
'दोनो का मतलब?' मैने जानबूझ कर संशय सामने रखा।
'बहादुर के साथ चिरइया भी...' उसकी बात बीच में ही टूट गई।
मैं चौंक गया। उसे मेरी बेटी का घर का नाम लिया था। मैं यकायक उठ पड़ा... जरा लड़खड़ाया तो उसे मुझे थाम लिया।
'चलो, मैं भी चलती हूँ। बहुत दिनों से तुम्हारी मिसेज से भी मिलना नहीं हुआ है।'
चलते चलते उसने मेरी जेब में कुछ डाल दिया और कहा,
'चार्ज है, अभी जो कॉफी में तुमने ट्राई किया। डाक्टर दीपांकर ने तुम्हारे लिये भेजा है... देख लेना, इसी हफ्ते...।'
मैं घर आ गया। वह भी मेरे साथ ऊपर तक आई। बराम्दे में मेरी बेटी बहादुर के साथ लूडो खेल रही थी और पल्लवी बाल्कनी में खड़ी थी।
ऊपर आकर डाक्टर चौहान ने मेरे फ्रिज से अपने आप बोतल निकाल कर पानी पिया और पास खड़ी मेरी मिसेज की ओर घूमी, 'काउन्ट डाउन शुरू हो गया है पल्लवी, अरविन्द को समझाओ, नहीं तो हम सब मारे जाएँगे। मैं भी...।'
पानी पी कर वह तेजी से नीचे उतर गई। अपने क्लीनिक से वह मेरे साथ मेरी ही गाड़ी में यहाँ आई थी। नीचे आते ही उसे एक ऑटो सामने खड़ा दिखा, वह उसमें बैठी और चल पड़ी।
उसके बाद पाँच दिन हमने आतंक के साये में काटे। चिरइया का नाम उस भी उस लिस्ट में जुड़ जाने से मैं बिल्कुल पस्त पड़ गया। मेरे मन में बहादुर को भी निशाना बनाने की जरा भर हिम्मत नहीं बची। मैने और पल्लवी ने यह मान लिया कि चिरइया तो अब गई। हम अब सिर्फ इंतजार कर रहे थे कि कब और कैसे...?
मुझे अब एहसास हो रहा था कि दलदल का चेहरा सचमुच इतना भयानक, इतना बेबस कर देने वाला है। वह दिन बहुत पीछे गया नहीं दिखता जब मेरे नर्सिंग होम के पते पर मुझे एकदम पहली बार डाक्टर नारंग के फॉर्महाउज पर होने वाली एक पार्टी का आमंत्रण मिला था। एक बहुत चुप रहने वाले मेरे लैब असिस्टेंट ने मुझे एकांत में रोक कर मुझसे पूछा था कि क्या मैं उस पार्टी में जाऊँगा?
मैं अचकचा गया था। उसी ने बात आगे बढ़ाई थी।
...यह रास्ता दलदल की ओर जाता है सर। ठीक यही वक्त है जब आप अपना कदम चुन सकते हैं। उसके बाद सिर्फ धँसते जाना है। दौलत तो है। वहाँ और क्या होता है मुझे नहीं मालुम। लेकिन यह जानता हूँ कि साकेत नर्सिंग होम के डाक्टर सरदेसाई की माँ पागलखाने में है और उनकी मिसेज ने खुदकुशी कर ली। डाक्टर सरदेसाई का कार एक्सीडेंट हुआ था और उनकी मौत ठौर पर ही हो गई थी। डाक्टर सरदेसाई तीन दिन से हर रोज घर से यही कह कर निकलते थे कि जा तो रहा हूँ लेकिन पता नहीं लौटूँगा भी या नहीं। तीसरे दिन उनका डर सही निकला था। इसलिये सर, माफिया की ओर कदम न ही बढ़े तो अच्छा है... तब मैने उसकी बात अनसुनी कर दी थी। डाक्टरी को धंधे की तर्ज पर करना मैं शुरू ही कर चुका था। और अब... अब सचमुच बहुत देर हो चुकी थी। मेरी आँखें मेरी ही बेटी की मौत देखने की घड़ियाँ गिन रहीं थीं।
पाँचवें दिन शाम को अचानक डाक्टर चौहान मेरे घर आईं थीं।
'कैसा रहे कि आज रात हम सब साथ रहें?'
