कौन सुनाए, कौन सुनेगा-कथा मंजूषा की? / देव प्रकाश चौधरी

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बूढ़ा आकाश कैलेंडर पर भरोसा नहीं करता। उसे लगता है, कल की बात है। सदियों से बह रही गंगा कुछ पल के लिए ही सही, यहाँ आकर ठहर जाती है। अंधेपन का एक से एक चेहरा देख चुके इस जनपद को आज भले ही अपने बीते कल में दिलचस्पी न रह गई हो, लेकिन इतिहास कविता बनकर अब भी गूंजता है यहाँ। अब भी बूढ़ी महिलाएँ गाती हैं-

मंजोसा लिखबे रे मलिया धरम कत्तारे रे।
मंजोसा लिखबे रे मलिया तैंतीस कोट देव रे॥

तैंतीस करोड़ देवी-देवता! मंजोसा यानी मंजूषा। किसी गुणी आदमी से पूछिए, वह कहेंगे-ये उस जनपद का गीत है, जहाँ आस्था की नदी बहती रही है और उस नदी में जितने बूंद-उतने देवी-देवता। बात यहीं ख़त्म नहीं होती। मंजोसा की भी कथा है। कथा तो होगी ही। इस जनपद के बीते कल की। इस जनपद में बह रही गंगा की। इस जनपद में आकर अक्सर ठिठक जाने वाले बूढ़े आकाश की। यहाँ के लोगों की। सदियों पुरानी एक कलात्मक गाथा को लय और आकार देने की। लेकिन आज यहाँ किसे फुरसत है, जो रूक कर कथा सुने? फिर भी किसी न किसी घर से कोई न कोई आवाज़ बाहर निकलती ही है-

बिषहर हर-हर बिषहरी माय।

कथा अंतहीन है। लोगों को यक़ीन न हो यह भी संभव है। लेकिन लोक में कुछ भी संभव है। यह लोक की ताकत है, जिसे हम और आप भी जानते हैं और यह जनपद भी। इसकी कथा जब शुरू हुई थी तो कुछ और थी, अब कुछ और है और आगे कुछ और हो जाएगी। फिर भी कथा है और इसे सुनाने वाले की यही इच्छा रहती है कि सुनने वाले धार्मिक विश्वास की, लौकिक आस्था की, वैज्ञानिक व्याख्या न करे। तो सुनिये कथा इस जनपद की...

कथा इस जनपद की यानी अंग जनपद की। किससे शुरु करें...यहाँ तक गंगा में बहकर आने वाले सूर्यपुत्र कर्ण से? गंगा में बहकर आने वाले अंधे, कामुक और विलक्षण कवि दीर्घतमा से, जिसे इतिहास ने महात्मा भी माना है? या फिर गंगा के रास्ते अपने पति की ज़िन्दगी मांगने स्वर्ग गई सती बिहुला से? किससे शुरु होती है अंग जनपद की कथा, क्योंकि यहाँ समय की हथेली पर एक से एक जटिल रेखाएँ हैं...और पता नहीं अंग को यह जटिलता अपना ऐतिहासिक सौंदर्य लगता है या फिर इतिहास की साजिश?

अंग! अब तक भव्य सम्बोधनों और विशेषणों के टीले पर खड़ा कर इतिहास हमेशा अंग से उसका हक़ छीनता आया है-महारथी सूर्यपुत्र कर्ण की नगरी अंग! सूर्य के अराधक कवि दीर्घतमा को आश्रय देने वाला देश अंग! सती बिहुला का ससुराल अंग! आगे बढ़ें तो रेशमी नगर अंग! महान स्वतंत्रता सेनानी तिलकामांझी के आंदोलन का साक्षी अंग! महान साहित्यकार शरतचंद की पसंदीदा जगह अंग! महानगायक किशोर के बचपन का जनपद अंग। गौरव के विशेषणों की कमी नहीं है, लेकिन यह भी सच है कि आज भी अंग को ख़ुद पर गर्व करने के बहाने ढूँढने पड़ते हैं।

