कोल्ड वेव / सुकेश साहनी
कुली
रहमत, ला, एक बीड़ी तो पिला। आज तो बोहनी भी नहीं हुई अभी तलक। साली बदशगुनी तो सुबह ही हो गई थी। पहले घरवाली से झांय-झांय हुई, फिर दिख गई उस लौंडे की लाश! तेरे को बताना ही भूल गया। वह दाढ़ीवाला लौंडा था न? वही जो जेब कट जाने की वजह से यहाँ पड़ा रहा था, जिसे एक बाबू साहब ने सौ रुपए दिए थे। हाँ, उसी की बात कर रहा हूँ। हुआ यूँ कि मैं माछरे से लौट रहा था, सड़क के किनारे भीड़ लगी हुई थी। पास जाकर देखता हूँ कि उसी लौंडे की लाश पड़ी है। उस समय उसके बदन पर जाँघिया बनियाइन के सिवा कुछ नहीं था, जिस्म अकड़ा हुआ था, फटी-फटी आँखें आसमान को घूर रही थीं। लोग तरह-तरह की बातें कर रहे थे, कोई उसे बस लुटेरा बता रहा था तो कोई कच्छा-बनियाइन गिरोह का आदमी। पुलिसवाले लोगों से पूछताछ कर रहे थे पर कोई भी उसके बारे में कुछ नहीं बता पा रहा था। मैं तो उसे देखते ही पहचान गया था, उसके गाँव का नाम भी मुझे याद था पर मैंने कुछ नहीं बताया। इन पुलिसवालों का क्या भरोसा, कहीं मुझे ही उठाकर अंदर कर देते!
बस कंडक्टर
जी जनाब, मैं इसे अच्छी तरह से पहचानता हूँ, ये उसी लड़के की लाश है। दो दिन पहले बस अड्डे पर अपनी जेब कटने की बात इसने मुझे बताई थी और नैनीतान तक बस में ले चलने के लिए कहता रहा था। श्रीमान, इस तरह के तीन सौ पैंसठ लोग मिलते हैं। हम लोग इन्हें मुफ्त ढोते फिरे तो कर चुके नौकरी।
जी? जी हाँ, उसी वाकिए पर आ रहा हूँ। कल ही की तो बात है, ये बस में चढ़ने लगा तो मैंने इसे रोका था पर इसके पास सौ रुपए का नोट था। तब भला मुझे क्या दिक्कत हो सकती थी। मैंने इसका नैनीताल का टिकट काट दिया था। मुझे अच्छी तरह याद है ये मेरी पीछे वाली सीट पर बैठा हुआ था। मुझे रास्ते की सवारियों की वजह से बार-बार खिड़की का शीशा खोलना पड़ता था। ये हाथ बढ़ा कर शीशा बंद कर देता था। तब मैंने ध्यान से इसकी ओर देखा था, कड़ाके की ठंड में इसके जिस्म पर कोई ऊनी कपड़ा नहीं था। जी हाँ, मुझे ठीक से याद है, तब इसने पैंट कमीज पहन रखी थी। इसके कपड़े क्या हुए? इस बारे में मैं क्या बता सकता हूँ? हो सकता है लुटेरों ने उतार लिए हों।
मेडिकल कॉलेज वाली पुलिस चेक पोस्ट तक सबकुछ ठीक-ठीक था। मैं सवारियाँ बुक कर चुका था। इस्माइल ने बस के भीतर की बत्तियाँ बंद कर दी थीं। इस्माइल? बस ड्राइवर का नाम है। तो मैं कह रहा था कि बस में गढ़मुक्तेश्वर की तीन सवारियाँ थीं। टिकट काटते समय मुझे क्या पता था कि ये सवारियों के भेस में लुटेरे थे। सबकुछ इतनी तेजी से घटा कि मैं अपनी जगह से हिल भी नहीं सका था। उनमें से एक ड्राइवर के पास पहुँच गया था, दूसरे ने भारी कम्बल के भीतरे से कोई नुकीली चीज मुझसे सटा दी थी, तीसरा लुटेरा यात्रियों से जेबें खाली करने को कह रहा था। तभी अचानक यह लड़का मुझे कवर किए लुटेरे पर झपट पड़ा था। उन्हें इसकी आशा नहीं थी, वे हड़बड़ा गए थे। वे तीनों एक साथ इस लड़के पर टूट पड़े थे। बस में सभी के हाथ-पैर फूल गए थे। उन्होंने बड़ी आसानी से इस लड़के को काबू में ले लिया था। फिर उनमें से एक ने तमंचे की नोक पर मेरा रुपयों वाला बैग छीन लिया था। वे बस रुकवाकर इस लड़के को भी अपने साथ उतार ले गए थे।
