कौन सी ज़मीन अपनी...? / सुधा ओम ढींगरा
ओए मैंने अपना बुढ़ापा यहाँ नहीं काटना, यह जवानों का देश है, मैं तो पंजाब के खेतों में, अपनी आख़री साँसें लेना चाहता हूँ |
वह जब अपने बच्चों को यह कहता, तो बेटा झगड़ पड़ता-- अपने लिए आप कुछ नहीं सहेज रहे और गाँव में ज़मीनों पर ज़मीनें खरीदते जा रहे हैं |
वह मुस्करा कर कहता -- ओए पुत्तर, तूँ और तेरी भैण ने मेरा सिर ऊँचा कर दिया है, अमरीका में मेरी मेहनत सफल कर दी है | मैंने तो असमान छू लिया है ... तूँ डाक्टर बन रहा है और तेरी भैण वकील | बेटा जी, इससे ऊपर तो मुझे और कुछ नहीं चाहिए | तुम नहीं समझ सकते, अभी बाप नहीं बने हो ना |
बेटा बहस करता -- वह सब ठीक है पापाजी, पर एक घर तो बनवा लें, सारी उम्र दो बैड रूम वाले टाऊन हॉउस में गुज़ार दी | कल को हमारे बच्चे आप के पास आयेंगे, तो कहाँ खेलेंगे |
पुत्तर जी, पंजाब के खेतों में बड़ा खुला घर बनवाऊंगा, वहाँ खेलेंगे | जब हम यहाँ सब से मिलने आयेंगे, तब तेरे और तेरी भैण के पास रहेंगे, वहाँ खेलने के लिए काफी जगह होगी..
बेटा उनकी ज़िद के आगे हथियार डाल देता, बेबस सिर झटक कर बुदबुदाता घर से बाहर निकल जाता -- ही विल नैवर चेंज|
मनविंदर भी तो बेबस हो जाती थी | दारजी और बेजी की चिट्ठी आते ही मनजीत सिंह सोढी, नवाँ शहर (पंजाब ) में अपने भाइयों को ज़मीनें खरीदने के लिए पैसे भेज देता था..
मनविंदर तड़प कर रह जाती, समझाने की सब कोशिशें बेकार हो जाती थीं---सिंह साहब घर के खर्चों की ओर भी ध्यान दीजिये, ठीक है बच्चे स्कॉलरशिप पर पढ़ रहे हैं पर उनके और भी तो खर्चे हैं | चार कारों की किश्तें जाती हैं, इतनी ज़मीनें खरीद कर क्या करेंगे...?
मनविंदर कौरे, जाटों की पहचान ज़मीनों से होती है | बड़े गर्व से छाती चौड़ी कर मनजीत सिंह कहता |
यही बात झगड़े का रूप ले लेती -पर कितनी पहचान सरदार जी, कहीं तो अंत हो | वर्षों से आप के घर वाले जमीनें ही तो खरीद रहे हैं | पैसों का कोई हिसाब- किताब नहीं, यहाँ ज़मीन बिकाऊ है, वहाँ ज़मीन बिकाऊ है, यह टुकड़ा खरीद लो, गाँव की सरहद से लगे खेत ले लो | किल्ले पर किल्ले इकट्ठे करते जा रहे हैं | मनविंदर का पारा चढ़ते देख मनजीत घर से बाहर दौड़ लगाने चला जाता और फिर दूसरे दिन ही एक चैक पंजाब नेशनल बैंक में दार जी के नाम भेज देता | मनविंदर बस रो कर रह जाती
रोई तो वह तब भी थी, जब मनजीत सिंह सोढी से ३० वर्ष पहले शादी हुई थी | हालाँकि उसका तो सारा परिवार अमेरिका में था | फिर भी वह रोई थी | दादा- दादी को छोड़ते समय | मनविंदर के दो भाई यूबा सिटी (कैलिफोर्निया) के खेतों में काम करते थे | नाजायज़ तरीके से, वे अमेरिका में आये थे पर मैक्सिकन लड़कियों से शादी कर जायज़ हो गए थे, यानि ग्रीन कार्ड होल्डर | पाँच साल बाद अमेरिकन सिटिज़न बन कर, उन्होंने अपना पूरा परिवार बुला लिया था | तब इमिग्रेशन के कायदे कानून इतने सख्त नहीं थे, जितने अब हैं | ६ फुट लम्बे, कसरती, सुगठित गोरे सुंदर सिख मनजीत सिंह को दादा- दादी ने ही तो पसंद किया था | माँ-बाप और दो छोटे भाई थे उसके | ग़रीब घर के बेटे को जान बूझ कर पसंद किया गया था, ताकि मनविंदर की कद्र कर सके | नौजवान मनजीत, मनविंदर के साथ आँसू बहाता अमरीका आ गया था |
