कोढ़ में खाज : मधुशाला पर फ़तवा (पृष्ठ-2) / अजित कुमार
हमे इस संदर्भ में याद रखना होगा कि छायावादी युग की इस रचना पर द्विवेदीयुगीन ‘साकेत’ का यह प्रभाव बिल्कुल स्पष्ट है कि जहाँ मैथिलीशरण ने ‘पंचवटी’ में गाँधीवादी हरिजन आश्रम बना दिया था वही बच्चन जी ने मधुशाला में तपोवन या आजादी की बलिवेदी का समावेश करना जरुरी समझा जो निसन्देह समसामयिकता का तकाजा था किन्तु कोई रचनात्मक अनिवार्यता नहीं । बहुत संभव है कि उस समय के सार्वजनिक आयोजनों में वाहवाही लूटने और कविसम्मेलन के पंडाल को तालियों की गड़गड़ाहट से भर दिये जाने की ललक ने कवि को ऐसे समावेश के लिए प्रेरित अथवा बाध्य किया हो । उमर खय्याम की ‘रुबाईयात’ में कुछ ऐतिहासिक नाम भले मिलते हैं लेकिन किसी तत्कालीन आंदोलन या लोकप्रिय विचार की छाया में वह रचना लिखी गयी हो, ऐसा नहीं जान पड़ता । शायद रुबाईयात और मधुशाला के बीच साम्य तथा वैषम्य के इस पक्ष को हम इस तरह समझ सकते है कि जहाँ मूलत: मध्ययुगीन रचना होने के वावजूद, अनूदित रूप में ‘रुबाईयात’ उन्नीसवी-बीसवी सदियों में भी साहित्यिक कारणों से मूल्यवान समझी गयी, वहाँ ‘मधुशाला’ अपने समसामयिक सन्दर्भों के अप्रासंगिक हो जाने के कारण कई निहितार्थों को तब तक के लिये खो चुकी है जब तक कि वे फिर हमसे काफ़ी दूर या खासे पुराने न हो जाँय । फलत:, उसके वही आशय आज मूल्यवान जान पड़ते हैं जो जीवन की बुनियादी और शाश्वत सचाइयों से ताल्लुक रखते हैं ।
इसे और स्पष्ट करें कि ‘सत्याग्रह’ या ‘तपोवन’ का सन्दर्भ स्वाधीन भारत की विकासोन्मुख परिस्थितियों में, दुर्भाग्यवश, प्रासंगिक नहीं प्रतीत होता- सम्भव है, कभी सुदूर भविष्य में, खय्याम के कैकुबाद, कैखुसरो, हातिम आदि की तरह, वह फिर से प्रासंगिक हो उठे, जबकि जन्म, जीवन, मरण, नियति की शाश्वत समस्याएं पहले की तरह निरन्तर बनी हुई हैं, जिनसे निबटने में कबीर के दोहों-पदों की तरह बच्चन की ‘मधुशाला’ आज भी मदद दे सकती है ।
लेकिन अगर कोई व्यक्ति इस रचना के अत्यन्त सीमित अर्थ पर ही टिके रहने की ज़िद करे तो उसे बहुत से सवालों का जवाब देना होगा । क्या वह उस कवि को भी धर्मद्रोही बता देगा जिसने ज़ाहिद से कहा कि
या तो मस्जिद में बैठकर शराब पीने दो या वह जगह बताओ, जहाँ खुदा न हो?
इसी तरह ‘कर्ज़ की पीते थे मय’ घोषित करनेवाले को उसने भला किस तर्क से ‘मि़र्जा़’ और शायरे-आज़म ब्ना रहने दिया ? यही नहीं, जब लगभग तीन-चौथाई दुनिया धड़ल्ले से शराब पीती-पिलाती है, यहाँ तक कि इस्लाम के असंख्य अनुयाई भी चोरी-छिपे ही सही, यह शौक फरमाते हैं तो बताना होगा कि काज़ी साहब उसे क्यों नज़रन्दाज़ करते हैं जबकि एक दिवंगत लेखक को निशाना बनाते नहीं हिचकते ...क्या सिर्फ़ इसलिए कि वह तो अपनी हिफाज़त करने वापस आयेगा नहीं ।....
