कोई नहीं / राजा सिंह
विरार किताब में मगन था कि अचानक किसी को ठीक सामने पाकर विस्मय से, " आप।! पहचाना नहीं...? किताब को एक कोने में टिका कर पूछा।
"मै उस कोने वाले मकान में रहता हूँ, जहाँ आप अक्सर टकटकी लगाकर देखते है।" उसने हाथ के इशारे से-से उसे बताया।परन्तु ऐसे स्वर जो स्वाभाविक रूप से काफी मंद पड़ गया था।उसकी दृष्टि दूर न जाकर, उसके मकान पर स्थिर हो गयी। दो मंजिला एक पुराना मकान जिसमे वर्षों से लिपाई पुताई नहीं हुई थी।किन्तु पहले उसे कभी ऐसे नहीं देखा था जैसा उसने कहा था।वह मकान उसके घर के सामने तिर्यक कोने में स्थित तीसरा मकान था।और आखिरी मकान भी जहाँ पर जाकर रास्ता बंद हो गया था।
फिर अचानक संभल गया, बहुत ही व्यवहारिक स्वर में उसने पूछा, "कहिये...?" हालाँकि उसने अपने स्वर को यथासम्भव मुलामियत देने की कोशित की थी परन्तु उसे तिक्त होने से नहीं बचा पाया। क्योकि टकटकी शब्द उसके जेहन में चक्कर काटता फिर रहा था। कुछ रूककर उसने कहा, "आपको दीदी ने बुलाया है...आज शाम...साथ चाय पीने के लिए.।"
आश्चर्य...दर आश्चर्य...! ... "मै तो आपकी दीदी को जानता भी नहीं हूँ, ...फिर..."
"मगर वह आपको जानती है।" उसने कुछ हंसते हुए कहा। या उसे कुछ भ्रम हुआ होगा कि वह हंसा था।
कोई अनजान अपरिचित लड़की, युवती या स्त्री मुझे जानती है और वह उसे आमंत्रित कर रही है! ... " वही घर, वही जगह, वहीं...?
"हाँ, वही घर, वही जगह, वहीँ...और दीदी..." उस लड़के ने दोहराया।
विरार असमंजस में खड़ा हो गया।इसके उत्तर में क्या अपेक्षित है, यह न जान सका।वह कभी उस लड़के को ताकता और कभी उस मकान में स्थित उसकी दीदी को अनुमानित करता रह गया।
"अच्छा, तो! ...अओंगे न? दीदी इंतजार करेंगी।" कहकर वह चला गया।उसने उसकी स्वीकृत का भी इंतज़ार नहीं किया, जैसे उसे पता हो।
वह बालकनी में बैठा, खड़ा उस घर, उसे मूर्खों की तरह निहारता, अनजान के प्रति कयाश लगाने में निमग्न था।उसका हिलना डुलना भी बंद था।कुछ देर के लिए वही पर दिल-दिमाग स्थिर रहने से, अन्य में विराम लग गया...कितना कुछ था उस लड़के से पूछना और वह ऐसे भाग गया जैसे कोई डाक दे के निकल लेता है।उसकी अनुपस्थिति असह्य हो उठी।विरार ने एक बार फिर उस घर को एक नयी ऊष्मा से देखा और उस अज्ञात लड़की के विषय में-उसके चेहरे, आकार, स्वभाव की कोई स्पष्ट रूपरेखा बनाने की कोशिश करता।कई चेहरे उभरते परिचित अपरचित फिर खो जाते, फिर सब गड्डमड्ड हो जाते।परन्तु उस घर से उभरता हुआ कोई चेहरा नज़र नहीं आता, कुछ पलों के लिए भी।वह खीज उठा।
अनिका घर में है, उसकी पत्नी।उसके प्रति पूर्णतया समर्पिता।विवाह से लेकर अभी तक वैसी ही-सुंदर, गोरी, शर्मीली और संतुष्ट।वह कम बोलती और कम हंसती, यह काम वह अपनी बड़ी-बड़ी आँखों से लेती।उसे यह बात बड़ा सुख और संतोष देती कि उसे अपनी आवश्कताओं के लिए कभी कुछ कहना नहीं पड़ा।परन्तु वह यहाँ से मीलो दूर इलाहाबाद में-ठाकुर परिवार की सामान्य आकाँक्षाओं वाली असाधारण स्त्री।जो कभी अपनी मर्यादाओं से बाहर निकलना नहीं चाहती।उसका उस पर अटूट-अशेष विश्वास विरार को सदैव विचलन से रोकता है।
कैसी होगी वह? अब उसने कल्पना-परिकल्पना का सहारा लिया।अधिकतर तेईस-चौबीस साल की भरपूर आकर्षक युवती की छवि उभरती जो उसकी पत्नी-अनिका से ज्यादा सुंदर, विदुषी और परिपूर्ण स्त्री होगी।अधिकतर विवाहित पुरूषों की तरह परिवार, आन्तरिक-बाह्य प्रेम के साथ पूर्णतया संतुष्ट जीवन के साथ-साथ लबालब-प्यार युक्त एक समांतर जीवन व्यतीत करने की सुखद कल्पना से भर उठा।
