कोढ़ में खाज : मधुशाला पर फतवा (पृष्ठ-1) / अजित कुमार
उधर देश पर आतंकवादी हमले बढ़ रहे हैं और हम चीखें-पुकारें तो सुनने को मिलता है कि
‘’ 9/11 जो अमेरिकन्स ने किया था उसको बहुत खूबसूरत कैमोफ्लाज किया था...इंडियन्स ने वही गेम रिपीट करने की कोशिश की लेकिन अकल तो है नहीं । इन अहमक़ों ने कम्प्लीट डिज़ास्टर किया इसको हैंडिल करने में ।‘’(टाइम्स आफ इंडिया,3-12-08)
भारतीय जनता में फूट डालने के इरादे से सुझाया जा रहा है- और दुर्भाग्यवश हमारे कुछ देशवासी भी, इसका असली मक़सद न समझ उनके फन्दे में फँस चले हैं- कि भगवाधारी हिन्दू सम्प्रदायवादियों की पड़ताल में लगे आला अफसरों का सफ़ाया खुद ही कर देने के बाद भारत सरकार इस हादसे का इलज़ाम पाकिस्तान के माथे मढ़ना चाहती है।
यह एक ऐसी दुरभिसन्धि है जिसके सिलसिले में जहाँ एक समय के नारे याद आते हैं कि
‘‘हँस के ले लिया पाकिस्तान, लड़ के लेंगे हिन्दुस्तान’’
वहीं दुनिया को मध्ययुग में लौटानेवाले ऐसे दावे सुनने को मिलते हैं कि इस्लाम को अपना पुराना गौरवपूर्ण विस्तृत साम्राज्य फिर से हासिल करना ही होगा । यह एक ऐसी दौड़, हविस या खेल है, जिसमें चाहे जगतगुरु भारत के हिन्दुत्ववादी रखवाले लगें, चाहे कट्टर इस्लामी जेहादी या दुनिया के कोई अन्य विस्तारवादी देश, गुट और सम्प्रदाय- आम आदमी शायद मूक या स्तब्ध दर्शक होने और इसे पागलपन समझने के अलावा कुछ खास कर नहीं सकता । रहीं सत्ताएँ और सरकारें .. वे भी बयानबाज़ी से आगे कहाँ जा पा रही हैं ।.. सोचकर दहशत होती है कि आतंकवाद का अभिशाप कहीं दुनिया को तीसरे विश्वयुद्ध में लपेट न ले ... लेकिन उम्मीद यह देखकर कुछ बँधती है कि हाल के मामलों ने कमसे कम भारतवासियों और दुनियाभर के समझदारों को एकजुट किया है तो भी इस कोढ़ से जुड़ी खाज का एक मामला हाल में सामने आया है, जिसके बारे में दबी ज़बान से कुछ कहना शायद भुस के ढेर में माचिस लगाना नहीं, बल्कि गुस्साये-बौखलाये व्यक्ति के लिये ठंडे पानी का गिलास जुटाना समझा जायेगा ।
नवम्बर 2008 में, यानी कविवर बच्चन के जन्म के लगभग सौ वर्ष बाद और ‘मधुशाला’ लिखे जाने के लगभग 75 वर्ष बाद लखनऊ के शहर काज़ी मौलाना मुफ़्ती का़दरी ने फ़तवा जारी किया है कि ‘मधुशाला’ इस्लाम-विरोधी है और पाठ्यक्रमों में रखने योग्य नहीं क्योंकि वह मद्य तथा मद्यपान का गुणगान करती है । यह खबर पढकर एक बार फिर खयाल आया कि कवियों को अकारण ही त्रिकालदर्शी नहीं कहा गया । बच्चन जी ने उन महा्शय के जन्म से पहले ही उनके विषय में भविष्यवाणी कर दी थी-
‘‘हर सूरत साकी़ की सूरत में परिवर्तित हो जाती,
आँखों के आगे हो कुछ भी, आँखों में है मधुशाला।‘’
यही नहीं, काज़ीजी ने विषय की परीक्षा किये बिना ही ऊबे-उचटे ढंग से जो फैसला सुना दिया है, उसके बारे में भी बच्चनजी तभी लिख चुके थे-
‘’ दो दिन ही मधु मुझे पिलाकर ऊब उठी साक़ी बाला,
भरकर अब खिसका देती है वह मेरे आगे प्याला,
नाज़, अदा, अन्दा़जों से अब, हाय, पिलाना दूर हुआ,
अब तो कर देती है केवल फ़र्ज-अदायी मधुशाला’’...