मनजीत अधिक पढ़ा लिखा नहीं था और मनविंदर नहीं चाहती थी कि उसके भाइयों की तरह उसका पति भी खेतों में काम करे | शादी से पहले ही अपने भाइयों को समझा कर, कायल करके, उसने उनसे बैंक में अग्रिम राशि--डाउन पेमैंट के रूप में दिलवा दी थी और गैस स्टेशन का लोन लेकर, कैरी( नार्थ कैरोलाइना) में गैस स्टेशन खरीद भी लिया था |
शादी के बाद भारत से वे सीधे कैरी ही आए थे | मनजीत सिंह को जब तक ग्रीन कार्ड नहीं मिला, मनविंदर गैस स्टेशन के व्यवसाय में मुख्य भूमिका में रही तथा बाद में मनजीत सोढी उसका मालिक हो गया | मनविंदर सिलाई- कढ़ाई में माहिर थी | गैस स्टेशन मनजीत के हवाले करके, उसने उसी समय, अमरीकी दुल्हनों के कपड़े सिलने की दुकान शुरू कर दी, जो बाद में वैडिंग गाउन बुटीक बन गया | बुटीक बहुत चल निकला और उसका काम इतना बढ़ गया कि बीस लोग मनविंदर के साथ काम करने लगे, कुछ भारतीय मूल के थे तथा कुछ स्थानीय | अपने आकर्षक व्यक्तित्व और मधुर बोली से, मनजीत सिंह कैरी शहर के सब समुदायों के लोगों में लोकप्रिय हो गया | तब गिने चुने भारतीय थे, अब तो चारों ओर भारतीय ही नज़र आते हैं | लोग उन्हें प्यार से वीर जी और मनविंदर को भाभी जी कहने लगे थे |
तब से अब तक मनजीत का एक ही सपना रहा कि बुढ़ापा भारत में बिताना है | मनविंदर मनजीत की इस उत्कंठा के आगे मजबूर हो चुकी थी | उम्र के इस पड़ाव में, वह भारत जाना नहीं चाहती थी | यह देश उसे अपना सा लगता, उसका पूरा परिवार अमेरिका में फैला हुआ है | साथ -साथ फले- फूले वे मित्र, सालों पहले बनाए रिश्ते, जो समय के थपेड़ों से, प्रगाढ़ हुए, सब कुछ छोड़ना उसके लिए आसान नहीं था . . ये रिश्ते जन्म से मिले रिश्तों से कहीं गहरे हो गए थे... जीवन की कड़कती धूप, बरसात और ढंडक ने इन्हें पका दिया था | भारत के रिश्तों के लिए तो, वे बस मेहमान बन कर रह गए थे, जो साल या दो साल में एक बार उन्हें, रिश्तेदार होने व अपनेपन का एहसास दिलाते थे. . मनजीत आज भी तीस साल पुराने सम्बन्धों में ही जी रहा था | समय का परिवर्तन भी उसकी सोच व रिश्तों के प्रति दृष्टिकोण में कोई अन्तर न ला सका | भारत की प्रगति और बदलता परिमंडल भी उसकी ठहरी सोच के तालाब में कंकर फैंक, लहरें पैदा नहीं कर सका था | मनजीत को समझाना मनविंदर के लिए बहुत मुश्किल हो रहा था, वह हर समय तनाव में रहने लगी थी |
