कोई नहीं / से.रा. यात्री
कुछ चीजें धीमी गति से चलती हैं तो आदमी को अहसास होता है कि चलो सब ठीक है - कुछ नहीं बीत रहा है लेकिन कभी-कभी यही गति आदमी के मन का सुख एकदम खत्म भी कर देती है। इतना लंबा वक्त बीतने पर कुछ भी नहीं हो पाया तो अब क्या होगा! करुणा को लेकर पिछले कई बरसों से यही ऊहा-पोह चल रही है। मैं उसके पास जाता हूं तो मन में एक उद्वेगभरी थिरकन होती है लेकिन जब उसके यहां से लौटता हूं तो बिलकुल एक पिटे कुत्ते जैसी स्थिति लेकर। मैं स्वयं से कई बार प्रश्न करता हूं, क्या वे लोग अच्छे-भले लोग हैं? छी-छी, भले होने को क्या सवाल! बुढ़िया साली हर आने वाले से करुणा से मिलने-जुलने का 'प्रीमियम' वसूल करती है। कुछ नहीं तो अब तक मुझे ही हजार-बारह सौ से चित्त कर चुकी होगी। ऐसा कभी मुश्किल से होता होगा कि मैं उसके घर जाऊं और वहां कोई दूसरा न बैठा हो। बुढ़िया मौसी एकदम बिल्ली जैसी है। हर आने वाले को ऐसे फंसाती है कि वह छूट कर भाग नहीं सकता। मुझी को लो। मैं उन लोगों के बारे में क्या नहीं जानता पर जब वहां पहुंचता हूं तो सब कुछ भूलकर करुणा की शक्ल देखते ही लहालोट हो जाता हूं। बुढ़िया की डिमांड पर रुपया लेकर पहुंचता हूं और इस तरह देता हूं जैसे उस कमीनी का पिछले जन्मों का कर्ज चुका रहा हूं। मुझे बराबर उम्मीद लगी रहती है कि जब मैं उठकर चलूंगा तो बुढ़िया करुणा से कहेगी, 'जाओ बेटी, परेश के साथ तुम भी थोड़ी देर घूम फिर जाओ।'
उस दिन उसके घर पहुंचा तो वह बड़ी व्यस्त दिखाई दे रही थी। उसके रंग-ढंग से लग रहा था कि वह मेरे साथ नहीं निकलना चाहती। एक सरसरी नजर मुझ पर डालकर उसने बत्ती जला दी और बुढ़िया को दवा देने लगी। इसके बाद उसने इधर-उधर बेतरतीब ढंग से पड़े कपड़ों को तहाकर कायदे से रखना शुरू कर दिया। जैसे-जैसे घरेलू कार्यों में व्यस्त होती गई उसके चेहरे की गंभीरता बढ़ती गई। थोड़ी देर बाद मैं उठकर खड़ा हो गया। बिलकुल इस तरह गोया मुझे किसी जरूरी काम की याद आ गई हो। कई महीने से करुणा मेरे साथ जाने को तैयार तो हो जाय, लेकिन बुढ़िया के कहने पर चले - इसमें मुझे सरासर अपमान दिखाई पड़ता था। मैं मौसी के कुछ कहने से पहले ही चल दिया और चलते-चलते बोला, 'अच्छा मौसी मैं चलता हूं, रुपये कल आ जायेंगे।'