निवेदन यह है कि धर्म का झंडा उठाये फिरनेवालों की परेशानी का हल कविवर बच्चन सन 1933 में ही ‘मधुशाला’ रचते समय कर गये थे और असंख्य आलोचनाओं-टीकाओं-टिप्पणियों-पैरोडियों-मुद्रणों-संस्करणों से गुज़रते हुए यह अद्भुत रचना लगभग अस्सी वर्षों के दौरान प्रसिद्धि तथा लोकप्रियता के जिन शिखरों को छू चुकी है, उससे हिन्दी जगत ही नहीं, समूचा देश भलीभाँति परिचित रहा है । अंग्रेज़ी समेत विश्व और देश की अनेकानेक भाषाओं में अनूदित होकर ‘मधुशाला’ फारसी के प्रसिद्ध मध्ययुगीन कवि उमर खय्याम के फिट्ज़्जेरल्ड कृत अंग्रेज़ी अनुवाद ‘रुबाइयात ओमर खय्याम’ जैसी ही प्रतिष्ठित-सम्मानित-लोकप्रिय समझी जा चुकी है और एक आधुनिक क्लैसिक के रूप में उसकी मान्यता लगभग सर्वसम्मत है ।
ऐसी स्थिति में केवल इतना भर कहना शेष बचता है कि यदि इन संत महात्मा ने ध्यान के साथ अपनी विद्या साधी होती तो उनके फतवे का रूप यह रहा होता कि ‘मधुशाला’ के आमन्त्रण और ‘अल्ला हो अकबर’, ‘अनलहक़’, ‘तत्वमसि’, ‘सोहं’, ‘अहं ब्रम्हास्मि’, ‘ओंभूर्भुव: स्व:’, ‘हर हर महादेव’, रामजी की जय‘, ‘गाड इज़ ग्रेट’, ’ग्लोरी टु हिम’, ‘वाहे गुरू का खालसा’,’देवी जागरण’ ‘जय 3हनुमान’, ’सत्यमेव जयते’ आदि-आदि आमन्त्रणों में कोई बुनियादी फर्क नहीं- वे सभी जीवन-संग्राम में अविचलित रहने, सुख-दुख को समान भाव से ग्रहण करने और जीवन को पूरी तरह जीने का सन्देश देते हैं ।
इस बात को सीधी-सादी, प्रतीकात्मक विधि से मधुशाला में बारम्बार दोहराया गया है ।ऐसे भ्रम की तनिक भी गुंजाइश नहीं कि यह रचना शराब पीने-पिलाने का समारोह मनाती है या उसका गुणगान करती है ।
समूची पुस्तक में आदि से अन्त तक मनुष्य को यही संदेश दिया गया है कि उसे अनचाहे-अनमाँगे जो जीवन मिल जाता है, उसे वह बिना किसी तरह की अतिरिक्त आशा-प्रतीक्षा किये पूरी तरह जीने का यत्न करे ।
‘मधुशाला’ की विशेषता एक कृति के रूप में यह है कि वह समूचे जीवन को ‘मधुशाला’ मानती हुई जीवन की प्रक्रिया को किसी एकांगी दृष्टिकोण से नहीं देखती बल्कि उसके प्रति बहुलतावादी रुख अपनाती है अर्थात इसकी गुंजाइश रख कर चलती है कि जीने की कोई एक निश्चित पद्धति या प्रक्रिया नहीं होती, वह कई तरह से जिया जा सकता है जब कि अधिकांश धर्म संपदाय कट्टर रुख अपनाते हैं, जैसा कि उस फतवे से भी जाहिर है जो इस बहस के मूल में है । इस फर्क़ को समझकर ही एक खुली और एक बन्द निगाह के बीच चुनाव करना सम्भव होगा । वे कहते हैं कि मधुशाला ‘शराब’ का गुणगान करने के नाते निन्दनीय है, हम कहते हैं कि ‘मधुशाला’ जीवन का समारोह मनाने का समर्थन करने के नाते प्रशंसनीय है, साथ ही वह उस ‘समारोह’ की अनित्यता को भी रेखांकित करती है ।