आमंत्रण एक अतिरिक्त विश्वास पैदा कर रहा है।उत्सुकता चरम पर आकर ठहर गयी।एक बार फिर वह उस मकान की तरफ देखता है।जिस तिलिस्म उसे जाना है, किन्तु वह फंस सकता है...नहीं...नहीं...ऐसा कुछ नहीं है।एक अजीब-सी मायाबी रहस्य्मकता में डूबा प्रेम।वह गाँठ को बेहद उलझी है।जिसे उसे खोलना है।किन्तु एक अपरचित डर उसे धीरे-धीरे घेर रहा है।ऐसा कैसे हो सकता है, जिसे हम न जानते हो, वह मुझे जानता हो और फिर वह निर्मंत्रण...मन रूक जाता है और अंतिम छोर पर स्थित मकान पर थम जाता है।जिसमे किसी की धड़कन है, वह सुन सकता है क्या? उसे लगा की वह बेवजह साधारण से दिखने वाली बात को तवज्जो दे रहा है।
उसने उससे मिलने का निर्णय किया।शाम को वह उसी का इंतज़ार करती हुई बैठी मिली।वह अकेली थी।शांत, स्निग्ध, सफ़ेद प्रस्तर की मूर्ति सी.सीधे सपाट देखती हुई.उसकी बड़ी आँखे पारदर्शी थी। परन्तु उदास, थकी और बोझिल सी.उसकी लम्बी-लम्बी बाहें घुटनों को भी पार जा रही थीं।वह एक लम्बी बड़ी-सी फ्रोक पहने थी जो उसकी घुटने से भी पार नीचे तक जा रही थी बाकी के पैर नंगें थे अंतिम छोर पर नीली हवाई चप्पले जड़ी हुई थीं।उसकी दुबली-पतली काया से उसकी उम्र का अंदाजा लगाना मुश्किल था।
उसे देखकर उसमे कोई भाव नहीं उमड़ा था।वह खुद भावहीन चेहरे से लिपी-पुती थी।उस उदासी की प्रतिकृति ने अपना निरीक्षण करने दिया।
"आप, आ गये?"
"क्या संदेह है...?"
"हाँ, भी...नहीं भी...!" वह कदाचित हिली थी।
"ऐसा क्यों?"
उसने उसकी ओर देखा, एक स्पष्ट भेदने वाली दृष्टि।उसकी आँखों में विस्मय था।उसके भीतर गहरी निराशा धस गयी।फिर उसका सम्पूर्ण शरीर निराशा में लिपट गया।
वह चुप बैठी रही और उसे देखती रही।
"मै आपसे पहली बार मिल रहा हूँ।बल्कि पहली बार देख भी रहा हूँ।" उसने बड़े संयत और सहज स्वर में कहा।
"परन्तु मैं आपको अक्सर देखती हूँ...बालकनी में बेत की कुर्सी बैठे–पसरे, नींद में अधनींद में, साहित्यिक पत्रिकाएँ, किताब या उपन्यास पढ़ते हुए या अखवार बांचते हुए.सुबह या शाम करींब-करींब रोज ही दिख जाते हो...फिर कुछ पल थमते हुए उसने कहा," यह कैसे हो सकता है कि मैं आपको टकटकी लगाकर देखती रहूँ और आप मुझे देख न पायें? " उसने एक सीधी और निश्चित निगाह से उसे बाँध लिया, जिसमे वह खिचता चला गया।
"किन्तु आप इस कमरे से मेरी तरफ बालकनी में आसानी से देख सकती है, जबकि मैं इस धुंधलके कमरे में कौन है, वहाँ से नहीं देख सकता।जब तक कि मुझे कोई खुस्फहमी न हो कि कोई यहाँ से मुझे देख रहा है।" उसने अत्यंत कमजोर लहजे में प्रतिवाद किया।वह शायद सुन नहीं पाई या उसने अनसुना किया।
वे चुपचाप बैठे थे।विरार को लगा बातचीत मित्रता से विपरीत दिशा में जा रही है।उसकी दिलचस्पी उसमे ख़तम होती जा रही है, इसलिए कुछ...?
"क्या मैं आपका नाम जान सकता हूँ।" उसने कुछ चहकते हुए कहा।
"रुदिता गोस्वामी...आप रूदी कह सकते है।" यह कहकर वह वापस लौटी.उसमे एक लाल तरंग क्षण भर के लिए गुजर गयी।
"मै...विरार गौड़..." मैं जानती हूँ।उसने वाक्य पूरा होने से पहले ही विराम लगा दिया।उसकी बातों का सिलसिला प्रारम्भ होने से पहले ही थम गया।उसने ताज्जुब से भर दिया।
इसी बीच वह लड़का उसका भाई, उन दोनों के बीच एक प्लस्टिक की टेबल रख गया।उसके बाद क्रम से पानी, चाय और स्नैक्स से टेबल सजा गया।लड़का कुछ देर वही खड़ा देखता रहा कुछ सुनने की कोशिश में था, परन्तु दोनों में कोई बातचीत न होते देख वापस लौट गया।
उसने बहुत ही हलके से इशारा किया।बिलकुल उदासीन और तटस्थ।उसके स्वर में आग्रह न था, आत्मीयता भी न थी, पर कुछ था अवश्य जिसे उपेक्षित करना असम्भव था।
बातों का सिलसिला प्रारम्भ होने से पहले ही थम-सा गया था।विरार के मन में अचरज-सा भर आया कि वह बगल में नितांत अपरिचित के साथ बैठ क्या कर रहा है? क्या वह उसके साथ सिर्फ बैठने आया है? उसने सोचा उसे यहाँ से चुपचाप चले जाना चाहिए.क्योकि उन दोनों के बीच एक असीम मौन सिमट आया था।जो उसे काफी नागवार गुजर रहा था।परन्तु यह तो अहमन्यता होगी?
