कौवे की लकड़ी / गोवर्धन यादव
कहावतों का अपना एक ठोस आकार-प्रकार होता है और वे सच्चाई के बहुत ही करीब होती हैं। ऐसी ही एक कहावत है ‘पक्षियों में कौवा और आदमियों में नौंवा।’
इस कहावत का आधा अंश फिलहाल हमारे काम का है जिस पर हमें विस्तार से चर्चा करना है और इसका दूसरा अंश जिस पर और कभी चर्चा की जा सकती है। वैसे दूसरा अंश पहले अंश से इस तरह जुड़ा हुआ है कि उसे उससे अलग कर पाना थोड़ा कठिन कार्य सा प्रतीत हो रहा है। दूसरे अंश पर अपनी बातचीत दो चार पंक्तियों में ही कहकर समाप्त की जा सकती है। मान लें सौ आदमी हैं, आदमियों में नौंवा याने कि एक या फिर नौ आदमियों को हमें अलग करना पड़ेगा। बचे 91-91 में एक आदमी ऐसा होता है जो दस पर अपना प्रभुत्व कायम रखकर शासन का तंत्र चलाता है। इसी एक आदमी का हम अपनी कहानी में लेकर पहले वाक्यांश से जोडऩे का प्रयास करेंगे। तब जाकर पूरी कहावत का अर्थ हम अच्छी तरह पकड़ पाएँगे।
कौवे का अपना चरित्र होता है जिसका वर्गीकरण हम बड़ी आसानी से कर सकते हैं। इसमें उसकी बुद्धिमता, दूरदर्शिता, धूत्र्तता, चालाकी, लम्पटता, कर्कशता एवं साथ ही सेवा-भाव आदि का समावेश कर सकते हैं। आश्चर्य होता है कि इतने सारे दोष-गुण और वे भी एक साथ कौवे को छोडक़र किसी और पक्षी में नहीं पाए जा सकते। अतएव पक्षियों में सिरमौर बने रहने का सौभाग्य यदि किसी को प्राप्त होता है तो वह एकमात्र पक्षी ‘कौवा’ ही है। यदि घड़े में पानी कम है तो वह कंकड़ डालकर पानी पीकर उड़ जाएगा। यदि भूखा है तो निडर होकर रोटी लेकर भाग जाएगा। यदि किसी पेड़ पर उसका घोंसला है तो क्या मजाल आप पेड़ पर चढ़ जाएँ। कांव-कांव की कर्कश आवाज निकालकर वह अपनी टोली इकट्ठी कर लेगा और आप पर आक्रमण कर बैठेगा। यदि धोखे से वह सिर पर बैठ जाए तो समझ लो कि आप पर पहाड़ टूट पड़ेगा। मौत को नजदीक जानकर आपको ठंडा पसीना आने लगेगा। यदि आपको अपने पुरखों से मिलना हो तो भी आपको इसी से संपर्क बनाए रखना होता है। कीडे-मकौड़ों को बड़े चाव से चट कर जाता है। इस तरह वह प्रकृति में संतुलन बनाए रखने में भी अपना योगदान देता है। कहीं वह काकभुषुण्डि बनकर कन्हैया के हाथ से रोटी छीनकर खाने का सौभाग्य भी प्राप्त कर लेता है। तो कहीं वह रात के अंधेरे का फायदा उठाकर अपने अण्डों को कोयल के घोंसले में छोड़ आता है। और बदले में उसके अंडे चुराकर अपनी भूख मिटा लेता है। अण्डे सेंतने का काम कोयल करती है और बच्चे पैदा होते हैं कौवे के। इस तरह वह बड़े शान से जीता है।
ऐसी भी एक मान्यता है कि जिस पेड़ पर कौवे का घोंसला हो उसे कृष्ण-पक्ष में काटकर, इसी पक्ष में उसकी कुर्सी बना दी जाए तो उस पर बैठने वाले व्यक्ति के अन्दर कौवे के सारे गुणधर्म प्रकट होने लगते हैं। जैसा कि हमने आदमियों की संख्या में से एक आदमी को अलग छांट लिया था। वह आदमी जो नेतृत्व दे रहा होता है, में उसके गुणधर्म हम स्पष्ट रूप से देख सकते हैं।
एक ऐसा ही पेड़ जिस पर कौवे का घोंसला था, कृष्ण-पक्ष में काटा गया और संयोग से उसकी कुर्सी बनी वह भी कृष्ण-पक्ष में। उस कुर्सी पर एक आदमी बैठा और बैठते ही उसके आदमीयत के गुण लोप होते चले गए और कौवे के गुणधर्म उभर कर सामने आने लगे। और अब यह विशिष्ट व्यक्ति जनप्रिय ‘नेता’ कहलाने लगा।
अब नेता के चरित्र को लीजिए। यदि उसकी कुर्सी पर कोई और आकर बैठ जाता है तो पहले वाला नेता दूसरे पर साँप्रदायिक, देशद्रोही, चरित्रहीन होने का लांछन लगाने लगता है, और अपना एक गु्रप बनाकर दूसरे वाले को कुर्सी छोडऩे पर विवश कर देता है, या फिर उसकी पार्टी के कुछ लोगों को साम दाम दण्ड और भेद की नीति से अपनी ओर मिला लेते हैं। पहले वाले की सरकार शक्ति-परीक्षण में अल्पमत में आ जाती है और उसे मजबूरन सीट खाली करनी पड़ती है। ऐसे व्यक्ति को हर समय आशंका बनी रहती है और वह फूंक-फंूक कर अपने पैर बढ़ाता वह कि झरने के किनारे कल्लू बैठा उसका इंतजार कर रहा होगा।