उसके टोन में कोई सवाल नहीं बल्कि एक एलान था। उसके हाथ का बैग इस बात का सबूत था कि उसका रात बाहर ठहरना बाकायदा तय था।
हमने साथ बैठ कर चाय पी थी। पल्लवी यकायक बहुत चुप हो गई थी। इस बीच हमारी बेटी दो बार हमारे पास आई थी। दो बार बहादुर आया। एक बार चाय की ट्रे लेकर, दूसरी बार कप समेटने। तीसरी बार उसने डिनर के लिये आवाज लगाई जैसे हमेशा लगाता है, 'बीबी जी, आ जाओ सब लोग।'
डिनर के समय डाक्टर चौहान ने बहादुर से कहा, 'आज यहीं रुक जाओ बहादुर। हम लोग गप-शप करेंगे तो हमे चाय कॉफी मिल जाएगी।'
'ठीक है।' बहादुर ने जबाब दिया था।
पल्लवी ने मेरी तरफ कनखियों से देखा था और मैने उसकी तरफ। काउन्ट डाउन ने तेजी पकड़ ली है, मुझे मन ही मन लगा था। मैने पत्नी से पूछा था, बेटी क्या कर रही है।
'अपने कमरे में कार्टून देख रही है, उसे देखने दो।' जबाब डाक्टर चौहान ने दिया था। फिर तुरंत बोली थी, 'कोई फॉस्ट सा म्यूजिक नहीं है?' वह तेजी से उठ कर हमारे रैक में से एक सीडी ले कर लौटी थी और उसे मेरी पत्नी को थमा दिया था... 'यह लगाओ।'
कमरे में तेज म्यूजिक बजने लगा था और देर तक हम लोग अपने भीतर का हाहाकार उसमें घोलने की कोशिश करते रहे थे। रात को करीब ग्यारह बजे डाक्टर चौहान के मोबाइल पर मिस्ड काल की एक घंटी बजी और चुप हो गई। मेरी पत्नी के कान खड़े हुए। चौहान उठ कर बाल्कनी के बाहर झाँकने लगीं। चिरइया अपने कमरे में गहरी नींद सो चुकी थी। उसके कमरे का एक दरवाजा हमारे कमरे की ओर खुलता था, दूसरा बाहर बाल्कनी की तरफ। हर रोज जाने से पहले बहादुर यह दरवाजा अंदर से बंद करता था।
डाक्टर चौहान को बाहर देख कर बहादुर ने पूछा था, 'कॉफी लाऊँ मेम सा'ब?'
उनके सिर हिलाने पर वह फुर्ती से किचिन में चला गया था। इस बीच पल्लवी अचानक तनाव में आ गई, जैसे किसी आशंका ने आ कर उसे सामने से पकड़ लिया हो। आशंका की गिरफ्त में तो हम लोग वैसे भी जी रहे थे।
मिसेज चौहान बाल्कनी से वापस आ गईं। दरवाजा उन्होंने खुला ही रहने दिया। इस से म्यूजिक का शोर कुछ कम हुआ। तभी बहादुर कॉफी की ट्रे लिये मेन दरवाजे से न आ कर, चिरइया के कमरे की तरफ से हमारे कमरे में आया। ट्रे उसने मेज पर रख दी और वह पल्लवी की तरफ घूमा।
'बिटिया का कमरा भीतर से बंद कर दिया है बीबी जी। अब मैं जाऊँ? बाल्कनी के पीछे पड़ रहूँगा। जब जरूरत पड़े, बुला लेना।'
बहादुर के जाते ही डाक्टर चौहान ने दरवाजा फट से बंद कर दिया और लैच खींच दी। दरवाजा लॉक हो गया।
मैं यकायक उठा और बेटी के कमरे की ओर चल दिया, यह देखने के लिये कि क्या उसका बाल्कनी की ओर वाला दरवाजा ठीक से बंद है। दरवाजे की दोनो सिटकनियाँ ऊपर नीचे बाकायदा लगी हुई थीं। मैं पलटा तो डाक्टर चौहान मेरे पीछे खड़ीं थीं। एकदम खामोश और खुद को भींचे हुए। मेरी पत्नी पल्लवी भी उनके साथ थी। फिर हम तीनों अपने कमरे में एक साथ लौटे। बाहर खट से बाल्कनी की लाइट बुझ गई। बहादुर हमेशा जाने के पहले यह लाइट बुझाता है। ठीक उसी समय डाक्टर चौहान के मोबाइल पर फिर एक नन्ही सी मिस्ड कॉल बजी। तेज म्यूजिक के बावजूद वह आवाज हमें डरा गई। तभी यकायक पल्लवी ने बौखला कर डाक्टर चौहान का हाथ थाम लिया और उनकी आँखों मे सीधे देखते हुए अपना सवाल उनके सामने रख दिया -
'क्या आज यह इनकी आखिरी रात है?'
