कोयलांचल: समालोचक पर मुकदमा / जयप्रकाश चौकसे

Gadya Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
कोयलांचल: समालोचक पर मुकदमा
प्रकाशन तिथि : 13 मई 2014


हिंदुस्तानी सिनेमा के इतिहास में पहली बार एक अत्यंत विचित्र घटना सामने आई है कि 'कोयलांचल' फिल्म के ध्वनि निर्देशक सुभाष साबू मुंबई के एक प्रसिद्ध अंग्रेजी अखबार के फिल्म समालोचक पर मानहानि का मुकदमा ठोंकने जा रहे हैं क्योंकि उसने अपनी समालोचना में लिखा कि फिल्म का ध्वनि संयोजन ऐसे हुआ है मानो सारे दृश्यों में पात्र किसी शौचालय के बंद कमरे में बातें कर रहे हैं। सुभाष साबू का दावा है कि समालोचक को सिंक साउंड और डबिंग किए साउंड का अंतर भी नहीं मालूम। ज्ञातव्य है कि शूटिंग के समय बोले संवादों को पात्र के कपड़ों में छुपे छोटे से माइक से रिकॉर्ड किए जाने को सिंक साउंड कहते हैं और शूटिंग समाप्त होने के बाद ध्वनि के आधार पर फिल्म दो बार इस मायने में बनती है कि हर कलाकार साउंडप्रूफ स्टूडियो कक्ष में हेडफोन पर शूटिंग के समय बोली गई आवाज को सुनते हुए आंख के सामने परदे पर मूक दृश्य देखते हुए उन्हीं संवादों को उसी मनोभाव से वैसा ही बोलता है जैसे उसने शूटिंग के समय बोले थे। शूटिंग के समय वातावरण में मौजूद अन्य ध्वनियांं भी रिकार्ड हो जाती हैं जिसके कारण दशकों से संवाद इसी तरह डब किए जा रहे हैं। मात्र एक दशक पूर्व ही सिंक साउंड विधि आई है और इसमें भी कुछ दृश्यों की डबिंग करनी ही पड़ती है।

बहरहाल इस संभावित मुकदमेबाजी से कई प्रकरण जुड़े हैं। पहला यह कि फिल्मकार को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता है परंतु वही फिल्मकार इस तरह की स्वतंत्रता समालोचक को नहीं देना चाहता। दूसरा मुद्दा यह है कि क्या समालोचक होने के लिए फिल्म विधा की तकनीकी जानकारी आवश्यक है? इसी तर्ज पर क्या हर मतदाता को गणतंत्र व्यवस्था की बारीकियां एवं संविधान की जानकारी आवश्यक है? क्या लोगों द्वारा बनाई हर चीज पर केवल गुणवान विद्वान ही राय दे सकता है गोयाकि मूर्खता असंवैधानिक और कानूनी अपराध है? अनेक बार मूर्ख द्वारा लिए गए निर्णय विद्वानों के निर्णय से अधिक व्यावहारिक और सही निकलते हैं। आप जीवन में मूर्खता को खारिज नहीं कर सकते। कभी कालिदास उसी डाली को काट रहे थे जिस पर स्वयं बैठे थे परंतु कालांतर में वे संस्कृत के महान कवि एवं नाटककार सिद्ध हुए। 'कामसूत्र' लिखने वाले काम विधा के पुरोधा की पत्नी उन्हीं के एक शिष्य के साथ भाग गई क्योंकि एक कठिन विषय पर विश्वसनीय ग्रंथ लिखने वाला अपने विषय के व्यावहारिक पक्ष से अनजान था या किसी कमतरी का शिकार था। क्या बीमार डॉक्टर सफलता से अन्य रोगियों की चिकित्सा नहीं कर सकता?

भारतीय कछुआ चाल की अदालतों में सभी प्रकरणों में विलंबित न्याय मिलता है और मानहानि के मुकदमों में तो प्राय: आरोपी और शिकायतकर्ता दोनों की मृत्यु के बाद ही निर्णय हो पाता है। बेचारी प्र्रिटी जिंटा ने अपने विषय में असत्य और अभद्र टिप्पणी करने वाले संपादक पर मुकदमा दर्ज किया और दस वर्ष बाद भी उन्हें न्याय की प्रतीक्षा है। इस प्रकरण से जुड़ी एक बात अनदेखी नहीं की जा सकती कि प्राय: समालोचक अज्ञानी होते हैं और उनके व्यक्तिगत पूर्वग्रह उनके काम में नजर आते हैं। समालोचक लोकेशन को फोटोग्राफी बताता है, चीख के बोले संवादों को अभिनय मानता है और अधिकांश समालोचक तो कथा सारांश ही लिखते हैं परंतु सबसे अधिक प्रसन्नता की बात यह है कि आम दर्शक समालोचना के आधार पर फिल्म देखने का निर्णय नहीं करता, उसके पास सिनेमा की जन्मना पहचान है। फिल्म बनाने की ट्रेनिंग उपलब्ध है परंतु समालोचना का प्रशिक्षण उपलब्ध नहीं है। पूना संस्थान ने फिल्म आस्वाद कक्षाएं चलाई हैं परंतु फिल्म एप्रिसिएशन की परीक्षा पास करने वाला कोई महज समालोचक इस देश में अभी तक पैदा नहीं हुआ है। एक ही फिल्म और एक ही सिनेमाघर में बैठे 500 लोगों की प्रतिक्रियाएं भिन्न होती हैं परंतु फिल्म के समग्र प्रभाव से ही बॉक्स ऑफिस का निर्णय होता है जिसका फिल्म की कलात्मकता से कोई लेना-देना नहीं है।

भारत में सिनेमा के प्रारंभिक काल में फिल्म विधा से मामूली से परिचय वालों ने अपनी गलतियों से सीखकर विधा को साधा और दर्शक भी देख देखकर सीखते रहे गोयाकि दो स्तरों पर अनाडिय़ों ने फिल्म विधा को जन्मा और पाला-पोसा तथा इसी प्रक्रिया में कुछ सर्वसम्मत सर्वकालिक महान फिल्मों का निर्माण हुआ। ज्ञान आवश्यक है, ज्ञान ही मुक्ति और मोक्ष भी है परंतु धर्म के नाम पर की गई संकीर्ण परिभाषा वाले तथाकथित ज्ञान की बात नहीं की जा रही है। ज्ञान मार्ग दिखाता है परंतु भटकाता भी बहुत है। अज्ञान और मूर्खता जीवन के अविभाज्य अंग हैं और जीवन को उसकी समग्रता के साथ ग्रहण किया जाता है।

दशकों पूर्व केंद्रीय सूचा मंत्री ने मुंबई के फिल्मकारों को उनका सामाजिक दायित्व समझाते हुए यह कह दिया कि फिल्मकार होने के लिए कुछ मिनिमम शैक्षणिक योग्यता अनिवार्य की जाना चाहिए। राजकपूर ने खड़े रहकर भरी सभा में कहा कि क्या इस तरह का कोई मानदंड नेतागिरी के लिए तय नहीं किया जा सकता। शांताराम, मेहबूब खान और स्वयं वे (राजकपूर) कतई पढ़े-लिखे नहीं हैं परंतु हम तीनों ने 'मदर इंडिया', 'दो आंखें बारह हाथ' और 'जागते रहो' बनाई है। उन्होंने पूछा कि बताओ पढ़े-लिखे होने की क्या परिभाषा है। मंत्री जी कक्ष से चले गए।