कोठरी की बात / अज्ञेय

Gadya Kosh से
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मुझ पर किसी ने कभी दया नहीं की, किन्तु मैं बहुतों पर दया करती आयी हूँ। मेरे लिए कभी कोई नहीं रोया, किन्तु मैंने कितनों के लिए आँसू बहाये हैं, ठंडे, कठोर, पत्थर के आँसू...

किन्तु इसके विपरीत, कितने ही भावुक व्यक्तियों ने मेरे विषय में काव्य रचे हैं, कितने ही मेरे ध्यान में तन्मय हो गये हैं, पर मैं कभी किसी की ओर आकर्षित नहीं हुई, मेरी भावना किसी व्यक्ति के व्यक्तित्व में नहीं बँधी, मुझे कभी आत्म-विस्मृति और तन्मयता का अनुभव नहीं हुआ...

क्योंकि मैं सदा दूसरों पर विचार करती आयी हूँ; और मेरा निर्णय, मेरा न्याय, सदा ही कठोर रहा है, यद्यपि पक्षपातपूर्ण नहीं; नपा-तुला रहा है पर दया से विकृत नहीं...

मुझसे जीवन नहीं है, किन्तु मैं जीवन देने की उतनी ही क्षमता रखती हूँ जितनी उसे छीन लेने की, विनष्ट करने की। मेरा काम है तोड़ना; मेरा आविष्कार ही इसलिए हुआ है; किन्तु जब मैं बनती हूँ, तब जो कुछ मैं बनाती हूँ, वह अखंड और अजेय होता है। मैं स्वयं पत्थर की हूँ, वज्र-हृदय हूँ, इसलिए मेरी रचनाएँ भी वज्र की सहिष्णुता रखनेवाली होती हैं...

मैं हूँ एक नगण्य वस्तु, सभ्यता के विकास का एक बड़े यत्न से छिपाया हुआ उच्छिष्ट अंश, जो उसी सभ्यता में अपनी कुढ़न के अत्यन्त अकिंचन कीटाणु फैलाता जाता है - बिना जाने ही नहीं बल्कि जान-बूझकर अपने से छिपाये गये साधनों द्वारा, चुपचाप, चोरी-चोरी किसी भावी, व्यापक, चिरन्तन, घोर आतंकमय जीवन-विस्फोट के लिए...

मैं हूँ मुक्ति का साधन एक बन्धन - मैं संसार के किसी भी राज्य के किसी भी जेल की एक छोटी-सी कोठरी हूँ...

मैं जहाँ हूँ, वहाँ से कभी हिली नहीं। एक बार, कभी किसी ने मुझे बना दिया था, तब से मैं वैसी ही चली आ रही हूँ। कभी-कभी लोग आकर मेरे अलंकार-भूषण बदल जाते हैं अवश्य; मुझे नयी कड़ियाँ, नयी शृंखलाएँ, और नये पट दे जाते हैं, मेरे मुख और वक्ष पर नया आलेप कर जाते हैं, पर इससे मौलिक और प्रत्यक्ष एकरूपता नहीं बदलती - वैसे ही जैसे स्त्री के आचरण और अलंकार बदल देने पर भी उसका आन्तरिक रूप वही रहता है... पर ऐसा होते हुए भी मैंने दुनिया देखी है और देखती हूँ, दुनिया के अनुभव सुने हैं और सुनती हूँ, और इसके अतिरिक्त अपने प्रगाढ़ अकेलेपन में मैंने एक शक्ति पायी है-मैं आत्माएँ पढ़ती हूँ। मेरे पास जो आता है, मैं उसे आर-पार देख, पढ़ और समझ लेती हूँ...

कभी सोचती हूँ, मेरा जीवन एक निष्प्राण पत्थर की बनी हुई वार-वधु का-सा है; क्योंकि मेरे अपने स्थान से टले बिना ही अनेकों लोग मेरे पास से हो जाते हैं, अपना गूढ़तम निजत्व मुझ पर व्यक्त कर जाते हैं, और लुटकर, कुछ सीखकर, अवश्य पुनः आने का या कभी फिर आने का नाम न लेने का निश्चय करके चले जाते हैं; और मैं अपना अपरिवर्त्त अनन्त-यौवन लिये, उसी भाँति निर्लिप्त और अजेय और सम्पूर्णतः अनासक्त, उन्हें जाने देती हूँ, और अग्रिम आगन्तुक की प्रतीक्षा करने लग जाती हूँ...

और जब याद आता है कि किसी भी नवागन्तुक के लिए मुझे सजाया और साफ किया जाता है मेरा प्रत्यंग धोया और अलिप्त किया जाता है, मेरे धातु के आभूषण चमकाये जाते हैं, और जब प्रति सन्ध्या को आकर मेरे कपाट और ताले खड़काकर मानो घोषित करते हैं कि ‘वस्तु अच्छी है’, तब तो मुझे स्वयं यह विश्वास हो जाता है कि मैं वर-वधू ही हूँ और मैं लज्जा से सकुचा जाती हूँ, कुंठित होकर पहले से भी अधिक छोटी और घिरी हुई जान पड़ने लगती हूँ, मेरा दम घुटने लगता है... तभी तो कभी-कभी मेरे क़ैदियों को एकाएक ध्यान आ जाता है कि वे बद्ध हैं, या कि उनके बन्धन एकाएक संकुचित और कठोर हो गये हैं; और वे ‘कुछ’ कर डालने के लिए तड़फड़ाने लगते हैं...

कभी सोचा करती हूँ, मेरा आदिम पिता, मेरा अत्यन्त पूर्वज कौन था? क्योंकि कोई व्यक्ति यदि संसार की कुत्सा और घृणा का पात्र है तो वही... तब जान पड़ता है कि मेरा एकमात्र सम्भव आदि निर्माता स्वयं ईश्वर है (-यदि वह है तो) क्योंकि मैं अत्यन्त प्राचीन काल से किसी-न-किसी रूप में संसार में चली आ रही हूँ, संसार की प्रत्येक वस्तु, प्रत्येक घटना, प्रत्येक आकार, प्रत्येक अनुभूति, मेरा ही कोई छिपा हुआ या विकृत रूप है... मैं ही वह आदिम समुद्र थी जिससे सृष्टि की उत्पत्ति हुई है, मैं ही ईडन-उद्यान की परिधि थी, मैं ही उस आदिम धूम्रपुंज का आकार थी जिससे तारे और ग्रह और नक्षत्र और अन्य भौतिक आकार उत्पन्न हुए... यदि संसार में पहले प्रज्ञा और माया थीं, तब मैं माया का अन्धकार थी; यदि पहले-पहल लिलिथ को बनाया तो मैं लिलिथ के कांचन कचों की एक लट थी जिसके द्वारा वह युवकों के हृदय बाँधती थी और घोंट देती थी...

किन्तु ये सब विचार मिथ्या हैं, आत्मप्रवंचा हैं। मैं वास्तव में कुछ नहीं हूँ; केवल एक समय एक मिथ्या डर, ज्यामिति के आकारों की भाँति एक काल्पनिक रेखा-जाल जिसे समाज ने पत्थर में खींच दिया है... यही मेरे अन्तर्विरोध का हल है। मैं कुचलती हूँ तो उद्दीप्त भी करती हूँ; दबाती हूँ तो स्वयं उपेक्षित भी होती हूँ; आतंक फैलाती हूँ तो पराजित भी होती हूँ मैं सब-कुछ हूँ जो लोग मुझे बना देते हैं; और वास्तव में मैं हूँ ‘कुछ’ अपरिवर्त्त, तुषार-शीतल, निष्प्राण...

मैं बाँधती हूँ, पर निष्क्रिय रहकर, न्याय करती हूँ तो निरीह होकर। मैं चुप रहती हूँ-पर कभी-कभी उस मौन के विरुद्ध किस कारण मेरा सारा अस्तित्व उठ खड़ा होता है? तब चुप रहना मुझे स्वयं चुभता है, सालता है, मैं चाहती हूँ कि फटकर खुल जाऊँ, एक मार्ग बना दूँ, पर कहाँ... मैं रो भी नहीं सकती और यही सोचकर और भी रोना आता है-कि मैं रोने से वंचित इसलिए हूँ कि मेरी सम्पूर्णता ही एक जड़ीभूत प्रस्तर-खचित आँसू है!

इस विक्षोभ से मेरे कहाँ-कहाँ घाव हो गये हैं... और इतने कि मैं गिन भी न सकूँ, न इंगित कर सकूँ। घाव की स्थिति तो तब बतायी जा सके जब उसकी वेदना की कोई सीमा हो। वह तो इतनी फैली हुई है कि सर्वत्र एक ही घाव की पीड़ा जान पड़ती है...