‘मधुशाला’ उस विशिष्ट भारतीय समझ से संयुक्त है जो किसी भी विषय पर विभिन्न कोणों से विचार करने में विश्वास करती है । प्रमाणस्वरूप इस छोटी-सी कृति से पचीसो हवाले दिये जा सकते हैं, मसलन-
1 जीवन हर हाल में जीने योग्य है,
2-जीवन को कितनी भी मजबूती से पकड़ो, वह तुम्हारी पहुँच से परे रहेगा,
3-जीवन के पीछे जितना भागोगे, उतना ही वह तुमसे दूर जायेगा,
4-जीवन मे क्टु-मधुर का अन्तर करना व्यर्थ है, जिसे एक समय कटु समझो, वह किसी अन्य समय मधुर प्रतीत होगा, जिस तरह कि इसका उलटा भी सर्वथा सम्भव है,
5-जीवन मस्ती का पर्याय है,
6-जीवन में आखिरकार पस्ती ही हाथ लगती है,
7-जीवन जवानी में है,
8- जवानी का खयाल धोखे से भरा है,
9-जीवन में हम यदि सचमुच कुछ पाना चाहेंगे तो हमें वह जरूर मिलेगा,
10- जीवन में कुछ पा सकने की आशा नितान्त भ्रम है, सच तो यह है कि यहाँ हम कुछ पा ही नहीं सकते, केवल भटकते रह जाते हं,
11-जीवन को हलके-फुलके ढंग से जियो, वही उसका वास्तविक आनन्द है,
12-जीवन की गहराई में जाने पर ही उसका अर्थ समझा जा सकेगा आदि, आदि ।
पर इसका यह अर्थ नहीं कि ‘मधुशाला’ महज कोई एक बात कह, उसकी उलटी बात भी तुरन्त कह देने की पद्धति वाली रचना है । ना, ना, ‘मधुशाला’ को रूपक बना वह पराधीन देश में अल्हड़,फक्कड़ अन्दाज अपना, निरा्शाजनक स्थितियों में भी जीवन तथा मुक्ति की सम्भावना देखने-दिखाने की राह खोजनेवाली रचना है । बल्कि इससे आगे बढ़, वह जीवन से परे एक और जीवन की आशा बँधाती है और इस धारणा का खंडन करती है कि मौज-मजा़, ऐशो-आराम, उपभोग-विलास ही जीवन का परम लक्ष्य या साध्य है, उलटे वह उमर खय्याम वाली संजीदगी से बताती है कि भोग के क्षण में ही भोग की व्यर्थता प्रकट होने लगती है ।
जीवन की यह सचाई कभी झुठलाई नहीं जा सकती कि वह अनिश्चित और भंगुर है । लेकिन इसका यह मतलब नहीं कि जीवन या देश के सामने उपस्थित समस्याओं से मुँह मोड़ा जा सकता है । युगीन और शाश्वत के बीच ‘मधुशाला’ मनोरम सामंजस्य स्थापित करती है इसीलिए जहाँ एक ओर वह अनन्तता का संदेश देती है वही उसमें भारत की स्वाधीनता का संघर्ष कदम-कदम पर अपनी झलक दिखाता है । यह कहना सर्वथा संगत है कि समसामयिक स्थितियों और शाश्वत सत्यों के बीच ‘मधुशाला’ में अच्छा संतुलन बिठाया गया जो उस युग की आवश्यकता थी यद्यपि आज हमें वह बहुत अंशों में कृति के साहित्यिक मूल्य में बाधा डालती जान पड़ती है ।