मुझे उन दोनों में से किसी ने नहीं रोका। मुझे यह बुरा लगा पर साथ ही अपने आप पर झुंझलाहट भी कुछ कम नहीं हुई। आखिर वे लोग मुझे क्यों रोकते? मैंने करुणा के सामने घूमने का कोई प्रस्ताव तक नहीं रखा - मूर्खों की तरह उठकर चल दिया। उन्होंने नहीं रोका तो बुरा मान रहा हूं। मेरा अभिमान बुरी तरह आहत हो गया - ऐसी लड़की की ऐसी की तैसी। आगे से सालियों का मुंह भी नहीं देखूंगा। ऐसी हजार लड़कियों पर थूंक दूं। ऊंह! शायद बड़बड़ाने की कसर थी कि एक आदमी से मैं टकराते-टकराते रह गया। हालांकि मैं क्रोध में था लेकिन इतने पर भी मैंने उस आदमी को ध्यान से देखा। अप-टू-डेट भूषा में वह युवक प्रतिष्ठित अफसर दिखाई पड़ता था। उसके चेहरे पर संभ्रांत होने का आभास मिलता था। वह आगे बढ़ते-बढ़ते ठिठक कर खड़ा हो गया और अंग्रेजी में पूछने लगा, 'आपको असुविधा न हो तो कृपा करके मुझे बतायें मिस करुणा रोहतगी किस तरफ रहती हैं।' मैंने तेज नजरों से उसे देखा। तो यह है वह नया शिकार जिसका वहां इंतजार हो रहा है। हम तो साले बुद्धू हैं। जाने कहां-कहां से नये रंगरूट आते हैं, और एक हम हैं जो जर-खरीद गुलाम की तरह बस हुक्म बजा लाने के ताबेदार हैं। मैंने धृष्टता से मकान की तरफ इशारा किया और एक-एक छलांग में तीन-तीन सीढ़ियां कूदते हुए सड़क पर आ गया।
बाहर सड़क पर निकल कर मैंने अपार भीड़ देखी। सारी दुनिया खुश और मस्त नजर आ रही थी - किसी के चेहरे पर वह तनाव दिखाई नहीं पड़ता था जिसका कि मैं शिकार था। उन खुश लोगों की उपेक्षा करते हुए मैं सड़क पर तेज चाल से चलने लगा। मेरे पैरों की तीव्रगामी गति ने मुझे थोड़ी देर बाद ही सुनसान सड़क पर पहुंचा दिया। अब मैं उस युवक और करुणा के विषय में सोच रहा था। मै। जितना ही उन लोगों के संबंध में सोचता था मेरा मस्तिष्क उतना ही अधिक बोझिल होता जाता था। मैंने इस लड़के को आज से पहले करुणा के यहां आते नहीं देखा था। क्या यह बाहर से आया है? मगर उसके पास एक अटैची तक नहीं है। वह जायेगा कहां? उन्हीं लोगों के साथ रूकेगा। मेरी आंखों से चिनगारियां फूटने लगीं और मेरी अपनी तस्वीर जेहन में उभर आयी। मुझे अपना स्वरूप बहुत भौंडा लगा - क्या करुणा इस आकृति को लेकर कुछ सोच सकती है? वह लड़का अब करुणा से गप्पें मार रहा होगा। मौसी शायद उससे भी उसी तरह बातें कर रही होगी जैसे मुझे अपने पलंग पर बिठाकर करती है। मैंने स्वयं को समझाना चाहा यह कोई विशेष बात नहीं है उसका करुणा के संबंध में पूछते हुए आना एक बहुत सहज बात है। यह मेरे मन की संकीर्णता है जो मैं उन लोगों को लेकर ऐसी ऊटपटांग बातें सोच रहा हूं।
पर मौसी ने करुणा को मेरे साथ घूमने क्यों नहीं भेजा? करुणा के बाहर निकलने की बात तक नहीं उठाई। क्या उन लोगों को उसी छोकरे का इंतजार था जो मुझे इतनी आसानी से टरका दिया। मैं तैश में भागा चला जा रहा था, पता नहीं कि मुझे कहां जाना था कि तभी मेरे कानों में एक बहुत कोमल और मधुर आवाज आई, 'पार्डन! क्या आपके पास 'सेरीडॅन' या 'एस्प्रो' की टिकिया होगी?'