'हाँ' डाक्टर चौहान ने सधे स्वर में जबाब देते हुए पल्लवी के मुँह पर अपनी हथेली रख दी थी, जैसे उसे अंदाज था कि वह चीख उठेगी। लेकिन पल्लवी चुप रही। उसे शाम से ही पता लग गया था जैसे।
'आओ कॉफी लो और म्यूजिक बंद कर दो। यह समय कुछ जरूरी बात करने का है।'
हम तीनों एक घेरे में सिमट आये। म्यूजिक बंद हो गया जिस से एक चीखता हुआ सन्नाटा कमरे में भर गया। डाक्टर ने उठ कर कमरे की मेन लाइट बंद कर के नाइट लैंप जला दिया।
'सुनिये डाक्टर अरविंद तोमर, आप अपनी एक जिम्मेदारी निभाने में नाकाम रहे। नो प्रॉब्लम। अब 'उन लोगों' ने इसका इंतजाम कर लिया है और आज रात वह काम पूरा हो जाएगा। अब आपके लिये 'उन लोगों' की हिदायत यह है कि इन दोनों खून का इल्जाम आप अपने सिर उठाएँगे। यह काम कैसे होगा यह आप की समस्या नहीं है, लेकिन खबर यही बनेगी कि आपने ही इन दोनो को मारा है। अब अगर आपसे इस प्लान में कोई चूक हुई तो हम तीनों ही अपनी जान से हाथ धो बैठेंगे। बात खत्म है। अब जल्दी से कॉफी उठा कर कप खाली कीजिये।'
हम दोनों के सामने ही डाक्टर चौहान ने अपने पर्स से एक शीशी निकाल कर तीनों ही प्यालों में दवा की कुछ बूँदें टपकाईं और हमारे कप उठाने के पहले ही अपना कप उठा कर एक ही घूँट में खाली कर दिया। कॉफी हमने भी पी। मिनट भर में ही तंद्रा हम पर हावी होने लगी। हम तीनों ही बेकाबू हो कर निढाल हो चले थे। वह तो हमारी चेतना में चल रहा हाहाकार था जो हमारी मूर्छा से लड़ रहा था। तभी डाक्टर चौहान का मोबाइल तीसरी बार बजा। इस बार उसने सुना और 'डन' कह के बंद कर दिया। अब हम तीनों में इतनी सामर्थ्य नहीं बची थी जो हम उठ कर खड़े भी हो सकें।
सुबह हलचल थी। मैं जब जागा था तब तक दोनों लोग बेसुध पड़े थे। हमारे कमरे से बेटी के कमरे में जाने वाला दरवाजा उधर भीतर से बंद था और मेरी इतनी हिम्मत नहीं थी कि में निकल कर बाल्कनी तक जाता। मैं बुत बना उस दरवाजे के सामने खड़ा रहा। बाहर अभी अँधेरा ही था। मेरे उठने के कुछ देर बाद डाक्टर चौहान उठीं। उन्होंने मुझसे आँख मिलाए बगैर कहा कि काम हो गया है। मैने सिहर कर पल्लवी की ओर देखा ही था कि चौहान ने मुझे रोक लिया, 'उसे मत छेड़ो। मैने उसे डबल डूप दे दिया है, वह अभी कम से कम चार घंटे नहीं जागेगी... 'मैने घड़ी देखी। बस आधे घंटे में उजाला होना शुरू हो जाएगा। डाक्टर चौहान बाहर आ गईं। मैं दरवाजे तक आ कर रुक गया। वह निकलते निकलते फिर पलट कर वापस आई।