वह उसे देखती है और उसका मन उसके साथ रहना चाहता है।वह खाली है, यह भर सकते है। यह तसल्ली उसमे आती है।वह दुहराती है, एक-एक शब्द को जो उसने पहले से संजो के रखें है।
" आप लेखक हैं? एक दबी दबी-सी बात बाहर आ गयी थी, मुख्य कारक। वह उसे नकार देता है।
"नहीं...मै निर्माण विभाग में अदना-सा एक क्लर्क हूँ।कुछ पढ़ने शौक है इस कारण आप को गलतफहमी हुई होगी।" उसने सफाई दी। उसने अपने साथ उसे भी झुठलाया
"वह तो आप है ही...मगर लेखक भी है एकदम पायेदार।मुझसे छिपा नहीं पाएंगे।मैंने आपको कई बार पढ़ा है, पत्र-पत्रिकाओं में इसी चेहरे के साथ।" वह हंसी थी, एक क्षीण-सी मलिन हंसी के साथ।उसे उसके चेहरे पर कुछ पलों के लिए आई हंसी अच्छी लगी।
उसे यह सोचकर हैरानी होती है कि वह जो छुपाना चाहता, वह क्योकर नहीं हो पाता है।उसकी अपनी नौकरी पर कोई आंच, उसे यह गवांरा नहीं है।फिर भी उसे खुसी हुई कि लोग उसके लेखन के साथ उसे भी जानने लगे है।एक तसल्ली उसमे समा गयी। ।
उसकी क्षीण-सी मलिन हंसी विलुप्त हो गयी थी।
फिर वे खुल गए थे।बातों का एक लम्बा सिलसिला चला था जिसमे वे साहित्य से इतर विषयों खो गए.अधिकतर बातें व्यक्तिगत सम्बंधो में सिमट कर आ चली थीं।परन्तु वह रहस्य में लिपटी बनी रही।अँधेरा घिरने लगा था।उसकी माँ ने आकर लाइट जला दी थी।ज्यादा देर तक एकटक एक दुसरे से मुखातिब रहने से जो निकटता उनमे बह रही थी उसे बिजली के प्रकाश ने ठहरा दिया था।वे फिर अपने-अपने टापूओं में आ गए.
उसने सोचा अब चल देना चाहिए.हालाँकि उसने ऐसा कुछ व्यक्त नहीं किया था। परन्तु शायद उसने उसके चेहरें से पढ़ लिया।
"कुछ और समय होगा आपके पास?" उसने पूछा।यह कहते समय उसमे आश्वस्ति का भाव था।
"हाँ...निश्चय ही!" उसने जल्दी से कहा और उसके अगले कदम की प्रतीक्षा करने लगा।उसके चेहरे पर उसकी उत्सुक निगाहें उस पर स्थिर थीं।
"मै भी लिखती हूँ।" वह ताकता रह गया।फिर कुछ रूककर कहा, "कविता।" यह कहकर उसने हाथ बढ़ाकर रैक से पत्रिका निकाली, जो शायद उसने पहले से ही सबसे ऊपर रख रखी थी।वह एक प्रशिद्ध साहित्यिक पत्रिका थी, जिसमे अक्सर वह छपता था।लड़की के भीतर एक धकधकी थी।उसने जल्दी से वह पृष्ठ खोलकर उसके सामने रख दिया जिसमे उसकी कविता थी।उसके प्रति उसमे जिज्ञाषा और कौतुहल एक साथ बढ़ गए थे।
उसकी कविता ने विरार को हतप्रभ कर दिया।एक दबी.। उफनती-सी चीख...सिसकती-सी कराहट...फिर वह भी नहीं।एक खाली-सा रीता-सा अहसास।उसके दिल दिमाग के बीचो बीच उसकी भावनाएँ, गहरी होती हुई, हाफती हुई, टूटी हुई सांसों के मानिंद उस तक पहुँच रही थीं।जैसे भावनाओं के लावा ने उसे अपने जकड लिया। वह कविता के बोझिल सांसों को सम्हाल नहीं पाया और वह खुद उसके लावा में डूब गया। उसकी उदासी ने अपना परचम उस पर भी लहरा दिया।
कुछ देर तक वह उस तंत्रा में खो गया।वह निपट अकेला था।उसे यह अहसास न रहा कि वह है कहाँ?
