कोहरा और मछलियाँ / मृणाल पांडे

Gadya Kosh से
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ताल के मासूम तल को तोड़ती मछली फिर उछली...छुलुक्। क्षण-भर को एक चमकती-तड़पती रजत रेख, और फिर वही हौले-हौले काँपता धरातल और चंद बुलबुले। पानी, पानी और बस पानी और उसके ऊपर उमड़ता हुआ सर्वग्रासी कोहरा। रति ने सिर को एक झटका दिया।

उसकी पलकों पर कोहरे की हल्की स्निग्धता, गालों पर एक कोमल गीला स्वर्श छोड़ गयी। रति ने सिर घुमाकर देखा, ममी अभी भी बात कर रही थीं—उसी...उसी लंबी-पतली उंगलियों और उबली पड़ती आँखों वाले बंगाली लेखक से। शब्दों को न सुन पाने पर भी रति उनका अनुमान लगा सकती है,

ममी की बड़ी-बड़ी आँखों और छोटे नाजुक हाथों की गति से। जरूर अपने नये उपन्यास की चर्चा कर रही होंगी....‘‘तो मैंने लंदन में अपने पति के पब्लिशर्स को ‘केबल’ भेजा कि मुझे उनकी शर्तें मान्य नहीं हैं। आखिर आर्ट और आर्टिस्ट...’’ बेचारी ममी...हर श्रोता तक सदा की भाँति अपने पति की लेखन गरिमा का बोध....। रति के कान ममी के प्रति शर्म से जलने लगे। उसने सिर घुमा लिया।

...कोहरे के दैत्य ने अपनी सशक्त कलाई से आधे ताल पर एक अभेद्य चादर तान दी थी। इक्के-दुक्के सैलानी, जो बड़े जोशोखरोश से नौका-विहार करने के इरादे से निकले होंगे, जल्दी-जल्दी पतवार चलाकर किनारे पहुँचने की चेष्टा कर रहे थे। एक नवविवाहित जोड़ा काफी घबरा रहा था शायद। पत्नी कभी अपनी नयी बनारसी साड़ी को देह से बचाने का हास्यास्पद उपक्रम करती, कभी साड़ी से देह को ! पति कैमरे को छाती से चिपकाये नाववाले की ओर झुककर कुछ कह रहा था और नाववाला बार-बार तट की ओर इंगित करता शायद उसे ढाढ़स बँधा रहा था।

फिर कोहरे की एक लपेट ने उन्हें भी आँखों से ओझल कर दिया। रति पानी को पथरायी निगाह से देखती रही...दूर नावों के यात्रियों को बोट हाउस क्लब की खिड़की के बीच एक छोटा-सा झुका हुआ सिर दीखता होगा, लापरवाही से सँवारे गये उड़ते हुए आस्कन्ध केश और चलते-चलते लगा ली गयी एक आकारहीन बिंदी बाली लिपिस्टिक होंठों की दरारों में सिमट आयी है, चप्पल का एक फीता भी टूटा हुआ है,

पर उनकी स्वामिनी सबके प्रति ऐसी उदासीन है, जैसे वहाँ है ही नहीं।

...छुलुक्....एक मछली फिर उछली, रति को याद आया, बचपन में बानो और वह ताल के किनारे खड़े होकर यूँ ही पत्थर फेंकते थे...छुलुक् ! बेबी, घर चलो, मेम साब गुस्सा होंगी हामारे पर, तेमाम फराक में हाथ में मिट्टी लगा लिया।’’....‘बस, आया, एक पत्थर और...।’’ छुलुक्....! रति की आँखें भर आयीं। बानो होती, तो उसकी भावुकता को हँसी में उड़ा देती, ‘सच रति, तू फिल्मस्टार बन जा, तो डायरेक्टर का ग्लिरसरीन का खर्चा बच जायेगा एकदम।’ पर बानो यहाँ कहाँ ?

कई मील दूर कैलीफोर्निया में किसी सुपर मार्केट में खरीदारी कर रही होगी या नींद में दूसरे दिन के खाने का ‘मीनू’ तैयार कर रही होगी। ‘सच बानो, यहाँ आकर पाती हूँ, कितना कुछ नहीं देखा था—तू भी क्यूँ नहीं आ जाती ?’ उसने पहली चिट्ठी में लिखी, फिर दूसरी में, फिर तीसरी में....ममी ने भी कहा—‘‘डार्लिंग, क्यों नहीं चली जाती ?

मैं न्यूयॉर्क में अपने मित्र...।’’ ‘‘नहीं !’’ रति ने लगभग चीखकर कहा। ‘‘वैल !’’ ममी ने अपने विशिष्ट अदा से अपने सुडौल कंधे उचकाये—‘‘तुम जानो।’’ उन्हें शाम को एक कॉन्फ्रेंस की रिपार्ट तैयार करनी थी, क्या रति कृपया अपने कमरे में जाकर आराम करेगी ? हाँ, अपना निर्णय सोचकर उन्हें बता दे। सिर हिलाकर उन्होंने रति को जाने का इशारा किया। रति चली आयी।