संध्या के झुटपुटे में, सुनसान सड़क पर एक लंबी छरहरी युवती खड़ी थी। गो अंधेरा हो गया था मगर सड़क के लैंप पोस्ट से धुंधला प्रकाश झर रहा था। उस मद्धिम उजाले में भी उस लड़की का भरा-भरा लंबोतरा चेहरा और गोरा रंग दमक रहा था। सहसा मुझे विश्वास नहीं हुआ कि इस सूने में भी कोई यों एकाएक प्रकट हो सकता है। तत्काल मैं कोई उत्तर नहीं दे पाया - ईर्ष्या और क्रोध से उफनते मेरे मस्तिष्क पर एक क्षण में स्निग्धता का ज्वार उमड़ पड़ा। जीवन में पहली बार मुझे अपने घोर असमर्थ और अकिंचन होने का अहसास हुआ। एक लड़की इतने निहोरे से मुझसे एक मामूली-सी चीज मांग रही थी और मेरे पास वह तक नहीं है! धत्तेरे की - तू सब कहीं ऐसे ही मरेगा! उस क्षण शायद संसार की बड़ी-से-बड़ी नियामत भी मेरे लिए दर्द की एक तुच्छ-सी गोली के मुकाबले में हीन सिद्ध होती। मुझे अपने ऊपर नये सिरे से झुंझलाहट हुई - लड़की को उत्तर न देकर मैंने स्वयं को संबोधित कियाः तुम इतने बेवकूफ हो कि दर्द की एक गोली भी अपने पास नहीं रखते। मेरा उत्तर न पाने पर लड़की बाजार की दिशा में मुड़ने लगी तो मैंने कहा, 'ठहरिये जरा।'
वह आगे बढ़ते-बढ़ते ठहर गई। मैंने उससे कहा, 'क्या आप इसी जगह मेरा कुछ मिनट इंतजार कर सकती हैं?'
इससे पहले कि वह कुछ सोचकर उत्तर देती मैं बाजार की ओर लपक गया। दूर-दूर तक केवल अंधकार-ही-अंधकार फैला था, घाटी और पहाड़ों का सिलसिला आंखों से पूरी तरह ओझल हो चुका था। कोई दो सौ गज निकल जाने पर एक काटेज के सामने खाली रिक्शा खड़ा दिखाई दिया। रिक्शे वाले मजदूर सवारी छोड़कर बाजार की ओर मुड़ने वाले ही थे। पहाड़ी रिक्शे में बैठना मैं घोर अमानवीय ख्याल करता हूं - एक आदमी को ऊंची-नीची सड़कों पर पांच-छः आदमी जब खींचकर ले जाते हैं तो यह बिलकुल परोपजीवी जोंक जैसा दिखाई पड़ता है, किंतु उस क्षण ग्लानि या लज्जा के भाव से मैं बिल्कुल मुक्त था। बिना किराया तय किये मैं कूद कर रिक्शे पर बैठ गया और उन लोगों से बोला, 'एकदम चलो।'
बस्ती के निकट केमिस्ट की जो सबसे पहली दूकान थी उससे मैंने एक रुपये की 'सेरीडान' टिकिया खरीदकर जेब में भर ली और हांफते हुए इस तरह रिक्शे पर बैठ गया जैसे मैं कोई लंबी मंजिल तय करके आ रहा हूं। मैंने रिक्शा उसी सड़क पर लौटवाया - लड़की उसी जगह लैंपपोस्ट के नीचे एक मूर्ति की मानिंद खड़ी थी। उसे यों प्रतीक्षा करते देख कर मेरे मन में शाम की ग्लानि और विवशता क्षण भर में दूर हो गई। तो वह चली नहीं गई - उसे मुझ पर विश्वास था - उसे मेरा इंतजार था। अभी दुनिया में मेरी प्रतीक्षा करने वाले कुछ अनजान लोग तो हैं। मैंने रिक्शे से नीचे उतरकर रिक्शा मजदूर को पांच रुपये का नोट दिया तो वह लड़की हैरत से मेरा मुंह देखने लगी।