बाहर से भीतर आती आवाजों ने उसकी तन्द्रा तोड़ी।रुदिता के पिता और भाई आ गए थे।उनकी एक छोटी-सी दुकान थी बुध बाज़ार में, यह गली भी उसी के अंतर्गत आती थी।गली इतनी सकरी थी कि पैदल, साइकिल और सिर्फ एक रिक्सा के सिवाय ज्यादा की एक साथ आमद नहीं हो सकती थी।
वे दोनों आज कुछ जल्दी आ गये थे।उनके के आते ही माहौल कुछ अलग हो गया, अजनबी सा।एक विचित्र से बनावटी संन्नाटे ने उन दोनों को घेर लिया।उन्हें भी उसका इतनी देर तक रुकना कुछ अटपटा-सा लग रहा था।उस अचानक आ गए तनाव के बीच विरार एकदम उठ गया।उसने अपने से कहा, "चलो अब वापस लौट चलें!" और बाहर आ गया।उसने रुदिता से कुछ कहा भी नहीं।
वह अनमनी-सी बैठी रही, असम्पृक्त।एकायक आये परिवर्तन उसकी समझ से परे था।उसे लगा कि उसे साँस लेने में दिक्कत हो रही है।चंद पलों पहले विद्यमान बेफिक्री गहरे गाम्भीर्य में बदल गयी थी।उसे विरार का अचानक उठ जाना कुछ खल-सा गया।
विरार के मन में बहुत-सी बातें उठीं थी।इस बीते लम्बे समय में क्या पूछना था, क्या नहीं? सोचता रहा, वह कुर्सी में ही बैठी रही! हिलने डुलने और बात करने के अलावा, उसने कुछ क्या किया? उसके आथित्य में क्या कुछ कमी थी? नहीं...उसे ऐसा नहीं महसूस हुआ ...हाँ, यह बात अवश्य कुछ आश्चर्य में डालती है-है कि अँधेरा हो जाने पर भी लाइट उसकी माँ ने आ कर जलाई... या फिर वे आपस में इतनी गंभीर बौद्धिक, साहित्यिक चर्चा में व्यस्त थे? या...फिर वे आपस में आत्मिक रूप से आबद्ध...?
उसे उसका सान्निध्य अच्छा लगा और शायद रूदी को भी।रुदिता की स्थान पर रुदी...अचानक उसके जेहन में कैसे आ टपका...? खैर, कुछ भी हो एक विपरीत लिंगी बुद्धिजीवी का साथ बेहद ख़ुशगवार होता है।एक अनजाना अपरिचित खिचाव-सा लगा था।रुदी... "ब्यूटी विथ ब्रेन..."
उसने महसूस किया कि उसके परिवार को उसके मिलने में आपत्ति नहीं है।उसका भाई खुद आया था, उसे आमंत्रित करने।उस बेहद साधारण बहुत ही मामूली से दिख रहे सत्ताईस–अट्ठाईस साल के पढे-लिखे, शादी-शुदा, नौकरी-पेशा व्यक्ति से उनके सम्मान को क्या खतरा हो सकता है? ...जबकि वह जानते है कि कदाचित उनकी लड़की बीमार है! ...वह सदैव अपने खोल में रहती है...वह हमेशा सूझबूझ और उचित बातें और व्यवहार करती है-वह शराफत का पूरा सबूत है...वह सब ठीक है! मगर, एक सामाजिक मर्यादा भी होती है...क्या है? ...शुद्ध और प्रवुद्ध लोगों को ज्यादा एतिहात बरतना होता है।
वह थक गया था, मानसिक पक्ष-विपक्ष की प्रतिद्वंदिता से आहत।उसने एक सिगरेट सुलगाई और अपने आप को ढीला छोड़ दिया।आराम की मुद्रा में बेड पर पसरकर उदिता से खाली किया।उससे परे उसने अनिका पर ध्यान केन्द्रित किया।राहत की एक बयार बही और वह सो गया।
एक बेहद संक्षिप्त नींद के बाद उसे लगा कि समय काफी बीत गया है।उस पर बेतरह भूख उग आई है।किन्तु उसका मन बाहर जाने का न हुआ, तो क्या हो सकता है? उसने किचेन में जाकर देखा।ऑमलेट...ब्रेड...हो सकता है! चाय...? न...नही...उसने मुंह बिचकाया।उसकी जगह।व्हिस्की...? हाँ, यह ठीक रहेगा! ...