बच्चों ने अपनी पसन्द से शादियाँ करवा लीं | मनविंदर ने सोचा कि शायद अब मनजीत के स्वभाव में कुछ परिवर्तन आ जाये | घर में बहु और दामाद आ गए हैं, पर मनजीत अपने आप को हर ज़िम्मेदारी से मुक्त समझने लगा और मन ही मन पंजाब में घूमता रहता | अपने खेतों में पहुँच जाता --तीनों भाई गन्ने के खेतों में घूमते, गन्ने चूसते, फिर गन्ने के रस से दार जी गर्म-गर्म गुड़ बनाते और तीनों भाई गर्म गुड़ की भेली सूखी रोटी के साथ खाते, शक्कर में एक चम्मच देसी घी और डलवाने की मनजीत ज़िद करता, छोटे भाई बिलबिला कर, पैर पटक -पटक कर, अपनी कटोरियाँ बेजी के आगे करते | ऐसे में बेजी बड़ी समझदारी से दोनों छोटों को प्यार से सहलातीं, मुस्कराते हुए कहतीं--मनजीता मेरा जेठा पुत्तर है, इसने वड्डा हो के सानू सब नूँ सँभालणा है, इस नू ताकत दी बहुत ज़रुरत है | और दोनों छोटों की कटोरी में आधा-आधा चम्मच घी डाल देतीं | सरसों का साग और मक्कई की रोटी परोसते समय भी, बेजी चाटी में हाथ डाल कर, मुठ्ठी भर मक्खन, उसके साग पर डाल देतीं और लस्सी के छन्ने को भी मक्खन से भर देती थीं | छोटों को वे आधे हाथ के मक्खन में ही टाल जातीं |
नींद में भी मनजीत गाँव वाले घर पहुँच जाता ..आधुनिक सुविधाओं से सुसज्जित पक्का घर, ट्रेक्टर, कामगार और ......बेजी का बार -बार मनजीत का माथा चूमना, छोटों का गले लगना और साथ सट कर बैठना, दार जी का अपनी सफेद दाड़ी पर हाथ फेरते हुए गर्दन अकड़ा कर, अपने दोस्तों को सुनाना- पुत्तर होवे ताँ मनजीते वरगा, अमरीका जा के वी ऍह सानुं नहीं भुलिया | साडा पेट भर गया, पर ऍह डालर भेजता नहीं थकिया .. ज़मीनां जट्टां दा स्वाभिमान हुंदा है---मेरे पुत्तर ने मेरा मान रखिया |
सुबह मनजीत तरोताज़ा और ऊर्जा से भरपूर उठता --सारा दिन इसी तरंग में रहता कि इतना प्यार करने वाले परिवार में बुढ़ापा कितना बढ़िया गुज़रेगा | बेटा -बेटी तो अपनी ज़िन्दगी में व्यस्त हो गए हैं | कभी सोचता कि ज़मीनों के दो चार टुकड़े बेच कर, गाँव का स्कूल ठीक करवा दूंगा | दीवारें काफी गिर गई हैं, कुछ कम्प्यूटर भी ले दूंगा--बच्चों को पढ़ाई की सख्त ज़रुरत है | उसकी प्राथमिकता होनी चाहिए | अगर वह पढ़ा लिखा होता, तो अमरीका में, इतनी सख्त मेहनत न करता | डाक्टर, साईंटिस्ट, इंजीनियर बन कर वह भी सम्पन्न जीवन जीता |
मनजीत अपने आप से बातें करता - दार जी नहीं मानेंगे, वे गुरुघर को चंदा देना चाहेंगे | बेजी को समझा कर उन्हें भी मना लूँगा |
सुखद कल्पनाओं और भारत लौटने की चाह में वह दिन गिन रहा था |
अंततः वह दिन भी आ गया | मनजीत को गैस स्टेशन खरीदने वाला मिल गया | पार्टी ऐसी थी, जिसने उनका बुटीक भी खरीद लिया |
बस अब जल्दी- जल्दी घर का सारा सामान गैराज सेल में रखा गया और कुछ सामान बच्चे ले गए | जो नहीं बिका, उसे विएतनाम वैटेरंस वाले अपने ट्रक में उठा कर ले गए |
मनजीत को अमेरिका में दिन काटने मुश्किल हो रहे थे और मनविंदर उदास-परेशान रहने लगी | उसके सिर में हर समय दर्द रहने लगा | बात -बात में झगड़ना दिनचर्या हो गई थी | मनजीत की दृढ़ता के आगे, भारत जाने का वह खुल कर विरोध नहीं कर पा रही थी, चुप- शांत यंत्रवत सी वह सारे काम कर रही थी |
