कोलाज / अशोक वाजपेयी / ओम निश्चल
--ओम निश्चल
पुस्तक: कोलाज: अशोक वाजपेयी
निबंध रचनाकार: सं. पुरुषोत्तम अग्रवाल
प्रकाशक: राजकमल प्रकाशन, 1 बी, नेताजी सुभाष मार्ग, दरियागंज, नई दिल्ली
मूल्य: 600 रुपये
आकल्पन और अंतर्वस्तु दोनों से आती है कुलीनता की खुशबू
कुछ लोगों का हर काम अनूठा होता है, हर प्रस्तुति नयनाभिराम। अशोक वाजपेयी जैसी नरम मुलायम और मखमली कविताऍं लिखते हैं, वैसी ही उनकी पुस्तकों का आकल्पन भी चित्तग्राही होता है। वे भले ही तथाकथित प्रगतिशीलों को रास न आऍं फिर भी अशोक वाजपेयी की न तो कविता यात्रा थमी है, न कलम, न बौद्धिक परियोजनाऍं, न यायावरी। जब तब देश-विदेश की यात्राओं में व्यस्त, ‘कभी-कभार’ के वायदे के बावजूद हर हफ्ते बिला नागा कलम से कालम तक का सफर तय करने और साहित्य की एकांतिक चिंता में डूबा रहने वाला दूसरा कोई शख्स हिंदी में विरल ही है। कविता में भी न तो वे अपनी सांसारिकता को भूले, न लोकोत्तर होने का कोई दावा या नाट्य किया। बल्कि सांप्रदायिक मुद्दों पर वे सदैव तीखी आलोचनाओं के साथ सामने आए। उनके सत्तर वर्ष पूरा करने पर आलोचक पुरुषोत्तम अग्रवाल के संपादन में राजकमल प्रकाशन से निकली पुस्तक ‘कोलाज: अशोक वाजपेयी’ ऐसी ही कलात्मक पेशकश है जिसे देखकर ‘मार्वेलस’ कहने का मन हो उठता है। अशोक वाजपेयी ने अपनी कविता का सफर सत्तर के दशक के प्रारंभ में ‘शहर अब भी संभावना है’ से शुरु किया था। तब से इस सात दशक के जीवन में उनके खाते में एक दर्जन से ज्यादा कविता संग्रह, आलोचना की दशाधिक कृतियॉं और कला-संस्कृति पर एकाग्र कई संपादित पुस्तकें जुड़ी हैं। कई सार्वजनिक सम्मानों से विभूषित अशोक वाजपेयी के किए-धरे में ऐसा बहुत कुछ है जिसका एक स्थायी मूल्य है। हमारे समय में अनेक सिविल सेवक और नौकरशाह हैं पर इनमें भी कितने ऐसे होंगे जिन्होंने अपनी रचनाधर्मिता के लिए भौतिक उपलब्िधयों की अभीप्सा को विसर्जित कर रखा हो और अपने जीवन में शब्दों और कलाओं को प्रतिष्ठा देने के कार्य में संलग्न हों। संयोग से कुँवर नारायण की ही तरह अशोक वाजपेयी भी यह मानते हैं कि कविता की प्रामाणिकता किसी विचार विशेष का अनुगमन करने में नहीं, बल्कि मानवीय वेदना और संवेदना को मुखरित करने में है। प्राय: अशोक की चर्चा प्रेम, रति और श्रृंगार की अतिशय ऐंद्रिय कविताओं के संदर्भ में होती है। देह और गेह के कवि कहे जाने का मुलम्मा छुड़ाने में उन्हें कोई दो दशक लगे। लेकिन कटाक्ष में ही कहे गए नामवर जी के इस कथन में ही अशोक की कविता का पूरा मिजाज छिपा है। जो कवि संसारी नहीं है, गेही नहीं है, वह कविता की लौकिक संवेदना से भला कैसे संपृक्त रह सकता है। ‘देह और गेह’ में ही तो यह पूरा विश्व-प्रपंच समाहित है। अशोक ने 'दुख चिट्ठीरसा है' तक आते आते इस देह और गेह के दायरे को सचमुच प्रशस्त किया जिसे कभी उनकी कविता की कमजोरी के रूप में लक्षित किया गया था। आखिर प्रेम, अवसान, अवसाद