जी हाँ, ताज्जुब तो मुझे भी हुआ था। टिकट लेने के बाद इसकी जेब में तो फूटी कौड़ी भी नहीं बची थी? मुझे तो यह लुटेरों का पुराना साथी मालूम होता है, कुछ हिसाब-किताब बकाया होगा उनसे। वरना इस तरह कौन अपनी जान जोखिम में डालता है? श्रीमान जी, तीस साल से कंडक्टरी कर रहा हूँ। तजुर्बे से बता रहा हूँ कि यदि यह लड़का बीच में नहीं पड़ता तो पूरी बस लुटे बिना नहीं रहती, औरतों के साथ छेड़-छाड़ होती सो अलग। इंस्पेक्टर साहब, आपसे क्या पर्दा...रिपोर्ट में बुक किए टिकटों के तीन हजार दो सौ रुपयों के लुटने की बात ही लिखवा सकता था...दरअसल उसमें मेरे अपने सात सौ रुपए भी थे। आप तो सब समझते हैं। लुटेरे पकड़े जाएँ तो ध्यान रखिएगा। जी? यह भी कोई कहने की बात है! अच्छा...नमस्ते!
साहब
डार्लिंग! आँखें बंद करो ...हम तुम्हारे लिए कुछ लाए हैं। अच्छा...लो, देख लो। सोने का नेकलिस है। कहाँ से हाथ मारा? तुम भी बस! तुम्हें आम खाने से मतलब है या पेड़ गिनने से। हाँ, एक बात और... आज हमने एक भलाई का काम भी किया है। सुनोगी? बताता हूँ गजब की ठंड है। पहले हमारे करीब बैठो...हाँ, ऐसे!
बस अड्डे पर हमने दो कुलियों को एक आदमी के बारे में बातें करते सुना, जिसकी जेब कट गई थी और वह दो दिनों से वहीं पड़ा हुआ था कोई उसकी मदद करने को तैयार नहीं था। हमने कुली से कहकर उस आदमी को अपने सामने बुलवाया। वह पच्चीस-छब्बीस साल का लगता था। दुबला-पतला शरीर, चेहरे पर बढ़ी हुई दाढ़ी। हमें तो पहली नजर में ही कोई चार सौ बीस लगा था। कुली कह रहा था कि उसने दो दिन से कुछ नहीं खाया था। देखकर कहना मुश्किल था कि वह दो दिन से भूखा था। हमें कुली की बातों पर ज़रा भी भरोसा नहीं हुआ। ये लोग आपस में मिले रहते हैं, ऐसा ड्रामा करते हैं कि सामने वाला पसीज जाए.
हम असमंजस में थे। उसकी ज़रूरत थी सौ रुपये यानी नैनीताल जिले तक का बस किराया। हम समझ नहीं पा रहे थे कि क्या करें। तभी हमें तुम्हारी याद आई, साथ ही तुम्हारी पुण्य कमाने वाली बात ने हममें जोर मारा। हमने उस लड़के का निरीक्षण किया। उसका रेडीमेड स्वेटर हमें कीमती लगा।
हमने उसके सामने अपनी शर्त रख दी-स्वेटर उतार दो, सौ रुपए ले लो, घर जाकर पैसे भेज देना, हम स्वेटर भेज देंगे। स्वेटर को पार्सल करने के लिए डाक खर्च भी भेजना होगा।
हमें उम्मीद थी कि शर्त सुनते ही वह खिसक लेगा, पर उसने अपना स्वेटर उतारकर हमें दे दिया था। बदले में हमने सौ रुपए दे दिए थे। रुपए लेकर वह नैनीताल वाली बस की ओर बढ़ गया था।
स्वेटर? यह रहा...पाँच सौ रुपए से कम का नहीं है। मानती हो न हमारे मास्टर ब्रेन को। मेमसाहब, जाती कहाँ हो? ़ आज हम देर तक 'इनजॉय' करने के मूड में हैं।
मृतक
"दीनदयाल जी से मिलना है।" मैं दरबान से कहता हूँ।
"सेठ जी टैम पर ही मिलते हैं।"
"भैया, मैं नैनीताल से चला आ रहा हूँ।"
"यहाँ तो लोग कलकत्ता, बंबई से आते हैं।" वह लापरवाही से कहता है।
"भाई, उनसे जाकर बोलो, नैनीताल से हरिहर प्रसाद जी का बेटा आया है, वे बुला लेंगे।" मैं फिर कोशिश करता हूँ।
इस बार वह भीतर चला जाता है।
अपनी बात कैसे कहूँगा? मुझसे मिलकर उन्हें ज़रूर खुशी होगी। पिता जी के अहसान वे भूले थोड़े ही होंगे। आखिर आज वे जो कुछ भी हैं पिताजी की वजह से हैं।