बैंक जा कर मैं सारा पैसा पहले ही वहाँ परिवार में भिजवा देता हूँ, ताकि जाते ही काम शुरू करवा दूँ | मनजीत के इस कथन से मनविंदर के अंदर का लावा ज्वाला मुखी बन फट पड़ा ---- ख़बरदार! सरदार मनजीत सिंह, अगर इस पैसे को हाथ लगाया | मैं और हमारे बच्चे भी आप का परिवार हैं, सिर्फ पंजाब में ही आप का परिवार नहीं बसता.. और आप तो वर्षों से कहते आएँ हैं कि वहाँ कुछ ज़मीन बेच कर सारे काम पूरे करेंगे | कल ही मैं जा कर इसे वकोविया बैंक में जमा करवा दूंगी सी.डी में |
मनविंदर की कड़क आवाज़ भी मनजीत को विचलित नहीं कर पाई और वह अपने मीठे लहज़े में फिर बोला - सरदारनी जी, इतना गुस्सा ठीक नहीं | हमने इस देश में वापिस थोड़े ही आना है | गए तो गए | पलट कर क्या देखना |
मनविंदर बिफर पड़ी- क्या बच्चों को मिलने नहीं आएंगे ? तब उनसे पैसे मांगेंगे | पोते-पोती, नवासे-नवासी को गिफ्ट देने के लिए बच्चों के आगे हाथ फैलायेंगे |
वह शांत लहज़े में बोला ओ मेरी हीरे, अपने रांझे की बात गौर से सुन, हमारे बच्चों को इस पैसे की ज़रुरत कहाँ है | डाक्टर और वकील के पास तो रब्ब की मेहर होती है.. गिफ्ट हम पंजाब से लायेंगे |
मनविंदर का धैर्य अब जवाब दे गया था - नवाँ शहर में इस पैसे की ज़रुरत है ? जहाँ ज़मीनों की कीमतें असमान छू रही हैं | अपनी ज़िद पर अगर अड़े रहे तो आप अकेले ही भारत जायेंगे | मैं यहाँ इसी टाऊन हॉउस में रह कर, बच्चों को मिलने जाती रहूँगी और आप पंजाब में अपने परिवार के साथ बुढ़ापा बिताना |
यह सुनते ही मनजीत ढीला पड़ गया.. मनविंदर के व्यक्तित्व के इस पहलू से वह वाकिफ था | बेवजह वह उत्तेजित नहीं होती, पर अगर कोई निर्णय वह ले ले, तो उसे वापिस मनाना भी आसान नहीं |
आसान तो मनजीत को कुछ भी नहीं लग रहा, दो दिन बाद की वापिसी है और एक - एक पल काटना कठिन हो रहा है | मन खेतों की मेढ़ों और पैलियों में झूम रहा है और धड़ यहाँ घिसट रहा है | पंजाबी गुट और अन्य समुदायों ने विदाई की पार्टी दी, पर मनजीत ने बस औपचारिकता निभाई | मनजीत का मन अमेरिका से उचट गया था |
कैरी से न्यूयार्क और न्यूयार्क से दिल्ली तक का सफर एयर इंडिया के जहाज़ में, उसने तो सो कर या रब ने बनाई जोड़ी फिल्म देख कर काटा | टाऊन हॉउस को बेचा नहीं गया | बच्चों ने ज़िद करके, तर्क के साथ कि उनका बचपन और जवानी उसमें बीते हैं , उसे अपने लिए रख लिया था | फिलहाल उसे किराये पर चढ़ा दिया गया | किरायेदार को सौंपने और सामान की पैकिंग करने से मनविंदर बहुत थक गई थी | वह तो सारे रास्ते सोती गई | दोनों की आपस में कोई ज़्यादा बातचीत नहीं हुई |
मनविंदर कई दिनों से गुमसुम थी | मतलब की बात करती | मनजीत कुछ पूछता, बस उसी का उत्तर देती, उससे ज़्यादा कभी न बोलती |
पर उसके पास मनविंदर की तरफ ध्यान देने का समय ही कहाँ था... वह तो भारत जाने के सरूर में मस्त था..जहाज़ में भी उसे महसूस नहीं हुआ कि मनविंदर किस अप्रतिम वेदना से गुज़र रही है | मूवी देख कर वह सो गया..