और कामनाओं का संसार लौकिकता से परे कहॉं है। अपने युवा जीवन में ही मॉं की मृत्यु के साक्षी रहे अशोक ‘मौत की ट्रेन में दिदिया’ लिख कर पृथक नहीं हो गए बल्कि यह अवसान और लोप का रूपक उनका पीछा करता, उन्हें उदास और विषण्ण बनाता रहा है। ‘प्रार्थना और चीख के बीच:अपनी जगह की तलाश’ शीर्षक संपादकीय के साथ शुरु में अशोक वाजपेयी से अपने अपने सवालों के साथ क्रमश: पुरुषोत्तम अग्रवाल और सुमन केशरी रू ब रू होते हैं तो सुमन केशरी अशोक जी की पत्नी रश्मि वाजपेयी से भी बतियाती हैं जिससे घर में एक कवि की घरेलू उपस्थिति का भी भान हो सके। तेईस निबंधों के इस सुगठित आयतन में लगभग सभी लेखक अशोक वाजपेयी के मित्र ही हैं। जैसे ये सभी सत्तरवीं वर्षगॉंठ पर अपनी प्रणति और स्वस्ति कामनाओं के साथ उपस्थित हों। रुचिर कल्पना से सँजोए गए कोरस में एक भी स्वर छिटका न रहे, इसकी कोशिश भी दिखती है। लेकिन जाहिर है जब लिखित साक्ष्य में कुछ कहना हो तो शब्दों के पुष्पगुच्छ से ज्यादा काम नहीं चलता। अशोक वाजपेयी के कृतित्व में ऐसा बहुत कुछ है जो आंदोलित करता रहा है। लोग भले ही यह मानें कि इस देश के आम आदमी की पीड़ा से अशोक का कोई सरोकार नहीं है। किन्तु उनकी कविताओं में भाषा और अनुभूति एक नया अंतर्लोक दिखता है। उनकी आलोचना नवाचारी है। वह असमंजस में घिरे व्यक्ति का एकालाप नहीं है। वे कला में जीवन की मर्मज्ञता के सूत्र तलाशते हैं। साहित्य, संगीत और ललित कलाओं पर आधिकारिक और उत्तरदायी ढंग से लिखने की जो अन्तरअनुशासनिक समझ उन्होंने विकसित की है, वह लीक औरों से अलग है। लिहाजा उनकी शख्सियत के इन सभी पहलुओं पर यहॉं मित्रों ने रोशनी डाली है।कम से कम अशोक वाजपेयी के लेखन और जीवन से यह प्रमाणित तो होता ही है कि उनके लिए सारी कलाऍं जैसे एकसूत्रता और पड़ोसभाव में बँधी हैं। एक गहरी रचनात्मकता और मानवीय संवेदना से सबका एक जैसा रिश्ता है। ‘कलाओं के घर’ के रूप में भारत भवन की परिकल्पना इसका मूर्त रूप है ही। वे एक साथ कविता लिखते,आलोचना करते, संगीतकारों को गुनते, कलाकारों की संगत करते, उन पर कविताऍं, मोनोग्राफ आदि लिखते देखे जा सकते हैं। हो सकता है आम आदमी के लिए उनकी कवि-चिंता अधिक प्रबल न हो किन्तु मानवीय चित्त की भावग्राहिता में वे निश्चय ही निष्णात हैं।
अपने सुविस्तृत संपादकीय में पुरुषोत्तम अग्रवाल ने उनकी कविता, वैचारिकी,भाषा और कला के प्रति आग्रहों पर अनेक मौजूँ सवाल उठाए हैं। उनसे बातचीत में अशोक वाजपेयी अपने सुपरिचित अंदाज में हिंदी समाज में सांस्कृतिक सजगता के दिनों दिन लोप होते परिदृश्य पर चिंता जाहिर करते हैं तथा कई मोर्चों पर अपनी विफलता भी स्वीकार करते हैं। सुमन केशरी के यह पूछने पर कि उनकी पसंदीदा कविताऍं कौन सी हैं?, वे अपनी ‘आसन्नप्रसवा मॉं के लिए तीन गीत’, ‘नवजात पोते के लिए प्रार्थना’, कुमार गंधर्व के लिए शोकगीत और मल्लिकार्जुन मंसूर व ‘आश्विट्ज’ पर