पहाड़ की चोटी से उतरते हुए देनवा अपनी अधिकतम गति से शोर मचाती हुई आती है और फिर एक बड़ी-सी पहाड़ी पर से झरना का आकार लेते हुए गहराईयों में छलांग लगा जाती है। तेजी से नीचे गिरती हुई जलराशि, एक अट्टहास पैदा करते हुए झाग उगलने लगती है। साथ ही चारों ओर धुआँ-सा भी उठ खड़ा होता है। नदी में बनते भंवरों ने पहाड़ में जगह-जगह सुराख-से भी बना डाले थे। यह प्रक्रिया एक दो दिन की नहीं बल्कि बरसों से सतत चल रही प्रक्रिया का नतीजा था। आदमी एक सुराख में पूरा समा जाए इतनी गहराईयां तो बन चुकी थीं। वह एक दर्रे से घुसता तो दूसरे से जा निकलता।
धनिया नजरें बचाती हुई उस ओर बढ़ी चली जा रही थी। चांद अपने पूर्ण यौवन पर था। झरने के किनारे पहुंची तो लगा कि चांदी पिघल कर बही जा रही है। उसे मालूम था कि यहीं कहीं कल्लू बैठा उसकी प्रतीक्षा कर रहा होगा। दूर से ही उसने एक परछाई को घूमता देखा, फिर वह आँखों से ओझल हो गया। धनिया को लगा कि कल्लू ने उसे देख लिया होगा और अब वह छुप जाने का उपक्रम कर रहा होगा। शायद उसे चखाने के लिए।
मन में एक विशेष उमंग लिए धनिया आगे बढ़ती चली गई। वह उस ओर निर्भीकता से बढ़ी चली जा रही थी, जहाँ उसने एक परछाई को अभी-अभी डोलते देखा था। जब वह वहाँ पहुंची तो देखा, वहाँ कोई नहीं था। दिल धक से धक-धक करने लगा। कहाँ चला गया होगा कल्लू, उसने अपने आपसे प्रश्न किया। सफेद झक प्रकाश में उसकी नजरें अपने प्रियतम को खोज रही थीं। कभी उसकी नजरें पहाड़ की गहराईयों में जा समातीं तो कभी किसी झुरमुट में।
उसे तत्क्षण ऐसा लगा कि कल्लू इसी चट्टान के पीछे छुपा होगा। उसने आहिस्ता से बढ़ते हुए उस ओर जाना चाहा। तभी किसी की मजबूत बाँहों ने उसे अपने शिंकजे में कैद कर लिया। उसने सहज में ही अंदाजा लगाया कि हो न हो कल्लू ही होगा। पर बाँहों का कसाव कल्लू का न होकर किसी और का हो सकता है क्योंकि उसके कसाव से स्वत: ही स्पष्ट था कि वह प्यार की गरज से लिपटे हुए हाथ नहीं थे, बल्कि उसके शरीर के पुर्जे-पुर्जे को तोड़ डालने के लिए कसे गए थे। हड़बड़ा उठी धनिया। उसने अपने आपको उस चुंगल से छुड़ाना चाहा। पर कसाव लगातार बढ़ता ही चला जा रहा था। चीख उठी धनिया और कसाव से मुक्त होने के लिए हाथ पाँव मारने लगी। काफी छीना-झपटी के बाद वह मुक्त हो पाई थी। मुक्त होते ही उसने पलटकर देखा। ओझा अपनी वीभत्सता के साथ अट्टहास कर रहा था। पसीना-पसीना हो आई धनिया। साक्षात्ï मृत्यु को सामने पाकर वह हड़बड़ा उठी और किसी तरह अपनी जान बचाने की सोचने लगी। ओझा अपनी मस्ती में चूर उसकी ओर एक-एक कदम आहिस्ता-आहिस्ता बढ़ा रहा था। किंकत्र्तव्यविमूढ़ धनिया पीपल के पत्ते के मानिंद थर-थर कांप रही थी। हड़बड़ाहट में उसके हाथ बघनखे से जा टकराए। बघनखा हाथ में आते ही उसे लगा कि बचाव का उपाय हाथ आ गया है। बचाव की मुद्रा लेते हुए उसने बघनखे को तत्क्षण अपने पंजे में फंसाया और ओझा के अगले कदम की प्रतीक्षा करने लगी। जैसे ही वह झपटने की मुद्रा में आगे बढ़ा, धनिया ने लपककर वार कर दिया। पल भर में उसने बघनखा उसके पेट में गहरे तक धंसा दिया और झटके से बाहर खींच लिया। एक चीख के साथ ओझा धरती पर जा गिरा। उसके गिरते ही उसने पलटकर जगह-जगह से उसका माँस नोंचना शुरू कर दिया। रणचण्डिका बनी धनिया तब तक वार करती रही जब तक वह बेजान होकर एक ओर लुढक़ नहीं गया। धनिया जैसे-जैसे वार करती जाती, ओझा भयंकर गर्जना के साथ चीखता-चिल्लाता। जब धनिया ने देखा कि वह निष्प्राण हो गया है तो उसने उसे पूरी ताकत के साथ घसीटा और देनवा में फेंक दिया।
उसने नीचे झांककर देखा। चांद के प्रभाव में चांदी सा हो आया जल सुर्ख लाल हो उठा था।