मनविंदर को प्यास लगी और उसकी आँख खुल गई | एयर होस्टेस से उसने पानी मंगवाया | साथ की सीट पर बच्चों की तरह बेखबर सोए मनजीत को वह अपलक निहारती रही --इसके प्यार की ख़ातिर वह गृहस्थी की तकली पर सुतती रही, पर कभी उफ़ नहीं की...अब तो उसकी भावनाएँ ही अटेरनी पर चढ़ गई हैं..वह बस अटेरी जा रही है...और इसे ख़बर भी नहीं है ...
आदमी अपनी धुन में औरत से इतना बेखबर कैसे हो जाता है...जिससे प्यार करता है, उसकी अग्नि परीक्षा लेते हुए, उसका दिल क्यों नहीं दुखता ..दादी कहती थी, आदमी की ज़िद बच्चों सी होती है, प्यार से मना लेते हैं..पर यहाँ तो प्यार, गुस्सा कुछ काम नहीं आया..सोचों ने उसका सिर भारी कर दिया और थकान भी शरीर को ढीला करने लगी, नींद हावी हो गई..उसने सिरहाना उठाया, जहाज़ की खिड़की के साथ टिकाया और टांगों को अपनी छाती के साथ लगा कर, कुर्सी पर गठड़ी सी बन कर, सिरहाने से टेक लगा कर, कम्बल ओढ़ कर सो गई ..
जैसे ही जहाज़ ने इंदिरा गाँधी एयर पोर्ट का रनवे छुआ, मनजीत सिंह की आँखों में आँसू आ गए - ३० वर्षों की कैद से छूट कर आ रहा हूँ | कहते हुए उसने नैपकिन से अपने आँसूं पोंछे | मनविंदर खिड़की से बाहर एयर पोर्ट की चहल- पहल देखती रही | कस्टम की औपचारिकता निभा कर जब सरदार मनजीत सिंह एवं बीबी मनविंदर कौर बाहर निकले तो भतीजों ने फतेह बुला कर स्वागत किया | मनजीत बाग- बाग हो गया . . दो भतीजे वैन लेकर आये थे | दिल्ली से नवां शहर जाने में पाँच घंटे लगे |
ऊबड़- खाबड़ सड़कों के हिचकोले, चारों और उड़ती धूल देख पहली बार मनविंदर बोली -- भारत कितनी भी तरक्की कर ले, सड़कें कभी भी ठीक नहीं होंगी--प्रदूषण तो बढ़ता ही जा रहा है |
मनजीत ने बीच ही में बात काट दी- सोनिओं, अपने देश की तो धूल मिट्टी का भी आनन्द है | ३० वर्षों में गोरों की धरती पर मिट्टी का सुख भी नहीं मिला |
ताया जी, वहाँ बिलकुल धूल नहीं होती, कैसे इतनी सफाई रखते हैं ? बड़े भतीजे सुखबीर ने पूछा |
अमरीका बड़ी प्लानिंग के साथ बना हुआ है | बड़ी बड़ी इमारतें मिलेंगी या साफ- सुथरी सड़कें, खुली जगह तो बहुत कम देखने को मिलती है | खाली जगह को भी घास और फूलों से भर देते हैं | ताकि धूल न उड़े |
पर ताया जी, सड़कों की मरम्मत करते समय और इमारतें बनाते समय तो गंद पड़ता होगा, धूल-मिट्टी उड़ती होगी |
पुत्तर जी, उनके काम करने के ढंग भी बहुत विचित्र हैं, एक ट्रक फैला- बिखरासामान उठा ले जाता है और दूसरा ट्रक पानी की टंकी लाता है और सारी जगह धो जाता है |
सुखबीर आँखें फैला कर बोला- हैं, ताया जी फिर तो आप स्वर्ग में रहते हैं |