पर, बिना स्थिति बता सकने के भी, मुझे कभी-कभी याद आ जाता है कि कैसे कभी कहीं कोई घाव हुआ था... और तब फिर मैं सोचने लगती हूँ...

यह वेदना क्यों होती है? मैं काम करके थक जाती हूँ पर याद नहीं आता कि यह कब से होने लगी और कैसे... संसार की बहुत-सी वेदनाएँ इसी प्रकार की होती हैं। जब कोई आत्मीय मरता है, तब हम उसे याद करके रोते हैं, पर शीघ्र ही आत्मीय की स्मृति तो खो जाती है, किन्तु एक कोमल-सी कसक रह जाती है। हम रोते रहते हैं, पर पीड़ा के उद्रेक से नहीं, केवल अभ्यास के वश... और फिर ये वेदनाएँ लुप्त भी इसी भाँति हो जाती हैं। तब हमें उनकी सत्यता में ही सन्देह होने लगता है। जिस प्रकार मूल कारण के लुप्त हो जाने के बाद भी पीड़ा की अनुभूति रह जाती है, उसी प्रकार मूल कारण के लुप्त हो जाने के बाद भी हमारे मन में उसकी भावना देर तक रहती है, जैसे लम्बी यात्रा के बाद जहाज़ से उतरने पर भूमि डगमगाती हुई जान पड़ती है, जब हमें ध्यान होता है कि भूमि नहीं डगमगा रही, केवल अभ्यास का भ्रम है; तब हम जहाज़ के डगमगाने को भी भ्रम समझने लगते हैं। उसी भाँति, जब हमें एक दिन ज्ञान होता है जिस पीड़ा की अनुभूति से हम रो रहे हैं, वह चिरकाल से वहाँ नहीं है, तब हमें इस बात में ही सन्देह होने लगता है कि वह कभी थी भी...

पर-

यह मानव-हृदय की कमजोरी है, यह सभ्यता से उत्पन्न एक गहरा विषण्ण दुःखवाद या पीड़ा की व्यापकता और सार्वजनिक अनुभूति के जहाँ हम आनन्द को एक भंगुर भावना मानते हैं, वहाँ पीड़ा को अवश्यम्भावी और चिरन्तन समझते हैं...

मुझे याद आता है...

पर, उसे कहने के पहले यह कहूँ कि मैं कहाँ हूँ, कैसी हूँ, और मेरे पास-पड़ोस में कौन है...

मैं अन्धी हूँ, मुझे साधारण दृष्टि से कुछ नहीं दीखता। इसीलिए, साधारण वस्तुओं के साधारण रूपाकार का वर्णन मैं नहीं कर सकती... मुझे दीखती हैं, विभिन्न आकारों के किसी श्याम आवरण में लिपटी हुई आत्माएँ - जिन्हें आकार-भेद के अनुसार हम विभिन्न नाम देते हैं...

मेरे तीन ओर मुझ-सी ही अनेक कोठरियाँ हैं, और चौथी ओर एक ऊँचा परकोटा जिसकी आत्मा मानो विद्रूप से हँस रही है... और इसके बाहर विस्तृत मरु, जिससे कहीं-कहीं सरकंडे का एकाध झुरमुट, कहीं करील की एक सूखी-सी झाड़ी, या कहीं दो-चार खजूर खड़े हैं, ऐसी मुद्रा में मानो मरु से कह रहे हों, ‘हम दीन हैं, पर झुकते नहीं; हम झुकते नहीं, पर अत्यन्त दीन और दुखी हैं...’ ग्रीष्म में, जब यहाँ उत्तप्त लू बहती है, रेत उड़-उड़कर खजूरों से उलझती है मानो मरु ने उन दीनों को कुचलने के लिए सेना भेजी हो, तब कुछ उत्तप्त कण आकर मेरे आश्रित कैदी को भी झुलसाते हैं; वैसे ही जैसे रणोन्मत्त सैनिक प्रतिद्वन्द्वी के पास-पड़ोस में बसे हुए लोगों का भी विनाश कर देते हैं, क्योंकि विनाश-भावना औचित्य नहीं देखती... तब मैं स्वयं आहत होकर अपने आश्रित की रक्षा करती हूँ। मेरा शरीर लू की तपन से नहीं, अपने आन्तरिक विक्षोभ से उत्तप्त हो जाता है, और मैं उद्देश्य-भ्रष्ट हो जाती हूँ - अपने आश्रित का भला करने की भावना लेकर उसके अनिष्ट का साधन होती हूँ... और शीतकाल में... किन्तु शीत और ग्रीष्म केवल मात्रा के भेद हैं, हम सब रहते तो वहीं हैं और हमारे परस्पर सम्बन्धी भी... यदि चन्द्रमा आकाश में आकर मेरे बालरूप पर अपनी सम्मोहिनी ज्योत्स्ना का आवरण डालकर, मुझे सुन्दर और आकर्षण तक बना देता है, तो क्या इससे मैं कोठरी नहीं रहती? क्या मैं उसी प्रकार लोगों को बाँधती और तोड़ती नहीं? ...और, मेरे इन दो-चार सीखचों के बाहर विस्तीर्ण आकाश या प्रच्छन्न मेघमंडल होने से क्या मेर बन्धन ढीले या अधिक कठिन हो जाते हैं? क्या दृष्टि की सीमा, या अन्य इन्द्रियों की सीमा की प्राणों की गुणानुभूति की सीमा है?...

हाँ, तो मुझे याद आता है...

वह बहुत पुरानी बात है - मेरी बाल्य स्मृतियों में से एक... यद्यपि उससे पहले मेरे पास कई लोग आ चुके थे, तथापि उसमें कुछ था जिसने एकाएक मुझे चौंका दिया, जिसमें मैंने कुछ देखा जिसके कारण मैं उसे भूल नहीं सकी... उसके पहले, एक ऐसा आया था जो मानो किसी के प्राण उधार लेकर आया था। इसे प्राणों का कोई मूल्य नहीं था-वीरोचित उपेक्षा के कारण नहीं, किसी गूढ़ अक्षमता के कारण, जीवन-शक्ति के किसी भीतरी अपघात के कारण... यह उन व्यक्तियों में से था जो कुछ भी कर सकते हैं किन्तु अपनी प्रेरणा से नहीं, सक्रिय होकर नहीं, केवल काल-गति के पुतले बनकर... इनमें अपनी नीति, अपना आचार, अपना चारित्र्य, कुछ नहीं होता, व मानो जीवन-ज्वार पर तैरते हुए घास-फूस होते हैं। उन्हें अपने किसी कार्य के लिए दोषी भी नहीं ठहराया जा सकता और क्षमा भी नहीं किया जा सकता; वे स्वयं कुछ भी नहीं करते, किन्तु समाज के सच्चे शत्रु वही होते हैं... इनमें आरम्भ में तो थोड़ी-बहुत अनुभूति होती है, शायद वह कभी-कभी यह भी देखते हैं कि वे किधर बहे जा रहे हैं, पर इस ज्ञान के पीछे बतलाने की प्रेरणा नहीं होती। वे देखकर खिन्न हो लेते हैं, और फिर उसी खेद की प्रतिक्रिया में पहले से अधिक गिर जाते हैं, और यह प्रक्रिया बराबर होती रहती है, तब तक जब तक कि उनमें यह अनुभूति भी सर्वथा नष्ट हो जाती, और वे बिलकुल पाषाणहृदय नहीं हो जाते...

और एक और भी आया था... जिसे भूलना ही क्षमा है, और जिसकी स्मृति उसका सबसे बड़ा दंड है, क्योंकि वह महत्त्वाकांक्षी था, संसार पर अपनी छाप बिठाना चाहता था, पर उसके लिए जो त्याग करना पड़ता, उसे घबराता था... महत्त्वाकांक्षा ने उसे विद्रोह की ओर प्रेरित किया था, किन्तु जब महत्त्वाकांक्षी ने ही विद्रोह का मूल्य उससे माँगा तब उसने न केवल किये को ही विनष्ट किया, प्रत्युत औरों के भी, जो कि महत्त्वकांक्षी न होकर भी त्याग करने को तैयार थे... वह अपना पुरस्कार यह समझता था कि वह लोगों की स्मृति में जीवित रहे, किन्तु आज उसे याद रखना उसकी सत्यता को याद रखना, उसका सबसे बड़ा दंड है...

किन्तु मैं उसे याद रखने का यत्न करना नहीं चाहती। वह संसार का कार्य है, जो दंड देता है। मैं दंड नहीं देती, न पुरस्कार देती हूँ; मैं केवल विचार करती हूँ, निर्णय करके रह जाती हूँ...ये व्यक्ति आते हैं और मेरे व्रजवक्ष पर बनते या टूटते हैं, और मैं संसार को जता देती हूँ कि उन पर क्या हुआ... मैं उनके भग्नावशेषों को पुनः जोड़ती नहीं, उन्हें छिपाती भी नहीं...