कभी अंग प्राचीन भारत के 16 महा जनपदों में से एक था। इसका पहला उल्लेख अथर्ववेद में मिलता है। बौद्ध ग्रंथो में भी अंग का नाम दर्ज है। महाभारत के अनुसार बिहार में आज के भागलपुर, मुंगेर, झारखंड के संथाल परगना का कुछ क्षेत्र और पश्चिम बंगाल का कुछ हिस्सा अंग प्रदेश के क्षेत्र थे। इस प्रदेश की राजधानी चंपा थी। बाद में महावीर कर्ण अंग के राजा बने। इतिहास के पास अंग के नाम और भी कई अध्याय हैं...साथ ही अंग से पूछने के लिए कई असुविधाजनक सवाल भी। सदियों से एक सवाल उत्तर की प्रतीक्षा कर रहा है-अंग! तुम सच-सच बतलाना छठी शताब्दी के पहले बिहुला और विषहरी के बीच चली लड़ाई में किसकी जीत और किसकी हार हुई थी? सब कहते हैं बिहुला अपने पति के प्राण वापस कर विषहरी से जीत गई थी। यह बात सच है तो-तो फिर ये बताओ आज भी तुम्हारे यहाँ एक हारी हुई देवी विषहरी को क्यों पूजते हैं लोग? अंग की क्यों दुलारी है विषहरी?

विषहरी बड़ दुलरी!
कहाँ सोभे बाजू बंद-कहाँ टिकुली?
विषहरी बड़ दुलरी!
टूटी गैले बाजूबंद, गिरल टिकुली
फाटी गैले विषहरी माय के घघरी
विषहरी बड़ दुलरी!
जोड़ी देबै बाजूबंद, साटब टिकुली
सिबी देबै विषहरी माय के लाल घघरी!

कथा को सीने और सहेजने बैठेंगे, तो एक साथ कई कथाएँ मिलेंगी, कई उपकथा और कई परिकथा भी। इन्हीं कथाओं में से कला की पगडंडी भी निकलती है। कथा के विस्तार से कला की पगडंडी पर पहला पड़ाव आता है-मंजूषा कला। लोक का लय कैसे रंगों से खेलता है, लोक की आस्था कैसे आकार पाती है और कैसे बच्चों की तुतलाहट और बुढ़ापे का अनुभव संसार एक साथ उल्लास की लहरें बनाती हैं, इसे जानना हो तो मंजूषा कला की लय से, रंग से और आकार से आपको दोस्ती करनी होगी। आपको यह जानकर भी सुखद आश्चर्य होगा कि अंग जनपद की इस कला की परिधि के बीच भी बैठी हैं विषहरी। लोक देवी विषहरी! यानी विष को हरण करनेवाली देवी-

विष होरे कल्याण कोरे ताई नाम विषेहोरी

(बांग्ला लोकोक्ति)

कहते हैं, शिव की मानस पुत्री है विषहरी। पांच बहनों में सबसे बड़ी है विषहरी, फिर मैना, दिति, जया और पद्मा। भगवान शिव की जटा से इनका जन्म होने की वज़ह से ही लोक में ये पांच देवियाँ शिव की मानस कन्या यानी मनसा के नाम से पुकारी जाती हैं-

पांचो बहिन कुमारी हे विषहरी!
खेले चार चौमास हे विषहरी!
वहाँ से चली भेली हे विषहरी!
कनुआ घर आवास हे विषहरी!
कनुआ के बेटा उत्पाती हे विषहरी!
लावा छिटी पड़ैंलकों हे विषहरी!
वहाँ से चली भेली हे विषहरी!
मलिया घर आवास हे विषहरी!
मलिया के बेटा उत्पाती हे विषहरी!
फूल छिटीं पड़ैलकों हे विषहरी!