रिक्शा-कुली मुझे सलाम बजाकर चले गये। जब मैंने जेब से 'सेरीडॉन' की कई गोलियां निकालकर उस लड़की की ओर बढ़ाई तो वह 'माई गाड' कहकर एक कदम पीछे हट गई। आश्चर्य से उसकी आंखें चमकने लगीं - उसने घबराहट में मेरी ओर परेशान नजरों से देखा और कांपते कंठ से बोली, 'डियर मी, क्या आप सिर्फ इन गोलियों की खातिर रिक्शे पर बैठकर बाजार गये थे - मुझे सिर्फ एक टिकिया की जरूरत थी। मम्मी की पिंडली में बुरी तरह दर्द है - हम लोगों का फोन खराब है और मम्मी इस वक्त डॉक्टर के यहां नहीं जा सकतीं। उसने एक तरफ ऊंचाई की ओर संकेत करके कहा, 'हम लोग वहां रहते हैं - मैं यहां इसलिए खड़ी हो गई थी कि लोग 'पिकनिक स्पाट्स' से लौटते हैं तो उनके पास कभी-कभी 'एस्प्रो' या दर्द की कोई दूसरी दवा मिल जाती है। मुझे बिलकुल अंदाज नहीं था कि आप दर्द की गोली के लिए इतनी तवालत उठायेंगे।'
मैंने लरजती हुई आवाज में कहा, 'यह सिर्फ दर्द की गोली की बात नहीं थी।'
'तब?' लड़की ने कौतुक से पूछा।
'मैं आपके लिए दवा लेने नहीं गया था - मैं अपनी असमर्थता के विरुद्ध संघर्ष करने के ख्याल से गया था।'
वह बेचारी मेरी बात नहीं समझ सकी - उसके होंठ पर एक मीठी मुस्कान उभरी और उसने कहा, 'मानिये इस वक्त मैंने आपसे और बड़ी डिमांड कर दी होती!'
'सच मानिये उसे पूरा न कर सकने का अफसोस मुझे जिंदगी-भर दुख देता रहता...' और मेरे मुंह से एक बात ऐसी निकली जो सहज स्थिति में शायद चेष्टा करके भी न निकल पाती - 'कोई ऐसी सच्ची डिमांड करने वाला तो हो - उसके लिए आदमी अपनी पूरी निष्ठा और मेहनत दांव पर लगा सकता है।'
वह लज्जाभरी हंसी हंस पड़ी - उसके सफेद सुंदर दांतों की पंक्तियां उस नीम उजाले में भी झिलमिला उठीं। उसका आश्चर्य सौजन्यता में परिवर्तित हो गया और वह मधुर कंठ से बोली, 'आपकी भावुकता के प्रति मैं कृतज्ञ हूं। आपने मेरे लिए इतनी तकलीफ उठाई। क्या आप हम लोगों के यहां चल सकने का कष्ट करेंगे?' उसका शांत संयत मुख और विनयपूर्ण वार्तालाप मुझे उकसा रहा था कि मैं उससे अभी कुछ और बातें करूं मगर ओस गिरने लगी थी और वह सिर्फ एक सूती स्कर्ट पहने हुए थी। उसे सर्दी लग जाने के डर से मैंने कहा, 'संभवतः जल्दी में आप अधूरे कपड़े पहने ही निकल आई हैं - आप जाकर अब अपनी मम्मी को दवा दीजिए - मैं फिर कभी आपकी सुविधा से आऊंगा।' उसने कृतज्ञ होते हुए नमस्कार किया और बोली, 'मेरा नाम नीना सिंह है - हम लोगों का रेजीडेंस ऊपर है - थ्री नाइनटी नंबर है - आप जरूर आइयेगा - हैं न?' उसने अपनी बात कहकर बहुत भोलेपन से अपनी हथेली हवा में उठाकर मुझे विदा दी।