जिसे याद करती हूँ उसकी बात कहूँ...

परिधियाँ, बन्धन व्यक्तियों को अधोगामी बनाते हैं, किन्तु कुछ ऐसे भी होते हैं जो उसकी स्फूर्तिदायिनी उत्तेजना के बिना जी ही नहीं सकते... जिसकी मैं बात कहने लगी हूँ, वह इसी दूसरी श्रेणी में था... उसका नाम था सुशील। इस नाम से यह नहीं सिद्ध होता कि उसमें शील का आधिक्य या न्यूनता थी, यह केवल यही जताता है कि उसके पिता को शील की आवश्यकता थी - वे क्रोधी, सहसा बिगड़ उठनेवाले, और सहसा ही शान्त हो जानेवाले, प्रायः संसार के प्रति एक विक्षुब्ध चिड़चिड़ापन लिए किन्तु कभी-कभी अत्यन्त प्रसन्न; साधारणतया अपनी सन्तान को उपेक्षापूर्ण सीमा में बाँधकर रखनेवाले किन्तु कभी-कभी, या किसी-किसी सम्बन्ध में, बहुत स्वच्छन्दता दे देनेवाले या छीन लेनेवाले, व्यक्ति थे... सम्भवतः उनका मन उन्हें कोसा करता था कि उनमें गम्भीरता की, एकरूप शील की कमी है, और इसीलिए उन्होंने उसका नाम सुशील रखा था... हम सभी अपनी न्यूनता को अपनी कृतियों द्वारा छिपाने की चेष्टा करते हैं...

सुशील स्वभावतः विद्रोही थी। किन्तु जो ‘स्वभावतः विद्रोही’ होते हैं, उनकी विद्रोह-चेष्टा बौद्धिक नहीं होती, उसका मूलोद्भव एक भावुकता से होता है। कभी वह भावुकता बौद्धिक विद्रोह से परिपुष्ट भी होती है, तब वह विद्रोही अपनी छाया देश और काल पर बिठा जाता है। पर बहुधा ऐसा नहीं होता, बहुधा भावुक विद्रोही समय के किसी बवंडर में फँसकर खो जाते हैं - क्योंकि भावुकता स्वयं एक बवंडर है... हाँ तो, सुशील अपने घर के नियमित अत्याचार से और अनियमित आकस्मिक दुलार में, अधिकाधिक विद्रोही होता जाता था, क्योंकि घर का वातावरण उसे स्थैर्य नहीं देता था, बल्कि ज्वालामुखी-सी एक विस्फोटक निश्चेष्टा-जो एक दिन फूट पड़ी! सुशील घर से भाग निकला, और इधर-उधर सच्चे-झूठे विद्रोहियों में फँसकर मेरे पास आ गया...

लोग समझते हैं कि जो नवयुवक जेल में आते हैं, वे स्वेच्छा से, एक बौद्धिक प्रेरणा से आते हैं... झूठ! वे आते हैं एक अनिवार्यता के वश, जिस पर उनका किंचितमात्र भी नियन्त्रण नहीं है! अगर कोई प्रौढ़ व्यक्ति, आवे तब तो यह बात सम्भव है, किन्तु युवकों के आने का कारण, उनका आवाहन करनेवाली प्रेरणा, उनके मस्तिष्क से नहीं आती! वह आती है एक अज्ञात मार्ग द्वारा, और जाती है उन युवकों के घरों से माता-पिता से और उनकी परिस्थिति से, उनके समाज की उनसे मिलनेवाली (या बहुधा न मिलनेवाली) स्त्रियों से - विशेषतः उनकी बहनों से... सुशील से कोई पूछता कि वह क्यों विद्रोही हुआ, उससे तर्क करता है उसका मार्ग लाभकर नहीं है, तो उसकी बुद्धि शायद इसका समुचित उत्तर न दे पाती, किन्तु उसका हृदय अवश्य पुकार उठता - नहीं! मैंने इस मार्ग को ग्रहण इसलिए नहीं किया कि यह अधिक लाभकर है, प्रत्युत इसलिए कि मेरे वास्ते और कोई मार्ग है ही नहीं... यदि मेरे कार्य से देश को लाभ होता है, तो अच्छा है, पर मैंने यह मार्ग इसलिए नहीं ग्रहण किया। मैं यदि विद्रोही हूँ तो बस इसीलिए कि मेरी प्रकृति यह माँगती है मेरी जीवन-शक्ति की वही निष्पत्ति है...’ और उसके हृदय का कथन बिलकुल सच होता... मैं जानती हूँ! मैं अपनी सूक्ष्म दृष्टि से देखती हूँ - उसके जीवन के कुछ-एक दिन-कुछ एक क्षण... एक वह क्षण में जिसमें उसकी विस्फारित आँखें रात में दिये के प्रकाश से, उसके माता-पिता के बीच एक छोटे-से, अत्यन्त प्राचीन, अत्यन्त साधारण किन्तु अत्यन्त महत्त्वपूर्ण और गोपनीय दृश्य को देखती हैं - अच्छी आँखें, क्योंकि वे मन के पट पर जो कुछ लिखती हैं, मन उसे पढ़ नहीं पाता। ...वह लिखावट उसी भाँति मन के एक कोने में पड़ी रहती है जैसे किसी पुरातत्त्ववेत्ता के दफ़्तर में कोई ताम्रपट, जिसकी लिपि से वह अभ्यस्त नहीं है, और जिसे किसी दिन वह एक कोष की, और अन्य लिपियों की सहायता से एकाएक पढ़ लेता है... फिर एक वह क्षण जब वह और उसकी बहिन पास-पास लेटे हुए किसी विचार में निमग्न हैं - शायद अपने उस समीपत्व के पवित्र, रहस्यम सुख में, और जब उसके पिता एकाएक आकर उसे उठा देते हैं, फटकारते हैं कि वह अपनी बहिन के पास क्यों लेटा है, और एक ऐसी क्रुद्ध, सन्देहपूर्ण, जुगुप्सा-मिश्रित ईर्ष्यावाली और इतनी विषाक्त दृष्टि से उनकी ओर देखते हैं कि उसके मन में कोई परदा फट जाता है, उसे एक कोष मिल जाता है, जिससे पहला दृश्य भी सुलझ जाता है, और अन्य अनेकों दृश्य और शब्द और विचार अपना रहस्य सहसा उस पर बिखरा देते हैं, जिनके बोझ से वह दबा जाता है, जिनकी तीखी गन्ध से उसका मानसिक वातावरण असह्य हो उठता है, और वह एक अँधेरे कोने में बैठकर रोता है और निश्चय करता है कि अब कभी बहिन के पास खड़ा भी नहीं होऊँगा... और वह क्षण जब यह देखकर कि उसकी बहिन ने ऐसा ही निश्चय किया है, और बहिन की अकथ्य मर्मव्यथा समझकर, वह एक साथ ही अपना और उसका निश्चय तोड़कर उसके गले लिपटककर रोता है और उसे भी रुलाता है... और वह क्षण - पर ये तीन क्षण ही प्रखर प्रकाशक हैं, किसी व्यक्ति का इतना जीवन देखकर ही मैं उसके जीवन का इतिहास लिख सकती हूँ - उसके जीवन की घटनाओं का नहीं, समूचे जीवन का, उसकी प्रगति का, मानसिक प्रेरणाओं का, उसके उद्देश्य का...

जब वह मेरे पास आया था, तब उसे पक्का निश्चय था कि उसके जीवन के कुछ-एक दिन बाक़ी रह गये हैं, किन्तु उसे फाँसी नहीं मिली, नहीं मिली... तब धीरे-धीरे, जो शक्ति उसे ढकेलकर वहाँ तक लायी थी, वह बिखर गयी, उसका जिसमें कभी-कभी तूफान की तरह एक पागलपन आ जाता है। यह पागलपन मानो उसके जीवन का आधार था, उसकी परिवर्त्तनहीन समरूपता को तोड़कर कुछ दिन के लिए उसे शान्त कर देता था... यानी अशान्त कर देता था-क्योंकि जीवन और अशान्ति एक ही क्रिया के दो नाम हैं शान्ति तो उस तूफ़ान के पहले होती थी जब वह बिलकुल ही निर्लिप्त, बिलकुल निरीह, एक गतिमान अचेतना-सा हो जाता था, शिथिल किन्तु घातक, जैसे दलदल... उस तूफ़ान में वह उन्मत्त होकर मेरे वक्ष पर सिर पटक-पटक कर कहता था, ‘मैं पागल हो जाऊँ! यदि मैं इस जीती मृत्यु से नहीं बच सकता, तो उसकी अनुभूति ही नष्ट हो जाये! शरीर को जितने कष्ट मिलें, मिलें; आत्मा की पीड़ा-अच्छा ही है; पर इस नीरस विशेष शून्यता का अनुभव करनेवाली मनःशक्ति मर जाये! मर जाये! मर जाये! पर व्यथा पर यदि विचार किया जाये, तो वह भी कुछ पिघल जाती है... वह इस बात को समझता कि उसके असह्य कष्ट का कारण जीवन का विशेषाभाव है, और इसी समझ के कारण वह आगे टूटता नहीं था... चिन्तन से उसे पीड़ा होती थी, किन्तु पीड़ा उसे चिन्तन का आधार देती थी...

