कोशिश / सुदर्शन रत्नाकर
दिवाली में केवल दो दिन शेष थे। चारों ओर खुशी, उत्साह का वातावरण था। अपनी-अपनी सामर्थ्य के अनुसार सभी दीपावली की तैयारियों में जुटे हुए थे। गृहणियाँ घर की सफ़ाई करने, सजाने में व्यस्त थीं। खरीददारी का जोश अपनी चरम सीमा पर था। बच्चों को इन सब से कुछ लेना देना नहीं होता। उनके लिए दिवाली का मतलब पटाखे चलाना होता है। भिन्न प्रकार के जलते हुए पटाखे जिनसे निकलती रंगबिरंगी रोशनी उनके चेहरों पर ख़ुशी ला देती है। जिसके लिए वे कई दिन पहले प्रतीक्षा करने लगते हैं। पटाखे बेचने के लिए दुकानदार भीड़-भाड क्षेत्र से दूर खुले मैदान में अस्थायी दुकानें लगाई जाती हैं। इस बार भी ऐसा ही किया गया था लेकिन दुर्भाग्य से शार्ट सर्किट होने से एक दुकान में आग लग गई और फिर देखते ही देखते सारी दुकानें धूँ-धूँ कर जल उठीं। आध घंटे में सजा सजाया बाज़ार जल कर राख में परिवर्तित हो गया। लोगों में अफ़रा-तफ़री मच गई। अपनी जान बचाने के लिए मैदान से बाहर आ गये। किसी की जान तो नहीं गई लेकिन पटाखों और वाहनों के जलने से करोड़ों रुपयों का नुक़सान हो गया। कई लोगों ने ऋण लेकर, कुछ लाभ की आशा में ये दुकानें लगाई थीं। उनकी सारी आशाओं पर पानी फिर गया।
सारे नगर में भय का वातावरण छा गया जिन की दुकानें जली थीं उनकी मायूसी, दयनीय दशा देख कर दिल दहल गया। सुबह होते ही मैं भी उस स्थान पर स्वयं को जाने से न रोक नहीं सकी। उस समय भी वहाँ भीड़ थी। जिनकी दुकानें जली थीं उनके परिवार, जानकार, रिश्तेदार, मीडिया, प्रशासनिक अधिकारी, तमाशबीन खड़े थे और उनके बीच स्थिति से बेख़बर अधनंगे बच्चे जो उस बुझी राख में से बिन फटे पटाखे ढूँढने की कोशिश कर रहे थे। कुछ के हाथ कुछ पटाखे लग गये थे और कुछ के हाथ निराशा। लेकिन उनकी कोशिश अब भी जारी थी।