कमरे में पहुँचते ही उसका सारा आक्रोश सदा की भाँति अपने पर उमड पड़ा। क्यों नहीं वह ममी को चीख-चीखकर जतला देती कि ममी, मैं नहीं जाऊँगी-नहीं जाऊँगी ! बानो को वहाँ अच्छा लगता है, तो क्या ? बानो तो हमेशा ही कहती थी कि रति ‘‘एनीथिंग जस्ट टू गेट अवे फ्रॉम ममीज स्टैग्नेण्ट जेन’’ (ममी की इस दूषित माँद से बच कर भागने को मैं कुछ भी कर सकती हूँ।) उसे याद है उस दिन का माहौल, घर में डिनर-पार्टी थी। दोनों बहनें जान-बूझकर शान को बाहर चली गयीं—या भाग निकली थीं।

सिनेमा भी देखा, शो-विडो भी देखे, फुहारे के किनारे भी खड़े हुए, पर घर पहुँचते ही पार्टी चल रही थी। ‘‘डैम ! रति, तू पीछे जा मैं, आगे से निकल जाऊँगी। तेरा उधर जाना ठीक नहीं।’’ रति कमरे में पहुँचकर बैठी रही और बोली करीब पंद्रह मिनट बाद आयी। तमतमाया चेहरा, आँखों में आँसू। पैर के स्टिलेटो झटके से उतार फेंके और धम्म से बिस्तरे पर ! ‘‘क्या हुआ, बानो ?’’ कुछ देर तक बानो उसे देखती रही, फिर —‘‘रति, मालूम, उस कमीने ने मुझसे क्या कहा ?’’

‘‘किसने ?’’ रति से पूछा।

‘‘अंकल भूपी ने, और किसने ? मालूम, एकदम नशे में धुत था सूअर। वह पैसेज में लौट रहा था और मैं चुपचाप ऊपर चढ़ रही थी कि मेरा हाथ पकड़ लिया और बोला, ‘‘बाई जोव, बानो, तुमने अपनी माँ का हुस्न पाया है। मैंने बच्चू को धक्का दिया कि अब तक पीठ सहला रहा होगा। मेरे आफिस में सारे लोग ममी को और उसको लेकर मजाक उड़ाते हैं और ममी...’’

‘‘पर ममी कहाँ थीं ?’’

‘‘अरे, होंगी कहीं। अपने पुराने फिल्मी अतीत के किस्से सुना रही होंगी उसी किनारे से यूनानी प्रिंस को....मालूम’’—बानो क्षणभर में आँसू भूलकर फिक् से हँस उठी—‘‘शंकरन् बता रहा था, सुना है ये जनाब...ही...ही....ही....’’ ‘‘बता न क्या ?’’...‘‘ही.....बी...बस, यही समझ ले, जनाब पर ममी बेकार इतना ‘चार्म’ वेस्ट कर रही हैं।’’ ‘‘माने क्या...क्या....? ‘‘हाँ....हाँ....ये जनाब साहब ‘होमो’ हैं।’’....‘‘हूँ ? अच्छा।’’ ‘‘खैर’’—बानो अपनी आदत के मुताबिक बकती जा रही थी—‘‘भूषण अंकल से तो अच्छा ही है।

वैसे बगैर नशे के भूषण अंकल भी काफी ‘सेफ’ हैं। शिवाय ममी के किसी का पीछा नहीं करते। देखूँ, मेरी शादी में क्या प्रजेंट देते हैं। मैंने बाते-ही-बातों में जता तो दिया है कि बंकूमल के यहाँ एक कमाल का पंचवड़ा शो-केस में है’’...रति को लग रहा था जैसे वह अपनी माँ के शब्दों का रिकार्ड बानों के मुख से सुन रही है।

ममी से चिढ़ने के बावजूद बानों की उम्र हर वर्ष उसे ममी के और पास ले जा रहा थी। रूप भी वही था, जिस पर पागल होकर पापा ममी के सारे कॉन्ट्रैक्ट कैंसिल करा कर बंबई से ले आये थे।...बेचारे पापा...पता नहीं अब्दुल ने उन्हें सूप दिया भी कि नहीं। रति को पापा का ख्याल आया, तो कसमसा उठी, बानो का अनर्गल प्रवाह जारी थी, रति की अँगुलियाँ चादर का छोर मरोड़ती रहीं।.....

रति की आँखों के क्षितिज में सहसा कोहरे से बत्तखों का एक झुंड तिर आया। करीने से सधी पाँतें, लहरों के हिचकोलों पर हौले-हौले उतराती उनकी लयबद्धता सी देहें...छुलुक्...रति को याद आया, मदर उन लोगों को लेकर जब घुमाने निकलती थीं तो बत्तखों का उदाहरण देकर प्रताड़ना देती थीं—‘‘एक ये मूक जानवर है !

कैसे करीने-से कतार बाँधकर तैरते हैं। एक तुम समझदार सढ़ने वाली लड़कियाँ हो कि लाइन इधर, तुम लोगों के पैर उधर ! डिग्रेसफुल ?’’....रति ने फिर ममी की ओर देखा, किसी मजाक पर हँसी से दुहरी होती ममी भूषी अंकल पर लदी जा रही थीं । बातों मेंमशगूल ममी का अ....रति ने फिर ममी की ओर देखा, किसी मजाक पर हँसी से दुहरी होती ममी भूषी अंकल पर लदी जा रही थीं । बातों मेंमशगूल ममी का अभी से उठने का कोई इरादा न था,


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