'डाक्टर तोमर, अभी फिलहाल हमारी जान बच गई है, लेकिन आगे कोई नादानी मत करना... तुम अभी 'उन लोगों' को ठीक से जान नहीं पाये हो। उनके विश्वास में बने रहोगे तो तुम्हारा कुछ नहीं बिगड़ेगा, नहीं तो हम तीनों भी नहीं बचेंगे।'
डाक्टर चौहान नीचे उतर गईं। नीचे उनकी कार खड़ी थी। जब वह चली तो मैने देखा कि कार की पीछे वाली सीट पर कोई बैठा हुआ था।
उसके बाद एक नया भयानक दिन शुरू हुआ था। पल्लवी को अभी देर तक बेसुध रहना था। मुझे अपने चारों ओर दलदल साफ नजर आ रहा था और मैं उसमें धंसा हुआ था, धँसता ही जा रहा था। मुझे चौहान की बात से यह साफ समझ में आ गया था कि 'उन लोगों' के पास मुकम्मल योजना है जिसके के अनुसार यह हत्याएँ हुई है। वह लोग इन के जुर्म में मुझे फँसवाकर मुझसे छुटकारा भी पा सकते हैं और अपने रसूख के दम पर मुझे बचा कर हमेशा के लिये पाल भी सकते है। लेकिन कैसे, मैं यह अटकल लगा पाने की दिमागी हालत में नहीं था और वह लोग भी किसी अटकल के परे की चीज थे।
दिन फैलते फैलते खबर खुली और बिखरती चली गई। बेहद सनसनी के दौर में मैं बदहवास होता जा रहा था और पल्लवी अभी तक होश में नहीं आई थी। घंटे भर में पुलिस की आमदरफ्त शुरू हो गई। पुलिस पूरे घर में छानबीन कर रही थी। वह वायरलैस से खबर ले दे रही थी। बीच बीच में जब उसके चीफ का मोबाइल बजता तो इधर से बस यस सर, यस सर सुनाई देता। घर भर में क्या किया जा रहा था मुझे कुछ नहीं पता था। मुझे और अचेत पल्लवी को कमरे में बंद कर दिया गया था। किसी को हमसे मिलने बात करने की इजाजत नहीं थी। पुलिस ने भीड़ को बाहर ही रोक दिया था और उसके बाद आसपास सड़क पर कर्फ्यू जैसा सन्नाटा उतार दिया था। मेरे कमरे के बाहर, बाल्कनी और जीने पर कुछ लोगों के आने जाने, बात करने और पुलिस के बूटों की आवाज थी। दोपहर के समय पुलिस के संग मेरे साथ काम करने वाले कुछ लोग देखे गये। उनमें मेरी नजर डाक्टर चौहान पर भी पड़ी थी लेकिन उन्होंने हमारी तरफ नहीं देखा था। तभी पल्लवी की तंद्रा जरा टूटी थी। उसके उठ कर बैठते ही एक महिला कानेस्टेबल ने आकर उसे बाँह से पकड़ा था और बाथरूम तक जाने में उसकी मदद की थी। पता नही पल्लवी को बाथरूम जाने की जरूरत थी भी या नहीं, लेकिन जब वह वापस लाई गई तो फिर निढाल होकर बिस्तर पर ढह गई।