रात के ग्यारह बजे है।नीचे मकान मालिक लोग सो गए है और वह एक बेहद हल्के संगीत से सिगरेट, व्हिस्की और खाना साथ-साथ चला रहा है।वह खुशफहमी में है...परन्तु रह-रह कर एक वाक्य उसे छेड़ रहा है...शुद्ध और प्रबुद्ध लोगों को ज्यादा एतिहात बरतना होता है...? क्योंकि यह कहानी नहीं थी, हकीकत थी।हकीकत को कहानी बनने में वक़्त लगता है और फिर वह उस रूप में नहीं रहती है, जैसी कि वह अब है...इसलिए वह उद्दिग्न होते मन को शान्त करने की जद्दोजहद करता है...सब कुछ धुंधला धुंधला-सा दिखने लगता है...जैसे कि सपने में सब कुछ देख रहा हो...उदिता का मुरझाया...अनिका का खिला चेहरा...सब कुछ गड्ड-मड्ड होकर बन और बिगड़ रहे हैं।
विरार और उदिता आत्मिक और बौद्धिक खुराक हेतु एक दुसरे पर आश्रित हो गए थे।वे कम से कम एक दिन अवश्य मिलते और उस दिन की प्रतीक्षा बेसब्री से करते।परन्तु सब कुछ पहले दिन जैसे ही बाद के दिन भी होते, उनमे कोई परिवर्तन नहीं आया।उसकी बैठक का दरवाजा खट-खटाते हुए उसे हमेशा भय लगा रहता कि उसकी जगह कोई दूसरा न हो। जब वह अकेली होती, दोनो की आँखों में अजीब-सी तसल्ली होती।औरों के बीच उनकी बाते अजीब-सी अजनबी होती, जो उनका स्वाद बेमजा कर देतीं।और मीटिंग शीघ्र समाप्त हो जाती।अन्यों की उपस्थिति में उन्हें एक अजीब-सी दुबिधा से दोचार होना पड़ता था और अक्सर वे बहुत झिझकते हुए ही अपनी बात कुछ कह सुन पाते।
परन्तु उसका मिलना सदैव संदेह के घेरे में रहता।एक बार उसने कहा था आप मिलने मत आया करियेगा।मै खुद बुला लूँगी।उसे बुरा लगा था परन्तु वह हफ्ते के भीतर अवश्य बुला लेती थी जिससे पनपा रोष इकठ्ठा समाप्त हो जाता।
एक दिन बेहद निकट होते पलों में विरार ने कहा, "कभी मेरे घर तशरीफ़ लाईयेगा।" एक पल उसकी आँखों में एक ज्योति निखरी थी फिर अनंत गहराईयों में खो गयी थी।उसने अपना मुंह फेर लिया।वह रो-रो आई थी।परन्तु रोई नहीं...वह रोएगी नहीं...बिलकुल भी नहीं रोएगी...चाहे कुछ भी हो जाए.उसने यह ठान रखा था।एक क्षीण-सी हंसी उसके क्लांत, मलिन हो आये चेहरे पर गुजरी और खो गयी।उसने कोई जवाब नहीं दिया।
अक्सर वह दिन में सपना देखता, वही अपने घर की चौखट खोलते हुए.उसका मुस्करा कर स्वागत करते हुए.फिर उसका अचानक गुम हो जाना।कुर्सी खाली पड़ी रहती हिलती हुई और वह नदारत। काश! वह कभी चौखट खोलती! । कभी रात में देखता रूदी नीचे खड़ी है उसे पुकार रही है।वह ऊपर उसके कमरे की तरफ देख रही है, बुला रही है।वह ऊपर आने के लिए कहता है, वह नहीं आती।निराश वह चल देती है।वह जल्दी दौड़कर नीचे आता है, उसे ले जाने हेतु।मगर तब तक वह गायब हो जाती है।अफ़सोस और घबराहट में उसकी नींद खुल जाती है।
अब की बार उसने काफी दिनों बाद बुलाया था।उसे लगता है कि वह बीमार है।उसने पूछा था जब वे मिले।
"ऐसी कोई बात नहीं।" उसने नकार दिया।
"फिर!" कहकर वह उसे ताकने लगा।
"उन दिनों स्कूल में परीक्षा चल रहीं थीं, मै पर्वेक्षक का दायित्व निभाते काफी थक जाती थी, इस कारण।" रुदिता ने कुछ रूखे शब्दों में कहा था।
"अपना सेल न। दे दो?" उसने बेहद नम्र लहजों में कहा।
"क्या फायदा है? जरुरत भी क्या है? हम इतने पास रहते है एक दुसरे के विषय में बड़ी आसानी से जान सकते है।" उसने कुछ झुंझलाहट से कहा।उसने उसका न। लेने में भी कोई उत्सुकता नहीं दिखाई.