और इसीलिए वह पागल नहीं हुआ... इसीलिए, जब वह तूफ़ान आकर उसे अशान्त करके चला जाता था, तब वह उन्मद दानव की भाँति, उस छोटी-सी कोठरी में टहलने लगता था-एक सिरे से दूसरे सिरे तक, एक, दो, तीन,चार पाँच क़दम फिर वापस, एक, दो, तीन, चार, पाँच, फिर लौटकर एक, दो, तीन... और इसी तरह वह सारी रात बिता देता, तब उसकी टाँगें थक जातीं, वह एकाएक रुककर भूमि पर बैठ जाता, और चुपचाप मन-ही-मन रोने या कविता करने लगता... उसका एक शब्द भी बाहर नहीं निकलता, एक छाया भी उसके मुख पर व्यक्त नहीं होती, वह मानो किसी अदृश्य समुद्र के भाटे की भाँति धीरे-धीरे उतर जाती और निश्चल हो जाती-उस समय तक जब कि दूसरा तूफ़ान पुनः उसे न उठावे... पर मैं उसे देखती थी और सुनती भी थी - केवल मैं ही उसके नस-नस में उसके प्राणों से भी अधिक अभिन्नता से व्याप्त थी...

वह सोचा करता था... एक चित्र, एक कल्पना... कहीं पर्वत की उपत्यका में, एक काठ का झोपड़ा, एक खुली हुई खिड़की। उसके सामने, रीछ का चर्म बिछा हुआ है, जिसके पास चौकी पर वह बैठा है। और उसके आगे, चर्म पर बैठी है - कौन? वह सुशील के घुटने पर सिर टेके हुए है, उसके केश बिथुरे हुए हैं। दोनों स्थिर दृष्टि से सामने बुझती हुई आग को देख रहे हैं। सुशील धीरे-धीरे उसके ललाट पर अपनी ठोड़ी टेक देता है, और उसके बिखरे केशों को और भी बिखेरकर उसमें अपना शीश, अपने स्कन्ध, और उसका शीश, सभी लपेट लेता है... उसका मन कहता है, “इनके सौरभ में ही खो जाऊँ, इन्हीं में घुटकर चाहे मर भी जाऊँ...”

यह दृश्य न जाने सुशील को कैसा कर देता था! मानो उसे बेधता था; मानो उसका अप्रतिहत मौन साँय-साँय करके सुशील के कानों में कहता, “तुम्हारा जीवन कितना सूना है - जैसे रेगिस्तान में अनभ्र अमावस्या की रात ! जिसके तारों का असंख्य अनुपात और अकिंचन प्रकाश उसकी शून्यता और आलोकहीनता को दिखाता ही भर है...”

तब फिर वह मेरे कपाट के पास आकर, सीखचों को दोनों हाथों से पकड़कर और भिंची हुई मुट्ठियों पर सिर टेककर बाहर देखने लगता। तब फिर उसका मन भागता-उसके जीवन के गुप्ततम विचारों, भावों और आकांक्षाओं की ओर, और मैं फिर उन्हें पढ़ती, चुपचाप...

‘आकाश... निर्बाध आकाश... नील, हरित, शुभ्र, श्याम का विस्तीर्ण प्रसार - हाँ मेरी कल्पना के पर्वत और झरने और शिलाखंड और चीड़ के वृक्ष और काई के बिस्तर, और हाँ यह लोहे के सीखचों में से दीखता मरु, उसकी सीमा पर धुँधलु-से सरकंडे के झुरमुट, नीरस करील की सूखी हुई झाड़ियाँ और यह रुग्ण आकाश!...’

वह निकम्मा था, फिर भी निकम्मा नहीं बैठ सकता था। उसका मन सदा किसी विचार में लगा रहता-कभी भूत की ओर, कभी भविष्य की, कभी वर्तमान का विश्लेषण करता हुआ, किन्तु सदा निरत...और इस अनवरत चेष्टा का कारण केवल वहाँ का जीवन ही नहीं था, केवल उसका स्वभाव ही नहीं था। मैं, सूक्ष्मदर्शी मैं भी दिन भुलावे में रही थी, किन्तु अन्त में मैंने देख ही लिया कि उसके भीतर एक और प्रेरणा छिपी है, उसके भीतर कहीं बहुत गहरे तल में, कहीं जहाँ प्रेम का प्रकाश भी नहीं पहुँच पाता...

यह मैंने कैसे जाना? एक दिन सन्ध्या के समय वह अकेला बैठा था, बिलकुल शान्त, निश्चल; और बाहर देख रहा था। उस समय सान्ध्य-प्रकाश फीका पड़ चुका था, और उदय होनेवाले चाँद की पीली पूर्वज्योति रुग्ण न रहकर दीप्तिमान-सी जान पड़ने लगी थी। सुशील बिलकुल शान्त बैठा था, किन्तु मेरे भीतर किसी संज्ञा ने कहा कि जिस प्रकार समुद्र के बहुत नीचे अत्यन्त शीत स्रोत गतिमान होते हैं, उसी भाँति उसके शान्त बाह्य पट के नीचे कुछ दौड़ रहा है... वह शान्ति किसी तल्लीनता की शान्ति थी, इसलिए मैंने चुपचाप उसके प्राणों में झाँककर देखा, बहुत गहराई तक? इतनी दूर तक कि यदि वह तल्लीन न होता तो चौंककर प्रातः कुमुद की भाँति एकाएक बन्द हो जाता, छिप जाता, डूब जाता, मुझे अपने हृदय का रहस्य न देखने देता-जो मैंने अनजाने में देख लिया!

सुशील बाहर झाँक रहा था। मरुभूमि के उस सूखे पट पर एक छाया चली जा रही थी - मरु को चीरती हुई किसी बादल के टुकड़े की छाया की भाँति - और (सुशील के लिए) उतनी ही निःसत्त्व! घघरी पहने हुए एक स्त्री, सिर पर एक छोटा-सा मटका और बाँह के नीचे एक टोकरी दाबे... सुशील उसी को देख रहा था, और उसका हृदय किसी अज्ञात कारण से धड़क रहा था, बिलकुल निष्काम होकर, उस स्त्री के प्रति बिना कोई भी भाव अच्छा या बुरा धारण किये हुए...

मैं उसे देख रही थी और सब-कुछ समझ रही थी। पर, एकाएक उसने मुँह फेर लिया... मैंने सुना (उसके सुख से नहीं, उसके मस्तिष्क के भीतर) मेरे लिए कोई आधार आवश्यक है... मेरे सखा-बन्धु सब मर चुके हैं। एक तुम हो, तुम भी कितना दूर, अनुपगम्य... और एक है यह छाया! मैं तुम्हारी ओर ही उन्मुख हूँ, फिर भी ऐसा जान पड़ता है, उस छाया के बिना जी नहीं सकता... फिर थोड़ी देर चुप रहकर, धीरे-धीरे...गाने लगा-

‘मिथ्या कथा, के बोले जे भूलो नाइ?

के बोले ये खोलो नाइ

स्मृतिर पिंजर द्वार?’...

मैंने पूछा, यह ‘तुम’ कौन है? उसकी मुझे एक झाँकी मिली, जिसमें मैं उसे पहचान नहीं पायी! शायद सुशील की बहिन, शायद वही नामहीन आकार जिसे लेकर वह बिखरे बालों की कल्पना करता था, शायद कोई और... इसलिए मेरी उस प्रश्न-भरी दृष्टि का उत्तर नहीं मिला...

कभी सोचती हूँ, संसार में कभी किसी प्रश्न का उत्तर मिलता भी है? जो प्रश्न एक बार पूछा जावे, वह क्या कभी भी अपना उत्तर पाकर सम्पूर्णता में लीन हो सकता है?