(हे विषहरी देवी, विष को हरनेवाली मां! हमेशा खेल में व्यस्त रहनेवाली पांच कुमारी बहनों वाली देवी... आपका आवास किस घर में है? किसका बेटा शरारती है? किसने आपको भोग लगनेवाला लावा बिखेर दिया? आपका ठिकाना तो माली के घऱ में है। माली का बेटा तो बड़ा शरारती है। उसी ने आपका फूल बिखेर दिया?)

शायद यह लोक की उदारता है कि बिहुला के हठ, उसकी आस्था और उसकी जिजिविषा को याद रखने के लिए अंग जनपद का लोक हर साल पर्व मनाता है, लेकिन लोक को जब-जब याद आती हैं बिहुला, तब-तब पूजी जाती हैं विषहरी। तभी तो जब सारे भारतीय श्रावण शुक्ल पंचमी को ब्रह्मा द्वारा शेषनाग को दिए गए वरदान और प्रसाद के स्मृति पर्व के रूप में नागपंचमी मना रहे होते हैं, उस समय अंग जनपद में बिहुला-बिषहरी की पूजा को एक उत्सव के रूप में देखते हैं लोग। उत्सव में रंग भरती है मंजूषा कला। एक लोककथा को आकार देनेवाली वाली कला।

कला कहती है कथा

कथा है मंजूषा कला की भी। कहानी छठी शताब्दी ईसा पूर्व की है-उस समय अब के भागलपुर को, चंपा के नाम से जाना जाता था। भागलपुर यानी अंग जनपद का केंद्र। चंपा में एक ख्यात सौदागर रहते थे-चांदो सौदागर। चांदो भैरवनाथ के महान भक्त थे। गंगा के तट पर स्थापित भैरवनाथ के मंदिर में सौदागर की अपार श्रद्घा थी। एक दिन शाम के समय सौदागर ने भैरवनाथ की पूजा जैसे ही समाप्त की, उनके सामने एक दिव्य छाया प्रकट हुई. ध्यान से देखने पर सौदागर ने पाया कि वह आकृति एक देवी की है, जिनके हाथों में चमकीले सर्प हैं। देवी ने अपना परिचय शिव की मानस पुत्री मनसा अथवा विषहरी के रूप में दिया। देवी ने सौदगर से अनुरोध कि वह सांप की पूजा करे। ठीक उसी तरह श्रद्दा से, जैसे कि वह भैरवनाथ यानी शिव की पूजा करते हैं। चांद सौदागर किसी भी प्रकार से नागपूजा के लिए राजी नहीं हुए. इस बात पर देवी मनसा अत्यंत क्रोधित हुई और चांदो सौदागर को तबाह करने की ठान ली।

एक और कथा है। कहते हैं-चांदो सौदागर पहले शिव की मानस पुत्री विषहरी के परम भक्त थे। वह नित्य उनकी पूजा करता थे। एक दिन उन्होंने एक नाग को मेढ़क खाते देख लिया, इससे उनको घृणा हो गई. उन्होंने घोषणा की कि वह अब विषहरी की पूजा नहीं करेंगे। इस बात पर मनसा देवी काफ़ी नाराज हो गई और वह चांद सौदागर को तबाह करने निकल पड़ीं।