उसे लगा कि वह उससे कुछ छुपा रही है।उसने उसे ईश्वर का वास्ता दिया।परन्तु उसे ईश्वर पर विश्वास नहीं था।उसे ईश्वर एक बीमारी जैसा लगता, लाइलाज बीमारी।जिसका कोई ईलाज नहीं है।उसने यह बात कई बार कही, जिसे विरार ने हंसी में उड़ा दिया।किन्तु वह गंभीर थी अपने कथन पर।
"क्या तुम जानती हो मैं शादी शुदा हूँ? और मैं अनिका को बहुत प्यार करता हूँ।" उसने ऐसे ही कहा।
"क्या फर्क पड़ता है? मैं तुमसे शादी करने से रही!" उदी ने लापरवाही से इस बात को दरकिनार कर दिया।वह अनिश्चित भाव से थोडा-सा मुस्कराई और वह कृत्रिम रोष से उसे देखने लगा।
आगे इस बात पर कोई चर्चा नहीं हुई.इधर उधर की छोटी-छोटी निरर्थक बातों में समय बीत गया।किन्तु दोनों ही ओर से एक तनाव व्याप्त-सा था।
उन दोनों ने एक दुसरे की प्रसंसा में कोई शब्द या वाक्य कभी नहीं कहे थे परन्तु उनकी आँखों से जाहिर होता था कि वे एक दुसरे को बहुत चाहते हैं।उन दोनों की चाहतों के बीच बहुत बड़ी गहरी खाई थी जिसे कोई न पार करना चाहता था, न पाटना। वह जानती है कि विरार उदार है, भला है और इसी से उसके मन में उसके प्रति श्रद्धा भी है।
हर स्त्री का अपना एक रहस्य होता है उसका भी था।वह स्वयं बहुत झिझकते हुए उससे रूबरू होता था, क्योकि उसके नियम उतने संदिग्ध थे जितनी वह स्वयं।जिनमे वह दृढ़ थी।और इस दृढ़ निश्चय ने उसे एक आभा दे दी थी।वह कल्पना भी नहीं कर सकता था कि रोजमर्या की जिंदगी के साथ-साथ वह एक दूसरी जिंदगी जी रही थी।उसके साथ संयुक्त और उससे अलग–एक ऐसी जिंदगी जिसकी उसे कोई खबर नहीं थी।
वह विरार की पत्नी अनिका की कल्पना करती है, पर वह पूरी तरह अपरचित है।वह उसे देखना चाहती है, कैसी है वह? वह चाहती है कभी विरार उसका जिक्र करें और उसका फोटो देखाये।उसके विषय में कुछ कहे, सुने।वह तो कुछ पूछने से रही।एक तीव्र पीड़ा हुई, तो उसका ध्यान बटा।उसकी सोच ने उसे पीड़ा क्यों दी?
उसकी जिंदगी अपने ढंग से निर्बाध गति से जा रही थी।उसमे एक छोटी लहर तब उठने लगी, जब अचानक विरार का प्रवेश होता है।विरार का अपना एक विशिष्ट आकर्षण और पेहचान है।वह उससे बचती है और ऐसे भागती फिर रही है कि जैसे उसकी उपस्थिति असह्य हो।निर्णय उसका था, वह उसका उपहास कर सकती है, मुंह फेर सकती है या फिर उसके बढ़ते हुए हाथ को थाम सकती है।
शनिवार की शाम को उसका भाई आया था।कल बारह बजे उदिता के साथ लंच करने।वह नहीं गया। क्योकि उसे रात में घर निकलना था।वह सुनती है चुप निश्चल बैठी हुई.पहले उसका कंठ अवरुद्ध हुआ फिर ढेर सारे आंसू आँखों में उमड़ आये-मै उसके सामने क्या हूँ, अत्यंत क्षुद्र, उपेक्षणीय।
वह अपनी पत्नी के साथ लेटा था।उसके साथ रहते हुए भी ऐसा लगता वह उसके साथ नहीं है।वह उदिता के साथ है।वह सोच रहा था, जब वह दस महीने पहले उससे बैठक में मिला था। बगल में पत्नी है, सशरीर परन्तु अनुपस्थिति।वह अपने माँ पिता के साथ रहा, अपने बच्चे के साथ खेला-तब वह नहीं थी।वह जब भी घर आता तो जल्दी लौट नहीं पाता था।इसके बीच रुदिता ने तीन बार उसे बुलवाया।ऑफिस में भी पता करवाया। वहाँ से पता न चला कि कब वापस आयेंगा? वह उसे हांट कर रहा था।कभी कभी उसे लगता है कि विरार एक भ्रम है।जिसमें वह समाती जा रही है।उससे अलग होना चाहिए.
अनिका के पास कहने सुनने की अति साधारण बातें थी जो शायद हर स्त्री अपने पति के साथ करती है।यद्दपि वह कॉलेज में इंग्लिश की प्रवक्ता थी...वह अपनी नौकरी की समस्याएँ डिस्कस करता है। वह सुनती है, चुप निश्चल बैठी हुई. उसका उस पर विश्वास एक अतिरिक्त सम्बल प्रदान करता था। वह घर से यह दृढ़ निश्चय करके निकलता कि वह अपना ट्रान्सफर करा के शीघ्र वापस आयेगा।
