कोर्ट रूम से.! / अशोक कुमार शुक्ला
- घर और लाज की देहली लांघने की बारी
आज फिर कोर्ट रूम में मुझे कारगिल युद्ध वाले दिनों की याद आई। कारण..? कारण रहा हमारा सामजिक ढांचा ..! दरअसल कारगिल युद्ध के दिनों में मेरी तैनाती उत्तराखंड में थी और आये दिन किसी शहीद का शव देहरादून के आर्मी बेस आया करता था जिसे उसके अपनों तक पहुचाया जाना होता था। परिवार की अपूरणीय क्षति पर मरहम लगाने का काम सैनिक की विधवा को दिया जाने वाला मुआवजा होता था। राजस्व अधिकारी यथासंभव सैनिक के शव के साथ मुआवजे की धनराशि का चेक/ड्राफ्ट भी लेकर उसके गांव पहुँचते थे। विभिन्न संस्थाओ के माध्यम से मिलने वाली धनराशि लगभग बीस से पच्चीस लाख तक होती थी जो उस जमाने में बहुत बड़ी धनराशि होती थी। सैनिक की विधवा को यह धनराशि सौपने के बाद सरकारी काम पूरा हो जाता और सैनिक के परिवार में रोटी बिलखती उसके उसके बच्चे, उसकी माँ, उसके पिता और अन्य सैनिक पर आश्रितजनो को मृतक की विधवा को मिली मुआवजे की राशि पर आश्रित छोड़ कर प्रशासन वापिस लौट आता। समय के साथ परिवार का दुःख हल्का पड़ता और साथ में हल्का पड़ता उस विधवा का भी दुःख जो अपने पति की मृत्यु से पूर्व सास ससुर के नाम भेजे गए हजार दो हजार के मनीआर्डर के एक हिस्से की हक़दार होती थी और अब उसकी मृत्यु के उपरान्त अचानक बड़ी धनराशि की वारिस बन चुकी होती थी। यह आर्थिक सुरक्षा उस विधवा में एक नया विश्वाश अवश्य भरती थी और वह अपनी अहमियत को बखूबी अनुभव करना भी आरम्भ कर देती थी। अधिकतर मामलों में शहीद सैनिक की विधवा की उम्र पच्चीस तीस वर्ष के मध्य होती थी जो शनै शनै अपने दुःख को भूलकर पुनः नए सिरे से जीवन जीने की ओर उन्मुक्त होने लगती थी। अपने जन्म दिए बच्चों को अच्छी शिक्षा, सुरक्षा आदि कारणों का हवाला देकर वो ससुराल की चारदीवारी फांदने को व्यग्र होतीं। कुछ मामलों में चारदीवारी का बंधन छूट भी जाता और पीछे रह जाता शहीद सैनिक के अभागे माँ और पिता का करूण क्रंदन ...! कुछ जोड़ी बूढी आँखे तहसील तक पहुँचती और अपने शहीद लाल की विधवा का रोना रो लेतीं, कानून अपना काम करता लेकिन यह सब सुनकर मेरा मन बहुत विचलित होता था, रोने सा लगता था। कल भी कुछ ऐसा ही हुआ। जिन सज्जन को पुलिस पकड़ कर लायी थी उनका कामकाजी बेटा किसी दुर्घटना में मर गया था। मृत्यु के उपरान्त कृषक दुर्घटना बीमा एवम् सामान्य बीमा आदि का लाभ उसकी विधवा को मिल चुका था, समय का मरहम उस विधवा के आंसू भी पोंछ चुका था, अब किसी 'अन्य' के प्रति विधवा के मन में आसक्ति भी जाग्रत हो चुकी थी, उसके साथ एकांत के क्षण बिताने की लालसा घर में कलह का कारण बनने लगी थी। घर पर सास और शसुर का प्रतिरोधात्मक स्वर न सुनाई दे इसके लिए वाक् युद्ध के अनेक दौर चल चुके थे। बारी आ गयी थी घर और लाज की देहली लांघने की, विधवा ने देहली लांघी तो सीधे थाने पहुँच गयी, सास शसुर पर प्रताड़ना का आरोप, संपत्ति में से मृतक पुत्र का संभावित अंश पृथक न करने का आरोप ...आदि आदि । पुलिस के पास ऐसे मामलो का सबसे सरल उपाय होता है, शान्ति व्यवस्था बिगाड़ने के जुर्म में चालान करना। पुलिस ने यही किया और निरीह शवसुर मेरे सामने कटघरे में खड़ा था। मैंने उसे हिदायत दी- "विधवा बहू को बेटी की तरह रखो..! क्यों डांटते फटकारते हो..?" "क्या करूँ..? अपनी आँखों के सामने यह सब नहीं देखा जाता साहेब.." वो बोला। मैंने आगे हिदायत दी- "खुद पर काबू रखो और कभी शांति के साथ बहु को बेटी समझ कर बात करना कि इस तरह अभद्रता करने से क्या होगा?" मैं कहता गया- " अपने खोये बेटे के स्थान पर उसी नामुराद को बेटा मानकर पुनर्विवाह क्यों नहीं कर देते इन दोनों का..?" वो बेचारा चुप रहा। मेरे द्वारा बार बार कुरेदे जाने पर बोला- "ऐसा नहीं ही सकता साहेब..! क्योकि वो शादी शुदा है..उसका भी भरा-पुरा परिवार है..." मैंने चिंतित होते हुए कहा- "अच्छा तो यह बात है...! ...फिर भी यहाँ से छूटने के बाद अपनी पत्नी के मन में यह बात डाल देना कि बहू का पुनर्विवाह करना है किसी योग्य विदुर के साथ...! समाज में बहुत से लोग है ऐसे..." उसे जमानत पर छोड़ने के साथ मेरे मन में संतोष था कि शायद मेरे द्वारा बोया गया यह बीज उसके परिवार में अंकुर बनकर फूटे और अवैध संबंधो की दुनिया का एक दिया बुझ सके...! आमीन...!