एक दिन सौदागर व्यापार के लिए रवाना हुए तो देवी विषहरी ने बीच समुद्र में अपने मायावी प्रभाव से जहाज़ को उलट दिया। इस दुर्घटना में सौदागर के छह पुत्र मारे गए तथा काफ़ी सम्पत्ति का नुक़सान हुआ। इधर देवी विषहरी ने चांदो सौदागर की पत्नी सोनिका को सपने में यह घटना बताकर पूजा का अनुरोध किया तो वह तैयार हो गई. उधर चांदो सौदागर, जो दुर्घटना में किसी प्रकार से बच निकले थे, ठीक उसी वक़्त वापस घर आए, जब उसकी पत्नी पूजा की तैयारी कर रही थीं। उन्होंने गुस्से में पूजा की सारी सामग्री को उठाकर फेंक दिया। इस घटना के बाद मनसा देवी यानी विषहरी और भी नाराज रहने लगीं। कालांतर में चांदो सौदागर को एक और पुत्र हुआ, जिसका नाम बाला लखेंदर रखा गया। उसी दिन विषहरी ने घोषणा की-यह लड़का सुहागरात के दिन ही सर्पदंश से मर जाएगा।

ये कहानी आगे बढ़ती है तो ज़िक्र आता है उस लडक़ी का, जिसकी शादी बाला लखेंदर से होने वाली थी-उसका नाम था बिहुला। पड़ोस के गाँव में रहनेवाले सौनू सौदागर और सोहनी सौदागर के घऱ पैदा हुई थी बिहुला। बिहुला जैसे-जैसे बड़ी होती गई, माँ गंगा के प्रति उसकी आस्था बढ़ती चली गई. वह हर रोज़ गंगा में स्नान करने और पूजा करने जाती थी। लेकिन अक्सर रास्ते में उससे एक बुढिय़ा मिलती थी और शाप देती थी कि तू सुहागरात के दिन ही विधवा हो जाएगी। वह बुढिय़ा कोई और नहीं वेश बदलकर देवी विषहरी होती थीं।

समय बीतता जा रहा था। देवी विषहरी का गुस्सा बढ़ता जा रहा था-बिहुला जब बड़ी हुई तो उसकी शादी बाला लखिन्दर से तय हुई. चांदो इस बात को जानते थे कि विषहरी सुहागरात के दिन ही बाला को डसवाने का यत्न करेंगी। इसलिए उन्होंने लोहे और बांस का एक ऐसा अभेद्य घर बनवाने का आदेश दिया, जिसमें चींटी तक भी प्रवेश नहीं कर सकती थी।

लोक मान्यता के अनुसार इस घर का निर्माण विश्वकर्मा ने किया था, लेकिन जब घर बनना आरंभ हुआ तो विषहरी विश्वकर्मा के सामने प्रकट हुईं और कहीं एक छिद्र छोड़ देने का अनुरोध किया। पहले तो विश्वकर्मा तैयार नहीं हुए, लेकिन बाद में शाप के भय से उन्होंने एक छोटा-सा छिद्र छोड़ दिया। तय मुहुर्त में शादी भी हो गई. घर के सभी सदस्य डरे और सहमे हुए थे। बिहुला जब सुहागरात कक्ष में गई तो उसने अपने साथ सांप के पूजा की सामग्री भी रख ली थी। जैसे ही बाला सुहागरात कक्ष में आया तो देवी विषहरी ने नाग को आदेश दिया कि वह बाला को जाकर डंस ले। लेकिन सुहागरात कक्ष में नाग को देखते ही बिहुला ने पूजा और स्तुति आरम्भ कर दी-

कदम वृक्ष पर नाग बाबा के डेरा
तोहराक देबों नाग बाबा गंगा के नि...र...वा हे।

(हे नाग बाबा कदम्ब के पेड़ पर आपका बसेरा है। हम आपको गंगा जल चढ़ाएंगे)

बिहुला की स्तुति से नाग प्रसन्न हो गया और वह वापस चला गया। इस पर विषहरी काफ़ी नाराज हुईं और उन्होंने नेत्री नागिन को यह काम सौंपा। नेत्री ने अपना काम पूरा किया। नागिन के डंसते ही बाला बेहोश हो गया। इसके बाद की कहानी तेजी से बदलते जाती है-सर्पदंश के उपचार के लिए बिहुला ने अपने पति को उपयुक्त स्थान पर ले जाने के लिए एक विशेष प्रकार का मंजुषानुमा जलयान बनवाया था, बाद में उसने अपने ससुर के विरोध के बावजूद मनसा देवी पूजा की और बाला को सर्पदंश से मुक्ति मिली।