कुछ देर बाद मुझे और पल्लवी को जीप में ले कर पुलिस कहीं चल पड़ी। पल्लवी अभी भी चेतना में नहीं थी हालाँकि मूर्छित भी नहीं थी। हम पुलिस स्टेशन लाए गये थे। मेरे मेडिकल बोर्ड के कुछ आफिसर लोग वहाँ मौजूद थे। डाक्टर नारंग और डाक्टर भारद्वाज भी थे। करीब बस मिनट की कार्यवाही हुई होगी। कुछ कागजों पर मेरे दस्तखत कराए गये और उसके बाद एक गाड़ी हमें डाक्टर जयराम के नर्सिंगहोम तक छोड़ गई। डाक्टर जयराम, डाक्टर नारंग और डाक्टर भारद्वाज के साथ पुलिस चीफ सादे कपड़ों में उस हॉल तक आये थे जहाँ हमारे लिये दो बेड और सोफा सेट पड़ा था। पूरा साउण्डप्रूफ हॉल एक बेआवाज ए.सी. से ठंढा हो रहा था। मेरे बगल वाले बेड पर पल्लवी बैठी थी। उसे अभी कुछ देर पहले एक इन्जेक्शन दिया गया था। साथ ही एक इन्जेक्शन मुझे भी दिया गया था।
'डरो मत डाक्टर तोमर, अभी पुलिस अपना काम कर रही है, उसे करने दो। जो हुआ है, बहुत बुरा हुआ है... खुद को और अपनी मिसेज को सँभालो... हम साथ हैं तुम्हारे... ओ.के. ... अब आराम करो।'
अपना फर्ज निभा कर डाक्टर नारंग फिर सबके साथ बातचीत में लग गये। तभी ट्रे में कॉफी आई और उस ग्रुप के पास पहुँच गई। पीछे पीछे एक ट्राली आई जिसमें हमारे लिये दूध के गिलास थे, बटर टोस्ट और फल, ठीक उसी तरह जैसे हम ऑपरेशन के बाद मरीजों को देते हैं। करीब शाम को डाक्टर चौहान आ पहुँचीं। उनके हाथ में एक अखबार था जो उन्होंने आगे बढ़ कर डाक्टर भारद्वाज को पकड़ाया था और मेरे पास आकर खड़ी हो गईं थीं।
'कैसे हैं डाक्टर तोमर...?' उन्होंने पल्लवी के सिर पर हाथ फेरा था, 'सिर में दर्द तो नहीं है...?'
पल्लवी ने सिर हिला कर ना का उत्तर दिया था। डाक्टर चौहान के आ जाने के बाद दूसरे डाक्टर लोग और पुलिस चीफ बात करते करते उठ कर बाहर चले गये थे।
अब उस हॉल में सिर्फ तीनों रह गये थे। तभी डाक्टर चौहान ने अपना बैग खोल कर उसमें से एक अखबार निकाला था और हमें थमा दिया था। वह एक लोकल इवनिंग न्यूज टाइप अखबार था जिसके बारे में कहा जाता है कि उसकी खबरें लोगों में बिजली के करंट की तरह दौड़ती हैं। शायद इसी अखबार की एक कॉपी डाक्टर चौहान ने डाक्टर भारद्वाज को भी दी थी।
अखबार के पहले ही पेज पर छाई हुई खबर ने मुझे झक्झोर दिया था। सच, बेटी की मौत को सहते जाने के दौर में भी यह गुंजायश बची थी कि मैं एकबारगी फिर से काँप उठूँ।
अखबार यह कहानी सामने लाया था कि मेरी तेरह चौदह साल की बेटी और अड़तीस साल के बहादुर के बीच नाजायज रिश्ते पनप रहे थे, जिन्हें किसी बाप के लिये बरदाश्त कर पाना कठिन है। साथ ही, खबर यह भी थी कि मेरे, यानी डाक्टर अरविंद तोमर और डाक्टर मिसेज चौहान के बीच भी नाजायज रिश्ते बने हुए थे जिसकी भनक बहादुर और मेरी बेटी को लग चुकी थी। इस दबती गोट के चलते, जैसा कि अखबार ने बताया, मेरे पास इसके अलावा कोई चारा नहीं था कि मैं उन दोनों को ठिकाने लगा दूँ, और इस तरह बकौल अखबार, मैने, यानी