लिखी दो तीन कविताओं का जिक्र करते हैं। उनकी पंसद में भी उनका ‘निज मन मुकुर’ साफ साफ दिखता है। इस बातचीत में वे अपने गिले-शिकवे, किये-धरे और उसे हिंदी समाज द्वारा भुला दिए जाने की परिणति सामने रखते हैं और यह अफसोस भी कि उनकी बनायी संस्थाऍं जो एक कारगर विकल्प हो सकती थीं, कैसे फिर अंतत: अपने ढर्रेवादी रवैये पर लौट आईं। अपने सतत ‘हँसमुख वलय’ में अपने अकेलेपन, उदासी और विषण्णता को छुपाते हुए वे अंतत: यही कहते हैं कि ‘जैसे भी हो, जीवन को उत्सव की तरह मनाते रहना चाहिए।‘ इस ‘कोलाज़’ में रज़ा का आत्मीय स्मरण है तो कुँवर नारायण ने कविता के प्रति उनके प्रेम को रोजेविच, मीलोष, हेर्बेत और शिम्बोर्स्का की कविताओं के अनुवाद के आईने में देखा-परखा है--- यह मानते हुए कि कविता का अनुवाद करना दूसरी भाषा में इसकी कलम रोपने जैसा है। कृष्ण बलदेव वैद अपने खिलंदड़े अंदाज में जो गुणसूत्र निर्धारित करते हैं, वैसे विशेषणों के तो अशोक जी जैसे चिर अभिलाषी से लगते हैं। उनके लिए बहु-व्यवहृत सभी ख्यात-कुख्यात विशेषण यहॉं मिल जाऍंगे। मुकुंद लाठ उनके व्यक्तित्व की बारीकियों में जाते हैं। फिल्मकार कुमार शाहनी अशोक वाजपेयी के गद्य के छंद को विस्मृत नहीं कर पाते। विश्वनाथप्रसाद तिवारी मानते हैं कि उनकी उपस्थिति अपने समय की आलोचना में एक जरूरी और कारगर हस्तक्षेप है। प्रभात त्रिपाठी ने अशोक के साहचर्य, वक्तृता, भारत भवन के उद्घाटन, कविता एशिया आदि प्रसंगों को विस्तार से उद्धाटित किया है। देवताले कहते हैं भले ही कुछ लोग भारत भवन को सत्ता-सुविधा का चमत्कार समझते रहे हों, पर सत्ता के बजट को सृजनात्मक त्रिवेणी(साहित्य, कला व संगीत) के सार्थक आह्लाद के रूप में प्रवाहित करना अशोक ने ही संभव किया। प्रयाग शुक्ल ने अन्यान्य प्रसंगों के साथ जापान यात्रा और ‘कल्पना’ के दिनों को स्मरण किया है और यह भी कि उनके भोपाल स्थित चौहत्तर बंगले निवास पर कला,साहित्य और संगीत के तमाम दिग्गजों से संगत को भला कैसे भूला जा सकता है।
अखिलेश जैसे कलाकार तो अशोक की संगत में रहते हुए ‘कविया’ गए लगते हैं तभी उन्होंने कविताओं के हवाले से जैसा लेख लिखा है, उसकी उम्मीद किसी गहरे साहित्यिक से ही की जाती है। उनकी कविता के अराजनीतिक पाठ पर उन्हें कोई हैरत नहीं होती,बल्कि इसे वे अच्छा ही मानते हैं कि वे राजनीति से आतंकित नहीं हुए और उनकी कविता इस दूषित राजनीतिक समय से बाहर है।ध्रुव शुक्ल की कृतज्ञता मैत्री और उनके अभिभावकत्व से अभिभूत है। उनकी कविता की श्रेष्ठता प्रमाणित करते हुए अनामिका उनकी स्त्रीदृष्टि, आत्मस्वीकृति और सांद्र बिम्बों में उतरती अभिव्यक्ति की तहें खोलती हैं और मानती हैं कि बहुरि अकेला के कवि हैं अशोक वाजपेयी। मनीष पुष्कले के स्मरण में भावभीना कवित्व है। कथाकार मनीषा कुलश्रेष्ठ मानती हैं कि यह इल्म अशोक वाजपेयी को खूब है कि कौन सा संस्कृतनिष्ठ शब्द किस तरह से रखा जाए