कथा के और भी रूप मिलते हैं-मंजूषायान के सहारे बिहुला जलमार्ग से इन्द्रासन चली गई, जहाँ देवताओं को प्रसन्न किया और बाला को सर्पदंश से मुक्ति मिली, बदले में अपने विषहरी की पूजा करना कबूल किया। मौत औऱ ज़िन्दगी की इसकी कहानी के बीच एक ऐसी कला ने जन्म लिया, जिसे आज हम मंजूषा कला के नाम से जानते हैं।


बिहुला-विषहरी की कथा सच्ची है या फिर लोगों की आस्था की अतिरंजना ने गढ़ दी है यह कहानी, यह तो नहीं मालूम, लेकिन इस कथा से जुड़ी मंजूषा कला के रंग आज भी चहकते हैं। जब बिहुला ने अपने पति को ले जाने के लिए एक मंजूषानुमा यान बनवाया था...तो उस यान को उस समय के एक चित्रकार लहसन माली ने अपनी सहज कलात्मक सोच से चित्रित किया था। तब लहसन की कला ने देवी विषहरी की अराधना की थी। वह कला यात्रा न जाने कितने अनाम हाथों से गुजरती हुई आज भी जारी है। आज भी बनते हैं मंजूषा। आज भी सजती है मंजूषा, क्योंकि बिहुला-विषहरी की पूजा में मंजूषा अर्पित करना, सिर्फ़ लोक की आस्था ही नहीं, शायद लहसन के साथ अंग का किया हुआ एक वादा भी है कि तुमने जिस तरह विषहरी को किया था प्रणाम, उसी तरह हम देवी से लेते रहेंगे आशीर्वाद।

लहसन की याद में कहें, या फिर देवी की खुशामद में, भागलपुर के चम्पानगर के दर्जनों माली परिवार हर साल लिखते हैं मंजूषा। यह बात सच है कि एक माली परिवार के लिए मंजूषा लिखना या बनाना रोजगार का एक बहुत छोटा-सा मौका भी है, लेकिन जो लोग उन माली कलाकारों से मिले हैं, वे जानते हैं कि पांच दस या बीस रुपए में बिकने वाली मंजूषा जेब की खातिर नहीं, जूनून के लिए लेती है आकार। अंग को बिहुला विषहरी की कथा पसंद है, या मंजूषा का आकार, यह भी बहस का विषय हो सकता है, लेकिन इसमें कोई शक नहीं कि बिहुला को अर्पित होनेवाली मंजूषा बीते कल को आज से जोड़ती है। पूजा करीब आती है, तो माली परिवारों की बैचैनी बढ़ जाती है-सबसे पहले तो सनई की लकड़ी जुटानी होती है।

सनई की लकड़ी नहीं समझे? जूट की लकड़ी...फिर शोला और काग़ज़ भी चाहिए. सनई की लकड़ी देती है आकार, शोला और काग़ज़ से बनती है दीवार और फिर सामने होता है मंदिरनुमा आकृति, जिसे लोग कहते हैं मंजूषा। आकार के विस्तार की कोई सीमा नहीं है। एक मंजिल, दो मंजिल, तीन मंजिल...कोई कई मंजूषा तो आठ-आठ मंज़िल मंजिल के भी होते हैं। जब बन जाती है मंजूषा तो फिर कूची शुरु करती है अपना काम। रूई के फाहे अथवा नर्म मुलायम कपड़े की बनती है कूची। मिट्टी के छोटे-छोटे बर्तनों में घोले जाते हैं कच्चे रंग। रंग ज़्यादा नहीं होते लेकिन अंग के माली कलाकारों को इसका कोई ग़म नहीं। नीला, पीला, गुलाबी और हरा, इन चार रंगों से ही होता है चमत्कार। कभी-कभी काले रंग का प्रयोग भी देखने को मिलता है।