नहीं ओए, स्वर्ग में काले पानी की सज़ा है | सब कुछ ऊपरी, बनावटी और बेरंगी दुनिया है | भावनाएँ, गहराई, सच्चाई और रस तो अपने देश में है | मनजीत सिंह अपनी ही मस्ती में बोलता जा रहा था | भतीजे सुन रहे थे और मनविंदर पिछली सीट पर इन सब बातों को अनसुना करते हुए सो गई थी |
घर में प्रवेश करते ही बेजी, दार जी ने आशीर्वादों के साथ दोनों के माथे चूम लिए | ऊपरी मंजिल पर एक कमरा ठीक कर दिया गया था | उनका सामान वहीं टिका दिया गया | जल्दी -जल्दी खाना खिलाया गया | एक बात ने दोनों का ध्यान आकर्षित किया कि रसोई भतीजों की पत्नियों के हवाले थी और उनमें से कोई भी सुघड़ गृहणी जैसा व्यवहार नहीं कर रही थी - -सभी काम को निपटाने और जल्दी- जल्दी समटने में लगी हुई थीं | उनका अधैर्य स्पष्ट नज़र आ रहा था |
आधी रात में मनविंदर पेशाब के लिए जब नीचे गई, तो मनजीत भी उसके साथ नीचे आया | ऊपर कोई बाथरूम नहीं था, नई जगह और घना अँधेरा था | और.... वह जानता था कि वह अँधेरे से बहुत डरती है | उसने उसके कंधे पर हाथ रख कर कहा था -- मेरी रानी, कुछ दिन तक़लीफ सह ले, मैं तुझे बहुत बड़ा और अच्छा सा घर बनवा कर दूंगा | बहुत साल तुमने इंतज़ार किया है | मनविंदर ने कुछ नहीं कहा था, बस गहरी साँस ले कर चुप हो गई थी |
दूसरे दिन मनजीत तो भाई -भतीजों के साथ खेतों में चला गया | पूरे गाँव और आस- पास की अपनी ज़मीने देखने |
मनविंदर बहुओं के साथ रसोई में जाने लगी तो बेजी ने टोका - नहीं मन्नी कुज दिन ताँ आराम कर लै, करन दे इन्हां नु कम | बेजी प्यार से मनविंदर को मन्नी कहते थे |
बेजी, मैं खाली नहीं बैठ सकती | साथ काम करवा देती हूँ | जल्दी निपट जायेगा | कह कर वह रसोई में चली गई |
मनविंदर रसोई में गई, तो थोड़ी देर बाद सब बहुएँ एक -एक करके वहाँ से खिसक गईं | कोई कपड़े धोने और कोई कपड़े सुखाने के बहाने | मनविंदर अकेली ही रसोई में लगी रही | उसे तो हर तरह के काम की आदत थी | अमेरिका में हलवाई ,धोबी ,बावर्ची , मेहतरानी वह खुद ही तो थी | उसे हैरानी तो इस बात की हुई कि एक भी देवरानी उसका साथ देने नहीं आई | एक सिर में तेल लगाती रही, दूसरी बेजी के और अपने शरीर की मालिश करती रही | वे उससे बेपरवाह, बेखबर धूप में बैठीं, अपना बदन सहलाती रहीं |
सारा कुनबा जब थका हारा घर लौटा, तो मनविंदर ने बड़े प्यार और मुहब्बत से सब को खाना खिलाया |
लक्खी से रहा नहीं गया, कह ही दिया उसने - भाबी, बेजी दी रसोई दी याद आ गई, आप दियां छोटियाँ देवरानियाँ तां निक्कामियां ने, नुआं उन्हां तो वी गईयाँ गुज़रियाँ, बेजी तां सब कुज छड के बैठ गए, इन्हांनू अकल कौन दवे?
