कौन सी मौत / तरुण भटनागर

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‘आपको पता चला........’ और फिर दत्ता अंकल ने पिताजी के कानों के पास अपना मुँह करते हुए धीरे से कहा-‘ वो कम्यून वाला महात्मा मर गया।’ ’अरे कब।’ पिताजी अपने पैर धोने के बाद टाविल से उन्हें पोंछ रहे थे।

अक्सर शाम को ऑफ़िस से आने के बाद पिताजी बगीचे में इत्मिनान से बैठते हैं।सुस्ताते हैं।चाय पीते हैं। और ठण्डे पानी से अपने पैर धोते हैं।रोज़ की एक-सी चीज़ें जो रोज़ की एक-सी थकान को उतार देती है। दत्ता अंकल भी शाम को पिताजी के साथ गप्प हाँकने चले आते हैं। दत्ता अंकल हमारे घर के पास रहते है और उसी ऑफ़िस में हैं जिसमें पिताजी काम करते हैं। दोनों शाम को इस बगीचे में इकट्ठे बैठकर दुनिया जहान की बातें करते हुए अपना समय गुज़ारते हैं।

पिताजी ने महात्मा के मरने की ख़बर को ज़्यादा तव्वजो नहीं दी।वे अपने पैर पोंछने में मशगूल रहे।महात्मा के मरने की बात पर वे इस तरह चुप रहे जैसे उस बात का होना ना होना दोनों बराबर हों।महात्मा को ज़्यादातर लोग स्वामी जी कहते थे।लोगों को उनका नाम नहीं पता था।पिताजी अपने पैर पोंछते रहे। दत्ता अंकल भी थोडी देर चुप रहे।

हमारे घर के ठीक सामने से एक कच्ची सड़क गुज़रती है।घर से सटी हुई यह सड़क बजरी के कारण लाल रंग की है।रोड पार घर के ठीक सामने एक कम्यून है।लोग इस कम्यून को आश्रम कहते हैं। कम्यून के चारों ओर बहुत-सी ज़मीन है।कम्यून की बाउण्ड्री दूर-दूर तक फैलकर इस पूरी ज़मीन को घेरती है।बाउण्ड्री के अंदर एरिकापाम,जेकोरेण्डा,अशोक और कचनार के कई पेड़ लगे हैं।कम्यून के मेन गेट से भीतर तक एक रोड है,जिसके दोनों ओर क्राइसेन्थेमम और एस्टर के मौसमी फूल लहराते रहते हैं।बाउण्ड्री में इतने पेड़-पौधे लगे हैं,कि कम्यून का छोटा सफ़ेद भवन उनसे ढँककर छिप जाता है।

सँकरी और तंग गलियों वाले इस मुहल्ले में यह कम्यून अजीब से सुकून और विस्तार के साथ है।मुहल्ले के चारों ओर की बेचारगियाँ और संकरापन इस कम्यून पर आकर ख़त्म होता है।मोहल्ले के तंगपन से बिल्कुल उलट एक पूरी खुली जगह,शोर शराबे के बीच एक बिल्कुल स्वभाविक सी चुप्पी, हज़ारों क़दमों की चहलक़दमी के बीच एक जगह जहाँ शायद बरसों से कोई नहीं गया,रोज़मर्रा के दृश्यों से उलट एक ऐसा दृश्य जिसमें कोई आदमी तक नहीं दिखता है, मुहल्ले के खुलेपन और एक तरह के नंगपने के बीच ढँके छुपे कई-कई रहस्यों वाली एक जगह.......।जैसे किसी रंगबिरंगी चादर को कोई चूहा कुतर जाये और कुतरन पर एक से रंग का बड़ा-सा थिगड़ा लगा दिया गया हो।कम्यून मुहल्ले की किसी कुतरन पर नहीं था,पर वह ऐसा ही लगता था।लोगों ने कभी भी उसे मोहल्ले का हिस्सा नहीं माना।यह रहा मोहल्ला बीरजी के घर से तलमले किराना स्टोर होते हुए, मुनिस्पालिटी के ऑफ़िस नंबर तीन तक जाती सर्पाकार रोड और उसपर जगह-जगह कटने वाले चौराहों से भीतर उतरती सँकरी गलियाँ और इन सबको झूमकर ठसाठस घेरे बेतरतीब हज़ारों-हज़ार मकान जो बस चले तो रोड और गलियों को भी खा जायें......।पूरा का पूरा एक मुहल्ला,एक नाम तिलंगा मोहल्ला वार्ड नं.7 नेताजी सुभाष वार्ड....।और जो कम्यून है, हमारे घर के सामने बजरी वाली रोड के पार,वह जैसे इस मोहल्ले में होने की औपचारिकता भर है।