प्रश्न जब पूछा जाता है, तब वह आकाश में फैल जाता है... उसका उत्तर कितनी भी शीघ्रता से दिया जाये, प्रश्न और उत्तर में कुछ अन्तर ही रह जाता है। प्रश्न अबाध गति से अनन्त की ओर बढ़ता जाता है, और उत्तर उसी की गति से उसका पीछा करता जाता है... वे सदा निकट रहते हैं, किन्तु केवल निकट - वे कभी मिलकर और एक होकर सम्पूर्ण, सम्पन्न, समाप्त नहीं होते...

पर, इससे शायद जीवन, को स्थायित्व, नित्यता मिलती है, शायद इसके कारण ही जीवन की द्रोही-शक्ति मृत्यु के बाद तक अपरिवर्त्त रहती है, क्योंकि मृत्यु उसे पकड़ नहीं पाती... हाँ, तो उस प्रश्न का उत्तर मैंने कभी नहीं पाया। उसके बाद बहुत अवसर भी नहीं मिले। एक दिन मैंने देखा, उसके भीतर कुछ अधिक चहल-पहल है। उस दिन उसने भूख-हड़ताल आरम्भ कर दी...

उसके बाद... उसके हृदय में ऐसे तूफ़ान उठने लगे कि मैं भी घबरा जाती! मैं जो पत्थर की हूँ, जो अनुभूतिहीन हूँ, मैं उन भावनाओं की चोट नहीं सह सकती, जिन्हें वह लेटा-लेटा नित्य-प्रति अपने मन में फेरा करता। कई-एक मास बीत जाने के बाद, कभी-कभी मैं डरते-डरते उसके कोमल-तर विचारों की आहट पाकर, क्षणभर में कान लगाकर सुनती, एक-आध अभूतपूर्व उद्भावनाएँ चुरा लेती, अपने वज्रकोष में संचित करके रख लेती... मुझ जैसे प्राणहीन पत्थरों से ही विकासगति में पड़कर मानव बने हैं, तब किसी दिन मेरे कण-कण के भी बन जाएँगे; उन्हीं भविष्यत् प्राणियों के लिए मैं ये भावनाएँ एकत्र किया करती...

सदियों पहले, जब मैं किसी पहाड़ का एक अंश थी, तब बहुत-से प्राकृतिक दृश्य देखा करती थी, उन्हीं की स्मृति से एक कल्पना मुझे सूझती है। कभी, जब वायु-मंडल अत्यन्त स्वच्छ होता है, पर आकश में दो-एक छोटे-छोटे बादल के टुकड़े मँडरा रहे होते हैं, ऐसी सान्ध्य में सान्ध्य तारे के आलोक से एक कोमल धवल दीप्तिमंडल बन जाता है। श्वास की भाँति चंचल और स्वप्न की भाँति विचित्र। उसी दीप्तिमंडल के छायानृत्य की भाँति सुशील के मुख पर विचार-विवर्त्तन होता रहता, और मैं उसे देखती।

“मैं क़ैदी हूँ - तीन-चार वर्षों से मैंने किसी स्वतन्त्र व्यक्ति का मुख नहीं देखा - ये जेल के कर्मचारी तो मुझसे भी अधिक क़ैदी हैं! और यदि जीता रहा तो दस वर्ष और नहीं देखूँगा। मैं सब ओर बन्धनों से, सीखचों से, पशु-बल से घिरा हुआ हूँ। कोई मुझसे मिल नहीं सकता, कोई मुझसे बात नहीं कर सकता; मैं सदा इन्हीं सीखचों से घिरा बन्द रहता हूँ।...

“मैं प्राणिमात्र का उपासक हूँ, पर मुझे हिंसावादी कहते हैं। मैं संसार को दबाव और अनुचित प्रभुत्व से मुक्त करना चाहता हूँ, पर मेरा नाम आतंकवादी है।

“मैं जनशक्ति का सेवक हूँ, इसलिए सर्वथा अकेला हूँ।

“इस विराट् षड्यन्त्र के विरुद्ध, अपने अकेलेपन से घिरे हुए मैंने, क्या अस्त्र ग्रहण किया है? विस्तीर्ण और दुर्जेय पशु-बल से, सूक्ष्म किन्तु अजेय आत्मा की रक्षा के लिए, एक युक्ति की है?

“भूख-हड़ताल!”

और फिर, एक दूसरी बार :

“मैं निहिलिस्ट नहीं हूँ, मैं रोमांटिक नहीं हूँ। मुझे आत्मपीड़न में ऐन्द्रयिक सुख नहीं मिलता, मुझे गौरव का उन्माद भी नहीं हुआ है। पर मेरी परिस्थिति में एक ऐसी अपरिवर्त्त, तुषारमय, अमोघ अनिवार्यता है कि मुझे और कोई उपाय सूझता ही नहीं, जिससे कुछ लाभ हो सके...

“मैं एक महीने से भूखा हूँ - भूखा तो नहीं हूँ, क्योंकि भूख चार-पाँच दिन में ही मर गयी थी - एक महीने से मैंने कुछ नहीं खाया। जब मैंने खाना छोड़ा था, तब भी यही सब सोचकर छोड़ा था, तब भी अपने जीवन की शक्ति क्षीणतर होती जाती है, त्यों-त्यों उसका महत्त्व क्यों बढ़ता जाता है? इस हीन दशा में आकर मुझे जान पड़ता है, मैंने पहले कभी जीवन का अनुभव ही नहीं किया! यद्यपि अब मेरे जीवन में क्या है? दिन में दो बार, बहुत-से क़ैदी और नम्बरदार आकर मेरे क्षीण शरीर पर अपनी शक्ति की परीक्षा करते हैं, डॉक्टर मेरे बिस्तर और मुँह पर थोड़ा दूध बिखेर जाता है, और मैं थका पड़ा रहता हूँ! हाय जीवन!

“पर जब तक हम मरते नहीं, तब तक जीवन नहीं जाता। मैं यहाँ बन्द हूँ, मेरे आसपास सनसनाती हुर्ह शिशिर की हवा बह रही है, पर...”

और फिर भी...

“बाहर मैं देख सकता हूँ, अनभ्र आकाश में चन्द्रमा की ज्योति... दूर पर, शुभ्र आकाश के पट पर श्याम, स्पष्ट और भीमकाय एक सन्तरी खड़ा है, और उसके हाथ की बन्दूक पर लगी हुई संगीन ज्योत्स्ना में चमचमा रही है... लोहे की छड़ी से सीमित मेरे ‘अनन्त’ आकाश में एक साथ ही दो वस्तुएँ चमक रही हैं - ऊपर प्रकृति का सवोत्तम रत्न चन्द्रमा, और नीचे उसका उपहास करती हुई मानवीय शिल्प की सर्वोत्तम कृति, वह हिंसा का निमित्त, संगीन...

“दूर, जेल की दीवारों से बाहर, मैं देख सकता हूँ एक छोटा-सा ऊजाड़ भूमि का टुकड़ा - एक काव्यबद्ध सहारा मरुस्थल... उसके सिर पर खजूरों के छोटे-से झुरमुट में कहीं से एक क्षीण-सी आवाज़ रहट चलने की आ रही है; बाहर कहीं लड़के खेल में चिल्ला रहे हैं, और चन्द्रमा के छलिया प्रकाश में मुझे जान पड़ता है कि उस भूमि को पार करती हुई एक बैलगाड़ी जा रही है... और इस सबके ऊपर वह एक संगीन चमचमा रही है...

“मानवता और प्रकृति एक-दूसरे के सामने खड़े हो रहे हैं। मानवता की एक ललकार है किन्तु उसमें डर का भाव निहित है। प्रकृति का भाव सम्पूर्ण उपेक्षापूर्ण है, किन्तु उस उपेक्षा में एक कविता, एक प्रशान्त भव्य विराट् तत्त्व है...”

बुझते समय दीपक का आलोक सहसा दीप्त हो उठता है किन्तु दीपक आजीवन उसी प्रखरता दीप्ति से नहीं जल सकता। मरणासन्न मानव का मानसिक जीवन पहले से अधिक गतिमान हो जाता है, किन्तु मानव आजीवन उसी तल पर नहीं रह सकता...एक दिन सुशील बेहोश हो गया, और बहुत देर तक रहा... जब उसे होश हुआ, तब उसने जाना कि अब उसका विद्रोह शान्त होनेवाला है, क्योंकि उसकी दासता मिटनेवाली है... तब, एकाएक ही, वह बहुत थके हुए प्राणी की तरह मेरे वक्ष पर सिर टेककर रोया...

पागल! पागल! किन्तु कितना स्नेहपूर्ण पागल! रोया जीवन के लिए नहीं, मुक्ति के लिए नहीं, उन रहस्यपूर्ण आकारों के लिए नहीं, रोया इसलिए कि वे उसे मेरे पास से ले जाएँगे; कि उसे अपनी अन्तिम निद्रा और अन्तिम (या सर्वप्रथम?) जागृति मेरी छाती पर नहीं प्राप्त होगी, रोया कि वह मुझसे बिछुड़ जाएगा...