इसलिये, यह दोहराते हुए कि ‘मधुशाला’ शराब के बारे में क़तई नहीं, जीवन के बारे में प्रतीकात्मक रचना है, मैं रेखांकित करना चाहूंगा कि यदि वह शराब से मिलनेवाली निर्दोष मदहोशी की हिमायत करती भी हो तो क्या वह धर्मोन्माद से अथवा दूसरे अनेक जनूनों से पैदा होनवाली बर्बर मदान्धता से कहीं बेहतर नहीं ? उमर खय्याम ने आशा-आकांक्षा का संदेश आशा की व्यर्थता को जान कर ही दिया था-
‘’जीर्ण जगती है एक सराय...यहाँ आ बड़े-बड़े सुलतान...न जाने कर किस ओर प्रयाण गये, बस दो दिन रह मेहमान ‘’ ।
खैयाम के अनुवाद की भूमिका में बच्चनजी ने ठीक ही लिखा था-
‘’यह खैयाम और उसकी प्रेयसी का वार्तालाप नहीं है । यह है जन्म से लेकर मरण तक की मानव की जीवन-चर्या । यह है सचेत होने से लेकर संसार से विदा लेने के समय तक की विचारधारा । यह हैं मानव जीवन के कटु कठोर सत्यों का दर्शन और उसकी प्रतिक्रिया । यह स्वतंत्र मुक्तकों का संग्रह न होकर एक ऐसी आत्मा की पुकार है जिसे इस संसार के अतिरिक्त कुछ नहीं दिखायी देता, जो इस संसार से सन्तुष्ट भी नहीं है और जो इससे विरक्त भी नहीं हो सकती ।‘’
इसी सन्दर्भ में ‘मधुशाला को भी देखा जाना चाहिए। मैं तो सिफारिश करुंगा कि फा़रसी लिपि में उसका एक संस्करण छपे ताकि उर्दू भाषी ब्यापक समुदाय स्वयं देख-सुन-पढ़-समझ उसके बारे में फैसला कर सके ।- वैसे तो इस कविता की भाषा आम बोलचाल की और बिलकुल आसान है लेकिन इक्का-दुक्का कठिन हिन्दी शब्दों का सरल अर्थ जुटाने का जिम्मा लेने को मैं तैयार हूँ । बहरहाल, अगर यह प्रस्ताव काज़ी साहब को इस्लाम के प्रतिकूल या अधार्मिक जान पडे- तो उनसे निवेदन है कि वे प्रसिद्ध गायक मन्ना डे द्वारा स्वरबद्ध ‘मधुशाला’ सुनने की कृपा करे ताकि उनकी गलतफ़हमी दूर हो जाय... यदि यह भी उन्हें नागवार महसूस हो तो इतना अवश्य कर सकते है कि नीचे उद्धृत कुछ स्फुट पंक्तियो से मधुशाला का अर्थ सहानुभूतिपूर्वक समझें और मध्यप्रदेश या अन्यत्र के उन उर्दूभाषियों को भी समझायें जो इन साठ बरसों के दौरान शायद खुद अपनी ही भाषा भूल चले हैं । यह विनती मैं उनके प्रति पूरे सम्मान सहित, उनकी सदाशयता में भरोसा रखते हुए, और उनकी ग़लतफ़हमी मिटाने के इरादे से कर रहा हूँ :-
भावुकता अंगूर लता से खींच कल्पना की हाला,
कवि साक़ी बनकर आया है भरकर कविता का प्याला;
कभी न कण भर खाली होगा, लाख पिएँ, दो लाख पिएँ ।
पाठकगण हैं पीनेवाले, पुस्तक मेरी मधुशाला ।
मदिरालय जाने को घर से चलता है पीनेवाला,
‘किस पथ से जाऊँ ?’ असमंजस में है वह भोलाभाला;
अलग-अलग पथ बतलाते सब पर मैं यह बतलाता हूँ—
‘राह पकड़ तू एक चला चल, पा जायेगा मधुशाला ।‘
लाल सुरा की धार लपट-सी कह न इसे देना ज्वाला,
फेनिल मदिरा है, मत इसको कह देना उर का छाला,
दर्द नशा है इस मदिरा का, विगत स्मृतियाँ साक़ी हैं;
पीडा़ में आनन्द जिसे हो, आये मेरी मधुशाला ।
बजी न मन्दिर में घडियाली, चढी न प्रतिमा पर माला,
बैठा अपने भवन मुअज्जि़न देकर मस्जिद में ताला,
लुटे खजा़ने नरपतियों के गिरीं गढों की दीवारें;
रहें मुबारक पीनेवाले, खुली रहे यह मधुशाला ।
बडे-बडे परिवार मिटें यों, एक न हो रोनेवाला,
हो जायें सुनसान महल वे, जहाँ थिरकतीं सुरबाला,
राज्य उलट जायें, भूपों की भाग्य-सु्लक्ष्मी सो जाये;
जमे रहेंगे पीनेवाले, जगा करेगी मधुशाला ।
सब मिट जायें, बना रहेगा सुन्दर साक़ी, यम काला,
सूखें सब रस, बने रहेंगे किन्तु, हलाहल औ’ हाला,
धूमधाम औ’ चहल-पहल के स्थान सभी सुनसान बनें,