काला रंग इस कला से अब तक इसलिए भी दूर है, क्योंकि शुभ मौके पर काले रंग से बचते हैं लोग। रंग तैयार हो, कूची हाथ में आ जाए तो फिर पात्र को आने में कितनी देर लगती है। लेकिन पहले कौन आएंगे, इसका फ़ैसला पद और प्रतिष्ठा के हिसाब से होती है। पद और प्रतिष्ठा के हिसाब से जगह भी तय होती है। शुभ मुहुर्त हो तो कोई लोक सबसे पहले किस देव को याद करेगा, उसमें भी बात बिहुला-विषहरी की हो रही हो तो सबसे पहला हक़ तो महादेव का बनता है।

महादेव के बाद कूची चलती है देवराज इंद्र के लिए. फिर पार्वती आती हैं। इस मौके पर लोकदेव हनुमान को भी तो याद करना ज़रूरी है। इसके बाद आती हैं देवी विषहरी अपने पांच बहनों के साथ, लेकिन अभी तो इस अमर कथा के कई पात्र बांकी हैं। कलाकार को अपने रंगों और रेखाओं से शिल्पराज विश्वकर्मा को भई रचना होगा, क्योंकि विश्वकर्मा अगर विठहरी के आगे न झुक जाते तो फिर बिहुला को नहीं मिलती सजा। विश्वकरमा के बाद मंजूषा पर आते हैं चांद सौदागर और उनका पूरा परिवार। कूची यहीं विराम नहीं लेती। बाला और बिहुला के साथ, उस कथा से जुड़े पात्र सोनिका साहुन, बिहुला का भाई शंखा, धनोत्तर ओझा, नेतला जादूगरनी, गोदा घटवार, इन्दासन राज का नटुवा, झारखंडी मंतरिया को भी मिलती है जगह क्योंकि ये सारे पात्र उस कथा को आगे बढ़ाते हैं, जिस कथा में बिहुला अपने पति बाला के प्राण वापस लाती है। इन पात्रों के अलावा पशु-पक्षियों के भी चित्र बनाए जाते हैं। कागा कोयली, तोता-मैना, गरूड़, मोर, शीतला माई का वाहन गधा, बाघ, घोड़ा, हाथी के साथ-साथ नाग की ओर मुड़ते हैं कलाकार।

गंगा-यमुना, नाग कलश, मछली, नाव, ढोढा-बेंगा, टुंढी राक्षसी, लोही बांस भवन, बाला-बाहुला का शयन कक्ष, इन सबों को कैसे छोड़ दे कलाकार...कूची चलती है, पात्र आकार पाते रहते हैं। पात्रों के नाम तो रूकने का नाम नहीं लेते-जल, बादल, चांद, सूरज बट-पीपल और आम को भी तो बनाना है। कथा खुलती जाती है, चित्र बनते जाते हैं। चित्र बनाने वाले कलाकार नहीं जानते कि उनकी कूची से निकली रेखाएँ आधुनिक कला के किस वाद के इर्द-गिर्द घूमती है? वे तो इतना भर जानते हैं कि पूजा आनेवाली है, तो मंजूषा बननी ही चाहिए, क्योंकि अगर ऐसा नहीं होगा तो फिर आस्था के जो गीत कभी-कभार सुनाई पड़ते हैं, वह भी ख़ामोश हो जाएंगे।