नमस्कार करके मैं लौट पड़ा - मोड़ पर मुड़ते हुए मैंने देखा कि वह लड़की लैंपपोस्ट के नीचे खड़ी मेरी दिशा में ही देख रही है। उसे देखकर मैंने हाथ हिलाया और आत्मविश्वास से आगे बढ़ गया। मै। अब उतना अकिंचन नहीं रह गया था। करुणा और नीना सिंह की तस्वीरें मेरी आंखों में उभर रही थीं। मुझे बार-बार अहसास हो रहा था कि मैंने करुणा से उसकी निष्ठुरता का भरपूर बदला चुका लिया है। उसने मुझे तिरस्कृत किया, मेरे साथ घूमने जाना तक उसे गवारा नहीं है! वह किसी अनजान आदमी की प्रतीक्षा कर सकती है और मुझसे बैठने तक का अनुरोध नहीं कर सकती। इसी मनःस्थिति में मैं करुणा के घर के समीप जा पहुंचा। एक बात तो मेरी बेहद इच्छा हुई कि करुणा के कमरे में जाकर देखूं कि इस समय वहां क्या हो रहा है, किंतु मुझे यह बात अपने लिए बहुत हीन और अपमानजनक लगी। मैं रोष से तना हुआ उसका घर छोड़कर आगे बढ़ गया।
अगले दिन मैं उन लोगों के यहां नहीं जाना चाहता था। मेरा ख्याल था कि कल शाम आया हुआ मेहमान अभी वहां डटा होगा। जैसा कि हमेशा होता आया है वही होगा - वह लौंडिया उस अनजान आदमी के सामने मुझे महत्वहीन दिखाकर रुसवा करने की कोशिश करेगी पर मै। कल उस बुड्ढी लोमड़ी को रुपये देने की बात कहकर आया था। इसके अलावा मेरे मन में कहीं यह दुर्निवार इच्छा भी छिपी थी कि देखूं दूसरे की उपस्थिति में करुणा मेरे से कैसा व्यवहार करती है। रुपया किसी के द्वारा भी भेजा जा सकता था लेकिन करुणा को बिना पहुंचे नहीं देखा जा सकता था। मैं तीन-चार बजे पहुंचने की बात कहकर आया था परंतु घर से मैं पांच के बाद निकला। बैंक से मैं चार सौ रुपया निकाल चुका था और करुणा के पास इस तटस्थता से जा रहा था जैसे केवल कर्तव्य ही मुझे वहां खींचकर ले जा रहा हो।
जिस वक्त मैं मकान में घुस रहा था - मेरे दिल में एक भयंकर तूफान उमड़ रहा था। मैं कुछ देर तक बाहर खड़ा भीतर होने वाली बातों की आहट लेता रहा परंतु भीतर से कोई आवाज नहीं आ रही थी। मैंने आगे बढ़कर कमरे के दरवाजे से देखा - मौसी पलंग पर लेटी हुई थी और करुणा कुर्सी पर बैठी कुछ बुन रही थी - कल आने वाले अतिथि का कहीं निशान भी नहीं था। मुझे देखकर बुढ़िया के शरीर में हरकत हुई और उसने बैठने की चेष्टा की। करुणा ने बुनाई से नजर हटाकर मेरी ओर देखा और फिर बुनाई में जुट गई - तो यह औकात है इस घर में हमारी! मैं खिसियाया हुआ आगे बढ़ा और बुढ़िया के पलंग पर जा बैठा। आखिर अपने को घोर अजनबी समझने का क्षण आ पहुंचा। कमरे की दीवारों को इस प्रकार देखने लगा जैसे उन्हें फोड़कर अभी कोई प्रगट होने वाला है। गोकि हम तीनों के अलावा वहां चौथा कोई नहीं था किंतु मैं उस वातावरण में किसी अदृश्य व्यक्ति की उपस्थिति महसूस कर रहा था। और दिनों की अपेक्षा मेरा साधारण व्यवहार भी बदला हुआ था - मैं मौसी या करुणा किसी से भी सहज बातचीत आरंभ नहीं कर सका। मैंने जेब से चार सौ रुपये निकाले और बिना एक शब्द उच्चारण किये - कांपते हाथों से मौसी की तरफ बढ़ा दिये। करुणा की दृष्टि फिर एक बार उठी और मौसी के हाथों में रुपये देखकर वह गंभीर हो गई। मौसी करुणा के चेहरे का भाव परखते हुए मुझसे बोली - 'कितने हैं?'