उन दिनों मैं छह साल का था। उस दिन दत्ता अंकल और पिताजी की बातें मैं सुन रहा था।मुझे मरने का मतलब पता था।मैं जानता था, कि मरने से क्या होता है।यद्यपि उन दिनों मरने का मतलब आज के मतलब से काफ़ी अलग था।उन दिनों मरने की बात से डर लगता था और इस डर से बचने के लिए मैं माँ की साडी से चिपक जाता था।पर सिर्फ़ डर ही नहीं था, कुछ रहस्य भी थे।उन रहस्यों को बंद किये कुछ प्रश्न भी थे।फिर प्रश्न हल होते गये।रहस्य खुलने लगा।फिर वह रहस्य नहीं रहा और इस तरह आज मरने के मायने बदल गये हैं।अब मरने की बात से डर नहीं लगता।डर की जगह अकेलापन आ गया है।मरना यानी एक अंतहीन अकेलापन......जो दूसरे अकेलेपन की तरह कभी ना कभी समाप्त भी नहीं होता है।एक बेइलाज शाश्वत अकेलापन जिसका नाम मरना है।

शाम को जब पिताजी और दत्ता अंकल बगीचे में चर्चा में मशगूल रहते तब मैं और विभु स्टापू खेल रहे होते थे।रोज़ ही माँ हमें फटकार लगातीं, कि क्या ये लडकियों वाले खेल खेलते हो?बाहर जाकर खेलो।........माँ की फटकार एक रुटीन थी।लडकियों वाला अंतर तब तक नहीं पता था।सब एक लगता था।क्या लडका और क्या लडकी।क्या लडकों का खेल और क्या लडकियों का।हम अलग नहीं कर पाये थे।शायद इसी लिए माँ की उस फटकार में हमें फटकार पता नहीं चलती थी।वह रोज़ की बात थी।वे बस शब्द होते थे। एक क्रम से जमे,रोज़ के एक से शब्द....और हम स्टापू खेलते रहते।

‘कल ही रवींद्र से बात हुई।वही बता रहा था,कि बाम्बे में........।’

‘हाँ वे बीमार थे।दो एक महीने पहले मैंने सुना था, वे अस्पताल में भर्ती थे।याद नहीं आ रहा पर किसी ने बताया था।’

‘बीमार.....।’

‘यही पता चला था।’

स्टापू के खेल में कई समुद्र होते हैं।सात समुद्र से भी ज़्यादा और हम दोनों उन समुद्रों को पार कर रहे थे, अपने-अपने तरीक़े से।पर मेरा मन कुछ उचट गया था।क्या पता पिताजी और दत्ता अंकल सही कह रहे हों।वे जो बातें करते हैं, वे अक्सर सही ही होती हैं।क्या वास्तव में स्वामीजी मर गये?

‘क्या बीमारी थी?’ ‘मालूम नहीं।’ ‘ये सब रजनीश के भक्त....।पता नहीं कहाँ-कहाँ के यंग लडके-लडकियाँ इस आश्रम में आते थे।मैंने तो सुना है, महात्मा जी बडे रंगीले मिज़ाज़ थे।कोई सैक्सुअल डिसीज़ था उनको... और पता है.....।’ दत्ता अंकल ने मुस्कुराते हुए कहा।पिताजी ने उनको धीरे बात करने का इशारा किया। दत्ता अंकल मुँह बिचकाते हुए मेरी तरफ़ देखने लगे।मुझे समझ नहीं आया।मैं भोंदू-सा उन्हें देखने लगा। भीतर एक ‘क्यों’बन गया।फिर पिताजी और दत्ता अंकल धीरे-धीरे खुसुरपुसुर करने लगे।कभी दत्ता अंकल पिताजी के कान के पास अपना मुँह ले जाते, तो कभी पिताजी अपना कान उनके मुँह के पास कर देते।पर थोडी देर बाद फिर से दोनों तेज़ आवाज़ में बात करने लगे। ‘इन सालों को भी यहीं अपना आश्रम खोलना था।’