मंजूषा कला का मोहक ग्रामर

मंजूषा कला के अपने प्रतीक हैं और अपना ग्रामर। बिहुला की नगरी चम्पापुरी के दिखाने के लिए माली कलाकार चम्पक पुष्प के पेड़ दिखाते हैं। चांदो सौदागर को दर्शाने के लिए पगड़ी चन्द्राकार तिलक बनती है प्रतीक। बाला वह है, जिस पुरूष आकृति के पैर के समीप मुंह खोले सांप का चित्र है। इंद्र को समझना है, तो देखना होगा कि किस आकृति के दाहिने हाथ में कडक़ती हुई विजली है। बिहुला वह है, जो हमेशा खुले बालों में होती है और सामने मंजूषा या फिर नागिन का चित्र होता है। विषहरी देवी को दिखाने के लिए एक हाथ में कलश तथा दूसरे हाथ में सांप, या फिर दोनों हाथ में सांप बनाए जाते हैं। देवी मैना के दाहिने हाथ पर मैना बैठी होती है।

इस कला में रेखाएँ सांप-सी आगे बढ़ती है, लहराती हुई, बलखाती हुई. मानव चित्रों की आकृति कुछ पात्रों को छोडक़र हमेशा एक आंखवाली होती है। अंग्रेज़ी के एक्स अक्षर की तरह होती है मानव आकृति। आंखें बड़ी होती हैं। कपाल में कान नहीं होते। मर्द आकृति मूंछ और शिखा से पहचानी जाती है। महिला के छाती के उभार के लिए दो वृत बनते हैं। पुरुष के गर्दन मोटे होंगे और स्त्री के पतले। गर्दन बनाने के लिए आधे वृत की तरह कई रेखाएँ खींची जाती हैं। लेकिन मंजूषा कला का मोहक ग्रामर हिन्दी के उस व्याकरण की तरह नहीं है, जो अडिग है। सालों से चली आ रही इस कला परंपरा में बहुत कुछ छूटा है, तो बहुत कुछ जुड़ा भी है। लोक का एक स्वभाव यह भी है कि जो छूट गया, उसे कौन याद रखे। लेकिन क्या चक्रवर्ती देवी को हम भूल पाएंगे। उस कृतज्ञ समाज को भी उन्हें याद-याद रखना होगा, जिसके लिए चक्रवर्ती देवी ने अपनी पूरी ज़िन्दगी लगा दी। बिना किसी पुरस्कार और प्रोत्साहन की अपेक्षा करते हुए, कुछ हद तक लोगों की उपेक्षा से बचते हुए वह औरत पूरी ज़िन्दगी मंजूषा कला से जुड़ी रहीं।

लहसन माली को याद करें तो हमें लगभग छठी शताब्दी में लौटना होगा और चक्रवर्ती देवी की बात करें तो कुछ साल पीछे के अंग जनपद की डायरी के पन्ने पलटने होंगे। लेकिन बीच के 14 सौ बर्षों में इस कला यात्रा में क्या-क्या हुआ, इसका लेखा-जोखा अंग जनपद के पास नहीं हैं। अंगजनपद का इकलौता संग्रहालय, जो भागलपुर के सैंडिस कंपाउंड में है, इन 14 सौ वर्षों में, मंजूषा कला यात्रा पर आपसे कुछ नहीं कह पाएगा।

इतिहास के पन्नों को आप बहुत खंगालेंगे तो आपको एक नाम मिलेगा-डब्ल्यू जी. आर्चर का। 1940 के आसपास अंग इलाके के अभिभावक थे ब्रिटिश अधिकारी डब्ल्यू जी. आर्चर। कहते हैं कि इलाके के दौरे के दौरान उन्हें एक बार मंजूषा मिला था और उसपर बने चित्रों को देखकर वे चकित भी हुए थे। बाद में उन्होंने मंजूषा के छाया चित्र लंदन भिजवाए थे और लिखा था कि अंग जनपद में एक ऐसी कला रची जाती है जिसमें सांप बनते हैं।