डाक्टर तोमर ने उन दोनो को जान से मार डाला। बहादुर के साथ मेरी बेटी की फोटो अखबार में थी, साथ ही मेरी और डाक्टर चौहान की भी फोटो उसमें छपी थी। यह घटना हुए अभी मुश्किल से अठ्ठारह-बीस घंटे बीते होंगे। पुलिस यही कह रही थी कि अभी छान-बीन चल रही है, लेकिन उस अखबार ने इस बात को अंतिम सच की तरह पूरे शहर में बाँट दिया था। अखबार में यह नहीं छपा था कि उनके पास इस तथ्य का आधार या सबूत क्या है। शहर को इसकी जरूरत भी नहीं थी। लोगों को बस सनसनी चाहिये थी जो उन्हें मिल गई, उसके बाद अखबार का काम खत्म...।
मिनट भर में मेरी आँख के आगे पूरी धरती घूम गई। अखबार रख कर डाक्टर चौहान चुप बैठीं थीं। मेरे अखबार रख देने पर पल्लवी ने कनखियों से अखबार में छपी तस्वीरों को देखा था और समझ गई थी। धरती के एक चक्कर घूम लेने के बाद मेरे दिमाग में कुछ अजीब से ख्याल पैदा कर दिये जो मैं यकायक बोल पड़ा।
'वैसे पल्लवी, बहादुर के चिरइया से रिश्ते नाजायज तो थे। बाप मैं था उसका और बाप का रोल बहादुर निभा रहा था। चिरइया उसी के साथ लूडो खेलती थी, उसी की पीठ पर कूदती थी और उसी को पता होता था कि वह कौन कौन से कॉमिक्स पढ़ चुकी है। यह रिश्ता नाजायज नहीं तो और क्या था? बताओ... अखबार ने गलत क्या कहा...?'
मिनट भर रुक कर मैं फिर बोला, '...लेकिन कलावती, यह तो बताओ यह आइडिया किसका है?'
डाक्टर चौहान अपना पारिवारिक अंतरंग नाम सुन कर जरा द्रवित हुईं, फिर बोलीं,
'... 'उन लोगों' का ही, और किसका? उनके पास न आइडिया की कमी है, न दौलत की। न ताकत की कमी है न हिम्मत की। उनके पास इस सब के लिये और और की प्यास भी कम नहीं है। वह जानते हैं कि वह भी दलदल में धँसते जा रहे हैं, फिर भी उनकी आइडियों की हवस खत्म नहीं होती दिखती... और आइडिये उनको नये नये लोगों से मिल भी रहे हैं।'
पल्लवी चुप सुन रही थी सब कुछ, लेकिन उसके चेहरे पर कोई लहर नहीं उठ रही थी। डाक्टर चौहान के चेहरे पर लहर भी दिख रही थी और उन से लड़ने की थकान भी।
'... और कला, रिश्ते तो हमारे भी नाजायज ही थे... उन के पीछे किस इंसानी भावना की जायज माँग बताई जा सकती है? सबसे पहले 'उन लोगों' के हुकुम सुन कर तुम्हारी टाँगे काँपी थीं। फिर तुम्हारे प्रस्तावों को सुन कर मेरी, जिन्हे हमें बहरहाल मानना ही होता था। इसी के चलते ही तो हम दोनों की काँपती टाँगें एक दूसरे का सहारा बनी थीं। वरना हमारे उस जुड़ने में न हवस थी न जज्बात। सिर्फ एक जायज डर को ढाँपने का काला कंबल था वह हमारा रिश्ता... इसे कोई जायज कैसे कह सकता है, बताओ?'
