कोरोना, सर्वत्र रोना-धोना / जयप्रकाश चौकसे

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कोरोना, सर्वत्र रोना-धोना
प्रकाशन तिथि : 07 मार्च 2020


अर्थशास्त्र के विद्वानों ने दशकों पूर्व सन् 2022 में वैश्विक आर्थिक मंदी होने की बात कही थी। उनका कहना है कि सन् 1933 में घटी वैश्विक मंदी से कहीं अधिक भयावह होगी 2022 की मंदी। वर्तमान में कोरोना नामक वायरल बीमारी लगभग 50 देशों में फैल चुकी है। कोरोना से 60 हजार लोग बीमार पड़े और उनमें 8% की मृत्यु हुई। चीन से प्रारंभ हुई यह बीमारी अब विश्वव्यापी संकट बन चुकी है। हवाई जहाज और रेलगाड़ियों में आरक्षित टिकट निरस्त किए जा रहे हैं। पहले ही ठप पड़े हुए उद्योग-धंधों की संख्या बढ़ती जा रही है। बैंक में धन की कमी है। अतः 50,000 से अधिक धन अपने खाते से निकाला नहीं जा सकता। विमुद्रीकरण के समय बैंक के सामने लगी कतारों में लगभग 60 व्यक्तियों की मृत्यु हो गई थी। विमुद्रीकरण काला धन उजागर करने में सर्वथा असफल रहा। उस पूरी कसरत में सरकारी खर्च लगभग 15,000 करोड़ रुपया हुआ। दिन प्रतिदिन बोले जाने वाली अवाम की भाषा में विमुद्रीकरण एक तरह से ‘खाया पिया कुछ नहीं, गिलास तोड़ा बारह आना’ की तरह हुआ। जिया सरहदी कि ‘फुटपाथ’ नामक फिल्म में दवा बनाने वाली कंपनी बाजार में नकली दवा बेचती है और कई लोग मर जाते हैं। दवा कंपनी का मुलाजिम अदालत में कहता है कि उसे उसकी सांसों से हजारों मुर्दों की दुर्गंध आती है। उसने समय रहते सरकार को सूचना नहीं दी। ज्ञातव्य है कि फिल्म में दिलीप कुमार ने मुलाजिम की भूमिका अभिनीत की थी। उनके उक्त संवाद बोले जाने के समय सिनेमाघरों में बैठे दर्शक की सांस रुक जाती सी प्रतीत होती थी।

यह गौरतलब है कि ऋषिकेश मुखर्जी की 1959 में प्रदर्शित फिल्म ‘अनाड़ी’ में एक दवा बनाने वाली कंपनी के पास इलाज की मूल दवा सीमित मात्रा में है, परंतु बीमारी के फैलते ही वे नकली दवा बनाने लगते हैं। कंपनी के कर्मचारी की मां की मृत्यु नकली दवा के सेवन के कारण हो जाती है। फिल्म के क्लाइमेक्स में दवा कंपनी का मालिक अदालत में अपना अपराध स्वीकार करता है कि लालच और भागीदारों के दबाव के कारण उसने नकली दवा का निर्माण किया। यह भी गौरतलब है कि लगभग एक ही थीम पर बनी इन दो फिल्मों में ‘फुटपाथ’ असफल रही, जबकि ‘अनाड़ी’ सफल हुई। ‘फुटपाथ’ का प्रस्तुतीकरण संजीदा था, परंतु ‘अनाड़ी’ में विषय की कुनैन के ऊपर मनोरंजन की शकर लगा दी गई थी। शंकर-जयकिशन का संगीत भी ‘अनाड़ी’ का संबल बना। कुछ दिन पूर्व ही शांताराम की फिल्म ‘डॉक्टर कोटनीस की अमर कथा’ का सारांश इस कॉलम में दिया गया था कि कैसे एक भारतीय डॉक्टर ने चीन के अवाम को वायरस से बचाने हेतु अथक परिश्रम किया था। वह मानवता की सेवा में शहीद हो गया था। फिल्म सत्य घटना से प्रेरित थी। दक्षिण भारत के फिल्मकार श्रीधर की राजकुमार, राजेंद्र कुमार और मीना कुमारी अभिनीत ‘दिल एक मंदिर’ में कर्तव्य परायण डॉक्टर मर जाता है, परंतु अपने मरीज का जीवन बचा लेता है।

ज्ञातव्य है कि एक दौर में इंदौर में नकली शराब पीने के कारण कई लोग मर गए और कुछ लोग अंधे हो गए। इस सत्य घटना से प्रेरित खाकसार की फिल्म ‘शायद’ मैं कुछ काल्पनिक घटनाओं का समावेश भी किया गया था। नसीरुद्दीन शाह, ओम पुरी, नीता मेहता, पूर्णिमा जयराम अभिनीत फिल्म का एक दृश्य इंदौर के शायर काशिफ इंदौरी के जीवन की एक घटना से प्रेरित था। काशिफ इंदौरी ने ग्वालियर में आयोजित एक मुशायरा लूट लिया था अर्थात उनकी रचनाएं सबसे अधिक पसंद की गई थीं। इंदौर लौटकर उन्होंने अपने परिवार से कहा कि वे शराब से तौबा करने जा रहे हैं और वह दिन उनकी शराबनोशी का आखिरी दिन था। उस दिन ही शहर में नकली शराब बेची गई थी। काशिफ इंदौरी का शेर कुछ इस तरह था- ‘सरासर गलत है मुझपे इल्जामें बलानोशी का, जिस कदर आंसू पिए हैं, उससे कम पी है शराब।’ काफिये कि गलती मेरी अपनी है, क्योंकि याददाश्त का हिरण ऐसी ही लुका-छिपी करता है।

विदेशों में बीमारियों पर अनगिनत फिल्में बनी हैं। आईलेस इन गाजा, कोमा, हॉस्पिटल इत्यादि रचनाएं सराही गई हैं। कोरोना का इस तरह फैल जाना शंकर-जयकिशन द्वारा रचे गए फिल्म ‘उजाला’ के गीत का याद ताजा करता है। नफरत है हवाओं में, यह कैसा जहर फैला दुनिया की फिजाओं में, रास्ते मिट गए मंजिलें गुम हो गईं अब किसी को किसी पर भरोसा नहीं...’।