काफी देर बाद वे भीतर से निकलते हैं।
"कहो?" वे मुझे घूरकर देखते हैं।
"जी, मैं हरिहरजी का बेटा हूँ।" मुझे उम्मीद थी कि वे मुझे देखते ही पहचान लेंगें। मेरी शक्ल तो पिताजी से बिल्कुल मिलती है।
"कौन हरिहर?" वे दाएँ-बाएँ देखते हैं जैसे बहुत जल्दी में हों।
"नैनीताल वाले।"
"अच्छा...अच्छा, हरिहर! बहुत अच्छा आदमी था।"
उन्होंने पिताजी का नाम इस तरह से लिया है मानो वे उनके नौकर थे। मृत्यु से थोड़ा पहले ही पिता जी ने मुझे बताया था कि अगर वे दीनदयाल की दस हजार रुपयों से मदद नहीं करते तो वे आज भी फुटपाथ पर होते। पुश्तैनी मकान गिरवी न रखा होता तो शायद पिताजी यह बात मुझे कभी न बताते। उनको अपने जिगरी दोस्त पर बहुत भरोसा था। वे कहते थे कि उनका दोस्त मूल रकम लौटाने के अलावा और भी मदद करेगा।
मुझे उनकी नीयत में खोट दिखाई देता है। मन में आता है लौट जाऊँ। फिर सोचता हूँ जब इसी काम से आया हूँ तो अपनी बात कहकर ही जाऊँगा।
"पिताजी ने कहा था कि आप मदद करेंगे।" मैं कहना तो यह भी चाहता था कि मैं गाँव से सीधे आपके पास आया हूँ, मेरे पास शहर में रात गुजारने के लिए जगह भी नहीं है।
"कितना पढ़े हो?" वे बात को दूसरी दिशा में मोड़ देते है।
"एम.ए.पास हूँ।"
"ठीक है," वे अधिक बात करने के मूड में नहीं दिखते, "अपनी एप्लीकेशन मेरे पास छोड़ दो। जब कोई नौकरी हाथ में होगी तो कोशिश करूँगा।"
मेनगेट की ओर बढ़ते ही उनके चेहरे पर निश्चिंतता दिखाई देने लगती है। घर जाकर जब सरोज को इस बारे में बताऊँगा तो वह ज़रूर गुस्सा होगी, कहेगी कि उसने दीनदयाल जी से साफ-साफ शब्दों में तगादा क्यों नहीं किया। पर इससे भी क्या होना था? सोने का नाटक कर रहे आदमी को भला कौन जगा सकता है!
बस अड्डे पर जाकर पता चलता है कि किसी ने पॉकेट पार कर ली है। अब मेरी जेब में एक पैसा भी नहीं है। घर कैसे पहुँचूँगा?
बस कंडक्टर ने मदद करने से इंकार कर दिया है जब कि मैंने उससे नैनीताल पहुँचते ही टिकट के पैसे चुकाने की बात कही थी। लोगों को क्या हो गया है? मदद करना तो दूर सब मेरी ओर इस तरह देखते हैं जैसे नाली का कीड़ा होऊँ। बिना जमानती के कोई काम देने को तैयार नहीं है। मजदूरी करने की बात करो तो लोग शक की निगाह से देखते है।
रात भर ठिठुरता रहा। दिसम्बर की जमा देने वाली ठंड में एक स्वेटर से क्या होता है। दो दिन से कुछ नहीं खाया। पहले पानी से काम चल रहा था पर अब पानी गले से नीचे उतरते ही बुरी तरह लगने लगता है।
एक साहब ने सौ रुपए दिए हैं, बदले में स्वेटर उतरवा लिया है। सरोज और बेबी की बहुत याद आ रही है। कैसे भी घर पहुंच जाऊँ।
कंडक्टर अपनी तरफ की खिड़की का शीशा बार-बार खोल देता है, ठंडी हवा हड्डियों को चीरे डाल रही है, हाथ पैर सुन्न हुए जा रहे हैं। आगे तो ठंड और भी बढ़ जाएगी। ये तीनों एक साथ अपनी सीटों से क्यों उठ खड़े हुए हैं? ... इनका इरादा तो बस लूटने का लगता है। कंडक्टर से सटकर खड़ा लुटेरा मेरी तरफ से बेखबर है...मैं उसका तमंचे वाला हाथ पकड़ लेता हूँ। वह अपने साथियों को आवाज देता हैं वे तीनों मुझ पर पिल पड़े हैं। हैरत है, बस में सब मूर्ति बने बैठे हैं। हमारे गांव में डाकू आ जाएँ तो पूरा गाँव इकट्ठा होकर मुकाबला करता है। अजीब हैं इस शहर के लोग!