मैं पत्थर, कठोर पत्थर! और अपनी जड़ता के ज्ञान से ही, अपनी गति-विवशता से ही, मैं उस दीन पिघल जाने के कितना निकट आ गयी... पर पत्थर कविता-कहानी के बाहर कभी नहीं पिघलता, मैं भी पिघल नहीं सकी, उसके भस्म कर देनेवाले आँसुओं से भी नहीं...

किन्तु मैंने जो किया, वह उसमें कहीं अधिक व्याथापूर्ण, कहीं अधिक यातनाभि भूत था - मैं उन आँसुओं को पी गयी...

उन्हीं की ज्वाला से, मेरा वक्ष अभी झुलसा हुआ है। पर वह उन्हें देखने को नहीं है, वह मुझे अकृतज्ञ समझता हुआ ही चला गया...

स्मृति भी मानो अफ़ीम की तरह का एक सम्मोहक विष है, वह एक विचित्र, थकी हुई-सी तन्द्रा लाती है, और ज्यों-ज्यों हम उसके आगे नमित होते जाते हैं, त्यों-त्यों विष का प्रभाव द्रुततर होता जाता है और फिर सोते समय एकाएक वह पूरा हो जाता है, भीतर कुछ नष्ट कर डालता है...

मैं कह चुकी हूँ कि मैं कुछ नहीं हूँ और सब-कुछ हूँ। प्रत्येक व्यक्ति मुझमें अपने प्राणों का, अपनी भावना का, प्रतिरूप पाता है। मैं कृष्ण-मन्दिर नहीं हूँ, न दासता की संकेत हूँ। मैं हूँ केवल एक दर्पण किन्तु काले शीशे का दर्पण... मुझमें प्रत्येक व्यक्ति अपनी आत्मा-भर देखता है, बिलकुल यथा-तथा; बिना किसी भी प्रकार के परिवर्तन या गोपन-चेष्टा के - आत्मा की नग्नता में, निवारणता में बाह्य आडम्बर और दर्प और प्रतिभा और शक्तिमत्ता की हीनता में... नंगे सत्य की तरह अकोमल और कृष्णकाय...

एक और की बात कहती हूँ। वह मेरे पास बहुत दिन नहीं रहा किन्तु मेरे पास आने से पहले भी वह कुछ काल जेल में रह चुका था। वह आया ही, तो मैंने देखा, उसने अपने भीतर एक छोटी-सी मंजूषा अलग बन्द कर रखी है; और वह समझता है, उसमें बहुमूल्य वस्तुएँ हैं; वह समझता है, वे परकीय आँखों से अत्यन्त सुरक्षित हैं... पर मैंने पहले-पहल उन्हीं की परीक्षा ली, और मैंने देखा, उनमें महत्त्वपूर्ण वस्तु कोई नहीं है - यदि किसी भावना की प्राचीनता और अनिवार्यता ही उसे महत्त्वपूर्ण नहीं बना देती तो।

मैंने देखकर और जाँचकर कहा, “कायर!”

यह बात मेरे अतिरिक्त कोई नहीं जानता था। संसार उसे सच्चा वीर, एक नेता, पौरुष की सम्पूर्णता का पुरुष समझता था। किन्तु मैंने देखा-

मेरी ललकार, उसके प्राणों ने सुन ली। हमारे बाह्य आकार अपनी चेतनाएँ खो चुके हैं, इसलिए परस्पर व्यवहार नहीं कर सकते, किन्तु हमारे प्राण अब भी वह क्षमता रखते हैं, और स्वतन्त्र रूप से अपना व्यवहार जारी रखते हैं। तो उसके प्राणों ने उत्तर दिया, “मैं कायर नहीं हूँ। मैं कायर शरीर में बसनेवाली वीर आत्मा हूँ। मैं शारीरिक कष्ट से डरता हूँ, पर मुझमें नैतिक बल है।”

मैंने कहा, “तुम किसी प्रकार के भी आघात से डरते हो। तुम जो विद्रोही बने हो, उसका कारण कोई नैतिक विशालता या बौद्धिक विश्वास या शारीरिक बल नहीं है, उसका कारण है केवल आघात के डर की प्रतिक्रिया-मात्र!”

उसके प्राण, मानो किसी अभौतिक चादर से अपने को ढाँपने का प्रयत्न करते हुए बोले, “नहीं! मैं इसलिए नहीं रोता कि मैं अपने आघात से डरता हूँ; मेरी खिन्नता का कारण है कि मैं इतना कुछ तोड़ता और विनष्ट करता हूँ, इतनों को इतने भयंकर आघात पहुँचाता हूँ...”

मैं हँसी। उसके प्राणों ने भी अनुभव किया कि उस हँसी में एक कठोरता है - वह आखिर एक पत्थर की ही हँसी तो थी! मैंने कहा, “तुम कायर ही नहीं, झूठे भी हो!” पर वह अपने में इतना लीन था, अपने को धोखा देने में इतना पटु कि उसने सुना नहीं, कोई लम्बी-चौड़ी स्कीम लेकर उसी पर विचार करने लगा... मैंने फिर कहा, “जो आज के दिन इसलिए रोते हैं कि उनके हाथों से पाप हो रहे हैं, कल इसलिए रोएँगे कि उनकी आत्मा भूखी मर रही है! क्योंकि स्वस्थ और सक्षम पुरुष को रोने का समय कहाँ है? मैं यह अनुभव से कहती हूँ, क्योंकि मेरी आत्मा भी रुग्ण और भूखी है...” पर इसने यह भी नहीं सुना...

एक और दिन की बात है, मैंने देखा, वह मेरे मध्य में चुप खड़ा है। मैंने यह भी देखा उसके प्राणों पर एक परदा छाया हुआ है - यानी वह किसी विषय में फिर आत्माप्रवंचना कर रहा है...

मैंने उसके विचार पढ़े। वह, अपनी ओर से अब भी क्रान्ति के विषय में विचार कर रहा था। किन्तु उनका धरातल सत्यता से इतनी दूर, बौद्धिक बारीकियों में इतना उलझा हुआ, और मानव जाति के प्रति ऐसी विमुख उपेक्षा से पूर्ण था कि मैंने अपना साधारण नियम तोड़कर उन्हें बिखेर दिया और कहा, “युवक, वह धोखा है, उधर मत देखो, उतनी दूर! अपने सामने, अपने पास, अपने सब ओर देखो, उसमें मिल जाओ! तुम्हारा जन्म पृथ्वी की अक्षय कोख से हुआ है, तुम्हारा पोषण भी आकाश से नहीं, धरती से ही हो सकता है... शक्ति, प्रेरणा सूर्य की प्रखर दीप्ति, आकाश से आती है अवश्य, किन्तु केवल धरती को जीवन का एक आधार देने के लिए...”

उसने सुना, पर माना नहीं। मैंने देखा, उसके नख अकारण और अकामतः मेरे वक्ष पर लिख रहे हैं, ‘गेट दी बिहाइंड मी, ‘सेटन’ ...हा अन्याय! पर मेरा विचारकर्त्ता कौन है?’

तब वह दिन भी आ गया जब वह अपने पापों के लिए नहीं, अपनी भूख के लिए रोया...

वह स्नान कर चुका था। हाथ में शीशा लिए हुए, वह स्थिर दृष्टि से उसमें अपने प्रतिबिम्ब को देख रहा था। उसका शरीर तना हुआ, सिर कुछ पीछे मुड़ा हुआ, आँखें अर्धनिमीलत,-उसकी मुद्रा में कुतूहलपूर्ण पर्यवेक्षण के अतिरिक्त कुछ नहीं था, किन्तु मैंने जाना, उसका हृदय दर्पण में प्रतिबिम्बित अपनी छाया का आलिंगन कर रहा था, एक कोमल लालसा से कह रहा था, “मैं तुम्हें चाहता हूँ, मैं तुम्हें प्रेम करता हूँ...” और एक डर से घबरा रहा था - “तुम नष्ट हो जाओेगे, व्यर्थ खो जाओगे, अपूर्ति में मर जाओगे...”

मैंने सहसा उसे रोककर कहा, “युवक! तुममें एक ही शक्ति, एक पौरुष प्रेरणा है, जो अपनी निष्पत्ति माँगती है। वह विद्रोह से भी मिल सकती है, और इस - इस प्रेम से भी; पर दोनों से नहीं! प्रेम की शक्ति उस नागिन के सिर की तरह है; जो उसे एक बार देख लेता है, वह फिर जड़ हो जाता है...” मैंने यह नहीं सोचा कि यदि है, तो फिर मेरी शिक्षा का क्या लाभ है? वह तो उस मूर्ति को देख चुका है, जिसके प्रति अन्धा रहना अन्धेपन से बचे रहना है...