'आप रख लीजिए कितने से क्या?'
'क्यों कितने से क्यों मतलब नहीं है - तुम क्या कहीं से यों ही उठा लाये हो? यह रुपये-पैसे का हिसाब बहुत साफ रहना चाहिए, यहां तक कि इसमें भाई और बेटे का भी ख्याल नहीं रखना चाहिए।'
बुढ़िया इस तरह पटर-पटर बोल रही थी जैसे रुपये लेकर मुझ पर बड़ा भारी अहसान तोड़ रही हो। मैं क्या जानता नहीं साली एकदम लोमड़ी है - लाख आदर्श की बातें करेगी और रुपये तकिये के नीचे ऐसे छिपा लेगी जैसे इसकी बड़ी मेहनत की कमाई हो। मैं पूरमपूर बुद्धू हूं - पता नहीं इस लौंडियां का जादू क्या कराये डालता है - जितने रुपये मैं यहां भर चुका हूं उतने में छोकरियों की पलटन खड़ी की जा सकती थी।
पिछली शाम जब रुपये की बात चली थी तो मैंने सोचा था इस बार रुपये कुछ नाटकीय अदा से दूंगा। तीन सौ रुपये मौसी के हाथ में देकर कहूंगा, 'देखिये इन रुपयों का सूद सौ रुपये हातो है जो मैंने पहले ही अपने हाथ में रख लिया है। कायदे से आपके पास चार सौ रुपये मुबलिग, जिसके आधे दो सौ होते हैं पहुंचे हैं।' मुझे लगता था कि करुणा मेरे इस ढंग पर जरूर हंसेगी और भयभीत होने की मुद्रा बनाकर कहेगी, 'नहीं बाबा, हमें ऐसे सूदखोर बनिये का रुपया नहीं चाहिए।' परंतु अब तो स्थिति ही बदल गई थी। मेरा मन बुझा हुआ था और मैं अंदर से इतना जड़ था कि मेरे लिए वहां बैठना दूभर पड़ रहा था। अजीब मामला था कि वहां से मैं तत्काल उठकर जाना भी चाहता था और यह भी चाहता था कि वहीं बैठा करुणा के झुके चेहरे और बुनाई के लिए हरकत करते हाथों को देखता रहूं। अंदर-ही-अंदर एक अजीब किस्म का संवाद चल रहा था - 'क्या करुणा ने मुझे कभी स्वीकार किया है - मैं जो उल्लू की तरह आकर यहां विदूषकीय स्थिति क्रियेट करता हूं उसकी मूर्खता का कहीं ठिकाना है? मैं हर जगह यह कूद कर जो पहुंचता हूं उसके मानी क्या हैं? कल मैंने क्या हरकत की थी - यकायक मुझे सूनी सड़क पर लैम्पपोस्ट के नीचे खड़ी नीना सिंह की याद हो आई और मैं यकबयक उठकर खड़ा हो गया।
मौसी बोली - 'यह क्या रे - अभी यहां आये हुए कितनी देर हुई है - कहां जाओगे, किसी से मिलना-बिलना है क्या?'