वीरा, ऐसा नहीं कहते घर की औरत को, वह तो लक्ष्मी का स्वरूप है | उसको सम्मान देते हैं, चाहे वह कैसी भी हो ! मनविंदर ने मुस्करा कर कहा |
मुस्करा के ही तो लक्खी ने पूछा था -- भराजी, किन्ने दिन रहन दा इरादै, कमरा छोटे काके दै | दोनों पति -पत्नी ड्राईंग रूम विच सोंदे ने |
हम यहाँ हमेशां के लिए, आप लोगों के साथ रहने, परिवार की धूप-छाँव का आनन्द लेने आए हैं | मनजीत ने अपने दार जी से कहा | इतना सुनते ही सब के चेहरों के भाव बदल गए | बेरुखी सी झलक आई, उन सबके मुस्कराते चेहरों पर |
बच्चे तां अमेरिका च ने, उन्हां तो बिना तेरा दिल किंज लगेगा ? बेजी ने निर्विकार भाव से कहा |
बेजी, हर साल हम उन्हें वहाँ मिलने जाएंगे और छुट्टियों में वे यहाँ हमारे पास आएंगे | अमरीका में, मैंने आप सब को बेइंतिहा याद किया ....यहाँ आने तक आप सब को बहुत मिस करता रहा | माँ आप मेरे दिल में, हर समय रही हैं..
३० सालां बाद वी |
हाँ माँ, ३० सालां बाद वी | जहाँ मिली रोटी वहाँ बाँधी लंगोटी--अमेरिका के इस कल्चर को, मैं अपना नहीं पाया | आप को नहीं पता, मैंने वहाँ दिन कैसे काटे? मनजीत ने वहाँ जीवन कैसे बिताया..किसी ने यह जानने में रूचि नहीं दिखाई |
लक्खी का चेहरा कठोर हो गया--ज़मीनों पे हक़ जमाने आये हो?
हक़ कैसा लक्खी, मैंने ही तो पैसा भेजा था | सारी ज़मीनें हम सब की ही तो हैं | एक टुकड़ा बेच कर, मैं अपना घर बनवा लूँगा, ताकि सब आराम से रह सकें.. मनजीत का स्वर दृढ़ था |
बेजी की कड़कती आवाज़ उभरी- ३० साल पहिलां मेरा पुत्तर मैथों खोह लिया, हुन ज़मीना ......, एह सब तेरे कारनामे ने, मेरा मनजीता इंज दा नहीं ए, कन्जरिये |
मनजीत और मनविंदर किंकर्तव्य विमूढ़ रह गए |
सहनशीलता का दामन छोड़ते ही, शर्म का पर्दा भी हट गया | मनविंदर भड़क उठी --पानी वार कर आप ही ने कहा था - नुएं संभाल मेरे पुत्तर नूँ, तेरे हवाले कीता, इसनूं अमरीका विच पक्का करवा दईं | डालरां ने ताँ पिंड दे पिंड अमीर कर दित्ते ने, इसदी कमाई साडी वी गरीबी हटा दवे गी |
गरीबी तो हट गई, पर पैसे की गर्मी ने, रिश्ते ठंडे कर दिए | इस उम्र में कुफ़र ना तोलें बेजी, रब्ब से डरें, मनजीत आप का सौतेला बेटा नहीं, आप का हिस्सा है | क्यों आप मुझे गालियाँ दे कर मुँह गन्दा कर रही हैं | हम कुछ छीनने नहीं आए, बस आप के दिलों में थोड़ी सी जगह चाहते हैं | सालों से आप के नाम की माला जपने वाला, आप का पुत्तर यहीं रहना चाहता है, आप के पास |
दार जी बिना कुछ कहे उठ गए और उनके साथ ही सब अपने कमरों में चले गए |
कुछ दिन दोनों के लिए बहुत कष्टप्रद रहे | घर में सब ने बोलचाल बंद कर दी थी | मनजीत अपने ही घर में अजनबी बन गया था | मनविंदर का गुस्सा उसकी बेबसी देख कर शांत हो गया था | वह उसके लिए चिंतित हो उठी थी | परिवार के प्रति उसकी भावनाएँ मनविंदर से छिपी हुई नहीं थीं | जानती थी कि कितनी शिद्दत से वह अपने परिवार को चाहता है और उन के व्यवहार ने उसे भीतर तक तोड़ दिया था | वे स्वयं ही खाना बनाते, अकेले खाते, सब उनसे कटे -कटे, दूर- दूर रहते |