लंदन म्यूजियम के इंडिया हाउस में उन छायाचित्रों के संग्रहित होने की बात आज भी कही और सुनी जाती है, लेकिन इन बातों की कहीं कोई लिखित गवाही नहीं मिलती। ये वही आर्चर साहब हैं, जिन्होंने मधुबनी कला की भी पहचान की थी, लेकिन मंजूषा कला पर होने वाली कोई भी बहस चक्रवर्ती देवी के बिना पूरी नहीं होती।

वैसे तो चक्रवर्ती देवी का जन्म पश्चिम बंगाल में हुआ था, लेकिन उनकी शादी चंपानगर के माली परिवार के रामलाल मालाकार से हुई थी। असमय पति की मौत ने उनके लिए कई तरह की मुसीबतें खड़ी कर दी थीं, लेकिन उन्होंने एक बार मंजूषा कला की कूची उठाई तो वह कूची 09 सितंबर, 2008 को रूकी, जब उनकी मौत हुई. सालों की अनवरत इस कला यात्रा में उनके पास बहुत कुछ कहने को था, सुनाने को था, सिखाने को था, लेकिन वह मौका कभी नहीं आया। आधुनिकता के शोर में डूब चुके शहर को शायद लोक कला की एक देवी से पूछने के लिए कोई सवाल नहीं था। इसी बीच कहा जाने लगा कि-कि अंग जनपद में सदियों पुरानी एक कला परंपरा का दम घुटा जा रहा है। चुप बैठी है कूची, रंग उदास हो रहे हैं। कुछ लोगों की चिंता ये सामने आने लगी कि यह कला बाज़ार में बिक नहीं पा रही। पत्र-पत्रिकाओं में न तो कला को और न ही कलाकारों को जगह मिलती है। सवाल ये भी उठा कि चक्रवर्ती देवी के बाद कौन? लेकिन किसी के पास इस बात का जवाब नहीं था कि चक्रवर्ती देवी के पहले कौन थे? इन सवालों और सेमिनारों से उपजे शोर के बीच चक्रवर्ती देवी अपनी कला साधना में जुटी रहीं। वह पढी लिखी नहीं थीं, कम बोलती थीं, लेकिन इतना ज़रूर जानती थीं कि मंजूषा कला को किस तरह के संरक्षण और प्रोत्साहन की ज़रूरत है। शायद इसलिए वह बार-बार अपने परिवार के नए लड़के और लड़कियों को मंजूषा कला का हुनर सिखाने को बेताब दिखतीं।

ऐसा नहीं था कि चक्रवर्ती देवी मंजूषा कला में प्रयोग की पक्षधऱ नहीं थीं। वह चाहती थीं कि ख़ूब खिले इस कला का रंग। आज शायद वह होतीं तो उन्हें जानकर अच्छा लगता कि नामी गिरामी फैशन इंस्टीच्यूट के कुछ स्टूडेंट मंजूषा कला के मोटिव को अपने प्रोजेक्ट में शामिल कर खुलकर प्रयोग कर रहे हैं। उन्हें ये जानकर अच्छा लगता कि चित्रकार प्रीतिमा वत्स ने नए अंदाज़ में मंजूषा कला को अपने कैनवस पर जगह दी है। प्रीतिमा के बिहुला के पास मोबाइल देखकर चक्रवर्ती देवी को एक सुखद अहसास होता और भी कई नए कलाकारों का अंदाज़ उन्हें आशवस्त करते। ये प्रयोग उन लोगों को भी अच्छे लग रहे हैं, जो चाहते हैं कि मंजूषा कला का आने वाला कल...बीते कल से ज़्यादा रंगीन हो। शायद ये चाहत ही है, जिसे देखकर अंग जनपद को भी भरोसा होता है कि लहसन के रंगों ने गाए थे आस्था के जो गीत...वे गीत सदियों तक गूंजते रहेंगे। किसी न किसी घर से तो आवाज़ आएगी ही-

मंजोसा लिखबे रे मलिया धरम कत्तारे रे।
मंजोसा लिखबे रे मलिया तैंतीस कोट देव रे॥