एक तेज लहर के साथ डाक्टर चौहान का चेहरा कँपकँपा गया जिसे पल्लवी ने भी देखा और उसके असर ने पल्लवी को भी एक महीन सा कंपन दे दिया।
'... ये 'था' क्यों कह रहे हो अरविंद... तुम्हें कुछ नहीं होगा। इस स्टोरी के जरिये उनका प्लान है कि सबका ध्यान इसी तरफ लग जाय और तब तक वह अपनी लीपा-पोती कर गुजरें। बाकी तुम्हारे खिलाफ किसी को कुछ मिलने वाला है नहीं, इसलिये 'था' मत कहो अरविंद, प्लीज...।' बात कहते कहते डाक्टर चौहान की आवाज भीग कर लड़खड़ा गई।
'देखा तुमने?' यकायक पल्लवी के बोल फूटे।
'देखा तुमने? ऐसा रिश्ता जायज नाजायज जैसा भी हो, जज्बात जरूर पैदा करता है, भले ही उसकी शुरुआत चाहे जैसे हुई हो... देख लो, डाक्टर चट्टान जैसी 'उन लोगों' की मजबूत गोट भी जज्बात की रौ में आ गई। इसलिये है और था की बात छोड़ो और सोचो कि हमें क्या करना है।'
'पल्लवी, हमें कुछ सोचना नहीं है। सोचने का काम सिर्फ 'उन लोगों' का है। वही लोग...।
डाक्टर चौहान के स्वर में मजबूती लौट आई और वह अपनी भूमिका में फिर लग गईं... लेकिन मैं तो सोच चुका था। मुझे जो करना था वह मैने तय कर लिया था। तीन दिन तक मैं और पल्लवी वहीं डाक्टर जयराम के नर्सिंग होम के बेसमेंट में रखे गये। इस बीच 'उन लोगों' के भेजे हुए लोग आते रहे और हमें समझा कर, भरोसा दिला कर लौट जाते रहे। इस बीच शहर के दूर-दराज के इलाकों में भी इस काण्ड की चर्चा फैल चुकी थी, जिसमें मैं अपनी बेटी और नौकर का हत्यारा ठहर रहा था। बदचलन बेटी का बदचलन जालिम बाप...।
चौथे दिन हम घर आ गये। डाक्टर चौहान के साथ डाक्टर मनचंदा हमें ले कर आए थे। उन्होंने मुझसे और पल्लवी से उस ब्रीफिंग पर फिर एक बार मुँहजुबानी अँगूठा लगवाया था जो हमें तीन दिन से लगातार दिलवाई जा रही थी। इस बीच डाक्टर चौहान पल्लवी से लगातार बात करती जा रही थी जिसमें उस ब्रीफिंग से बाहर भी बहुत कुछ था।
मैं अपने निर्णय में दिन-ब-दिन सहज होता जा रहा था। बदचलन बेटी का बदचलन बाप मैं हो ही चुका था। डाक्टरी के कंधे पर चढ़ कर धंधा और धंधे के रास्ते जुर्म की दुनिया में उतरकर मैने दौलत भले ही बटोरी हो, घर परिवार सब कुछ गँवाया था। 'उन लोगों' के रसूख और तिकड़म के दम पर बच जाना भी मुझे वह रास्ता नहीं दिखाता था जो दलदल से बाहर जाता हो। अब किसी की बाँहें इतनी बलवान नहीं थीं जो मुझे न चिरइया, तो मेरी ओरीजिनल पल्लवी ही वापस सौंप दे, क्योंकि मैं खुद भी ओरीजिनल नहीं रह गया था। तो फिर जीने को बचा क्या था?
उसी रात मैंने दवाई की एक शीशी अपने मुँह में उड़ेली और अपने प्राण के पंछी को अपने हाथ में ले कर उड़ा दिया। पिंजरे में साल छह महीने बंद पंछी भी पिंजरा खुल जाने पर तुरत आसमान नहीं छूता बल्कि देर तक घर के खिड़की दरवाजों पर बैठा रहता है। मेरे प्राणों ने भी यही ढब दिखाया, लेकिन पंछी और आकाश के बीच अब पिंजरा कहाँ था...?
कदमों की आहट फिर पास आ रही है। डाक्टर भसीन असमंजस लिये डाक्टर दरबारी और पांडे के साथ आ रहे हैं और मेरे भीतर की हलचल में बसे लोग वापस जा रहे हैं। अब तो उन्हे जाना ही क्योंकि मैने अपने भीतर का सच हवा को सौंप दिया है जिसे कोई तो सुनेगा। आगे डाक्टर भसीन जो रिपोर्ट देने के लिये मजबूर हैं, वह दें। डाक्टर भसीन भी अकेले कहाँ हैं? उनके साथ बहुत से लोग हैं, जिनके पैरों तले दलदल बनना अभी शुरू ही हुआ है। उनके सुनने के लिये ठीक यही वक्त सही है।
इनका काउन्ट डाउन शुरू होने में अभी देर है। वह चाहें तो अभी भी पलट कर वापस जा सकते हैं... जो भी हो, मेरा अच्छा बुरा तो पूरा हुआ...
अब अलविदा...