कोरोना कालखंड में किस्सागोई / जयप्रकाश चौकसे

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कोरोना कालखंड में किस्सागोई
प्रकाशन तिथि : 13 मार्च 2020


अमिताभ बच्चन और हेमा मालिनी अभिनीत फिल्म ‘बुड्ढा होगा तेरा बाप’ के अंतिम दृश्य में एक अपराध दल के सभी सदस्य मार दिए जाते हैं। नायक एक मरियल सदस्य को जीवित छोड़ देता है और उससे कहता है कि अब वह सरगना पद पर विराजमान हो सकता है। अतः वह मरियल और कमजोर सदस्य दुख जाहिर करता है कि उसे सिंहासन पर बैठने को कहा जा रहा है, परंतु वह किस पर शासन करे। सारे सदस्य मर चुके हैं, हथियार टूटे हुए हैं, कुरुक्षेत्र में लड़े गए 18 दिवसीय युद्ध के पश्चात केवल महिलाएं, उम्रदराज लोग और कमजोर बच्चे ही बचे थे। युद्ध में शामिल सभी राज्यों के खजाने खाली हो चुके थे। शस्त्र बेचने वालों के पास भव्य भवन और अकूट धन भरा था, परंतु रोटी नहीं थी। ‘बुड्‌ढा होगा तेरा बाप’ का नायक रंगीन मिजाज है। वहां लंपट नहीं है, परंतु छेड़छाड़ में उसे मजा आता है। उसके स्वभाव को ठीक से नहीं समझ पाने वाली पत्नी उससे अलग हो जाती है। नायक अपने पुत्र को बचा लेता है और पत्नी से कहता है कि अब उस बुड्ढे को विदा होने दो। नायिका जवाब देती है...‘बुड्‌ढा होगा तेरा बाप’। बहरहाल, एक प्रांत के शिखर नेता ने बयान दिया है कि उनके प्रांत में आईपीएल क्रिकेट होगा, परंतु दर्शक नहीं होंगे, क्योंकि कोरोना वायरस के इस भयावह दौर में भीड़ जमा होने की इजाजत नहीं दी जा सकती। कल्पना करना कठिन है कि खाली स्टेडियम में खिलाड़ी क्या महसूस करेंगे। स्टेडियम में सन्नाटा पसरा हो, न कोई ताली बजाए और न कोई त्रुटि होने पर गाली दे तो खेलने का क्या मजा आएगा?

दशकों पूर्व विशेषज्ञों द्वारा 2022 में भयावह वैश्विक आर्थिक मंदी की बात कही गई थी। आने वाली मंदी की पदचाप सुनी जा रही है। सभी क्षेत्रों में नैराश्य छाया है। फिल्म जगत में पूरी बन चुकी फिल्मों के प्रदर्शन को टाला जा रहा है। महामारी हो या कोई भी संकट हो, सबसे अधिक कष्ट आम आदमी पाता है परंतु कोरोना वायरस किसी भेद को नहीं समझता। यह कितनी भयावह बात है कि एक बीमारी अलग किस्म का समाजवाद ला रही है। कोरोना पूरे विश्व को एक गांव में बदल सकता है। यह गांव डाकुओं द्वारा रौंदे जाने के बाद वाला गांव होगा। विश्व नामक ‘कुटुंब’ एक गांव में सिमटकर रह जाएगा।

याद आती है ‘मेरा नाम जोकर’ के गीत की पंक्तियां- ‘खाली खाली कुर्सियां हैं, खाली-खाली डेरा है, खाली खाली तंबू है, बिना चिड़िया के रैन बसेरा है यह घर न तेरा है न मेरा है।’

ज्ञातव्य है कि सन् 2008 में वैश्विक मंदी का सबसे कम प्रभाव भारत पर पड़ा था, क्योंकि उस समय तक भारतीय समाज किफायत और बचत के आदर्श को मानता था। विगत कुछ वर्षों से अवाम गैरजरूरी चीजें खरीद रहा है। सस्ते मोबाइल से भी काम चलता है, परंतु महंगे मोबाइल सस्ते मोबाइल से अधिक बिक रहे हैं। हमारे इंदौर के मित्र महेश जोशी कहते हैं कि खरीदने की प्राथमिकता को उल्टा कर दिया गया है। यह तथ्य याद दिलाता है फिल्म ‘चोरी चोरी’ के शैलेंद्र रचित गीत की- ‘जो दिन के उजाले में न मिला दिल ढूंढ रहा है ऐसे सपने को, इस रात की जगमग में खोज रही हूं अपने को।’ काबिले गौर है शब्द ‘जगमग’ का उपयोग।

ज्ञातव्य है कि 1936 में पेरिस में बने एक शॉपिंग मॉल पर दार्शनिक ने टिप्पणी की थी कि शॉपिंग मॉल में आप प्रवेश एक जगह से करते हैं और बाहर किसी अन्य द्वार से जाते हैं। उसी जर्मन दार्शनिक ने कहा था कि शॉपिंग मॉल पूंजीवादी व्यवस्था के परचम हैं, परंतु भविष्य में ये ही परचम उसे ध्वस्त भी करेंगे। वर्तमान में यही हो रहा है। मॉल के मालिक दुकानदारों से कह रहे हैं कि किराया भले ही मत दो परंतु दुकान बनाए रखो। भारत में गर्मी के आगमन से कोरोना वायरस बेअसर हो सकता है। कोरोना से बचाव की दवा खोजी जा रही है। ज्ञातव्य है कि ‘डेकोमेरॉन’ नामक गल्प का स्पष्ट सार है कि प्लेग फैलने के कारण कुछ लोग पहाड़ की एक गुफा में बस गए हैं। समय व्यतीत करने के लिए हर सदस्य को एक कहानी सुनानी होती है। इन कथाओं का संग्रह है ‘डेकोमेरॉन’। अंग्रेजी के पहले कवि चौसर की ‘पिलग्रिम्स प्रोग्रेस’ भी तीर्थ यात्रा पर जा रहे यात्रियों द्वारा कथा कहने की बात करती है। कथा कहने और और सुनने से भी जिया जा सकता है। आज हम खोखली गहराइयों में जी रहे हैं। सियासत में खो-खो खेला जा रहा है और अवाम आपसी कबड्डी और खो-खो में रमा हुआ है।