वह इलाहाबाद से दो हफ्ते भर बाद लौटा।अक्सर वह महीने दो महीने में घर आ ही जाता है, चाहे दो चार दिन के लिए ही।वह उसे कभी नहीं बताता था। क्योकि उससे मिलना उसके रूख और उसकी सुविधा पर निर्भर रहता, जिसमे उसका कोई दखल नहीं था।
ट्रेन पांच बजे सुबह ही मुरादाबाद पहुँच गयी।संयोग से मकान मालिक जग गए थे।ताला खोलकर वह सीधा बेडरूम में दाखिल हुआ।वह सोना चाहता था परन्तु लेटते ही नींद गायब थी।उसकी जगह उदिता थी, प्रश्न करती।ऐसे ही निर्विकार भाव से उसे टटोलती।लगता जैसे उसका कोई निकटस्थ आत्मीय खो गया था।वह कुछ देर वैसे ही लेटा रहा।तब उसे अचानक लगा कि वह अकेला नहीं है, कोई उसके पास है-बिलकुल पास बैठा, जिसे वह देख नहीं पा रहा है।
वह आँगन पार करता हुआ बाहर ड्राइंग रूम आ गया, उसे देखने।एक पल वहाँ ठहरा, वहाँ नहीं थी।बालकनी में खड़े होकर उसकी बैठक की ओर निहारने लगा।उसकी बैठक सदैव के तरह बंद थी। वह जानता है इन दिनों में उनमे आपस में काफी समझदारी विकसित हो गयी थी।एक दुसरे की अवश्कतायों और कमियों के प्रति सजग है, परन्तु अपनी नग्नता में असहाय है। किन्तु शुरू के दिनों में उसने कभी कहा था, जो हर समय उसके जेहन में रच बस गया था, "आप साधारण नहीं है।आप एक मेधावी जीवंत एवं कोमल फ़िक्रमंद आदमी हैं।आपका साथ मुझे अच्छा लगता है...मेरे लिए बस यही पर्याप्त है।"
वह उससे तुरंत मिलना चाहता है।सात बजे सुबह उठकर वह स्नान करता है और बेहद स्मार्ट कपड़े पहन कर, उससे मिलने चल पड़ता है।सोच रहा है इतने दिनों की अनुपस्थिति से अवश्य वह बेचैन होगी।
उसने दरवाजे की घंटी घनघनाई और पूरा घर चौक गया।ऊपर छज्जे से उसका भाई झाँका।थोड़ी देर बाद गलिवारे वाले दरवाजे से भाई निकला।
"क्या है?" उसके स्वर में रोष मिश्रित तेजी थी।
"रुदिता जी.।!" उसने अस्पुष्ट शब्दों में कहा।
"अभी नहीं।" वह विष्मय से उसे अपलक देखता है।
"कब?" वह अधीर था।
"वह खुद बताएगी और बुलाएगी।" उसने जल्दी से बोला और दरवाजा बंद कर दिया।
विरार बैरंग वापस हो आया।वह बालकनी ड्राइंग रूम न जाकर सीधे बेडरूम गया और वैसा ही लेट गया।उसे लगा कि क्या वह उसे जानता है? इस अ-भेट से उसे यातना मिली थी।अपमान से वह सुर्ख हो आया।थोड़ी देर तक वह तड़पता रहा।बेड में औधें लेटे-लेटे शिथिलता भारी होकर सवांर हो गयी।वह इतना निश्छल लेटा था कि कुछ देर तक उसे पता ही न चला कि वह सो रहा है, या जाग रहा है।वह असमय सो गया।
वह सोकर उठा तो देखा दोपहर के बारह बज गए है।आज भी ऑफिस नहीं जा पायेगा! भूख से उसके पेट में मरोड़ पड़ रही थीं।उसने अपने को दुरस्त किया।बाहर निकल कर वह जैन भोजनालय में घुस गया।
दिन के चार बज रहे थे।दोपहर खत्म होने को थी, परन्तु धुप के अवशेष यदा कदा दिखाई पड़ रहे थे।शीघ्र ही शाम आने वाली है।वह बालकनी में आकर बैठ जाता है।हालाँकि वह शाम को छै से पहले कभी नहीं बैठता, जब धूप पूर्णरूपेण समाप्त हो चुकी होती है और ठंडक उतर आती है।
वह उसके सन्देश का इंतजार अनमने भाव से कर रहा है।अचानक वह दिख गयी।वह रिक्सा से घर आ रही थी, अकेली। खुसी की एक लहर उसे सराबोर कर गयी।वह सरपट नीचे लपका।उसके घर में दाखिल होने से पूर्व ही मिल ले।उसके रिक्से तक पहुचने के पूर्व ही उसका भाई आ गया था।भाई ने उसे गोद में उठा लिया।वह बिलकुल एक स्वेत कबूतर की मानिंद उससे सिमिट गयी।रूदी का सिर उसके कंधे पर था, और गोरे चिकने पैर लटक रहे थे।मगर उसकी आँखें उसे अजीब नज़रों से देख रही थी, जैसे तुम क्यों हो? और यह मैं हूँ! उसकी डबडबडबाई आँखों में आंग की लपटे थीं, निरीह असक्त।
विरार हतप्रभ खड़ा रह गया, मूक, स्थितिप्रज्ञ।उसके आश्चर्य की पराकाष्ठा थी।यह भ्रम है या हकीकत? कही वह दिवास्वप्न में तो नहीं है?
भाई उसे घर के भीतर छोड़कर लौटा तो वह वैसे ही स्तब्ध खड़ा था।जब वह रिक्से वाले के पैसे देकर लौटने लगा तब उसकी त्रंद्रा टूटी.