मनजीत अब भी अपने पुराने बेजी -दारजी और भाइयों के सपने लेता | सपना टूटने के बाद, करवटें बदलते रात निकाल देता | वर्तमान स्थिति उसे मानसिक तनाव दे रही थी | वह स्वीकार नहीं कर पा रहा था कि माँ- बाप, भाई ऐसे कैसे इतना बदल सकते हैं ! ज़मीनों ने रिश्ते बाँट दिए थे, जिन पर सरदार मनजीत सिंह ने सारी उम्र मान किया था.. मन और बुद्धि में संघर्ष चल रहा था | कभी मन अर्जुन बन, रिश्तों के भावनात्मक पहलू की दुहाई देता और कभी बुद्धि कृष्ण बन, हक़ की लड़ाई को प्रेरित करती | अगर रिश्ते आँखों पर पट्टी बाँध लें तो, उन्हें खोलना ही पड़ेगा | उसके अन्दर महाभारत का युद्ध चल रहा था | भावनाएँ पाण्डव बन, कौरव बने रिश्तों का स्वभाव एवं व्यवहार समझ नहीं पा रही थीं, उसका कसूर क्या था? रिश्तों को हद से ज़्यादा चाहना या उस चाहत में सब कुछ भूल जाना और स्वयं को मिटा डालना | सम्बन्धों के लाक्षागृह के जलने से अधिक वह बेजी, दारजी के बदलते मूल्यों और मान्यताओं से आहत हुआ था |
इसी द्वन्द्व में, वह एक रात पानी पीने उठा तो नीचे के कमरे में कुछ हलचल महसूस की, पता नहीं क्यों शक सा हो गया | दबे पाँव वह नीचे आया, दार जी के कमरे से फुसफुसाहट और घुटी-घुटी आवाज़ें आ रही थीं |
दोनों भाई दार जी को कह रहे थे -मनजीते को समझा कर वापिस भेज दो, नहीं तो हम किसी से बात कर चुके हैं, पुलिस से भी साँठ-गाँठ हो चुकी है | केस इस तरह बनाएँगे कि पुरानी रंजिश के चलते, वापिस लौट कर आए एन. आर.आई का कत्ल | केस इतना कमज़ोर होगा और जल्दी ही रफ़ा- दफ़ा हो जाएगा, बेशक अमेरिका की सरकार भी ढूँढती रहे | कोई सुराग नहीं मिलेगा, ऐसी अट्टी -सट्टी की है | यह सुन मनजीत सिंह का सारा शरीर पसीने से भीग गया और वह वहाँ खड़ा नहीं रह सका | शरीर की सारी ऊर्जा कहीं लुप्त हो, बदन को ठंडा कर गई | चलने की हिम्मत नहीं रह गई थी | अपने आप को घसीटता हुआ.... वह कमरे में लौटा और बिस्तर पर धड़ाम से गिर गया | मनविंदर की नींद टूट गई | वह उसके कांपते शरीर और चेहरे का उड़ा हुआ रंग देख कर, बहुत घबरा गई | मनजीत ने बाँई ओर अपने दिल पर हाथ रखा हुआ था...
सरदार जी, दर्द हो रहा है तो डाक्टर को ... मनविंदर ने अपनी बात अभी पूरी नहीं की थी कि मनजीत ने उसका हाथ अपने सीने पर रख लिया--दर्द नहीं, दिल टूटा है, अपनों ने तोड़ा है | टूटे दिल के टुकड़े सम्भाल नहीं पा रहा हूँ | तेरी बातों को अनसुना कर, मैं सारी उम्र तुझे पराई समझता रहा और अब अन्दर तड़फन है, जो सुन कर आया हूँ, क्या वह सच है? जान नहीं पा रहा हूँ कि कौन सी ज़मीन अपनी है?
मनविंदर ने अपनी उँगली मनजीत के होंठों पर रख कर, उसे चुप करा दिया | वह बहुत कुछ समझ गई थी और उछल कर बिस्तर से नीचे उतरी | सौष्ठव देह यष्टि वाली मनविंदर ने मनजीत को बांहों में भर कर उठने में मदद की | अपना पर्स उठाया और आधी रात में ही दोनों पिछले दरवाज़े से निकल गये | उनके पाँव के नीचे वही ज़मीन थी, जिसके लिये मनजीत उम्र भर डॉलर भेजता रहा | चारों तरफ़ गहरा काला अन्धेरा था |