’हुंह हो गया। अब कहानी ख़त्म.....।’

‘हाँ लगता तो यही है।’

‘क्यों अब क्या होगा? मर गया इनका स्वामी।वही तो था, सब करता-धरता।अब तो यह कम्यून बंद ही हो जायेगा।स्वामी मर गया।यह सबसे ठीक रहा।’

‘जैसी करनी वैसी भरनी।’

‘अच्छा हुआ पिण्ड कटा।’

‘सही हुआ जो मर गया।’

‘ऊपर वाला सब देखता है।उससे कोई नहीं बच सकता।’


यह सब सुनकर और कहकर पिताजी के चेहरे पर एक निश्चिंतता तैर गई।जब यह कम्यून खुला था,पिताजी उसी समय से इसके विरोधी रहे थे।पिताजी चाहते थे कि कम्यून ना खुल पाये।फिर जब खुल गया तब वे उसे बंद करवाना चाहते थे।माँ भी उनकी बात का समर्थन करती थीं।कुछ मोहल्ले के लोग भी जो ज़्यादातर पिताजी और दत्ता अंकल के परिचित थे, पिताजी की इस बात का समर्थन करते थे।पिताजी ने इस कम्यून को बंद करवाने की बहुत कोशिश की थी।मुनिस्पालिटी से लेकर नेताओं तक हर किसी को अर्जियाँ दी थीं।मुहल्ले के कुछ लोगों को घेर घारकर नेताजी के पास भी ले गये थे।नेता जी ने पिताजी और मुहल्ले के लोगों की बातें सुनीं और कुछ अधिकारियों को फ़ोन भी किया।पर कुछ नहीं हुआ।मोहल्ले के कुछ लोगों को पिताजी की नेताजी वाली छवि ख़ूब जमी, सो वे मोहल्ले से पार्षदी का चुनाव लड बैठे और हार गये।पर कम्यून वहीं रहा।उसका कुछ नहीं हुआ।


कम्यून ने मोहल्ले के लोगों के जीवन में कुछ बदलाव भी लाये।हम लोगों को हिदायत दी गई थी,कि हम कम्यून की तरफ़ नहीं जायें।


मोहल्ले के ज़्यादातर लोग कम्यून से दूर ही रहते थे।लोग वहाँ नहीं जाते थे, इसलिए उस कम्यून के वारे में बहुत कम लोगों को पता था। लोगों को नहीं पता था कि कम्यून में कौन-कौन रहता है?वहाँ क्या-क्या होता है?क्या वे लोग पूजा भी करते है ?वे लोग कहाँ से आये है?...........तरह-तरह की बातें और उनको लेकर उत्सुकतायें। मध्यमवर्गीय उत्सुकतायें, जिन में कुछ भी गहरा नही होता, बस रोज़मर्रा की चीज़ें जानने की सतही सी इच्छा होती है। रोज़ जो घट रहा है।जिसे हमेशा जाना है।बस उन्ही चीज़ों को लेकर उपजी उत्सुकता।उन उत्सुकताओं में कोई विशेष बात नहीं थी।पर वे हर किसी की बात में थीं। हर कोई उत्सुक था। तुच्छ-सी बातों को लेकर उत्सुक था। वे उत्सुकतायें इतनी साधारण थीं कि, उन उत्सुकताओं का समाधान हो जाने पर भी कुछ नहीं होना था।किसी साधारण उत्सुकता का क्या तो होना और क्या उसका समाधान होना। पर लोगों ने बार-बार उनके बारे में बात करके उन उत्सुकताओं को अहम् बना दिया था। वे उत्सुकतायें हमारे लिए साधारण नहीं थीं।हमारे लिए यानी मेरे, विभु और संतोष के लिए। संतोष उम्र में मेरे बराबर था, पर विभु छोटा था।हमारे लिए संसार की तुच्छ चीज़ें भी अहम् थीं।जैसा कि दूसरे बच्चों के लिए भी होती है।कम्यून की बातें हमें कौतुहल में ड़ालती थीं। इस उम्र में जब तुच्छतम चीज़ों को लेकर भी कौतुहल होता है, तब लोगों की वे उत्सुकतायें जो मात्र साधारण लगती है, उन दिनों हमें बडी महत्वपूर्ण लगती थीं। लगता था पता नहीं उस कम्यून में क्या है? लोग इतने उत्सुक क्यों रहते है? जरूर कोई बात है।