"क्या हुआ? ...बीमार है...? या कोई एक्सीडेंट...?" वह उससे पूछ उठा। उसकी आवाज दुख से सिक्त और अनहोनी की आशंका से ग्रस्त थी। उसके प्रश्नों की बौछार का उसने बड़े ही संयत ढंग से जवाब दिया, "ऐसा कुछ भी नहीं है।वह बचपन से ऐसी ही है...जब वह दस साल की थी तब से उसके कमर के नीचे का हिस्सा संज्ञाशुन्य है...सब तरह से ठीक होने के बावजूद पैर काम नहीं करते।"
"क्या?" उसका स्वर धीमा, कोमल और वेदना से लिप्त पुचकार भरा हो आया था।
वह हैरान हो गया था। अपने आप को बड़ी ही अजीब स्थिति में खड़ा पाया।उसकी स्तब्द्धता टूटने ही वाली थी कि भाई ने फिर कहा, "दीदी ऐसी हीं हैं।"
"रुदिता चल नहीं पाती?" उसने बहुत ही बेतुका प्रश्न उछाल दिया।उसे अफ़सोस हुआ।
"चलती नहीं तो क्या, घिसट तो लेती है कुछ कदमों तक।" उसका स्वर कुछ तिक्त हो आया था। भाई पूरी तरह अनावृत करने में कोई संकोच नहीं कर रहा था। "और कुछ?"
वह हैरान-सा वैसे ही दुःख में था।वह अफ़सोस प्रगट नहीं कर पाया।शायद जरुरत भी नहीं थी।वह इसे बड़े ही सहज रूप में ले रहा था।उससे कुछ भी कहना बेमानी था।वह अपने खोल में लौट आया।
रात काफी बीत चुकी थी और उसकी आँखों से नींद नदारत थी।सब जगह रात का सन्नाटा था और उसके भीतर भी सन्नाटा व्याप्त था।बेडरूम, आँगन, बालकनी और ड्राइंगरूम के दरम्यान टहलते हुए वह सिगरेट पीता, शराब के एक दो धूंट भरते, वह कुदरत की बेइंसाफी पर लानत भेजता रहा और अपने भीतर चिड़चिड़ापन भरता रहा। उसे लगा वह उससे और भी प्यार करने लगा है।और यह महसूस करके उसे कोई हैरानी नहीं हो रही थी।
उस दिन विरार से अप्रत्याशित, असहज भेंट से रुदिता में बेहद चिड़चिड़ापन इकठ्ठा हो गया था।उसके ब्यूटी विथ ब्रेन के तमगे से वह छुटकारा पाना चाहती थी। असल में उसे कोई संदेह नहीं था कि वह नहीं है, किन्तु विरार के झूंठ ने उस पर यह आवरण थोप दिया था...अब उसकी नज़र साफ हो गयी होगी। वह ठीक से खिल भी नहीं पाई थी कि मुरझा गई.उसे पछतावा था उसके सम्पर्क में आने का।वह छटपटा रही थी।अपनी छटपटाहट में उसके अंदर तक तीव्र विध्वंसक प्रवृत्ति जाग उठी।उसका मन चाह रहा था कि जो कुछ सामने पड़े उसे तहस नहस कर डाले।परंतु विरार उदार है, भला है।वह निर्दोष है।उसने कुछ छिपाया कहाँ था? किन्तु अब उससे नहीं मिलना है। ठान लिया। वह पूर्ववत होगी!
विरार, कोशिश करता रहा और असफल होता रहा।वह उससे मिलना चाहता था, कहना चाहता था कि वह उससे आत्मिक प्रेम करता है।किन्तु उसने उसे कोई मौका नहीं दिया। अंतिम प्रयत्न में-विरार बुध बाज़ार दुकान में उसके भाई से मिला। जब घर में उससे मिलने के सारे प्रयत्न बिफल हो गए.वह काउंटर में बैठा उसे देखकर विस्मित हुए रह न सका।
"आप?"
"हाँ!"
"कैसे आयें?"
"उदिता से मिलना है।"
"मगर वह नहीं चाहती।उसकी जिद को कोई तोड़ नहीं सकता। माफ़ करियेगा जब उससे चाहा तभी आप मिल पायें थे अब नहीं चाहती तो बेहद मुश्किल है उसे मनाना।" उससे बहुत उदासीन भाव से कहा।
"उसकी जिद के आगे हम सभी बेबस हो जाते है।" बेचारगी का एक टुकड़ा उसके पिता ने जोड़ दिया।सभी के चेहरे पर बेचारगी उतर आई थी।वह वैसे ही लौट आया।
रुदी, तुम बेशक हमें भुला दो, हम तुम्हे नहीं भुला सकते।उसने एक नि: स्वास भरी।एक तीब्र पीड़ा हुई तो उसका ध्यान बटा।उनकी अप्रत्याशित विनम्रता से वह ठिठक कर रह गया।
वह बेबस लौट आया साथ में तीव्र पीड़ा की अनुभूति।अपना ध्यान पीड़ा से हटाने के लिए, आज अनिका का ध्यान असफल हो रहा था।वह सिगरेट और शराब के आगोश में चला गया।
वह जानता है कि रूदी के अंदर बल का अजश्र श्रोत है।वह टूटती है, बिखरती है पर अपने को सम्हाल लेती है।उसके भीतर वेदना गहरे तक समाई हुई है।और कोई हो तो अवश्य ही पागल हो जाए.
वह उससे न कुछ कहना चाहती न सुनना चाहती थी, न बीते समय के विषय में न आने वाले समय, जिंदगी के बारे में।वह बुझती हुई रोशनी में तब्दील हो रही थी।उससे बेहतर कौन जान सकता था कि अनहोनी, आकस्मिता कभी भी आ सकती है।