मैंने उसे ‘प्रेम’ तो कहा, पर वह प्रेम नहीं था, वह थी एक और शक्ति जो अँधकार से उत्पन्न होती है, और जो अधिकार पा लेने पर अन्धकार की ओर, शून्यत्व की ओर, अधोगमन की ओर खींचती है...

जाने दो। कोई अन्धा है, तो हमारी रो-रोकर अपनी आँख फोड़ लेने से उसे कुछ दीखेगा नहीं। उसके अन्धेपन को ही फलने दो, उसकी वही गति है। और जिनके आँखें हैं -

वे एक तरह से अलग हैं -

इस अलगाव का पता सहसा नहीं लगता, क्योंकि निर्बलताओं में बँधे इस संसार में हम निर्बलताएँ ही देखते हैं, और निर्बलता के क्षण में आँखें होने या न होने से कोई विशेष भेद नहीं होता...

सच्चे विद्रोही, और साधारण व्यक्ति में एक बहुत ही बड़ी समानता है-एक समानता जिससे उनकी आत्यन्तिक विभिन्नता प्रखर दीप्ति से चमक जाती है - कि विद्रोही अपनी कमज़ोरी के क्षण में वह इच्छा करता है जो कि साधारण व्यक्ति अपनी शक्ति के चरम विकास में-मुक्ति की, बचाव की छुटकारे की, इच्छा इस झंझट से, उस उलझन से, इस प्रपीड़न और यातना और अपवित्रता से भरे जीवन और संसार से निकल भागने की तीव्र, भयंकर, आत्मा को झुलसानेवाली इच्छा...

क्योंकि, विद्रोही अपनी सारी दीप्ति और तेज अपने भीतर से पाता है, और उसी की आँच पर संसार को परखता है, और साधारण व्यक्ति अपनी प्रेरणा संसार से पाता है और उसकी आँच पर स्वयं परखा जाता है...

और, साधारण व्यक्ति एक व्यक्ति, एक इकाई होता है जो अपने आपको खोजती हुई अपनी निष्पत्ति की ओर बढ़ती है, किन्तु खोयी रहती है संसार की समष्टि में; विद्रोही होता है एक समष्टि में छिपी हुई प्रेरणा, एक विराट् समूह में वितरित शक्ति, किन्तु होता है अत्यन्त आत्म-सन्निहित और अकेला...

ऐसा भी, एक आया था। मैंने उसे देखा, परखा, और जाना; मुझे मालूम हुआ, यही है मेरे जीवन का पूरक, यही है जिसके लिए मैं बनी थी और जिसकी प्रतीक्षा में इतनी देर जड़वत् मुग्ध खड़ी थी... फिर मुझे ध्यान आया, कैसा है मेरा यह प्रणय, जो अपने वांछित को कष्ट ही कष्ट दे सकता है, जिसका असमापन ही उसकी सफलता है, क्योंकि उसी में सुख है! पर उसे कोई पीड़ा नहीं हुई, कोई कष्ट नहीं हुआ। उसमें इतनी निर्वेयक्तिकता थी कि उसे व्यक्तिगत अनुभूति मानो थी ही नहीं, और इसीलिए मैं उसका आदर करके भी प्यार नहीं कर सकती - पवन की गति को कौन प्यार कर सकता है?

वह राजनैतिक खून के मामले में आया था, किन्तु यदि मैंने किसी को अहिंसा का मूर्तिमान् स्वरूप कहाने लायक देखा है तो उसी को। उसकी आत्मा ने कभी हिंसा नहीं की, कभी अत्याचार नहीं किया, यद्यपि उसके हाथों से अवश्य ही कई मृत्युएँ हुई होंगी और उसके जैसी शक्तिमती घृणा (यद्यपि बिलकुल बौद्धिक, विषयाश्रित घृणा) का अनुभव करने वाले कम ही होंगे...

मानव समझते हैं, अहिंसा एक नकारात्मक परिस्थिति है-हिंसा का न करना मात्र। वे यह नहीं समझते कि संसार में कोई भी नकारात्मक परिस्थिति कभी नहीं टिक सकतीं - हिंसा न करना, पीड़ा न पहुँचाना, घृणा न करना, बिलकुल निरर्थक, नहीं असम्भव है, तब तक जब तक कि हम शान्ति नहीं फैलाते, सुख नहीं देते, प्रेम नहीं करते; शक्ति अपने को बाँधने में नहीं, अपने को सीमाओं से उन्मुक्त करने में है...

वह भी मेरे पास से चला गया - या यह कहूँ कि नहीं गया? क्योंकि उसे फाँसी के लिए ही निकालकर ले गये थे...

यह एक भयंकर स्मृति में – मुझे याद है कि मुझे उस समय भी ध्यान हुआ था कि वह पहला व्यक्ति है जो मेरे वक्ष पर अपना नाम नहीं लिख गया है; उससे पूर्व जितने आये थे, वे सभी अपना नाम कोयले से, या पेन्सिल से, या नाखून से ही खोद-खोदकर लिख गये थे, किन्तु उसने ऐसा नहीं किया... शायद उसे परवाह नहीं थी कि उसे कोई स्मरण करता है या नहीं; या शायद अपने प्रकांड आत्मविश्वास में वह जानता था कि उसे मेरे वक्ष पर यह छोटी-सी छाप छोड़ जाने की आवश्यकता नहीं; या शायद विद्रोही की संसार के प्रति अवज्ञा के कारण ही - एक अन्तिम अवमानना की तरह...

एक अन्तिम स्मृति...

वह भावुक था, किन्तु उसका मोह टूट चुका था, वह खट्टा हो गया था। इतना नहीं कि उसके लिए जीवन निस्सार हो जाये, इतना नहीं कि वह निरीह होकर पाप करने में प्रवृत्त हो जाये, पर इतना अवश्य कि उसके पुराने नैतिक आदर्श बिखर जाएँ, और नये आदर्श उनका स्थान लें-आदर्श, जो वास्तव में किसी प्रकार की भी आदर्शवादिता के शत्रु हैं...

ऐसा था मानो उसके लिए संसार के मुख पर पहना हुआ कोई छद्म-मुख उतर गया हो, या मानो उसका मनःक्षेत्र एकाएक विस्तृत होक मानवीय चेतना से परे की-ऊपर और नीचे दोनों ओर परे की - अनुभूत शक्ति पा गया हो, और इतना ही नहीं, उस अनुभूति को वह पहले की अपेक्षा कम काल में प्राप्त कर लेने में समर्थ हो गया हो...

उसका नाम था दिनमणि। वह आया था केवल दो दिन के लिए, किन्तु मैं उसे नहीं भूलती। जब वह उठकर बाहर चल दिया, तब उसने लौटकर मेरी ओर देखा भी नहीं चुपचाप चला गया। मैंने सोचा, क्या है? जब मुझे याद करनेवाले आते हैं तब भूलनेवाले भी होने चाहिए, जब मेरे प्रति एक पूजा भाव रखनेवाले होते हैं, तब ऐसे उपेक्षाभाव रखनेवाले भी तो होने चाहिए... पर नहीं, दूसरे दिन मैंने देखा-यानी एक शारीरिक अनुभूति से अनुभव किया-कि वह दूर पर, बड़ी दीवार के बाहर बैठा है - उसी स्थान पर जहाँ कभी सुशील आँख लगाये रहता था, किसी एक छाया के लिए, ‘जहाँ आकर वह छाया कभी-कभी सम्भ्रम की दृष्टि से मेरी ओर देख लेती थी और सुशील को एक सुखद शान्ति दे जाती थी’...

दिनमणि को वहाँ बैठ देखकर मुझे जिज्ञासा हुई कि यह क्यों आया है? तब मैं उसकी आत्मा से मूक वार्तालाप करने लगी, और मैंने जाना कि वह कितना थका हुआ है, किन्तु हारता नहीं है। संसार में आकर वह अनुभव कर रहा है कि वह संसार से बाहर है, किन्तु उसे छोड़ता नहीं... मैंने पूछा, “दिनमणि, तुम्हें क्या हो रहा है?”

उसकी आत्मा ने उत्तर नहीं दिया, केवल एक आँख-भर मेरी ओर देख दिया... उसका सिर, उसका मन, उसकी समूची आत्मा एक दबी हुई, स्पन्दनयुक्त, और कभी-कभी तीखी हो जानेवाली, एक अद्भुत पीड़ा से दुख रही थी।

हमारा वार्तालाप होने लगा :

मैंने पूछा, “तुम सुखी क्यों नहीं थे?”

