कौड़ियों के दाम, 'मि. इंडिया' के नाम / जयप्रकाश चौकसे
प्रकाशन तिथि :04 मार्च 2015
बजट के दूसरे दिन सारे अखबारों में उसकी खबरें थीं। हमारे अखबार 'भास्कर' ने संतुलन के साथ जस का तस प्रस्तुत किया है और अखबार के कागज का रंग भी हल्का गुलाबी था, जो दुनियाभर के अर्थशास्त्र केंद्रित अखबारों का होता है। एक राष्ट्रीय अंग्रेजी अखबार बहुत फीका रहा और केवल आर.के. लक्ष्मण के पांच बजट से संबंधित कार्टून ही उनकी लाज का रक्षण कर पाए। गौरतलब यह है कि विविध वर्षों के बजट पर कटाक्ष करने वाले इन कार्टूनों में यह बात रेखांकित हुई कि गुजश्ता दशकों के सारे बजटों ने आम आदमी के दुख कम नहीं किए। क्या भारत में जनता द्वारा चुनी गई सरकारों ने जनता के साथ न्याय किया है? क्या हमारे गणतंत्र में कोई दोष है कि संसद आम आदमी के दर्द का आईना नहीं बन बन पाती? यह आईना ही विचित्र बन गया कि सामने खड़े व्यक्ति की छवि उसमें नहीं उभरती और कोई अदृश्य है, जिसकी परछाई वह आईना बन जाता है। क्या हम अदृश्य से शासित हैं गोयाकि कोई मि. इंडिया है जो देश चला रहा है। याद आता है बोनी और शेखर कपूर की सलीम-जावेद लिखित फिल्म के क्लाइमैक्स में मि. इंडिया अपने हाथ की वह घड़ी उतार फेंकता है, जिसे उसके वैज्ञानिक चाचा ने मनुष्य के अदृश्य होने के लिए ईजाद की थी और शक्तिशाली मोगोम्बो को कहता है कि 'अब एक आम आदमी तुमसे लड़ेगा और बताएगा कि उसकी ताकत क्या होती है।'
बहरहाल, देश चलाने वाला अदृश्य मि. इंडिया कौन है? इसका हल काल्पनिक 'विन्ची कोड' से अधिक गहरा है। मि. इंडिया ईश्वर की तरह सर्वशक्तिमान और सब जगह मौजूद है। ईश्वर के दर्शन संभव हैं और उसके संभाव्य होने में उसके प्रति सारी भक्ति केंद्रित है, परंतु देश को अदृश्य रहकर चलाने वाला सामने नहीं आता। इस 'ईश्वर' के दर्शन केवल बड़े नेताओं को होते हैं- वह भी सबको नहीं। उसकी आवाज से नेताओं को दिशा ज्ञान होता है, नीति ज्ञान होता है। सुभाष घई की 'कर्ज' में खलनायक गूंगा है और वह अपने हाथ को कौड़ियों से खड़काता है, जिसका अर्थ उसका निकटस्थ साथी समझता है और आदेश देता है। क्या इसी तरह कोई गूंगे, अदृश्य रहकर देश चलाने वाले के हाथ में कौड़ियां हैं जिससे वह खेलता है गोयाकि हम कौड़ियों के दाम बिके हैं। याद आती है साहिर लुधियानवी की पंक्तियां, 'माना कि अभी तेरे मेरे अरमानों की कीमत कुछ भी नहीं, मिट्टी का भी है कुछ मोल मगर, इन्सानों की कीमत कुछ भी नहीं, इन्सानों की इज्जत जब झूठे सिक्कों में नहीं तोली जाएगी, वह सुबह कभी तो आएगी।'
कई भ्रांतियां मजबूत हैं, कई द्वंद्व काल्पनिक हैं। मसलन कविता का राजनीति से रिश्ता नहीं है - यह एक असत्य बात है। हर सृजनशील कवि किसी राजनैतिक सिद्धांत और आदर्श से जीवन देखने की दृष्टि प्राप्त करता है और उसकी रचनाओं में अवाम के डर, सपने सब अभिव्यक्त होते हैं। अत: वह अवाम का प्रतिनिधि है। राजनीतिज्ञ अवाम के मन के प्रतिनिधि हैं, वे चुनाव प्रचार में अवाम को नहीं समझते, वरन् उन्हें भविष्य का सपना बेचते हैं। दरअसल, वोट डालना भी अवाम की भावना पर निर्भर करता है, अत: राजनीति और भावना विरोधी शब्द नहीं हैं। जितने महान नेता हुए जिन्होंने दिशा दी, वे देश के चप्पे-चप्पे की खाक छानते अवाम को समझने का प्रयास करते रहे। एक सुनहरा दौर था जब जमीन नेता पैदा करती थी। अब तो प्रचारतंत्र में और अदृश्य 'मि. इंडिया' की गुमनाम 'अवैध फैक्टरी' में नेता का जन्म होता है। बिसात उसकी, 'चाल' उसकी, मोहरे भी उसके।
इन सब बातों से भयावह यह है कि जीवन से ही कविता का लोप कर दिया गया है। कविता को कपोल कल्पित और गैर व्यावहारिक करार दिया गया है। यह खेल 1970 में शुरू हुआ, जिसका पहला संकेत यह था कि महाविद्यालयों में वाणिज्य के छात्रों की संख्या, विज्ञान संकाय से अधिक और कला संकाय में सन्नाटे का दाखला हुआ। इसे वाणिज्य विधा की अवमानना नहीं समझा जाए, क्योंकि गणित और बहीखाते में भी काव्य होता है। अवाम के पास पैदाइशी ताकत है। उसने विगत अनेक सदियों में उसके अंधड़ और तूफान झेले हैं, यह दौर भी गुजर जाएगा, वह सुबह कभी तो आएगी।