मैंने अकारण झूठ बोला, 'हां, आज शाम को सात बजे के करीब एक साहब मेरे यहां आने वाले हैं - अब मैं चलता हूं।'
मौसी हंसकर बोली - 'सो तो मैं देख रही हूं कि तुम चल रहे हो। पर एक प्याला चाय तो पीते जाओ।'
वास्तव में मेरा एकदम चले देने का कोई इरादा नहीं था - हो सकता है मैं अपनी शक्ति देख रहा होऊं कि वहां मेरी कितनी वक्अत है लेकिन यह क्या - एक साधारण बात समझकर मौसी इसे कितने सहज ढंग से ले रही है। मेरे लिए वहां महज बैठे रहना भी कम अर्थ नहीं रखता - चाहे करुणा मुझसे बातें न करे फिर भी मैं उसे चुपचाप देखते भर रहकर संतुष्ट हो सकता था। मन-ही-मन असंतुष्ट होकर मैं उससे बदला लेना चाहता था किंतु मेरी बेवकूफी का कोई अंत नहीं था। करुणा को संभवतः मेरी आंतरिक स्थिति का आभास तक नहीं था और मैं ऐंठ कर उससे बदला चुका रहा था। उससे इस तरह बदला लेने का मतलब था - हवा से लड़ना। मेरी दृष्टि हठपूर्वक सब तथ्यों को नकार जाना चाहती थी। मैंने करुणा से एक भी बात नहीं की और समझ लिया कि करुणा को सजा देने का यही एक तरीका है। आदमी भी कैसा विचित्र जीव है - जिसकी वजह से अपना अस्तित्व स्वीकार करता है - उसी पर कभी-कभी ऐसा भाव दर्शाता है गोया उसका हमारी नजर में कोई खास महत्व नहीं है। उसकी चेतना के प्रत्येक स्तर पर जिसका होना अप्रतिहत रूप से ध्वनित होता रहता है उसी को लेकर इतने ठंडेपन का व्यवहार किया जाता है कि दंग रह जाना पड़ता है। किसी से स्वीकृति पाने की अंतःपुकार का बाहरी स्वरूप यह? अब इसे क्या कहा जा सकता है।
मैं उठने लगा तो मौसी ने हाथ पकड़कर जबरदस्ती बिठा लिया और करुणा से बोली, 'बेटी, झटपट दो-तीन प्याले चाय तो बना ला।'
करुणा चाय बनाने के लिए रसोईघर की ओर चली गई तो मौसी ने रुपयों की गड्डी तकिये के नीचे रख दी और मुझसे पूछने लगी, 'सच में रे, क्या सच में कोई आ रहा है या यों ही बहानेबाजी कर रहा है - तू तो मौसी से बहुत ही भागने लगा है। कोई काम सौंपती हूं तो मिनट की देर नहीं लगाता लेकिन बाद में गुमसुम हो जाता है। मुझसे कुछ नाराज-आराज तो नहीं है रे।' मेरा मन फुफकार उठा - वास्तव में क्या यह मेरा दुख नहीं जानती? क्या मैं इस बुड्ढी के लिए यहां चक्कर काटता हूं? मेरी स्थिति कितनी अजीब है - न मैं पीछे लौट पाता हूं और न मेरे लिए आगे कुछ है - इस करुणा ने मुझे बीच रेगिस्तान में लाकर पटक दिया है। एक बार अकेले में मेरे साथ चली चले तो इसकी गर्दन दबोच दूं - कमबख्त इतने ठंडेपन से मुझे गिलोटिन करना चाहती है।