“यह देखो, संसार का खोखलापन... इधर, और उधर, और इधर-” उसने आँखों-ही-आँखों से संसार का फेरा करते हुए कहा - “यह देखो, इसकी झूठी प्रशंसा और निस्सारता, और यह देखो मेरी मौन ग्लानिपूर्ण लज्जा, जिससे मैं इसे सहे जाता हूँ, और जो इसलिए अधिकाधिक होती जाती है कि मुझे बड़े यत्न से इसे चुपचाप सहना पड़ता है, ताकि मैं किसी को कष्ट न पहुँचाऊँ... यद्यपि मेरा हृदय चाहता है इस पर आक्रमण करना, इसका विध्वंस करके, इसे तहस-नहस करके जला डालना...”

“तुम अपने सच्चे भावों को छिपाकर चुपचाप यह सहते हो, यह क्या ढोंग नहीं है?”

“है। किन्तु ढोंग हमेशा ही दुर्बलता नहीं होता - कई बार यह शक्ति और बड़ी गहन शक्ति का, द्योतक होता है, और ऐसी अवस्था में जो ढोंगी नहीं होता वह कायर और दगाबाज होता है... मैं कहता हूँ, सच्चाई अमाया, जितनी बार नैतिक बल से उत्पन्न होती है, उतनी ही बार नैतिक दुर्बलता, कायरता से भी...”

“पर, यदि ऐसा है, तो तुम्हें संसार को देखकर पीड़ा क्यों होती है? वह पीड़ा तो ढोंग नहीं है...’

“नहीं। वह इसलिए कि वह मैं अपने विश्वास में दृढ़ होकर भी उस तक पहुँच नहीं पाता। क्योंकि, जो जीवन मैंने देखा है, उसने मेरे प्राणों को ही नहीं, संसार को ही निरावरण कर दिया है... उसकी खून से लथपथ और वीभत्स कुरूपता के प्रति मैं आँख बन्द नहीं कर पाता...”

“यह कब से? तुम क्या सदा से ऐसे थे?”

“नहीं। जब मैं जेल गया, (पाँच वर्ष हुए) तब ऐसा नहीं था; तब सब-कुछ भिन्न था -यद्यपि यह नहीं है कि संसार बदल गया है, या कि मैं ही बहुत बदला हूँ। केवल इसी अज्ञात क्रिया द्वारा वह पहले की तरुण आवेगपूर्ण उद्वगता जैसे खो गयी है, वह अपने सम्पूर्ण, सदर्प आत्म-गौरवमय विश्वास, उन कुछ-एक सिद्धान्तों में विश्वास जिनके लिए मैंने त्याग और संग्राम किया था, - मानो नष्ट हो गया है। आज वह सब-कुछ नहीं है; आज मैं सोच सकता हूँ, किन्तु उन सच्चे विचारकों की भाँति जो समझते हैं कि प्रत्येक प्रश्न के एक से अधिक पहलू होते हैं, और इतना ही नहीं, उन अनेक पहलुओं को देखते भी हैं ...और जितना भी सोचता हूँ, उतना ही सन्देह विकल्प बढ़ता है...”

“तुम्हारी इस प्रगति को कोई समझता है?”

“मैं तो समझता हूँ।”

मैंने फिर पूछा, “संसार समझता है?”

दिनमणि की आत्मा एक फीकी हँसी हँसी। “संसार! संसार में मेरा व्यवहार ऐसा है कि मानो मैं आज जो कहता हूँ उसे यह पाँच वर्ष बाद सुनता है - मेरे और संसार के मध्य में एक आलोक तथ्य की भाँति सदा उन पाँच वर्षों का अन्तर रहेगा जो मैंने जेल में बिताये हैं...”

मैं और प्रश्न नहीं पूछ सकी। चुपचाप दिनमणि को देखने लगी, और सोचने लगी कि ऐसी समस्याओं का कभी हल होगा या नहीं... संसार में, शासन-संस्थाएँ बदलती ही रहेंगी, विधान भी बदलते ही रहेंगे... साथ-ही-साथ स्वाधीनता के आदर्श भी बदलते रहेंगे तब सदा ही पूर्ण स्वाधीनता में कुछ न्यूनता रहेगी, उसे पूरी करने के लिए उद्धत और मनचले युवक भी उठते ही रहेंगे, ...बाह्य प्रश्नों का, राजनैतिक समस्याओं का हल तो अनेक बार होगा और फिर होगा, किन्तु मानव-हृदय की वह ऊर्ध्वगति या पागलपन, कब कैसे मिटेगा - यह तो सदा ऐसा ही बना रहेगा, यही तो मानव-हृदय की स्पन्दन-गति है जिसके बिना वह नहीं चलेगा...

तब तो, मुझे कभी मुक्ति नहीं मिलेगी? मैं सदा ही दूसरों को पीड़ा देकर अपनी पीड़ा के बोझ को चुकता करती रहूँगी, किन्तु कभी नहीं पाऊँगी, बूढ़ी और कमजोर होती जाऊँगी, किन्तु मरूँगी नहीं - अभिशप्त टाइथोनस की भाँति कुढ़-कुढ़कर रह जाऊँगी - निर्दय अमरत्व एक मात्र मुझे ही सालेगा...

एकाएक मैंने सुना, दिनमणि बिलख-बिलखकर रो रहा है और अपने से एक निराश प्रश्न पूछ रहा है, मैं क्यों आया, मैं यहाँ क्या करने आया...” ओह, वह रात्रि की घोंट देनेवाली नीरवता, ओह, उस प्रश्न की यन्त्रणा... उसके लिए भी मेरे लिए भी, जिसे याद आ रहा है कि मैं अमर हूँ, और मेरे अमरत्व का बोझ मुझ पर से उठ नहीं सकता...

दिनमणि उठा। एक बार उसने अत्यन्त स्थिर दृष्टि से मेरी ओर देखा - देखता रहा। फिर एक भयंकर अभिशापमय स्वर में बोला, “मैं नहीं आऊँगा, नहीं आऊँगा! प्रत्येक प्रेरणा मुझे इधर धकेलती है (क्यों धकेलती है? क्यों चाहता हूँ कि संसार से लौट जाऊँ अपने कारावास में?) पर मैं नहीं आऊँगा, मैं जीते रहकर ही अपनी मृत्यु-यन्त्रणा भोगूँगा...”

और चला गया।

मैं चुप रही, शान्ति रही। पत्थर हूँ - पत्थर रही... पर, मैंने इतने जीवन में जो कुछ अनुभव प्राप्त किया है, वह विद्रोह कर उठा... तब मैंने कहा ही तो - विवश होकर कहा...

“पागल! पागल! नहीं आओगे, अपनी माता के पास नहीं आओगे, जो तुम्हें सत्य देती है और प्यार करती है; जो निर्दय और कठोर घृणा से तुम्हें संसार में धकेलती है कि तुम काम करो और दुख भोगो और लड़ो और फिर उसके पास लौट आओ उसके अकेलेपन में... उस माँ के पास नहीं आओगे?...”

पर वह चला गया-उस समय उसने कुछ नहीं सुना। पर मैं अपनी बात पूरी कर डालने के लिए बोलती गयी-क्योंकि मैं जानती हूँ कि कोई अपने मन में निश्चय नहीं कर सकता कि वह मेरे पास आएगा या नहीं... यह निश्चय मैं करती हूँ, और मेरी सहायक होती है मानव-हृदय की भूख... दिनमणि ने आज नहीं सुना, पर किसी दिन उसके प्राण ही उसे यह सुनाएँगे...

मैं कहकर चुप हो गयी। और निविड़ रात्रि में तारों द्वारा बढ़ाये हुए अन्धकार की ओर उन्मुख होकर सोचने लगी-उस तारापट में अपना भी एक अमर आँसू गूँथने लगी, जो कि मेरी जीवनी का सार और मेरी कहानी का सबसे गूढ़तम सत्य, उसका अन्त है; एक आँसू जो नीरवता में बोलता है, अन्धकार में चमकता है, विस्मृति में जागता है और जो नियति का नैराश्यवाद होगा, और तुम्हारे रोने में नवजीवन की अनुभूति का रस... मैं हसूँगी जैसे प्रसूतिकाल में मरती हुई माता वह सुख-समाचार सुनकर हँस उठती है एक उन्मत्त ओर दुःख भरी, हँसी; तुम रोओगे जैसे नवजात शिशु संसार की असह्य सजीवता और ज्योति को देखकर एकाएक रो उठता है...

कि मैं कहती हूँ, यही मैंने अपने पत्थर के जीवन में सीखा है, पत्थर के आँसू में सींचा है, और पत्थर की कठोरता से तुम्हें सिखाऊँगी...

(दिल्ली जेल, 1934)