कि आधुनिक कविता के गलियारे में वह किसी ‘एंटीक’-सा खूबसूरत इफेक्ट पैदा करे। ‘हमारे समय का अशोक पर्व’ लिख कर रणजीत साहा ने सचमुच आज के साहित्यिक समय में अशोक की अपरिहार्य उपस्थिति को गौरव दिया है। ज्योतिष जोशी ने भी अशोक के नैकट्य और उनकी साहित्यिक चिंताओं को अपनी शुभाशा के साथ समेटा है। ‘कभी कभार’ की टिप्पणियों की आभा में अशोक वाजपेयी के स्वत:स्फूर्त गद्य की प्रशंसा करते हुए यतीन्द्र मिश्र इसे अचरज या सौभाग्य से कम नहीं मानते। अशोक वाजपेयी की सार्वजनिकता इतनी मुखर है कि न उनका काम ओझल होता है न उनकी शख्सियत,लिहाजा कुछ कुछ बातें अधिकांश ने यहॉं लगभग दुहराई हैं। फिर भी लेखकों, कलाकारों का यह कृतज्ञता ज्ञापन अशोक जैसे सदाशयी साहित्यिक के लिए उचित ही है। पुस्तक में कला, साहित्य और संगीत के तमाम दिग्गजों के साथ अशोक वाजपेयी के चित्र छपे हैं। पुरुषोत्तम अग्रवाल ने पूरी पुस्तक के विन्यास को जैसे एक राग में उपनिबद्ध किया है---नफासत और कुलीनता की खुशबू न केवल इसके आकल्पन से बल्कि इसकी अंतर्वस्तु से भी आती है।
प्रसंगत:, अशोक वाजपेयी के कृतित्व में दिलचस्पी रखने वाले एक पाठक ने हाल में फेसबुक पर जब इस ओर इंगित किया कि इस किताब की कीमत बहुत अधिक है तो एक लेखक ने कुंठा के वशीभूत होकर यह लिखा कि ‘’ये चाहे तो मक्खन के कागज पर सोने के अक्षरों में छापें, ये किसी धर्मग्रंथ की तरह कभी पढ़े नहीं जायेंगे । यह भी कि सिर्फ़ साधन संपन्न हो जाने से कोई बड़ा लेखक हो सकता तो पूंजीपति भी साहित्य में हाथ आजमा लेते। अशोक वाजपेयी और उनके दोस्त साहित्य के पूंजीपति हैं।‘’ यह तो सच है कि पूँजीपतियों का साहित्य कभी पूजनीय नहीं रहा, पूजे और पढे वही जाते हैं जिनके पास साहित्य की पूँजी होती है। लेखक साहित्य का पूँजीपति बने यह तो अच्छी बात होगी, न कि पूँजीपति पूँजी के बल पर साहित्यकार बन बैठे। जो बैठे बैठे आप्तवाक्य उगलने के अभ्यस्त हैं, उन्हें शायद नहीं मालूम कि गरीबी-अमीरी इसी सामाजिक व्यवस्था की देन है। समाज में इस गैर बराबरी के बावजूद हम लेखन में लेवल-प्लेइंग बरतते हैं। यह नहीं कि कोई आईएएस है या धनवान तो केवल इसी के चलते हम उसे महान लेखक भी मान बैठें। हॉं, वह लेखक हो सकता है। क्योंकि उसके लिखे का भी एक पाठक वर्ग है। उसकी रुचियों का भी अपना अंतर्लोक है, अपना समाज है। हम सभी अपने-अपने समाज और समूहों को संबोधित हैं। लेकिन अशोक वाजपेयी को कोसने से पहले देखना चाहिए कि माल काटने वाले कितने आई ए एस और नौकरशाह हैं जो उनकी तरह की साहित्यिक समझ रखते हैं। अधिकांश आईएएस, नौकरशाह जो रचनात्मक लेखन में नहीं हैं,जिनका ध्यान केवल अपने रसूख से केवल भौतिक संपदा अर्जित करना है, कम से कम उनकी तुलना में अशोक वाजपेयी, सीताकांत महापात्र, गोविन्द मिश्र, विभूतिनारायण राय, त्रिपुरारि शरण, हेमंत शेष और पंकज राग जैसे प्रशासनिक सेवाओं के अधिकारी कुछ मूल्यवान रच तो रहे हैं।