जमा करेगा अविरत मरघट, जगा करेगी मधुशाला ।
बुरा सदा कहलाया जग में बाँका, मद-चंचल प्याला,
छैल-छबीला, रसिया साक़ी, अलबेला पीनेवाला;
पटे कहाँ से, मधुशाला औ’ जग की जोडी़ ठीक नहीं—
जग जर्जर प्रतिदिन, प्रतिक्षण, पर नित्य नवेली मधुशाला ।
हरा-भरा रहता मदिरालय, जग पर पड़ जाये पाला,
वहाँ मुहर्रम का तम छाये, यहाँ होलिका की ज्वाला;
स्वर्ग लोक से सीधी उतरी वसुधा पर, दुख क्या जाने ;
पढे़ मर्सिया दुनिया सारी, ईद मनाती मधुशाला ।
एक बरस में एक बार ही जगती होली की ज्वाला,
एक बार ही लगती बाजी़, जलती दीपों की माला ;
दुनियावालो, किन्तु, किसी दिन आ मदिरालय में देखो,
दिन को होली, रात दिवाली, रोज़ मनाती मधुशाला ।
नहीं जानता कौन, मनुज आया बनकर पीनेवाला,
कौन अपरिचित उस साक़ी से, जिसने दूध पिला पाला;
जीवन पाकर मानव पीकर मस्त रहे, इस कारण ही,
जग में आकर सबसे पहले पायी उसने मधुशाला ।
अधरों पर हो कोई भी रस जिह्वा पर लगती हाला,
भोजन हो कोई हाथों में लगता रक्खा है प्याला,
धीर सुतों के हृदय-रक्त की आज बना रक्तिम हाला,
9वीर सुतों के वर शीशों का हाथों में लेकर प्याला,
अति उदार दानी साक़ी है आज बनी भारतमाता,
स्वतन्त्रता है तृषित कालिका, बलिवेदी है मधुशाला ।
मुसल्मान औ हिन्दू हैं दो, एक, मगर, उनका प्याला,
एक मगर, उनका मदिरालय, एक, मगर, उनकी हाला,
दोनों रहते एक न जब तक, मन्दिर-मस्जिद में जाते,
बैर बढा़ते मस्जिद-मन्दिर, मेल कराती मधुशाला ।
कर लें पूजा शेख-पुजारी तब तक मस्जिद-मन्दिर में
घूँघट का पट खोल न जब तक झाँक रही है मधुशाला ।
होने दो पैदा मद का महमूद जगत में कोई, फिर
जहाँ अभी हैं मन्दिर-मस्जिद वहाँ बनेगी मधुशाला .
एक बार ही तो मिलनी है जीवन की यह मधुशाला .
जहाँ कहीं मिल बैठे हम-तुम, वहीं हो गयी मधुशाला .
छोटे-से जीवन में कितना प्यार करूँ, पी लूँ हाला
आने के ही साथ जगत में कहलाया जानेवाला,
स्वागत के ही साथ विदा की होती देखी तैयारी,
बन्द लगी होने खुलते ही मेरी जीवन- मधुशाला .
यम आयेगा साक़ी बनकर साथ लिये काली हाला,
पी न होश में फिर आयेगा सुरा-विसुध यह मतवाला,
यह अन्तिम बेहोशी, अन्तिम साक़ी, अन्तिम प्याला है,
पथिक प्यार से पीना इसको, फिर न मिलेगी मधुशाला ।
उस प्याले से प्यार मुझे जो दूर हथेली से प्याला
उस हाला से चाव मुझे जो दूर अधर-मुख से हाला
प्यार नहीं पा जाने में है, पाने के अरमानों में
पा जाता तब, हाय, न इतनी प्यारी लगती मधुशाला ।
10कितनी जल्दी रंग बदलती है अपना चंचल हाला
कितनी जल्दी घिसने लगता हाथों में आकर प्याला
कितनी जल्दी साक़ी का आकर्षण घटने लगता है
प्रात नहीं थी वैसी जैसी रात लगी थी मधुशाला ।
कितनी आयी और गयी पी इस मदिरालय में हाला,
टूट चुकी अब तक कितने ही मादक प्यालों की माला,
कितने साक़ी अपना-अपना काम ख़तम कर दूर गये,
कितने पीनेवाले आये, किन्तु वही है मधुशाला ।
मैं मदिरालय के अन्दर हूँ, मेरे हाथों में प्याला,
प्याले में मदिरालय बिम्बित करनेवाली है हाला;
इस उधेड़-बुन में ही मेरा सारा जीवन बीत गया—
मैं मधुशाला के अन्दर या मेरे अन्दर मधुशाला ।
वह हाला, कर शान्त सके जो मेरे अन्तर की ज्वाला,
जिसमें मैं बिम्बित-प्रतिबिम्बित प्रतिपल, वह मेरा प्याला,
मधुशाला वह नहीं, जहाँ पर मदिरा बेची जाती है,
भेंट जहाँ मस्ती की मिलती मेरी तो वह मधुशाला ।
अपने युग में सबको अनुपम ज्ञात हुई अपनी हाला,
अपने युग में सबको अदभुत ज्ञात हुआ अपना प्याला,
फिर भी वृद्धों से जब पूछा एक यही उत्तर पाया—
अब न रहे वे पीनेवाले, अब न रही वह मधुशाला ।