इन्होंने मुझे बस से नीचे उतार लिया है। इनका इरादा क्या है? यह मेरे सिर पर क्या आ गिरा?
यह कैसा दर्द है? सिर पर हथौड़े-से कौन बरसा रहा है? मैं हाथ पैर क्यों नहीं हिला पा रहा? करवट भी नहीं ली जाती, लगता है जैसे जिस्म है ही नहीं। क्या हुआ है मुझे? ... याद आया, उन्होंने मुझे बस से नीचे उतार लिया था, फिर...? सामने तारों भरा आसमान है...किसी इंजन की घरघराहट सुनाई देती है, फिर झपाक् से गाड़ी के गुजरने का अहसास होता है। इसका मतलब मैं सड़क के किनारे पड़ा हुआ हूँ। वह जमा देने वाली ठंड महसूस क्यों नहीं हो रही? कंडक्टर ने पुलिस में रिपोर्ट दर्ज्र करा दी होगी। अब तक उन्हें मदद के लिए आ जाना चाहिए था?
बार-बार ऐसा लगता है जैसे डरते-डरते कोई मेरे पास आता है और फिर वापस दौड़ जाता है। किसी ढाबे से हवा में तैरते हुए गीत के बोल मुझ तक पहुंच रहे हैं...'सरकाय ल्यो खटिया ओ लौंडे राजा...सरकाय ल्यो..." मुझे गोविन्दा और करिश्मा वाला गीत याद आता है...' सरकाय ल्यो खटिया जाड़ा लगे...'ये बॉलीवुड वाले चोरी करने में खूब माहिर हैं। दूसरा गीत बजने लगा है...' कमरबंद निकला बड़ा कमजोर...पर मैं ये सब क्या सोचने लगा हूँ?
आँखों के सामने अँधेरा छाता जा रहा है...कोई चीज है जो बड़ी तेजी से रोशनी को खाती जा रही है...सरोज चूल्हे के पास बैठी हँस रही है...पकती रोटियों की खुशबू नथुनों में भर जाती है, बेबी नन्हीं बाहें मेरे गले में डाल देती है, "पापा, मेरी गुड़िया लाए?" मैं कहता हूँ, "बेटी, हमारी तो जेब ही कट गई!"
उपसंहार
स्थान-मेरठ, दिनांक-29 दिसम्बर 1994, समय-दोपहर बारह बजे. शव शिनाख्त-कांस्टेबिल नंबर 40, थाना-मुण्डाली, लिंग-पुरुष शव, सम्भावित आयु-लगभग छब्बीस वर्ष, लंबाई-पाँच फीट आठ इंच।
बाहरी परी़क्षण
गठन-दुबला पतला शरीर, रंगत-पीली, शिनाख्त चिह्न्न-बायंी जांघ पर चोट का निशान, मौत की अकड़न-मौजूद, मृत्यु का समय-लगभग सात घंटे पहले किसी समय, आंखें ः खुली हुई, अंग ः अकड़े हुए, मुट्ठियाँ ः भिंची हुई. सभी अंग ठंड से जमे हुए.
चोट ः सिर के पीछे निचले हिस्से में दाएँ कान से लगभग चार इंच की दूरी पर 1 सेमी गुणे 2 सेमी का घाव
अंदरूनी परीक्षण
सिर के घाव के नीचे खून का जमाव।
मस्तिष्क ः संकुलित, हृदय ः दोनों चैम्बर्स में रक्त, फेफड़े ः संकुलित, पेट ः खाली, छोटी आँत ः खाली, बड़ी आंत ः खाली, रेक्टम ः खाली।
सहायक द्वारा तैयार की गई पोस्टमॉर्टम रिपोर्ट पर सीनियर डाक्टर ने मृत्यु का कारण लिखाः 'एक्सपोजर टू' कोल्ड वेव'