करुणा चाय लेकर आई और प्याले हम दोनों के हाथों में देकर फिर रसोई की ओर लौट गई। जब वह दोबारा लौटकर आई तो कांच के गिलास में चाय लिए हुए थी। वह अक्सर गिलास में ही चाय पीती थी। मेरी सारी देह में उत्तेजना ने हडकंप मचा रखा था - करुणा को सामने देखकर मेरा भेजा फिर खराब होने लगा था। मैंने अनजाने में ही चाय सॉसर में डालकर एक मिनट में पी डाली और उठकर खड़ा हो गया। मौसी ने जल्दबाजी देखकर कहा, 'लगता है आज तुम्हें वाकई जाने की जल्दी है, नहीं तो मैं चाहती थी कि तुम और बिन्नी (करुणा को वह इसी नाम से पुकारती थी) कुछ दूर तक घूम आते और बाजार से थोड़ी खरीदारी भी कर लाते।'
मैंने करुणा को चाय गुटकते हुए देखा। वह हाथ में गिलास थामे कुर्सी पर बैठी थी, उसका आंचल इधर-उधर उड़ रहा था और सूखे बाल पीठ पर छितरा रहे थे। मौसी ने चाय खत्म करके प्याला पलंग के पास पड़ी तिपाई पर रखना चाहा तो मैंने जरा आगे रखी तिपाई को पलंग के करीब खिसका दिया। प्याला रखकर उसने तकिये के नीचे से बटुआ निकाला और तंबाकू निकालकर हथेली पर मसलने लगी। तंबाकू मुंह में रखने के बाद उसने मुंह टेढ़ा करके कहा, 'मेरी खें-खें से बेचारी लड़की ऊब जाती है - सारा दिन तो काम में बझी रहती है।' यह कहकर मौसी ने करुणा की ओर देखा तो करुणा ने मेरे चेहरे पर तीखी नजर डालकर विरक्ति से कहा, 'मेरी कहीं जाने की इच्छा नहीं है - इन्हें जाने दो मौसी - इनके 'मेहमान' इंतजार में बैठे होंगे।'
करुणा के कटाक्ष से मैं तिलमिला उठा पर मैंने अपना मनोभाव दबाकर विद्रूप से हंसते हुए कहा, 'आदमी ही आदमी का इंतजार नहीं करते - कभी-कभी बेजान दीवारें तक आदमी से ज्यादा रहमदिल साबित होती है।'
मौसी शायद कुछ नहीं समझ पाई मगर करुणा का चेहरा बहुत गंभीर हो गया। उसके हाथों में मैंने एक कंपकपी महसूस की और मुड़कर फौरन चल दिया।
व्यर्थ धक्के खाता हुआ अपने हाथों स्वयं पराजित होकर मैं एक भीड़ भरे रेस्तरां में जाकर बैठ गया। ज्यादातर सीटें भरी हुई थीं और आर्केस्ट्रा की धुनें फिजा में तैर रही थीं। मैंने व्हिस्की का डबल पैग मंगा लिया और पीने लगा। लगभग नौ बजे रेस्तरां से बाहर निकला और पिछली शाम वाली सड़क पर चल दिया। मेरे अन्तर्मन में यह आशा किसी-न-किसी रूप से अवश्य उभर रही थी कि शायद मुझे नीनासिंह कहीं दिखाई पड़ जाय। नीना सिंह के देख पाने की इच्छा से मैं दूर तक निकल गया। मैं उस लैम्प पोस्ट के नीचे जाकर खड़ा हो गया जहां कल नीना सिंह देर तक खड़ी रहकर मेरी प्रतीक्षा करती रही थी। परंतु आज उसका कहीं पता नहीं था बल्कि मुझे लग रहा था कि वह घटना सपने में घटित हुई थी। जिस ऊंचाई पर नीना सिंह ने अपना लॉज बतलाया था - मैंने उधर सिर उठाकर देखा - पहाड़ के एक ऊबड़-खाबड़ शिखर के अलावा उधर मुझे कुछ दिखाई नहीं दिया। कुछ क्षण बाद सड़क की नीरवता को एक खूंखार कुत्ते के भौंकने की आवाज तोड़ने लगी। कुछ देर और खड़ा रह कर मैं बाहरी वातावरण को पीता रहा और अजब-सी मायूसी लेकर लौट पड़ा। पता नहीं जाने कब, कहां और किस संदर्भ में पढ़ी एक कविता की पंक्ति एक जिद्दी मक्खी की तरह मेरे मस्तिष्क में चक्कर काटने लगी - ' लौट चल घर, लौट चल पागल प्रवासी।'